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सोमवार, 21 जुलाई 2014

समकाल को समझने की सार्थक कोशिश

पुस्तक चर्चा: ऋषभ देव शर्मा
समकाल को समझने की सार्थक कोशिश
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पतझड़ का इतिहास/ ए. अरविंदाक्षन (कविता संग्रह)/ पृष्ठ – 104/ मूल्य – रु. 125/ 2013/ मानव प्रकाशन, 131, चित्तरंजन एवेन्यू, कोलकाता – 700 073.
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‘पतझड़ का इतिहास’ (2013) प्रो. ए. अरविंदाक्षन की आठवीं काव्य कृति है. हिंदी और मलयालम में समान गति रखने वाले ए. अरविंदाक्षन कवि, आलोचक और अनुवादक के रूप में अनेक राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय सम्मानों से विभूषित हैं. उनकी कविताएँ जटिलताओं भरे समकाल को समझने की सार्थक कोशिश की सटीक परिणतियाँ हैं. उन्होंने भूमिका में सही ही कहा है कि कविता के बनने की प्रक्रिया में केवल समकाल ही समाहित नहीं होता बल्कि इसमें एक बृहत्तर समय अथवा बृहत्तर संस्कृति का योगदान रहता है.
अस्सी कविताओं के इस संग्रह की शीर्षक कविता समय और संवेदना के संबंध को आँकने की कोशिश करती हुई कहती है - पतझड़ के इतिहास को जानना है/ तो चाहिए/ विभिन्न ऋतुओं से संवाद करें/ वे बता सकते हैं/ पतझड़ का इतिहास/ शायद वसंत ही बता पाएगा/ पतझड़ कितना दुखद है/ पतझड़ कितना दारुण है. (पतझड़ का इतिहास). पतझड़ और वसंत की इस विरोधी समानांतरता में द्वंद्व और तनाव तो है ही लेकिन इससे अभिव्यक्त होने वाला बृहत्तर समय का नैरंतर्य कवि के जीवन दर्शन का वाचक है.
इस संग्रह में शब्द और मौन का द्वंद्व बार बार उभरा है जो वस्तुतः आज के शब्दकर्मियों की त्रासदी को दर्शाता है क्योंकि वे एक ऐसे तानाशाह समय में रह रहे हैं जिसमें किसी का रोना धोना/ भावुक होना/ फुसफुसाना/ शब्दों का अपव्यय करना/ क़ानूनन अपराध है. (राजा रानी की कहानी). यह ऐसा समय है जिसमें ध्वनियों की गूढ़ वक्रताओं और/ अट्टहासों के बलात्कारों ने/ हमारी श्रवण शक्ति को खत्म कर दिया है. (प्रियतर शब्द). इस समय में एक अद्भुत मौन से घिरे हुए व्यक्ति को बस इतना मालूम है कि मुझे मालूम नहीं/ मैं भी क्यों मौन हो गया? (अद्भुत मौन). यह व्यक्ति इसलिए बेहद बेचैन है कि सआदत हसन मंटो के साथ/ मैं संवाद कर पाता हूँ./ बावजूद इसके/ वह अपरिचित था मेरे लिए./ अपने देश के नेताओं से मैं संवाद नहीं कर पा रहा हूँ/ उनकी जुबान एकदम अजनबी है मेरे लिए/ वह कौन सी जुबान है? (संवाद क्यों संभव नहीं है?). ऐसे में कवि जब अपनी जमीन से खदेड़ दिए गए लोगों की तस्वीर की आँखों में झाँककर देखता है तो उसे बेहद तकलीफ होती है क्योंकि दोनों इतने गहरे हैं/ जहाँ मौन का अंधेरा ही अंधेरा है/ कुछ और दिखाई नहीं देता है (मौन की गहराई).

