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सोमवार, 28 नवंबर 2011

’हमारी कुटुंब संस्कति' पर ऋषभदेव शर्मा का व्याख्यान संपन्न

 'हमारी कुटुंब संस्कृति' पर प्रो.ऋषभदेव शर्मा का व्याख्यान संपन्न 

हैदराबाद, २८ नवंबर २०११. 

आज यहाँ भावसार विज़न इंडिया के तत्वावधान में रानीगंज स्थित होटल प्रिया रेसीडेंसी में 'हमारी कुटुंब संस्कृति' विषय पर प्रो.ऋषभ देव शर्मा के विशेष व्याख्यान का आयोजन किया गया. इस अवसर पर बोलते हुए प्रो.शर्मा ने विस्तार से आज के सांस्कृतिक संकट की व्याख्या की और यह कहा कि आत्महीनता, प्रदर्शन प्रियता, नक्काल वृत्ति, नग्नता के प्रसार तथा आपसी संबंधों के छीजने का कारण भूमंडलीकृत बाजारवाद में निहित है और इसका सामना करने के लिए हमे अपनी कुटुंब संस्कृति के मूल्यों को पुनः पारिभाषित और चरितार्थ करना होगा. डॉ.ऋषभ देव शर्मा ने आज की दुनिया में चल रहे सभ्यता-संघर्ष को सर्वस्वीकार्य सामान्य मानव संस्कृति की खोज की प्रक्रिया का हिस्सा मानते हुए यह कहा कि युद्ध और आतंक का अंधेरा शाश्वत नहीं हो सकता  बल्कि मनुष्यता की वह ज्योति ही शाश्वत है जिसकी अंतिम जय में भारतीय मनीषा ने सदा विश्वास प्रकट किया है. उपभोक्‍तावादी समाज की अफरा-तफरी को संयमित करने के लिए उन्होंने भारतीय परंपरा में स्वीकृत पितृ ऋण, ऋषि ऋण और देव ऋण की संकलपना को बहुप्रचारित करने पर जोर दिया.

परिचर्चा के दौरान भारतीय परिवार और विवाह संस्था की प्रासंगिकता से संबंधित एक प्रश्‍न का उत्तर देते हुए प्रो.शर्मा ने सूर्यासावित्री के आख्यान के सहारे यह प्रतिपादित किया कि भारतीय विवाह संस्था लोकतांत्रिक पद्धति पर आधारित है और इसमें पति-पत्‍नी का संबंध मालिकाना न होकर मित्रवत्‌ समर्पणयुक्‍त संबंध माना गया है. उन्होंने सप्‍तपदी तथा स्त्री और पुरुष के वचनों में निहित दायित्व भावना की ओर भी इशारा किया. 

आरंभ में भावसार विज़न इंडिया के अध्यक्ष किशन राव गडाले ने अतिथि वक्‍ता का स्वागत किया. डॉ.शर्मा ने संस्था के सदस्यों को उनकी विविध उपलब्धियों के लिए पुरस्कार भी वितरित किए. इस अवसर पर डॉ.पूर्णिमा शर्मा, डॉ.अरुणा बांगरे, श्रीनिवास मलतकार, श्रीधर लेंडले, अरुण कुमार जवलकर, सुरेश कुमार गडाले, विनोद फुटाने आदि सहित आयोजक संस्था के लगभग पचास सदस्य उपस्थित रहे.  

शनिवार, 19 नवंबर 2011

केंद्रीय विद्यालय संगठन, हैदराबाद में दो दिवसीय हिंदी कार्यशाला संपन्न

हैदराबाद, 19  नवंबर, 2011 .

केंद्रीय विद्यालय संगठन, क्षेत्रीय कार्यालय, हैदराबाद  के तत्त्वावधान में इस कार्यालय  तथा इसके अधीनस्थ केंद्रीय  विद्यालयों में कार्यरत प्रवर श्रेणी लिपिकों के लिए दिनांक 18-19 नवंबर  2011 तक दो दिवसीय हिंदी कार्यशाला का आयोजन किया गया जिसका उद्घाटन डॉ0 ऋषभ देव शर्मा, अध्यक्ष , उच्च शिक्षा और शोध संस्थान, दक्षिण भारत हिंदी  प्रचार सभा, हैदराबाद द्वारा किया गया. उन्होंने अपने उद्बोधन में भौगोलिक एवं ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के माध्यम से हिंदी  भाषा के उद्भव एवं विकास पर विस्तार से प्रकाश डाला. उन्होंने कार्यालयीन हिंदी  पर अपना व्याख्यान दिया जिसके अन्तर्गत कार्यालयीन हिंदी में व्याकरणिक प्रयोग के विभिन्न चरणों के माध्यम से वाक्य को निर्मित करने के अनगिनत उदाहरण प्रस्तुत किए और प्रतिभागियों का उत्साह वर्धन किया एवं हिंदी  कार्य करने के लिए प्रोत्साहित किया. 

संगठन के सहायक आयुक्त श्री एस0 सांबन्ना ने हिंदी कार्यशाला के उद्देश्य एवं राजभाषा नीति पर प्रकाश डालते हुए कार्यशाला का पूर्वावलोकन प्रस्तुत किया और प्रतिभागियों को कार्यशाला में पूरी रुचि दिखाने का आग्रह किया. कार्यशाला में अन्य विषयों- प्रशिक्षण,पुरस्कार योजनाएं , सेवा-पुस्तिकाओं में प्रविष्टियॉ, विभिन्न प्रकार की छुट्टियॉ, अग्रिम, भत्ते, पदनाम आदि की जानकारी देने के साथ  कार्यक्रम का संचालन संगठन की हिंदी अनुवादक श्रीमती रेणुका सोनकर द्वारा किया गया. 

डॉ0 राजनारायण अवस्थी प्रभारी राजभाषा, रक्षा लेखा नियंत्रण, कंचनबाग ने हिंदी व्याकरण पर व्याख्यान दिया. श्री अरुण कुमार मंडल, वरिष्ठ राजभाषा अधिकारी, दक्षिण मध्य रेलवे, सिकंदराबाद  ने राजभाषा कार्यान्वयन में प्रभावी यूनिकोड के बारे में अपना व्याख्यान प्रस्तुत करते हुए यूनिकोड का रूचिकर प्रयोगात्मक स्वरूप प्रस्तुत किया. 

कार्यशाला का समापन संगठन के उपायुक्त श्री एस0 एम0 सलीम की अध्यक्षता  में किया गया. उन्होंने सभी प्रतिभागियों को बधाई देते हुए प्रमाण-पत्र वितरित किए और सभी से कार्यशाला के दौरान बताये गये तथ्यों को ध्यान में रखते हुए केंद्रीय विद्यालयों में सभी मायनों में राजभाषा हिंदी  को शतप्रतिशत लागू करने की अपील की .


चित्र-परिचय : 
केंद्रीय विद्यालय संगठन, हैदराबाद में संपन्न द्विदिवसीय हिंदी कार्यशाला के उद्घाटन के अवसर पर मुख्य अतिथि प्रो. ऋषभ देव शर्मा का अभिनंदन करते हुए संगठन के सहायक आयुक्त श्री एस0 सांबन्ना. 
[प्रस्तुति - रेणुका सोनकर)

शुक्रवार, 18 नवंबर 2011

हिंदी समाचारों की भाषा का प्रयोजनपरक वैशिष्ट्य


भाषा रूपों का अध्ययन करने की आधुनिक प्रणालियों में एक यह मान कर चलती है कि प्रयोजनवती होकर ही कोई भाषा व्यापक प्रचार-प्रसार को प्राप्त होती है. ये प्रयोजन मोटे तौर पर दो प्रकार के हो सकते हैं.एक हैं सामान्य प्रयोजन ,जैसे दैनंदिन व्यवहार में वार्तालाप द्वारा विचारों का आदान -प्रदान . इन प्रयोजनों की सिद्धि के लिए प्रयुक्त भाषा को 'सामान्य प्रयोजनों की भाषा' कहा गया है. दूसरे प्रकार का सम्बन्ध विशिष्ट व्यवहार क्षेत्र में प्रयुक्त भाषा रूपों से है, जैसे अलग अलग विज्ञान शाखाओं में अलग अलग भाषा रूप का प्रयोग होता है अथवा कार्यालय या प्रशासन के कामकाज को अंजाम देने के लिए खास तरह के भाषाप्रयोग में दक्ष होना ज़रूरी होता है. अलग अलग प्रयोजनों को सिद्ध करने वाले इन विशिष्ट भाषा रूपों को 'विशिष्ट प्रयोजनों की भाषा ' या प्रयोजनमूलक भाषा कहा जा सकता है.किसी प्रयोजनक्षेत्र की भाषा के वैशिष्ट्य के आधार पर उसकी प्रयुक्ति [रजिस्टर] का निर्धारण होता है. प्रयुक्ति विशेष के अभ्यास द्वारा उस क्षेत्रविशेष या ज्ञानशाखाविशेष के भाषिक व्यवहार में दक्ष हुआ जा सकता है. यहाँ यह भी साफ़ करना उचित होगा कि सामान्य प्रयोजन की भाषा को निष्प्रयोजन या प्रयोजनातीत नहीं कहा जा सकता ,बल्कि वह भी प्रयोजनाधारित एक प्रकार ही है. इसी तरह ललित या साहित्यिक भाषा को भी अलगाने की आवश्यकता नहीं है, बल्कि यह कहना अधिक सटीक होगा कि साहित्य भी एक विशिष्ट प्रयोजन है तथा उसकी अपनी अनेक प्रयुक्तियाँ और उपप्रयुक्तियाँ हैं.

