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सोमवार, 14 सितंबर 2009

हिय कौ सूल !! : 'english has no place ..' : सन १९०४ का राजकीय आदेश


दिन-प्रतिदिन सरकारों और लोगों में यह मिथ [मिथ्या] सत्य की तरह स्वीकार्य होता जा रहा है कि देश का उद्धार केवल और केवल अंग्रेजी शिक्षा और अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा द्बारा ही सम्भव है.. इसी का परिणाम है कि भारतीय बालकों को जन्मघुट्टी में अंग्रेजी पिलाकर आजन्म विकलांगता की ओर धकेला जा रहा है. ऐसे में यह जानकर चौंक उठना स्वाभाविक है कि हमारे आज के भारत भाग्य विधाताओं से अच्छे तो अंग्रेज़ ही थे जो यह मानते थे कि भारत में प्राथमिक शिक्षा में अंग्रेजी के लिए कोई जगह हो ही नहीं सकती . इस सन्दर्भ में मैं डा. कैलाश चंद्र भाटिया जी के शोधपूर्ण निबंध ''हिन्दी में विज्ञान-लेखन : कुछ उपलब्धियां'' का एक अंश उद्धृत करना चाहूंगा जो इस प्रकार है :


''जहाँ तक माध्यम का प्रश्न है, सभी देशी-विदेशी विद्वान् मातृभाषा के महत्व को स्वीकार करते हैं. विश्वविख्यात भाषाविद नोअम चाम्स्की मानते हैं कि मातृभाषा मनुष्य के अचेतन मस्तिष्क में प्रवेश कर जाती है. जर्मनी, चीन, जापान, आदि देशों में शिक्षा का माध्यम मातृभाषा ही है. यह स्पष्ट है कि उच्च शिक्षा तथा विज्ञान के माध्यम के अभाव में कोई स्थायी हल नहीं है. विज्ञान की शक्ति से भाषा जीवंत बनती है और मातृभाषा के माध्यम से विज्ञान की सूक्ष्मताएँ स्पष्ट होती हैं. आज तो स्वतंत्र भारत में मातृभाषा का महत्व स्वयं सिद्ध है पर परतंत्र भारत में भी उत्तर-पश्चिमी प्रान्तों की ब्रिटिश इंडियन असोसिएशन के सदस्यों द्वारा तत्कालीन वायसराय तथा गवर्नर जनरल को दिनांक १ अगस्त १८६७ ई. में इस सम्बन्ध में महत्त्वपूर्ण पत्र लिखा गया. इस महत्त्वपूर्ण याचिका से जुड़े व्यक्तित्व थे श्री ईश्वर चन्द्र मुख़र्जी, सर सैयद अहमद, राजा जयकिशन प्रसाद आदि . इसके कुछ मुद्दे इस प्रकार थे :


१.ऐसी प्रणाली की स्थापना की जाए जिसमें कला ,विज्ञान तथा साहित्य की अन्य शाखा-प्रशाखाओं की शिक्षा भारतीय भाषाओं में दी जाए .
२.जिन विषयों की परीक्षाएं अंग्रेजी के माध्यम से कलकत्ता विश्वविद्यालय में होती हैं उनकी परीक्षाएं भारतीय भाषाओं के माध्यम से की जाएँ.
३.ज्ञान-विज्ञान की विभिन्न शाखाओं की शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी के स्थान पर भारतीय भाषाएँ हों.
४.उत्तर-पश्चिमी प्रान्तों के लिए पृथक विश्वविद्यालय स्थापित किया जाए.

इसमें स्पष्ट शब्दों में लिखा है ...

' can we not adopt a vernacular language as a medium better suited than a strange tongue for the general diffusion of knowledge and general reform of ideas, manners and merals of the people .xxx we can never teach all these millions a new and single tongue.'


यही नहीं , ब्रिटिश सरकार ने परतंत्र भारत में सन १९०४ में राजकीय आदेश से बिल्कुल स्पष्ट कर दिया था ....

'english has no place and shoud have no place in the scheme of primary education.'

आज स्वतंत्र भारत में इसकी अवहेलना की जा रही है . इससे तो ब्रिटिश इंडिया में परतंत्र रहते हुए अंग्रेजों के भक्तों में विरोध करने का साहस था . आज तो हम यह भूलते जा रहे हैं कि हम अब स्वतंत्र भारत में हैं !''


अतः आज ऐसे देशव्यापी आन्दोलन की आवश्यकता है जिसके माध्यम से लोगों को मातृभाषा के महत्व के सम्बन्ध में शिक्षित किया जा सके.

1 टिप्पणी:

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद ने कहा…

लेकिन लगता है कि सरकार ने वह आदेश सौ साल बाद बदल दिया है और २००४ में कह रहे हैं कि हिंदी हैज़ नो प्लेस.....!