और भी कई तरह का मौन डॉ. अरविंदाक्षन की इन कविताओं में मुखर हुआ है लेकिन भाषा, शब्द और संगीत भी अपनी समस्त व्यंजना के साथ यहाँ उपस्थित हैं. एक कविता देखते चलें - उसे बस/ शब्दों से ही जानना हुआ/ शब्द इतने सुडौल थे उसके/ और गंध युक्त भी/ एक बार उसके शब्दों का स्पर्श किया गया-/ पहली बार मुझे लगा/ शब्द को छुआ जा सकता है/ शब्दों के अंग-प्रत्यंगों को/ उनके खुरदरेपन को/ मुझे लगा/ शब्दों की मात्र बाहरी बुनावट नहीं/ शब्दों में जीवन-स्पंदन भी है. (शब्दों से जानना)

चलाचली की बेला में

पुस्तक चर्चा: ऋषभ देव शर्मा
चलाचली की बेला में
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त्रिकाल संध्या/ परमजीत स. जज्ज (उपन्यास)/ पृष्ठ – 136/ मूल्य – रु. 250/ 2014/ राजकमल प्रकाशन, दिल्ली
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पंजाबी भाषा के समर्थ उपन्यासकार परमजीत स. जज्ज (1955) ने अपने उपन्यास ‘त्रिकाल संध्या’ (2014) में हमारी शताब्दी की एक अत्यंत ज्वलंत समस्या को सहानुभूतिपूर्वक विश्लेषित किया है. इस समस्या का संबंध वृद्धों के पुनर्वास से है. वृद्धावस्था विमर्श को समर्पित इस कथाकृति में ठहराव और गति का वह तनाव बेहद तल्ख़ अंदाज में व्यंजित हुआ है जो जीवन की संध्या को उपलब्ध हो चुके वृद्धों के समय और उत्तरआधुनिकता को उपलब्ध कर रहे युवतर समय के परस्पर घात-प्रतिघात से उभरता है. ठहराव और गत्वरता का यह द्वंद्व नीम के पेड़ और नजदीक से गुजरती ट्रेन के प्रतीकों के माध्यम से गहराता है.
वृद्धावस्था केवल जीवन का ठहर जाना ही नहीं मृत्यु की प्रतीक्षा भी है – इस कुरूप यथार्थ को यह कृति भली प्रकार उभारती है. सुंदर सिंह की आत्महत्या इस प्रतीक्षा की क्रूर परिणति है क्योंकि जीवन और जगत के खुले पृष्ठ पर जब व्यक्ति को अपना अस्तित्व इतना निरर्थक लगने लगे कि उसके लिए हाशिए पर भी जगह न हो तो रंगमंच से हट जाने के अलावा उसके समक्ष अन्य विकल्प बचता भी क्या है?
इसके बावजूद उपन्यास में वृद्धों के पुनर्वास के अत्यंत संभावनापूर्ण क्षेत्र के रूप में अपने परिवेश की गतिविधियों से जुड़ाव को प्रस्तावित किया गया है. यह प्रस्ताव मुख्य पात्र इंदर के माध्यम से मूर्तिमान होता है.
चक दौलतराम एक गाँव का नाम है और ‘त्रिकाल संध्या’ इस गाँव के एक दिन की गाथा है जो 3 मई 1997 को प्रातःकाल 5 बजे शुरू होती है और रात घिरने पर सुंदर सिंह की आत्महत्या के साथ पूरी होती है. यह दिन गाँव के वृद्धों का दिन है. यह लग सकता है कि ये वृद्ध जो कभी गाँव की और अपने परिवारों की पूरी व्यवस्था की धुरी हुआ करते थे अब उस व्यवस्था के बाहर आ पड़े हैं और उनका दिन बेहद फालतू है लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि ये वृद्ध न रहें तो गाँव की जीवनधारा सूख जाएगी क्योंकि ये ही तो उन सामाजिक संबंधों को अपने भीतर सहेजे हुए हैं जहाँ से आत्मीयता के स्रोत फूटते हैं. कथाकार ने मास्टर रौनक सिंह, कॉमरेड खेमचंद और कवि प्रताप के माध्यम से यह संकेत दिया है कि सहजता, प्रेम और सम्मान के सहारे एक ऐसे समाज की रचना की जा सकती है जहाँ किसी इंदर को अफीम की शरण न लेनी पड़े और किसी सुंदर को आत्महत्या न करनी पड़े.  