यहाँ तनिक रुक कर भारत के स्वातंत्र्योत्तर भाषिक परिवेश पर विचार करें तो पाते हैं कि यद्यपि भारत में राजभाषा के रूप में जनभाषाओं के प्रयोग का लम्बा इतिहास रहा है, तथापि ब्रिटिश काल में उन्हें अपदस्थ करके अंग्रेजी को कार्यालय, प्रशासन और शिक्षा की भाषा बना दिया गया . ऐसा करना सर्वथा अवैज्ञानिक था परन्तु भारतीयों को गुलाम बनाए रखने के लिए ऐसा किया गया था. अतः स्वतंत्रताप्राप्ति के साथ ही यह आशा जगी कि अब भारत की राजभाषा हिंदी होगी.संविधान ने हिंदी को भारत संघ की राजभाषा घोषित कर भी दिया. लेकिन जहाँ जहाँ जिन जिन प्रयोजनों के लिए अंग्रेजी का प्रयोग होता था वहां वहां उन उन प्रयोजनों के लिए देश भर में हिंदी के प्रयोग को संभव बनाने की चुनौती आज भी हमारे सामने विद्यमान है. कार्यालयों में, व्यवसायों में, शिक्षालयों में और न्यायालयों में जब तक हिंदी प्रतिष्ठित नहीं हो जाती तब तक यही समझना चाहिए कि यह देश भाषिक तौर पर आजाद नहीं हुआ है. इस भाषिक आजादी को हासिल करने के लिए विविध प्रयोजनों की हिंदी के व्यापक अध्ययन और प्रचार-प्रसार की आवश्यकता है.


संभावनाओं से परिपूर्ण व्यवहार क्षेत्र के रूप में राजभाषाक्षेत्र अर्थात कार्यालय और प्रशासन का अपना महत्व है, लेकिन लोकतंत्र के चतुर्थ स्तम्भ के रूप में पत्रकारिता ने हिंदी की विविध प्रयुक्तियों को लोकप्रिय बनाने में अग्रणी भूमिका निभाई है. आज यदि खेल के मैदान से लेकर राजनीति के मैदान तक और व्यापर-वाणिज्य से लेकर कम्प्युटर के भूमंडलीय स्वरूप तक को सहेजने में हिंदी के विविध प्रयोजनमूलक रूप सक्षम दिखाई दे रहे हैं तो इसका श्रेय बड़ी सीमा तक हिन्दी पत्रकारिता को जाता है क्योंकि उसने राजकाज, शिक्षा,न्यायव्यवस्था और अन्य अनेक क्षेत्रों में राजभाषा हिंदी की घोर उपेक्षा के बावजूद जनभाषा के रूप में उसकी व्यापक जनसंचार की शक्ति को पहचाना तथा नित-नूतन प्रसार पाते ज्ञानाधारित समाज की स्थापना में हिंदी को समृद्ध करते हुए स्वयं समृद्धि प्राप्त की.


वस्तुतः हिंदी के प्रयोजनमूलक रूपों के सन्दर्भ में पत्रकारिता की हिंदी के वैशिष्ट्य को समझना समसामयिक संचारयुग मेंअत्यंत प्रासंगिक विषय है. यहाँ इसी दृष्टि से  हिंदी समाचारों की भाषा पर चर्चा की जा रही है.स्मरण रहे कि भाषा, समाचार-लेखन का अत्यंत महत्वपूर्ण अंग है। कहा जाता है कि समाचार लेखक को खास तौर पर निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना चाहिए -

(1) सरल-सुबोध भाषा-शैली; छोटे-छोटे वाक्य; प्रचलित शब्द-समूह।
(2) अनुवाद में  लक्ष्य भाषा की प्रकृति का ध्यान ;  दुरूहता से परहेज़।
(3)  सामासिकता अर्थात  कम-से-कम शब्दों में अधिक-से-अधिक की अभिव्यक्ति।
(4) एक जैसे शब्दों / वाक्य-खंडों के  बार-बार इस्तेमाल से परहेज। [जैसे किसी का कथन प्रस्तुत करते समय ‘कहा‘, ‘बताया‘, ‘मत व्यक्त किया‘, ‘उनका विचार था‘, ‘वे महसूस करते थे‘ आदि अलग-अलग शब्दों का प्रयोग करणीय।]
(5)  एकदम सपाट भाषा के स्थान पर  लय और संगति का प्रयोग।
(6) व्याकरण, वाक्य-संरचना, विराम चिह्नों तथा वर्तनी के मानक रूपों का प्रयोग।
(7) ज्ञान-विज्ञान की शब्दावली/पारिभाषिक शब्दों का अत्यंत सावधानी से व्यवहार।

जनसंचार में भाषा के मुद्रित और श्रव्य दोनों रूपों का प्रयोग किया जाता है। मुद्रित भाषा प्रयोग के लिए पढ़ा-लिखा होना आवश्यक है जबकि श्रव्य भाषा के लिए पढ़ा-लिखा होना जरूरी नहीं। मुद्रित भाषा का प्रयोग पुस्तकों, संदर्भ ग्रंथों, समाचार पत्रों, पत्रिकाओं आदि में होता है। इसमें अर्थ को बदल देने की काफी गंुजाइश होती है इसलिए विराम चिह्नों का व्यापक प्रयोग किया जाता है। मुद्रित रूप एक सीमा तक श्रव्य-मौखिक भाषा के प्रयोग में भी आ सकता है। 

नई संचार क्रांति के संदर्भ में यह उल्लेखनीय है कि हिंदी को जनसंचार की समर्थ भाषा के रूप में गठित किया गया है। टेक्नोलॉजी और विज्ञान ने एक नई संचार भाषा को जन्म दिया है। आज जनसंचार में प्रयुक्त हिंदी के बारे में हम यह कह सकते हैं कि पत्रकारिता की हिंदी केवल संस्कृतनिष्ठ हिंदी नहीं है बल्कि यह हिंदी कई भाषाओं के प्रचलित शब्दों को ग्रहण करके व्यापक सर्वग्राह्यता प्राप्त कर चुकी है। आज की हिंदी प्राचीन रूप वाली पश्चिमी हिंदी या डिंगल-पिंगल वाली हिंदी नहीं और न ही मैथिल कोकिल विद्यापति वाली हिंदी है। वह केवल ब्रज एवं अवधी पर भी आश्रित नहीं है। बल्कि पत्रकारिता की हिंदी आज भारतीय भाषाओं के मेल तथा विदेशी भाषाओं के शब्दों से भी शक्ति प्राप्त करती है। इस आधार पर ही हिंदी के चार रूपों की परिकल्पना तत्सम, तद्भव, देशज एवं विदेशी के रूप में की गई है। समाचारों में प्रयुक्त हिंदी समृद्ध हिंदी है तथा इसमें हिंदी के साथ अन्य भाषाओं के भी शब्दों का निःसंकोच प्रयोग किया जाता है जिससे इन भाषाओं के अंतःसंबंध का भी पता चलता है।

ध्यान देने की बात है कि पत्रकारिता का क्षेत्र अत्यंत विराट है अतः अलग-अलग विषयों के समाचारों के लिए अलग-अलग प्रकार की भाषा की जरूरत पड़ती है। इन भिन्न-भिन्न संदर्भों में संप्रेषण-प्रक्रिया के दौरान भाषा के प्रकार/भेद को ‘प्रयुक्ति‘ कहा गया है जिसमें वक्ता या संप्रेषक  की भूमिका प्रतिबिंबित होती है। ग्रेगरी एवं कैरोल ने प्रयुक्ति को ऐसा सेतु कहा है जो भिन्न-भिन्न सामाजिक संदर्भों से भाषिक परिवर्तनों को जोड़ने के लिए महत्वपूर्ण है। प्रयुक्ति को गतिशील सामाजिक पृष्ठभूमि पर भाषा-व्यवहार की अनुकूलित विशिष्टता कहा जा सकता है। विषयवस्तु, माध्यम तथा वक्ता-श्रोता संबंध के आधार पर प्रयुक्ति के स्वरूप का निर्धारण होता है। इन्हें वार्ता क्षेत्र, वार्ता-प्रकार एवं वार्ता-शैली के रूप में समझा जा सकता है।