सलीके से बखिया उधेड़ना

पुस्तक चर्चा: ऋषभ देव शर्मा   
सलीके से बखिया उधेड़ना
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आया राम गया राम का दुखड़ा (हास्य-व्यंग्य संकलन)/ एम. उपेंद्र/ पृष्ठ 124/ मूल्य रु.400/ 2014/ क्लासिक पब्लिशिंग कंपनी, नई दिल्ली 
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हैदराबाद के वरिष्ठ व्यंग्यकार एम. उपेंद्र के चौथे हास्य-व्यंग्य संकलन आया राम गया राम का दुखड़ा’ (2014) में उनके 24 हास्य-व्यंग्यात्मक निबंध संकलित हैं. सूचना, तर्क और हास्य-व्यंग्य से भरे हुए ये निबंध उन्होंने विगत 30 वर्षों में विभिन्न समसामयिक विडंबनाओं से उद्वेलित होकर लिखे हैं. जैसा कि स्वयं लेखक ने कहा है, ये निबंध मुख्य रूप से मनुष्य की रोजमर्रा की जिंदगी से संबंधित हैं और इनमें व्यक्ति, परिवार, समाज और राजनीति से जुड़ी ऐसी समस्याओं को उठाया गया है जिनका अनुभव प्रायः हर व्यक्ति को होता है.
एम. उपेंद्र यों तो अपनी रचनाओं में और व्यक्तिगत रूप से भी खूब बोलने बतियाने वाले आदमी हैं लेकिन इस संकलन के पहले निबंध की भांति वे बोलने से पहले सोचने में यकीन रखते हैं. एक मजेदार बात उन्होंने बताई हैं कि बिना सोचे बातें करने से ही हास्य और व्यंग्य का निर्माण होता है. (पृ. 11). अब इस पर हमें कुछ नहीं कहना सिवाय इसके कि हम तो उन्हें हास्य-व्यंग्यकार मानते हैं! इसी बात को उन्होंने एक और व्यंग्य में खींचा है प्रश्न करें सोच समझकर, जिसमें कई चुटकुले भी पिरो दिए हैं. बोलने या कुछ पूछने से पहले सोचना दरअसल संभल संभल कर चलना है. उपेंद्र जी बताते हैं कि हैदराबादी सड़कों पर संभलकर चलना और भी जरूरी है क्योंकि यदि नौ महीनों की गर्भवती महिला ऑटो में बैठकर हमारी सड़कों पर निकले तो सेफ डिलीवरी की पूरी गारंटी है. (पृ. 20). आशा है, आप समझ गए होने कि उपेंद्र जी अपनी रचनाओं में हास्य और व्यंग्य किस सहजता से उत्पन्न करते हैं. इस क्रम में ‘टालना एक अच्छी आदत है’ (पृ. 21), ‘उधार माँगना भी एक कला’ (पृ. 27), वाह रे मेरी दाढ़ी’ (पृ. 56) और ‘यार हम भी भाषण दे सकते हैं’ (पृ. 70) शीर्षक निबंध भी कम चुटीले नहीं हैं.
हास्य-व्यंग्य के लिए स्त्री विशेषकर पत्नी एक शाश्वत आलंबन है. ‘पछताना कंवारे रहकर’ (पृ. 33)‘बाजार गए पत्नी के साथ’ (पृ. 66) और ‘कौन औरत किसके पीछे’ (पृ. 116) इस दृष्टि से अवलोकनीय हैं. ‘स्कैनिंग काव्य गोष्ठियों की’ (पृ. 93) और ‘लोकार्पण समारोह का मतलब’ (पृ. 100) साहित्यिक समारोहों पर बढ़िया व्यंग्य है.
राजनैतिक व्यंग्य के क्षेत्र में मूलतः अर्थशास्त्री मटमरी उपेंद्र जी अच्छी खासी पहचान रखते हैं. इस संकलन में ‘यार हम भी भाषण दे सकते हैं’ (पृ. 71), ‘गिरगिट राम की अपील’ (पृ. 79), ‘आया राम गया राम का दुखड़ा’ (पृ. 82), ‘भारत भाग्य विधाता’ (पृ. 91), ‘न्याय’ (पृ. 106) और ‘समाजवाद’ (पृ. 111) में राजनैतिक परिवेश की बखिया बड़े सलीके से उधेड़ी गई है.