हिंदी पत्रकारिता/समाचार की भाषा के विकास के संदर्भ में यह देखना रोचक होगा कि प्रारंभ में साहित्यिक एवं राजनीतिक पत्रकारिता एकाकार थी। गणेश शंकर विद्यार्थी, माखनलाल चतुर्वेदी, बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन‘, बाबूराव विष्णुराव पराडकर आदि के लिए पत्रकारिता एक मिशन थी। हिंदी पत्रकारिता और भाषा के विकास में आर्यसमाज ने बड़ा योगदान दिया। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में हिंदी-उर्दू की पत्रकारिता की भाषा निखरी। भारतेंदु, महावीर प्रसाद द्विवेदी, बालमुकुंद गुप्त, प्रेमचंद आदि ने पत्र-पत्रिकाओं का संपादन किया तथा हिंदी को गढ़ा।

स्वराज्य एवं स्वदेशी आंदोलन के क्रम में संचार माध्यमों में हिंदी-हिंदुस्तानी आयी। इसके लिए खड़ी बोली का आधार ग्रहण किया गया। स्वतंत्रतापूर्व राष्ट्रभाषा के क्षेत्र में हिंदी को ही सर्वाधिक महत्व प्राप्त था। दक्षिण और उत्तर-पूर्व भारत में अंग्रेज़ी के व्यापक वर्चस्व के बावजूद भारतीय भाषाएँ पत्रकारिता क्षेत्र में समर्थ होती गयीं। स्वातंत्र्योत्तर भारत में प्रत्येक राज्य अपनी राजभाषा चुनने को स्वतंत्र है तथा संघ की राजभाषा हिंदी है। हिंदी को पूर्ण राष्ट्रभाषा के रूप में प्रसारित करने के लिए मानक हिंदी के लिए तरह-तरह के कोश बनाए गए हैं। राष्ट्रभाषा के रूप को निखारने के लिए तकनीकी शब्दावली कोश अत्यंत महत्वपूर्ण है। हमारे विचार से भारत की बहुभाषिक वास्तविकता के संदर्भ में समाचार की हिंदी का आदर्श संविधान के अनुच्छेद-351 के अनुरूप रखा जा सकता है - ‘‘ताकि वह भारत की सामासिक संस्कृति के सभी तत्वों की अभिव्यक्ति का माध्यम बन सके और उसकी प्रकृति में हस्तक्षेप किए बिना हिंदुस्तानी के और आठवीं अनुसूची में विनिर्दिष्ट भारत की अन्य भाषाओं के प्रयुक्त रूप, शैली और पदों को आत्मसात करते हुए और जहाँ आवश्यक या वांछनीय हो वहाँ उसके शब्द भंडार के लिए मुख्यतः संस्कृत से और गौणतः अन्य भाषाओं से शब्द ग्रहण करते हुए उसकी समृद्धि सुनिश्चित करे।‘‘

समाचारों की हिंदी के ऐसे  स्वरूप के विकास में अनुवाद ने भी महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है। विभिन्न भाषाओं के हिंदी अनुवाद ने जनसंचार माध्यम को बहुत प्रभावित किया है, इसमें संदेह नहीं। तथापि  ध्यान रखने की बात है कि आधार रूप में जनसंचार में सामान्य भाषा का ही प्रयोग होता है। जनसंचार की भाषा शुद्ध अभिधा प्रधान, अलंकारादि से रहित, सीधी, सरल, स्पष्ट एवं एकार्थक होती है जबकि साहित्यिक, संवैधानिक, कार्यालयीन आदि क्षेत्रों की भाषा की विशेषताएँ इससे कुछ भिन्न होती हैं। 

जैसा कि आप जानते हैं, समाचार पत्रों में स्थानीय, प्रांतीय, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय समाचार होते हैं जिनके अंतर्गत अनेक प्रकार की सूचनाएँ होती हैं। भाषण, वक्तव्य, विज्ञप्ति, आततायियों के कुकर्म, छेड़छाड़, मारपीट, पॉकेटमारी, चोरी, ठगी, छुरेबाजी, जुआ, हत्या, अपहरण, बलात्कार, जमीन-जायदाद के लिए परिवार के सदस्यों या संबंधियों के बीच फौजदारी, मुकदमेंबाजी, जातिवादी कलह-विद्वेष, रंगभेद, वर्णभेदजन्य अशांति, क्षेत्रीय-प्रांतीय झगड़े, आत्महत्या, विभिन्न आंदोलन, व्यवसाय, राजनीति, अतिवर्षण, अपवर्षण, स्वागत-विदाई, स्थानीय निकायों के समाचार, कार्यालयों से संबद्ध अनेक समस्याएँ, विवाह, यात्रा, मेले, पर्व-त्योहार, खेलकूद, वाणिज्य आदि समाचार के विभिन्न रूपों से भी आप परिचित हैं | कहने का अर्थ है कि समाचार पत्रों का क्षेत्र अत्यंत व्यापक होता है। इसलिए समाचार के विविध शीर्षकों को ऐसी भाषा से सजाया जाता है कि पाठक का ध्यान सहसा उधर खिंच जाय। इस संदर्भ में विशेष बात यह है कि पत्रकारिता में हिंदी की सरलता ने सबको आकृष्ट किया है।

हिंदी के प्रयोजनमूलक रूपों का नयापन विविध प्रकार के समाचारों में देखने को मिलता है। इसके सार्वदेशिक प्रचार-प्रसार के लिए मानक हिंदी का प्रयोग आवश्यक है। मानक भाषा किसी देश अथवा राज्य की वह प्रतिनिधि अथवा आदर्श भाषा होती है जिसका प्रयोग वहाँ के शिक्षित वर्ग द्वारा अपने सामाजिक, सांस्कृतिक, साहित्यिक, व्यापारिक, वैज्ञानिक तथा प्रशासनिक कार्यों में किया जाता है। इसे विभिन्न तकनीकी क्षेत्रों की प्रयुक्ति के लिए सहज बनाने की खातिर ही पारिभाषिक शब्दावलियाँ हर एक विषय के लिए बनाई गई है जिनका उपयोग करके विभिन्न विषय क्षेत्रों से संबंधित रिपोर्टिंग की जा सकती है।

‘हिंदी पत्रकारिता की भाषा‘ पर विचार करते हुए प्रो. दिलीप सिंह ने कहा है कि पत्रकारिता के उन विविध स्वरूपों को भी शैलीगत भेद तथा वस्तुनिष्ठता की दृष्टि से विवेचित करने की आवश्यकता है जो आधुनिक हिंदी पत्रकारिता में उभर कर अपने अस्तित्व का बोध कराने लगे हैं जैसे, खेल पत्रकारिता, कृषि एवं ग्रामीण पत्रकारिता, विज्ञान पत्रकारिता, आर्थिक पत्रकारिता, राजनैतिक रिपोर्टिंग, संसदीय रिपोर्टिंग, सांस्कृतिक रिपोर्टिंग, अपराध रिपोर्टिंग, खोजी पत्रकारिता, पीत एवं सनसनी खेल पत्रकारिता आदि। इन सभी के भाषाई वैशिष्ट्य एवं भाषा भेद की पहचान ही हमें पत्रकारिता की हिंदी को संपूर्णता में आकलित, विवेचित एवं विश्लेषित करने की दृष्टि प्रदान कर सकती है। उन्होंने उदाहरणों सहित दिखाया है कि इन सभी प्रयोग-क्षेत्रों में पारिभाषिक शब्दावली की विविधता और प्रस्तुतीकरण का वैविध्य स्पष्ट झलकता है। इस प्रकार यदि पत्रकारिता की हिंदी को एक प्रयुक्ति (रजिस्टर) मानें तो उपर्युक्त विविध प्रकार की रिपोर्टिंग / समाचार लेखन में प्रयुक्त भाषा रूपों को उसकी उपप्रयुक्तियाँ (सब-रजिस्टर्स) माना जा सकता है। 

इस प्रयुक्ति अर्थात पत्रकारिता की हिंदी में अनेक पारिभाषिक शब्द अंग्रेज़ी से गृहीत हैं - गेम, टीम, सर्विस, रिटर्न, इनिंग, स्क्रीन टेस्ट, बैरंग, कोटा, कर्फ्यू आदि। अनेक शब्दों का हिंदीकरण भी किया गया है - एकल मुकाबला, स्वप्नदृश्य, स्पर्धा, खिताब आदि। हिंदी के अपने शब्द भी स्थान बना रहे हैं - कीर्तिमान, सलामी बल्लेबाज, खब्बू गेंदबाज, टिकट खिड़की आदि। हिंदी रूप-परिवर्तन के स्वीकृत नियम अपनाए जा रहे हैं - गेमों, अंपायरी, कप्तानी, हाईकमान, दंगाई आदि। संकर रचना को प्रोत्साहित किया जा रहा हैं - विश्व चैंपियन, त्रिआयामी श्रृंखला आदि। हिंदी के अपने मुहावरों का विकास हो रहा है - तूफानी मुकाबला, पकड़ मज़बूत होना। विशेष बात यह है कि अनेक देशज और उर्दू शब्द हिंदी पत्रकारिता की भाषा में अपना स्थान बना रहे हैं - बरामद,हथकंडे, वारदात, घपला, गिरोह, भिड़ंत , घोटाला, फरार, घुसपैठ आदि।स्मरणीय है कि  पत्रकारिता की भाषा मुख्यतः लिखित, सुविचारित और संपादित होती है। साथ ही, इसका तकनीकी या आधुनिक बनना भी विविध प्रयोजनमूलक वर्गों के लिए अपरिहार्य है। इतना ही नहीं, पत्रकारिता का सीधा संबंध ‘सर्जनात्मक साहित्य‘ के साथ भी है। इसलिए पत्रकारिता की भाषा एक साथ ‘पारिभाषिकता‘ और ‘सृजनात्मकता‘ दोनों को साधती चलती है। (प्रो. दिलीप सिंह, भारतीय भाषा पत्रकारिता, पृ.197-198)|

हमने पहले आपसे समाचारों की भाषा की सहजता और सुबोधता की चर्चा की है। इस संबंध में यह जान लें कि पत्रकारिता के प्रयोग-क्षेत्र की व्यापकता ही उसकी भाषा में विस्तार, प्रयोगधर्मिता, लचीलापन और बोधगम्यता ले आती है। यही कारण है कि पत्रकारिता/समाचार की भाषा एक विशिष्ट प्रयोग-क्षेत्र की भाषा सिद्ध होती है।

समाचार की भाषा को विषयानुकूल तो होना ही चाहिए, साथ ही अपने पाठक वर्ग की बौद्धिकता एवं ग्रहणशीलता की क्षमता के अनुरूप भी होना चाहिए। यही कारण है कि पत्रकारिता की हिंदी में शैली भेद को एक प्राकृतिक लक्षण की तरह अपनाया गया है तथा पाठक/श्रोता समुदाय के अनुरूप उच्च हिंदी, हिंदुस्तानी और मिश्रित हिंदी का प्रयोग समाचारों के भाषिक गठन में किया जाता है। हिंदी-उर्दू शैलियाँ आज के समाचारों की भाषा में एकाकार हो गई हैं। अनेक ऐसे शब्द हैं जो दोनों शैलियों के समाचारों में स्थान पा रहे हैं यथा - महज, जायज, फिलहाल, आखिरकार, बेशक, पुरजोर, मकसद, मसलन, लिहाजा, आतिशी। इसी प्रकार कुछ सहप्रयोग भी बहुप्रचलित हैं, यथा - सख्त उपाय, खर्च सीमा, मूल रकम, कानूनी समीकरण, मौजूदा अभियान, क्रिकेटिया खुमार, मेज़बान देश। इस क्रम में कुछ अभिव्यक्तियाँ भी समाचारों में ध्यान खींचती हैं - सख्ती से निबटा जाना चाहिए, यह कार्रवाई एक शानदार मिसाल बन सकती है, खास लोगों को अपना निशाना बनाया है, कमीशन के बतौर मिला धन, यही वहज है कि कानूनन चंदा जायज होने के बावजूद, रकम चेक के जरिए ही जमा की जानी चाहिए, सबका पर्दाफाश करने की ज़रूरत है, जायज खर्चों की सख्त जांच का पुख्ता इंतजाम होना चाहिए। - ये सभी शब्द, सहप्रयोग और अभिव्यक्तियाँ समाचारों की हिंदी को शैली वैविध्य प्रदान करते हैं।

यह भी ध्यान रखने की बात है कि पत्रकारिता का संपर्क जनता से होता है। यह संपर्क उसकी सोच और भाषा से भी होता है। इसलिए इस भाषारूप का जनमानस के अनुरूप होना बेहद ज़रूरी है ।  प्रो. दिलीप सिंह के अनुसार ‘‘हिंदी, उर्दू, क्षेत्रीय बोलियों की समग्रताबद्ध ताकत की पहचान ही हिंदी पत्रकारिता की भाषाई चेतना का केंद्रबिंदु है। आमफहम भाषा के निकट आती, परंपरागत प्रयोगों को नए संदर्भ देती, नवीन रचनाएँ करती, पत्रकारिता की हिंदी लोक-मानस के अनुकूल बनी है। अगड़ा, पिछड़ा, जत्था, विदेशी, निवेशक, नैतिक जिम्मेदारी जैसे अनेक नए प्रयोग देखते-देखते पत्रकारिता की हिंदी में स्थान पाते हैं और पाठकों में लोकप्रिय भी हो जाते हैं। भाषा का विकास परिवर्तनों के बीच ही होता है। नई घटनाओं, नई खोजों, सामाजिक-राजनैतिक फेरबदल आदि से पत्रकारिता सीधे संबद्ध होती हैं और इन्हें व्यक्त करने के लिए वह भाषा के तमाम स्रोतों को खंगालती है, शब्दों-अभिव्यक्तियों को नए संदर्भ देती है।‘‘ इस संदर्भ में उनके द्वारा उद्धृत कुछ अन्य अभिव्यक्तियाँ और शीर्ष पंक्तियाँ भी द्रष्टव्य हैं - 

अभिव्यक्तियाँ : चुस्त क्षेत्ररक्षण, दमदार टीम, गेंदबाज़ी का विश्लेषण, सधा हुआ खेल, फिरकी गेंदबाज, शुरुआती ओवरों में, कमान संभाली है, टीम के सुर सध गए हैं, जीत का स्वाद चखना है, विकेट झटक सकते हैं, अंकुश लगाए रखते हैं धमाका कर दिया, पैसा डकार गए, लहर चल रही है, नकेल डाल दी, व्यवस्था की कलई खोलता है, सरकार ने रोड़ा लगा दिया, टीम बिखर चुकी है, अगली चाल को तौल रहे थे, सितारे बुलंद हैं। शीर्ष पंक्तियाँ : पते का पता, एक सीट का सवाल, समय से पहले चेते, आखिर ऊंट आया पहाड़ के नीचे खरी सुनाकर खोटे बने, रोजा गले पड़ा, डोर तनी पर टूटी नहीं, ओटन लगे कपास। (‘भारतीय भाषा पत्रकारिता‘, पृ.199)|

इस प्रकार आप  देख सकते हैं कि समाचारों की भाषा में अनेक  मुहावरेदार और काव्यात्मक प्रयोग आम-जीवन के सहज संदर्भों से जुडे़ हैं। इनसे पारिभाषिकता भी बोधगम्य बन जाती है। यह समाचार की हिंदी की बड़ी ताकत है। इसके अतिरिक्त आपने इस बात पर भी ध्यान दिया होगा कि समाचार-क्षेत्र में भाषा का आधुनिकीकरण किया गया है। संकरता, नए सहप्रयोग, लोक उन्मुखता और कोडमिश्रण के सहारे आधुनिक भाषारूप गढ़ा गया है। इस संदर्भ में कई बार लिप्यंतरण और दो पर्यायों के समानांतर प्रयोग की बात उठाई जाती है। यहाँ यह देखना चाहिए कि भंडारनायक-भंडारनायके, किसिंजर-किसिंगर, फर्नांडिस-फर्नेंडीस-फर्नाण्डीज़ अथवा गृह मंत्री-स्वराष्ट्र मंत्री, विदेश मंत्री-परराष्ट्र मंत्री, नागरिक उड्डयन मंत्री-नागर विमानन मंत्री के भेद से समाचार की संप्रेषणीयता में कोई बाधा नहीं आ रही है। इसलिए इन भेदों को राष्ट्रीय, क्षेत्रीय और स्थानीय पत्रकारिता की आवश्यकताओं और अपेक्षाओं के संदर्भ में स्वीकार करना ही उचित है। दूसरी ओर भाषा की उन जटिलताओं और अस्पष्टताओं पर गहरी नजर रखने की जरूरत है जो अंग्रेजी अनुवाद के दुष्परिणामस्वरूप समाचारों की हिंदी की ‘आत्मीयता‘ को नुकसान पहुँचा रही हैं। भाषा का लक्ष्य-समुदाय के लिए ग्राह्य होना ही सफलता की कसौटी है। इस कसौटी पर हिंदी समाचारों की भाषा खरी उतरती है, इसमें दो राय नहीं।