अंत में, कुलमिलाकर हँसने और सोचने के लिए एक साथ मजबूर करने वाली किताब!

शुक्रवार, 18 जुलाई 2014

कथाभाषा और काव्यभाषा का समाजशैलीवैज्ञानिक अध्ययन

भूमिका
साहित्य भाषा के सर्जनात्मक व्यवहार से जन्म लेता है. यही कारण है कि उसे भाषिक कला और शब्दों पर झेले गए सौंदर्य के प्रतिफलन के रूप में व्याख्यायित किया जाता है. भाषा के सर्जनात्मक व्यवहार से साहित्य में प्रयुक्त शब्द रमणीय अर्थ का प्रतिपादक बन पाता है. यह रमणीय अर्थवत्ता प्राप्त करने से पहले शब्द को सामाजिक व्यवहार में संसिद्धि प्राप्त करनी होती है. शैलीविज्ञान जहाँ शब्द की रमणीय अर्थप्रतिपदाकता को पाठ के स्तर पर परखता है वहीं साहित्यिक शब्द प्रयोग के औचित्य की पड़ताल की जिम्मेदारी समाजभाषाविज्ञान बखूबी वहन करता है. परंतु विस्मय की बात है कि साहित्य भाषा को समाजभाषिक और समाज शैलीवैज्ञानिक दृष्टि से विवेचित करने वाले समीक्षा ग्रंथ हिंदी में बहुत कम हैं. डॉ. एन. लक्ष्मी का यह ग्रंथ इस दृष्टि से एक नई जमीन तोड़ने का प्रयास कहा जा सकता है. इसमें कविता और कथा के पाठ विश्लेषण के लिए समाज शैलीवैज्ञानिक व्याख्या के रूप में आलोचना की जो प्रणाली प्रतिपादित की गई है वह सामाजिक दृष्टि से साहित्य भाषा के व्यवहारौचित्य पर केंद्रित होने के कारण अत्यंत विश्वसनीय है.
लेखिका ने विस्तारपूर्वक समाज शैलीविज्ञान की सैद्धांतिक पीठिका का विवेचन किया है. इसके लिए उन्होंने भाषा और समाज के संबंध की विवेचना करते हुए भाषा की सामाजिक अवधारणा को स्पष्ट करने के बाद समाजभाषाविज्ञान की संकल्पना और उसके लक्षणों पर प्रकाश डाला है. समाजभाषाविज्ञान की संकल्पनाओं के अंतर्गत भाषा व्यवहार, भाषा व्यवस्था, भाषा समुदाय, द्विभाषिकता, बहुभाषिकता, कोड मिश्रण, कोड परिवर्तन, पिजिन और क्रियोल पर सैद्धांतिक चर्चा के उपरांत इस ग्रंथ में समाज शैलीविज्ञान के नियामक बिंदुओं पर भी सरल, सहज ढंग से प्रकाश डाला गया है. लेखिका ने औपचारिक, अनौपचारिक और बाजारू शैली के अंतर को स्पष्ट करने के बाद समाज शैलीविज्ञान की अत्यंत महत्वपूर्ण संकल्पनाओं के रूप में शब्द चयन, संवाद, एकालाप, सर्वनाम और संबोधन प्रयोग तथा प्रोक्ति गठन को समझाने का प्रयास किया है. कहना न होगा कि समाज शैलीविज्ञान की दृष्टि से साहित्य भाषा के विवेचन के लिए ये ही सब उपकरण अपनाए जा सकते हैं. व्यावहारिक खंड में लेखिका ने ऐसा ही किया भी है.
इस ग्रंथ के व्यावहारिक आलोचना पक्ष में कथाभाषा और काव्यभाषा का विश्लेषण शामिल है. साहित्य भाषा के इन दोनों रूपों की सैद्धांतिकी को विविध विद्वानों के विचारों का मंथन करते हुए सुस्थिर किया गया है. कथाभाषा और काव्यभाषा दोनों में ही भाषा की लोच का उपयोग किया जाता है. पर दोनों की यह लोच अलग अलग होती है जो मिट्टी और पानी के प्रकार और अनुपात से कुम्हार की बर्तन बनाने वाली सामग्री की तरह नियंत्रित होती है. मिट्टी का अनुपात अधिक होने से कथाभाषा और पानी का अनुपात अधिक होने से काव्यभाषा!