[कलम्ब (उस्मानाबाद, महाराष्ट्र) में २३-२४ दिसंबर २०११ को होने वाली पत्रकारिता विषयक राष्ट्रीय संगोष्ठी के निमित्त]

मंगलवार, 15 नवंबर 2011

विश्व साहित्य एवं अनुवाद : हिंदी का संदर्भ

(२४ अक्टूबर २०११ को सेंट पायस क्रास वनिता महाविद्यालय , हैदराबाद में 
संपन्न अनुवाद विषयक राष्ट्रीय संगोष्ठी में प्रस्तुत पत्र)






विश्व साहित्य की संकल्पना अनुवाद के बिना संभव नहीं है. मनुष्यता अपने मनोभावों को विभिन्न देशकालों में जिन विभिन्न भाषाओं में व्यक्त करती है, करती रही है अनुवाद उनके बीच संवाद को संभव बनाता है. यह संवाद ही वैश्विकता का आधार है. अतः हमें विश्व नागरिक बनाने में अनुवाद की अनिवार्यता स्वयंसिद्ध है. अनुवाद की परिभाषा करते हुए उसे किसी एक भाषा के कथन के तात्पर्य को सुरक्षित रखते हुए अन्य भाषा में अनुकथन या पाठ परिवर्तन (जॉनसन) कहा गया है. यह भी मानी हुई बात है कि अनुवाद में एक भाषा (स्रोत भाषा) की इकाइयों का दूसरी भाषा (लक्ष्य भाषा) की इकाइयों द्वारा प्रतिस्थापन किया जाता है (हाकेट). अनुवादक की परेशानी का मूल कारण यह होता है कि (१) जब वह यह तात्पर्य को सुरक्षित करने चलता है तो स्रोत भाषा और उसका सौंदर्य छूटता सा लगता है तथा (२) जब वह इकाई के लिए इकाई चुनने चलता है तो उसे कहीं तो इकाई प्राप्त ही नहीं होती, कहीं वह एकाधिक इकाइयों के रूप में प्राप्त होती है और कहीं इकाई के स्थान पर इकाई का प्रयोग अनुवाद को भी निर्जीव सा बनाता लगता है. (दिलीप सिंह, २०११, अनुवाद की व्यापक संकल्पना). कहने की जरूरत नहीं है कि यह परेशानी सजातीय भाषाओं और स्थानीय साहित्यों के अनुवाद की तुलना में विजातीय भाषाओं और विश्व साहित्य के अनुवाद के समय अधिक चुनौतीपूर्ण बनकर उपस्थित होती है. ऐसे में समतुल्यता की अवधारणा अनुवादक को धर्मसंकट से बचाती है. यह अवधारणा इस समझ पर आधारित है कि विश्व की विभिन्न भाषाओं के बीच अनेक स्तरों पर भिन्नता पाई जाती है जिसके कारण अनूदित पाठ का मूल पाठ के समरूप बनना संभव नहीं हो पाता, ऐसे में अनूदित पाठ का मूल पाठ के समतुल्य हो पाना भर काफी कहा जा सकता है. इसलिए विश्व साहित्य के अनुवादों में मुख्यतः अर्थ और गौणतः शैली के स्तर पर समतुल्यता की खोज महत्वपूर्ण दिखाई देती है.


समरूपता और समतुल्यता की खोज की इस समस्या से जूझते हुए ही अनुवाद शास्त्र विकसित होता है. विश्व साहित्य के संदर्भ में अनुवाद प्रक्रिया को शास्त्रबद्ध करने के आरंभिक संकेत सोलहवीं शताब्दी में बाइबिल के अनुवाद के संदर्भ में प्राप्त होते हैं. उस समय अनुवाद के चार चरण तय किए गए – १. शब्दक्रम का परिवर्तन, २. लक्ष्य भाषा में आवश्यकतानुसार संबंध वाचकों का प्रयोग, ३. मूल के एक शब्द के लिए लक्ष्य भाषा में पदबंध के प्रयोग की स्वतंत्रता तथा ४. पाठगत एकरूपता पर बल. (वही). अनुवाद की इस प्रक्रिया का लाभ यह हुआ कि विश्व की विभिन्न भाषाओं के मध्य वैचारिक आवाजाही संभव हो सकी.


जैसा कि पहले कहा जा चुका है विश्व साहित्य की कल्पना को साकार करने में अनुवाद सर्वाधिक महत्वपूर्ण उपकरण है. यदि यह कहा जाए कि अनुवाद भिन्न भिन्न संस्कृतियों के लोगों के मन में आपसी समझ और प्रशंसा के भाव उत्पन्न करने के लिए सबसे जरूरी उपकरण है तो इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी. काफी पहले से ही विश्व साहित्य के अनुवाद के संबंध में दो बातें कही जाती रही हैं. एक तो यह कि विदेशी साहित्यकार को इस तरह लक्ष्य भाषा समाज के निकट लाया जाए कि उसके सदस्य उसे अपना समझकर अपना सकें. दूसरी बात उलटी दिशा की यात्रा से संबंधित है. अर्थात लक्ष्य भाषा का पाठक रचना के विदेशी परिवेश तक जाए और खुद को विदेशी लेखक की परिस्थिति और भाषिक संस्कृति में ढाल कर देखे.(गोयथे, १८१३). अगर ध्यान से देखें तो पता चलेगा कि आधुनिक/उत्तरआधुनिक ग्लोबल दुनिया के निर्माण में इन दोनों बातों अर्थात अनुवाद का बड़ा योगदान है. साथ ही यह भी महत्वपूर्ण है कि अनुवाद के माध्यम से हम किसी देश के साहित्य या उस देश और वहाँ के लोगों को ही नहीं जानते बल्कि अनजाने ही उनके तुलनीय रखकर हम अपने आपको और अपने देश को भी बेहतर जान पाते हैं. अभिप्राय यह कि अनुवाद केवल भाषाओं और साहित्यों के बीच ही समझ पैदा नहीं करता संस्कृतियों के बीच भी समझ पैदा करता है और आत्मसाक्षात्कार के लिए भी अवसर मुहय्या कराता है. कहना न होगा कि इस प्रकार वह मानव संस्कृति की उस दशा को उपलब्ध करने का माध्यम बनता है जो अविरोधी होती है. संस्कृतियों का विरोध और संघर्ष तभी तक है जब तक उनके लिए गर्व करने वाली जातियों के बीच आपसी समझ विकसित नहीं है.


यदि दुनिया भर में विविध भाषाओं में रचे गए साहित्य को विश्व साहित्य कहा जाए तो एकमात्र अनुवाद ही उसकी सर्वत्र और सर्वदा उपलब्धता का आधार हो सकता है. यही कारण है कि अनुवाद को साहित्य के निरंतर जीवन तथा उत्तरजीवन के रूप में भी देखा जाता है.(वाल्टर बेंजामिन). विश्व साहित्य के अनुवाद के संदर्भ में यह बिंदु भी विचारणीय है कि जब किसी रचना का अनुवाद अलग अलग भाषाओं में किया जाता है तो एक ही रचना का प्रभाव भिन्न संस्कृतियों में भिन्न देखा जा सकता है. इसे यों भी कहा जा सकता है कि अनुवाद द्वारा किसी रचना की बहुस्वरता और अंतरपाठीयता का विकास होता है. इस तरह अनूदित पाठ अपने तईं लक्ष्य भाषा संस्कृति को सुवासित भी करता है.


विश्व साहित्य के अलग अलग भाषाओं में अनुवाद के समय उन भाषा समाजों की सांस्कृतिक विशेषताओं को समझते हुए पाँच स्तरों पर सांस्कृतिक तथ्यों का रूपांतरण किया जा सकता है – १. मूल रचना के विदेशीपन को अनुवाद में पूर्णतः सुरक्षित रखा जाए.(एक्सोटिस्म), २. चुने हुए सांस्कृतिक तत्वों को अनुवाद में उपयोग में लाया जाए.(कल्चरल बोरोइंग), ३. मूल की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि को लक्ष्य भाषा में प्रस्तुत किया जाए.(काल्क), ४. समान सांस्कृतिक तत्वों की खोज करके अनुवाद किया जाए.(कम्युनिकेटिव ट्रांसलेशन) तथा ५. पूर्णतः सांस्कृतिक भावांतरण किया जाए.(कल्चरल ट्रांसप्लांटेशन). (प्रमीला के.पी., २००७, भाषांतरण भावांतरण). कहने की जरूरत नहीं है कि ये पाँच स्तर प्रकारांतर से पूर्व उल्लिखित गोयथे के ही दो बिंदुओं का विस्तार है.