कथाभाषा की सैद्धांतिकी को स्पष्ट करते हुए लिखिका ने हिंदी कथाभाषा के विकास के विविध चरणों का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य तो उभारा ही है, उसके सामाजिक परिप्रेक्ष्य को भी रेखांकित किया है. इसी प्रकार काव्यभाषा की सैद्धांतिक चर्चा को आधुनिक युग की विभिन्न काव्यधाराओं के संदर्भ में विवेचित किया गया है. हिंदी काव्यभाषा के बारे में मुझे आदिकाल से आज तक यह तथ्य बहुत रोचक लगता है कि जब जब किसी विशिष्ट धारा या कवि के द्वारा काव्यभाषा अथवा काव्यशैली को अनुल्लंघ्य उत्कृष्ट ऊँचाई पर पहुँचा दिया जाता है अथवा विशिष्ट और असाधारण बना दिया जाता है तब तब हिंदी काव्यभाषा साधारणता की ओर नया प्रस्थान चुनती है. हिंदी काव्यभाषा के विभिन्न वर्तन बिंदु साधारणता की खोज के बिंदु है.
डॉ. एन. लक्ष्मी के इस ग्रंथ का व्यावहारिक पक्ष अत्यंत प्रबल है. जहाँ उन्होंने प्रेमचंद, रेणु, भगवती चरण वर्मा, कमलेश्वर और अमरकांत की कथाभाषा की शैलीय विशेषताओं को विश्लेषित किया है वहीं मैथिलीशरण गुप्त, प्रसाद, महादेवी, पंत, निराला, अज्ञेय, रघुवीर सहाय और बच्चन की काव्यभाषा की भी शैलीय विशेषताओं को भली प्रकार उकेरा है .
यह ग्रंथ काव्यभाषा और कथाभाषा के समाजशैलीय दृष्टि से पाठ विश्लेषण के कारण भी विशिष्ट, महत्वपूर्ण और संग्रहणीय बन गया है. हिंदी में साहित्यिक ‘पाठ विश्लेषण’ के पुरोधा भाषावैज्ञानिक प्रो. दिलीप सिंह द्वारा निर्धारित मानकों का यथाशक्ति उपयोग करते हुए इस ग्रंथ की लेखिका ने गुल्लीडंडा (प्रेमचंद), अजविलाप (संजीव), गउन (कृष्णा अग्निहोत्री) और सुहागिनें (मोहन राकेश) जैसी कहानियों का समाजभाषिक पाठ विश्लेषण किया है तो दूसरी ओर अरुण कमल (फिर वही आवाज/ ओह बेचारी बूढ़ी बुढ़िया/ करमा का गीत/ छोटी दुनिया), केदारनाथ सिंह (कुछ सूत्र जो किसान बाप ने बेटे को दिए), हेमंत पुकरेती (शोक प्रकट करने के लिए जाती औरतें), जितेंद्र श्रीवास्तव (एक सोते हुए आदमी को देखकर) और विनोद कुमार शुक्ल (एक विशाल चट्टान के ऊपर/ तथा) जैसे विशिष्ट शैलीकार कवियों की चयनित कविताओं के पाठ का समाजभाषिक दृष्टि से सूक्ष्म विश्लेषण किया है.
साहित्यिक पाठ विमर्श के लिए समाज शैलीविज्ञान के उपकरणों को आधार बनाकर किए गए कथाभाषा और काव्यभाषा के इस विश्लेषण से गुजरने पर किसी को भी यह सुखद विस्मय होना स्वाभाविक है कि इस पद्धति द्वारा किसी साहित्यिक कृति में निहित सर्जनात्मकता और सूक्ष्म अर्थों की पहचान अत्यंत सटीकता और विश्वसनीयता के साथ की जा सकती है. विश्वास किया जाना चाहिए कि यह ग्रंथ साहित्य और भाषा के अध्येताओं के लिए उपयोगी और रोचक सिद्ध होगा.
शुभकामनाओं सहित
18 जुलाई 2014                                                   - ऋषभ देव शर्मा
                                                            

सोमवार, 7 जुलाई 2014

बरषा काल मेघ नभ छाए





जुलाई का महीना काफी चढ़ गया है. सब ओर से मानसून की खबरें मिल रही हैं. कहीं बौछारें हैं तो कहीं मूसलाधार पानी गिर रहा है. पर हैदराबाद सूखा है. मानो बादल तेलंगाना से कन्नी काट गए हैं. दूर दूर तक फैले पत्थर के जंगल में दिन दिन भर आग बरसती है. पानी की कमी है, यों बिजली नहीं आती. आकाश वाली बिजली भी गायब है. बादल नहीं तो बिजली कहाँ से आए.

बादल और बिजली की जब भी बात चलती है ‘रामचरित मानस’ के किष्किंधा कांड का वह प्रसंग बरबस याद हो आता है जब प्रवर्षण पर्वत पर चौमासा बिताते राम आकाश में बादलों की घमंड भरी गर्जना सुनकर इसलिए डर से सिहर सिहर जाते थे कि जाने सीता कहाँ होंगी, कैसी होंगी, इस भीषण वर्षा में उन्हें कहीं कोई छप्पर  भी नसीब होगा कि नहीं, कहीं ऐसा न हो कि इस बार की यह निष्ठुर बरसात हमें सदा के लिए अलग कर दे. इस प्रसंग से पहली बार लगा कि राम भी डर सकते हैं. राम अपनी खातिर नहीं डरते. डरते हैं सीता की खातिर जिनकी रक्षा का दायित्व लिया था. 

तुलसी बाबा बड़े चतुर संप्रेषक हैं – बड़े गुनी गुरु. मौका निकालकर धीरे से उपदेश की घुट्टी पिला देते हैं और कवित्व की क्षति भी नहीं होने देते. वर्षा वर्णन के बहाने भी उन्होंने जीवन और जगत की अनेक मार्मिक सीखें हमें दी हैं. तुलसी सीधे सीधे शिक्षा पर उतर आते तो शायद हम अचकचाने लगते. पर उन्होंने राम का सहारा ले लिया. वर्षा काल के मेघ नभ में छा गए हैं. धारासार जल बरस रहा है. रास्ते जलमग्न हो गए हैं. जो जहाँ हैं मानो वहीं कैद हैं. राम और लक्ष्मण भी इसी कारण ठहर गए हैं. राम लक्ष्मण को अनेक कथाएँ सुनाते हैं – भक्ति, वैराग्य, राजनीति और विवेक की कथाएँ. चौमासे का हमारी परंपरा में ऐसा ही विधान रहा है. 