इसमें संदेह नहीं कि विश्व साहित्य के अनुवाद का क्षेत्र व्यापकतम है और तमाम तरह की समस्याओं और आक्षेपों के बावजूद दुनिया में समस्त साहित्यिक भाषाओं के बीच अनुवाद की काफी पुष्ट परंपरा है. प्रस्तुत संदर्भ में यह कहा जा सकता है कि हिंदी सहित भारतीय भाषाओं और अंग्रेजी सहित विदेशी भाषाओं के बीच प्रचुर मात्रा में अनुवाद हुआ है. साथ ही उपनिवेशी प्रभाव के कारण हमारे यहाँ अंग्रेजी से अनुवाद की प्रमुखता रही है. हिंदी में अंग्रेजी या अन्य विदेशी भाषाओं से अनुवाद की परंपरा का विहंगम अवलोकन करें तो यह बात किसी नियम का तरह कही जा सकती है कि लंबे समय तक उपनिवेश रहने के कारण भारत की आधुनिक सभ्यता अनूदित सभ्यता है. यहाँ आधुनिकता और अनुवाद का विकास साथ साथ हुआ, यह नाभिनाल संबंध आज भी कायम है. वैश्वीकरण के आज के दौर में पनप रही समकालीन वैचारिकी में अनुवाद की अहम हिस्सेदारी है क्योंकि आज अनुवाद संस्कृतियों के सहमिलन और संघर्ष की रणनीति का पर्याय बन गया है. बाजार का गहन दबाव तो अपनी जगह है ही. वैश्वीकरण के संदर्भ में अनुवाद आधुनिकीकरण, पश्चिमीकरण, औद्योगीकरण, जातीय विविधता और बहुसांस्कृतिकता के पाठ का निर्माण करनेवाला मुख्य घटक बन गया है क्योंकि अंतरराष्ट्रीय संचार में उसकी महती भूमिका है. अभिप्राय यह है कि बहुत अधिक अनुवाद लक्ष्य भाषा समाज के भीतरी स्वरूप को भी प्रभावित करता है. भारत इसका जीवंत उदाहरण है कि किस प्रकार हम क्रमशः अनूदित सभ्यता और अनूदित संस्कृति बनते चले गए. इसराइल के अनुवादशास्त्री इतमार ईवेन जोहार ने कहा है कि अनुवाद किसी भी भाषा व साहित्य की आतंरिक बहुआयामी प्रणाली में ही बदलाव ला देता है जिससे उस भाषा का ढाँचा और मुहावरा तक बदल जाता है. मानना होगा कि पिछले डेढ़ सौ वर्ष में हिंदी के साथ भी ऐसा ही हुआ है.


१८५७ में जब भारतीय जनमानस ने करवट ली तो इस बदलाव और जागरण की चेतना की लहरें दूर तक गईं. हिंदी साहित्य के भारतेंदु हरिश्चंद्र और महावीर प्रसाद द्विवेदी जैसे पुरोधाओं ने प्रतिरोध और परिवर्तन की इस आवाज को पहचाना और इसे पत्रकारिता तथा अनुवाद के माध्यम से आत्मबोध और भारतीयता की पहचान का बाना पहनाया. दुनिया भर के वाङ्मय को अपनी भाषाओं में अवतरित करने की इस काल में होड सी लग गई. स्वयं भारतेंदु हरिश्चंद्र ने शेक्सपीयर के नाटक ‘मर्चेंट आफ वेनिस’ का अनुवाद (दुर्लभ बंधु) किया और द्विवेदी जी ने 'सरस्वती' में विभिन्न विषयों के अनुवाद छापकर हिंदी पाठक को दुनिया भर की जानकारी प्रदान करने का अभियान चलाया. रामचंद्र शुक्ल ने जोसफ एडिसन कृत ‘प्लेजर्स आफ इमेजिनेशन’, हेकेल कृत ‘दि रिडिल ऑफ द युनिवर्स’ एवं एडविन आर्नाल्ड कृत ‘लाइट ऑफ एशिया’ का क्रमशः ‘कल्पना का आनंद’, ‘विश्व प्रपंच’ और ‘बुद्ध चरित’ नाम से अनुवाद किया. श्रीधर पाठक ने ओलिवर गोल्डस्मिथ कृत ‘द हर्मिट' और 'डेसरटेड विलेज’ को ‘एकांतवासी योगी' एवं 'ऊजड ग्राम’ के रूप में अनूदित किया. प्रेमचंद ने भी लियो टालस्टाय की रचनाओं को हिंदी में लाने काम किया. इन बड़े और युगांतरकारी रचनाकारों के अनुवाद कार्य के प्रति रुझान का परिणाम यह हुआ कि धीरे धीरे हिंदी में विश्व साहित्य के अनुवाद की एक समृद्ध परंपरा बन गई जिसका समग्र सर्वेक्षण और मूल्यांकन होना अभी शेष है. परंतु इसमें संदेह नहीं कि इस प्रकार अनुवाद हमारे लिए विश्व साहित्य का वातायन बना गया.


आगे चलकर भीष्म साहनी ने पच्चीस रूसी पुस्तकों का हिंदी में अनुवाद किया. नामवर सिंह के संपादन में भी अनूदित रूसी कविताओं का संकलन छपा है. हरिवंशराय बच्चन ने रूसी कविताओं के तो अनुवाद किए ही शेक्सपीयर के नाटकों के अनुवाद द्वारा भी बड़ी ख्याति प्राप्त की. रामधारी सिंह दिनकर ने डी.एच.लारेंस की भूली बिसरी कविताओं को हिंदी में उतारा तो रघुवीर सहाय ने 'बरनम वन' के रूप में शेक्सपीयर के मेकबेथ को नया जन्म दिया. रांगेय राघव, निर्मल वर्मा, कुंवर नारायण, मोहन राकेश, राजेंद्र यादव, गंगा प्रसाद विमल, विष्णु खरे, अमृत मेहता, अभयकुमार दुबे, प्रभात नौटियाल, उदय प्रकाश, मुद्राराक्षस, सूरज प्रकाश, नीलाभ और कृष्ण कुमार जैसे अनेक साहित्यकारों-अनुवादकों ने दुनिया की सभी प्रमुख भाषाओं के साहित्य को अनुवाद के माध्यम से हिंदी जगत तक पहुंचाने का अभिनंदनीय कार्य किया है. अशोक वाजपेयी के संपादन में प्रकाशित विश्व कविता का चयन भी पर्याप्त व्यापक है. खास तौर से अमृत मेहता ने मध्य भाषा [फ़िल्टर लेंगुएज] अंग्रेजी के सहारे किए गए अनुवादों की प्रामाणिकता को बहुत जोर देकर प्रश्नांकित किया है. उन्होंने अनूदित विश्व साहित्य की अपनी पत्रिका ‘सार संसार’ के माध्यम से जर्मनी, आस्ट्रिया और स्वीडन सहित अनेक देशों के साहित्य का उनकी भाषाओं से हिंदी में सीधे अनुवाद करने का आंदोलन ही चला रखा है. 


अंततः यह कहना आवश्यक है कि इसमें संदेह नहीं कि विश्व साहित्य के अनुवादों से हिंदी साहित्य की विभिन्न विधाओं को नवीन दृष्टि प्राप्त हुई और हिंदी साहित्यकारों के रचना संस्कार को विस्तृत आयाम मिला. इतना ही नहीं, आधुनिक हिंदी साहित्य में संस्कार संक्रमण का महत्वपूर्ण कार्य संस्कृत, बांग्ला और अंग्रेजी से अनुवादों के कारण ही संभव हुआ. इसके अलावा यह तो सर्वविदित ही है कि हिंदी आलोचना पर अनुवाद का बड़ा असर है. १८९७ में पोप के ‘एस्से आन क्रिटिसिस्म’ का जगन्नाथ दास रत्नाकर ने ‘समालोचानादर्श’ नाम से पद्यात्मक अनुवाद किया था, तब से आज तक हिंदी आलोचक और विमर्शकार अनुवाद का खुलकर इस्तेमाल करते आ रहे हैं. इसी प्रकार नाटक और फ़िल्म के क्षेत्र में भी अनुवाद का योगदान अप्रतिम है. अनेक प्रतिष्ठित साहित्यकारों, रंगकर्मियों और फिल्मकारों ने विश्व साहित्य की कृतियों के हिंदी में अनुवाद, नाट्यरूपांतर और फिल्मांकन किए हैं. इससे श्रेष्ठ साहित्य के प्रति संस्कारवान पाठक और दर्शक भी तैयार किए जा सके हैं.


सोमवार, 14 नवंबर 2011

आओ उतारें तारे ज़मीन पर

फोटो कार्यशाला - 18  - लिपि भारद्वाज

स्वतंत्र वार्त्ता :14 नवंबर , 2011              अनुवाद : सीएमपी अंकल 
!!पढने के लिए कृपया चित्र पर क्लिक करें!! 