राम वार्तालाप शुरू तो अपने मनोभाव के उद्घाटन के साथ करते हैं – प्रियाहीन डरपत मन मोरा. लेकिन क्रमशः एक एक सोपान वे एक एक सूक्ति वर्षा के बहाने गढ़ने लगते हैं. इन सूक्तियों में जीवन के खट्टे मीठे जाने कितने अनुभव तुलसी ने गूँथ दिए हैं. लक्ष्मण ने कहा होगा राम के मन को अन्यत्र ले जाने के लिए – भैया! वह देखो बिजली चमकी, और गुम भी हो गई. राम अपने में डूबे कहीं भीतर से बोले होंगे - हाँ लक्ष्मण, दुष्टों का प्रेम स्थायी नहीं होता – खल कै प्रीति जथा थिर नाहीं. कुछ देर बाद लक्ष्मण ने फिर प्रयास किया होगा – देखिए न! उस ओर बादल धरती के कितने नजदीक आकर बरस रहे हैं. भले लोग विद्या पाकर और भी झुक जाते हैं – राम ने कहा होगा. तभी मोटी मोटी बूँदों की बौछार हुई होगी – टपाटप टपाटप. लक्ष्मण फिर मचले होंगे - कहाँ खोए हो भैया? उधर पर्वतों पर जैसे वर्षा ने आक्रमण ही कर दिया; झमाझम तीर से बरस रहे हैं पर्वतों पर आसमान से. राम ने गहरी सांस ली होगी - दुष्टों के वचन सज्जन इसी तरह सह जाते हैं जैसे ये पर्वत बूँदों के प्रहार झेल रहे हैं. गुफा से बाहर आ गए होंगे दोनों भाई. अनुज ने अग्रज को वह पहाड़ी नदी दिखाई होगी जो कल तक बिलकुल सूखी थी और अब किनारों को तोड़कर उमड़ी पड़ रही है – अब इस क्षुद्र नदी के उफान को देखकर आप यही कहेंगे न कि दुष्टों को थोड़ा सा भी कुछ मिल जाता है तो इतराकर चलने लगते हैं. राम अनुज की इस चतुराई पर ईषत् मुस्काए होंगे. तभी लक्ष्मण ने ध्यान दिलाया होगा कि इधर मिट्टी से मिलकर पानी कितना गँदला हो गया है. और राम को कहते देर न लगी होगी – माया से लिपटकर जीव का यही हाल होता है. साथ ही यह भी बता दिया होगा कि सारा जल सिमट सिमटकर तालाबों को भर रहा है. जैसे सद्गुण सिमट सिमटकर सज्जन व्यक्ति के पास आ जाते हैं; और उफनाती हुई ये नदियाँ समुद्र की ओर दौड़ रही हैं जैसे जागृत जीव अपने इष्ट की ओर दौड़ता है, वहीं उसे चिर शांति मिलती है. लक्ष्मण ने सोचा होगा कि राम अधिक गंभीर होते जा रहे हैं, तो फिर से उनका ध्यान पलटाने के लिए कह बैठे होंगे – बरसात में घास भी तो इतनी बड़ी हो गई है कि रास्ता ही नहीं सूझता. और तुलसी के राम ने झट से जड दिया होगा – पाखंड बढ़ने से सद्ग्रंथ छिप ही जाते हैं – जिमि पाखंड बाद तें गुप्त होहिं सद्ग्रंथ. हम यहाँ कहना चाहते हैं कि पाखंड और भ्रष्टाचार की घास जब बहुत ऊँची हो जाती है तो न्याय और संविधान लुप्त हो ही जाते हैं. 

वर्षा के इस वर्णन को आगे बढ़ाते हुए तुलसी ने मेंढ़कों की टर्र टर्र की तुलना वेद पढ़ते बटु समुदाय से की है. हमें लगता है, इसमें व्यंग्य है. परंपरा की रटंत शिक्षा मेंढ़कों की टर्राहट भर है – भले ही वह वेद क्यों न हो! इस ओर भी ध्यान दिलाया है उन्होंने कि वर्षा में वृक्ष नए पल्लवों से लद गए हैं, जैसे सच्चे साधकों को विवेक मिल गया हो. लेकिन वे यह भी बताते हैं कि अर्क और जवास भरी बरसात में पत्रहीन नग्न गाछ हैं. इसके लिए बहुत सुंदर उत्प्रेक्षा लाए हैं तुलसी. आक और जवास बिना पत्ते के हो गए हैं जैसे सुराज में दुष्ट जन बेरोजगार हो जाते हैं – जस सुराज खल उद्यम गयेऊ. धूल तो इस तरह गायब हो गई है जैसे क्रोध आने पर धर्म गायब हो जाता है. उपकारी की संपत्ति के समान शस्य श्यामला भूमि सुशोभित हो रही है. और हाँ, घने अंधेरे में रात भर जुगनू चमकते हुए भला कैसे लगते हैं? जैसे दंभियों का समाज आ जुड़ा हो और अपनी अपनी झूठी प्रशंसा कर रहा हो. 

आगे एक बड़ी पते की बात तुलसी बाबा कह गए हैं जो कम से कम हमारे तो दिल में चुभती है. भारी वर्षा के कारण खेतों की मेडें अर्थहीन हो गई हैं, निस्सीम पानी क्यारियों की सीमाएँ तोड़कर भरता चला जा रहा है – सब ओर पानी ही पानी है. और इसे देखकर तुलसी के राम को स्वतंत्र होने पर स्त्रियों का बिगड़ जाना याद आता है. 

बाबा तुलसी! आप तो ऐसे न थे! आप तो राम से पहले सीता को पूजते आए हैं. आपने तो अग्निपरीक्षा को भी पूर्व नियोजित नाटक की तरह प्रस्तुत किया है. और तो और, सीता परित्याग का जिक्र तक नहीं किया ‘मानस’ में. उधर बालकांड में ही उमा की विदाई के समय व्यथित माँ के मुँह से नारी जीवन के इस यथार्थ को कहलवा आए – ब्रह्मा ने सृष्टि में स्त्रियों को बनाया ही क्यों जबकि वे सर्वत्र पराधीन हैं और सपने में भी सुख नहीं पातीं? तब हे बाबा! आज इतने निष्ठुर कैसे हो गए स्त्री के प्रति कि उसकी स्वतंत्रता आपको भ्रष्टता दिखने लगी! ‘ताडन के अधिकारी’ वाली बात आपने खल रावण के पड़ोसी समुद्र के मुँह से कहलवाई थी इसलिए हम उसका बचाव करते रहे. पर यहाँ आपने राम के मुँह से कहलवा दिया. लगता है, रत्नावली के कॉप्लेक्स से आप कभी मुक्त नहीं हो पाए. वैसे अगर यहाँ स्वतंत्र होने का अर्थ स्वच्छंद होना है, मर्यादाहीन होना है, अनुशासन का अतिक्रमण करना है तो ऐसा करने से तो कोई भी बिगड़ता है – नर हो या नारी. इसलिए यह लैंगिक भेदभाव आपको शोभा नहीं देता. वैसे हमारा कवि मन तो यही कह रहा है कि रचना की तरंग में ‘कियारी’ का तुक ‘नारी’ से मिला दिया होगा. पर ऐसे बेतुके तुक अनर्थ भी कर सकते हैं – और वह भी तब जब वे तुलसी जैसे कविर्मनीषीपरिभूःस्वयंभू के मुँह से निकले हों. क्षमा करना बाबा! आपके राम ऐसा वाक्य नहीं कह सकते! 

तुलसी के राम न्याय का सदा ध्यान रखते हैं. इसीलिए जब वे देखते हैं कि दूर दूर तक चक्रवाक का नामोनिशान नहीं है तो लक्ष्मण से कहते हैं – अन्याय का युग आने पर न्याय इसी तरह भाग जाता है. लेकिन फिर जब वे देखते हैं कि नाना प्रकार के जंतु समूह से पृथ्वी सुशोभित हो उठी है तो उन्हें याद आता है कि सुराज्य मिलने पर जनता इसी प्रकार समृद्ध होती है – प्रजा बाढ़ जिमि पाइ सुराजा. 

तो हे आदरणीय पाठकगण! हम इस बरसात में यही कामना करते हैं कि देश में सुराज्य स्थापित हो और जनता की समृद्धि और संपन्नता में निरंतर इज़ाफ़ा हो. 

- ऋषभ देव शर्मा