रविवार, 13 नवंबर 2011

लोकतंत्र और भारतीय भाषाओं में राम साहित्य की प्रासंगिकता


 [साठ्ये महाविद्यालय, मुंबई में 2 /3 /4  दिसंबर,2010  को संपन्न त्रिदिवसीय अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी में पढ़ा गया आलेख] 

रामकथा अपने उदात्त जीवन मूल्यों के कारण हजारों वर्षों  से विश्व भर के अनेक भाषा समाजों में व्याप्त ऐसी गाथा है जिसने देशकाल की सीमाओं के पार मनुष्यता का मार्गदर्शन किया है। यह कथा इतनी लचीली है कि लौकिक और शिष्ट साहित्य - दोनों ही में इसके अनेक संस्करण उपलब्ध होते हैं। इसके बावजूद रामकथा का मूलभूत स्वरूप और संदेश एक जैसा है। इसीलिए समय-समय पर राम साहित्य का नई मान्यताओं और नई चुनौतियों के संदर्भ में पुनर्पाठ होना स्वाभाविक है। लोकतंत्र की दृष्टि से भारतीय भाषाओं के राम साहित्य की प्रासंगिकता खोजने का प्रयास भी इसी पुनर्पाठ प्रक्रिया का एक अंग है।

स्मरणीय है कि भारत की प्रायः सभी प्रमुख भाषाओं के साथ साथ राम साहित्य की एक सुदीर्घ परंपरा भारतीय बोलियों के अलिखित और लिखित साहित्य में भी उपलब्ध होती है। इस पर लोकतंत्र के संदर्भ में विचार करना हो तो सबसे पहले हमें यह देखना होगा कि मुख्य भाषाओं और बोलियों में उपलब्ध राम साहित्य की प्रकृति किस प्रकार की है, उसमें क्या-क्या समानताएँ और भिन्नताएँ है। इस दृष्टि से विचार करने पर पता चलता है कि भाषाओं और बोलियों के राम साहित्य की प्रकृति में कुछ ऐसे अंतर हैं जिन्हें नजरअंदाज नहीं किया जा सकता क्योंकि ये अंतर लोकतंत्र की दृष्टि से बड़े महत्व के हैं। राम साहित्य के अध्येताओं का ध्यान इस तथ्य की ओर जाना चाहिए कि मुख्य भारतीय भाषाओं में स्वीकृत रामकथा में अभिजात वर्ग और सामान्य वर्ग - दोनों प्रकार के पात्र चित्रित हैं, परंतु बोलियों में प्रचलित रामायणों में प्रायः सारे के सारे पात्र सामान्य वर्ग के हैं अर्थात वहाँ राम और सीता भी राज परिवार से नहीं, अपितु किसी सामान्य परिवार से आते हैं। यहाँ असम में प्रचलित रामकथा का उल्लेख प्रासंगिक होगा। असम में विभिन्न बोलियों में कुल तीस रामकथाएँ प्रचलित हैं। इनमें एक बोली है करबी। मूलतः करबी एक जनजाति है जो खेती किसानी का काम करती है और पर्वतीय क्षेत्र में निवास करती है। वहाँ की भौगोलिक परिस्थितियाँ इस प्रकार की हैं कि इन लोगों के गाँव और खेतों के बीच बहुत दूरी होती है। खेतीबाड़ी के लिए गाँव से बहुत दूर जाना पड़ता है। पहाड़ी जमीन को ठीक-ठाक करके किसान उसमें फसल उगाता है और फसल कटने तक उसे वहीं रहना पड़ता है। ऐसे ही एक किसान को खेत में काम के दौरान मोर-मोरनी के अंडे मिल जाते हैं जिन्हें वह उठाकर घर पर ले आता है और फिर खेती पर चला जाता है। इन अंडों से सीता का जन्म होता है जो इस किसान के घर में बड़ी होती है, उसकी पत्नी से विभिन्न प्रकार की हस्तकलाएँ सीखती है, बहुत अच्छा मछली भात बनाती है और फिर एक दिन किसान के लिए खेत पर भोजन लेकर जाती है। लंबे समय से घर से दूर खेत पर रह रहा किसान उसे पहचान भी नहीं पाता।  आगे चलकर वह कन्या पशुपालन और खेतीबाड़ी में भी प्रवीणता प्राप्त करती है और उसका विवाह भी एक जनजातीय युवक से होता है। इस तरह करबी रामायण में सीता और राम दोनों ही जनजाति से संबंधित हैं तथा अन्य भी कोई पात्र अभिजात वर्ग का नहीं है। इस दृष्टि से लिखित अलिखित परंपरा से उपलब्ध विभिन्न रामकथाओं को फिर से देखने की जरूरत है क्योंकि यह भारतीय लोक का एक सच है कि रामकथा में सदा से जन समाज से मिलने की प्रकृति विद्यमान रही है। जन से जुड़ाव की यह प्रकृति राम साहित्य को लोकतंत्र के संदर्भ में खासतौर पर प्रासंगिक बनाती है। यहाँ यह कहना भी अप्रासंगिक न होगा कि कृष्णकथा में यह प्रकृति प्राप्त नहीं होती। कृष्ण लोक और जनजाति के बीच में पलने बढ़ने के बावजूद अंततः देवता के रूप में परिणत हो जाते हैं। राम अभिजात से जन की ओर बढ़ते दीखते हैं जबकि कृष्ण जन से अभिजात की ओर। ध्यान रहे कि लोकतंत्र की मूलभूत स्थापना है कि सत्ता को जनता की ओर बढ़ना चाहिए। राम साहित्य के जनाभिमुख होने की व्याख्या यहाँ राजतंत्र के लोक की ओर उन्मुख होने के रूप में जा सकती है और इसी से आधुनिक समय में राम साहित्य की प्रासंगिकता उजागर होती है।

राम साहित्य की प्रकृति संबंधी चर्चा को आगे बढ़ाते हुए हम यह देख सकते हैं कि रामकथा में भारतीय सामाजिक ढाँचे को बनाए रखने की कोशिश निहित है। वह ढाँचा पारिवारिक संबंधों के रूप में हो सकता है और सामाजिक नैतिक मूल्यों के रूप में भी। इसीलिए राम साहित्य को मर्यादा के संदर्भ में व्याख्यायित किया जाता है। लोकतंत्र की दृष्टि से इसकी यह व्याख्या की जा सकती है कि राम साहित्य में सामाजिक संरचना और मूल्यों की रक्षा के लिए अन्याय का प्रतिकार दर्शाया गया है। राम का पूरा जीवन अन्याय के प्रतिकार को समर्पित है परंतु वे इस कार्य में सफल होने के लिए अयोध्या के राजमहल से बाहर निकलते हैं तथा ऋषि मुनियों से लेकर निषाद और वानरों तक उन सब वर्गों से जुड़ते हैं जो रावण जैसी अलोकतांत्रित शक्ति के आतंक तले दलित मर्दित थे तथा अलग अलग होने के कारण उसका प्रतिकार नहीं कर पाते थे; निर्वासित जीवन और अज्ञातवास भोगने के लिए मजबूर थे। भारतीय भाषाओं का राम साहित्य यह दर्शाता है कि अभिजात वर्ग या राजतंत्र अकेले अपने भरोसे किसी भी अन्याय का सफलतापूर्वक प्रतिकार नहीं कर सकता। इसके लिए उसे व्यापक जनशक्ति अथवा लोक के पास जाना पड़ता है। राम लोकाभिराम ही नहीं लोकाभिमुख भी हैं। उनका जीवन व चरित्र यह सिद्ध करता है कि जनता की व्यापक भागीदारी के बल पर ही सामाजिक मूल्यों की रक्षा की जा सकती है। जब राम शास्त्रमर्यादा के लिए लोकसमर्थन से शस्त्र उठाते हैं तो वे सच्चे समन्वयकारी प्रतीत होते हैं। इसके लिए जन उन्हें नई नैतिकता की स्थापना करने की स्वीकृति भी देता है। आततायी का अंत करने के लिए यदि छल भी अपनाना पडे़ तो लोक के हित में ऐसा करना उचित है। जंगल जंगल पर्वत पर्वत सुग्रीव अपनी प्रजा के साथ मारा मारा फिर रहा है। बालि का सामना करने का साहस किसी में भी नहीं। राम उसे छल से मारते हैं लेकिन इससे राम का अपयश नहीं होता बल्कि यही स्थापित होता है कि अन्यायी को मारने के लिए शास्त्र के रास्ते से भी हटा जा सकता है। लेकिन यह तभी तक संभव है जब तक राम को जनशक्ति का समर्थन प्राप्त है। इसके विपरीत जब राम अभिजात वर्ग के यंत्र बनकर शंबूक वध जैसे कृत्य में संलग्न होते हैं तो उनका यह कार्य अपयश का ही कारण बनता है। यही कारण है कि भवभूति जैसे कवियों ने अग्निपरीक्षा, सीता निर्वासन और शंबूक वध के प्रसंगों में राम को बड़ा बेबस दिखाया है - आत्मग्लानि में गलता हुआ एक विवश राजा। अभिप्राय यह है कि राम साहित्य जनशक्ति की अनिवारता का प्रतिपादन करने वाला साहित्य है और उसे जनविरोध नितांत भी स्वीकार नहीं है। यही कारण है कि तुलसी ने छाया सीता की कल्पना की और सीता निर्वासन तथा शंबूक वध जैसे प्रसंगों को छोड़ दिया। उन्हें जनविरोधी प्रसंगों को राम के चरित्र में शामिल करना अलोकतांत्रिक लगा होगा। यहीं यह भी कहते चलें कि राम साहित्य की चिरतंनता का एक आधार यह भी है कि वह मूल्यों को जड़ नहीं मानता। उसके माध्यम से हर युग में मूल्य व्यवस्था को पुनर्पारिभाषित करना संभव है जो किसी इतिवृत्त के लोकतांत्रिक होने का एक सुदृढ़ आधार हो सकता है। उल्लेखनीय है कि राम जब अन्याय का प्रतिकार करने के लिए छल का सहारा लेते हैं तो विभिन्न भारतीय भाषाओं के रामायणकार अपने अपने ढंग से उनका बचाव करते हैं। तुलसी ने जिस प्रकार पहले नीति की बात करके बाद में पूरे प्रसंग का पर्यवसान भक्ति और मुक्ति में किया है, उसी प्रकार मणिपुरिया रामायण में भी बालि वध प्रसंग की व्याख्या सामाजिक मर्यादा और नैतिकता के संदर्भ में की गई है। अभिप्राय यह है कि भारतीय मूल्यों की रक्षा की मूल प्रवृत्ति विविध भारतीय भाषाओं के राम साहित्य में समान रूप से सुरक्षित है जो लोकतंत्र के बड़े काम की चीज है।

यहाँ मैं पूर्वोत्तर भारत के एक वर्तमान रामायणविद का उल्लेख करना चाहूँगा। ये हैं मिस्टर लमारे। लमारेजी यों तो ईसाई हैं परंतु रामसाहित्य के समर्पित अध्येता हैं। उनके लिए रामायण कोई धर्मग्रंथ नहीं है बल्कि समग्र भारत को एक करनेवाला ऐसा तत्व है जिसकी उपेक्षा उन्हें कष्ट देती है। वे मेघालय में हैं और खासी जनजाति पर काम कर रहे हैं। उनके पास खासी रामायण की हस्तलिखित प्रति सुरक्षित है। इस रामायण में विस्तार से विभिन्न खासी परंपराओं का उल्लेख मिलता है। स्मरणीय है कि खासी रामायण के राम का राजतंत्र से कोई संबंध नहीं है। वे जनजातीय पृष्ठभूमि से आते हैं और उनकी प्रकृति पूरी तरह जनजातीय है। खासी जनजाति के तमाम युवकों की तरह उनके राम भी शिकारप्रिय हैं, खेती करते हैं, फल फूल उगाते हैं - पूरी तरह सामान्य जन हैं ; और अपनी इस सामान्यता के सहारे ही वे सभ्यता के विकास में सहयोग करते हैं। प्रायः लोग इस तथ्य पर विस्मय जताते हैं कि पूर्वोत्तर भारत के अन्य सब राज्यों में उग्रवाद के फलने फूलने के बावजूद मेघालय में उग्रवाद नहीं बढ़ सका। इसके कारणों का विवेचन करें तो पता चलेगा कि मेघालय में उग्रवाद के आसार दिखाई देते ही खासी जनजाति के बुद्धिजीवियों ने संगठित रूप में उसका खुलकर विरोध किया। इसमें राम साहित्य की जनाभिमुखता की भूमिका से इंकार नहीं किया जा सकता जिसके कारण वे स्वयं को मुख्यभूमि से सम्बद्ध मानते हैं। मिस्टर लमारे जैसे बुद्धिजीवियों को इस बात से मानसिक कष्ट है कि मुख्यभूमि भारत की ओर से राम साहित्य जैसे जनाभिमुख अभियान पूर्वोत्तर की जनता को सांस्कृतिक स्तर पर अपने साथ जोड़ने के लिए क्यों नहीं चलाए जा रहे हैं। वे बताते हैं कि अपनी चीन यात्रा के दौरान उन्हें यह देखकर आश्चर्य हुआ कि वहाँ हर शहर में तिब्बत के स्थानों और धर्मगुरुओं के नाम पर बड़े बड़े होटल हैं, बल्कि कहें कि ऐसे होटलों की पूरी शृंखला चीन भर में है तथा एक स्थान से अन्य किसी भी स्थान के लिए बुकिंग आदि की सुविधा इन होटलों में प्राप्त है। इसका परिणाम यह होता है कि कोई तिब्बती यात्री चीन के किसी शहर में अपने आपको वैसा अलग थलग महसूस नहीं करता जैसा पूर्वोत्तर भारत का यात्री मुख्यभूमि  भारत में महसूस करता है। लमारे चाहते हैं कि चीन ने तिब्बत को अपनाने की यह जो रणनीति अपनाई है, भारत को इससे सबक लेना चाहिए। वे चाहते हैं कि मुख्य भारत मेघालय आदि को इसी प्रकार अपनाए। राम मेघालय के जनजातीय समाज के लिए कोई हिंदू देवता नहीं हैं, बल्कि उनके अपने हैं। भले ही खासी लोग ईसाई हो गए हों लेकिन राम और रामायण को उन्होंने नहीं छोड़ा है। रामकथा की इस लोक व्याप्ति का उपयोग लोकतंत्र को मजबूत करने के लिए किया जा सकता है। जनजातियों की रामकथा के प्रसंग उनके मानस में अंत्योदय की भावना के रूप में साकार होते दिखाई देते हैं जिन्हें सर्वस्वीकृति के साथ केंद्र से जोड़े जाने की जरूरत है।

लोकतंत्र की दृष्टि से यह तथ्य भी ध्यान खींचता है कि भारत में, और भारत के बाहर भी, रचित राम साहित्य के सभी रूपों में समान रूप से यह प्रकृति पाई जाती है कि इसमें समाज के सभी वर्ग स्वतंत्र अभिव्यक्ति प्राप्त करते हैं। किसी पर किसी प्रकार का बंधन नहीं, किसी में कोई कुंठा नहीं। राम का अपनी यात्रा के दौरान विभिन्न वर्गों से साबका पड़ता है - सहयोगी भी, विरोधी भी। ऐसे पात्र अपने व्यवहार और भाषा में, अपने आचरण और अभिव्यक्ति में, अपने वर्गीय चरित्र को नहीं छिपाते बल्कि निषाद, शूर्पणखा, शबरी, सुग्रीव, समुद्र, विभीषण और रावण भी - सबका व्यवहार और भाषा अपने अपने वर्ग के अनुरूप हैं। अपने वर्गीय चरित्र की निष्कपट अभिव्यक्ति इन्हें जनमानस के निकट लाने में सहायक बनती है। ये सभी प्रकारांतर से जीवन के परम उद्देश्य तक पहुँचने के अलग अलग मार्गों के प्रतीक हैं - प्रेम का मार्ग, ज्ञान का मार्ग, भक्ति का मार्ग, विरक्ति का मार्ग और द्वेष का मार्ग। यहाँ दशरथ और रावण दोनों ही अपने-अपने मार्ग से सद्गति प्राप्त करते हैं। सभी भाषाओं के कवियों ने इन मार्गों का सम्मान किया है। साधना के क्षेत्र में साधक के अपने व्यक्तित्व और परिवेश के अनुरूप अलग अलग पद्धति की स्वीकृति को राम साहित्य की लोकतांत्रिकता के रूप में भी देखा जा सकता है - अर्थात सब वर्गों की समानता, सब मतों की समानता। स्मरणीय है कि समानता लोकतंत्र के तीन आधारों में प्रमुखता के साथ शामिल है - स्वतंत्रता, समानता, बंधुता।

लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सर्वाधिक महत्व है क्योंकि उसी से अन्य सारी स्वतंत्रताएँ विकसित होती हैं। राम साहित्य अभिव्यक्ति की इस स्वतंत्रता का भी प्रतीक है। रामकथा के माध्यम से आत्माभिव्यक्ति करते समय कवि और कलाकार किसी प्रकार की धार्मिक रूढ़ियों की परवाह करते नहीं दिखाई देते। इंडोनेशिया और कोरिया जैसे देशों में धर्म की भिन्नता के बावजूद राम साहित्य की रचना और प्रस्तुति इसका प्रबल प्रमाण है। इस्लाम में मुखौटों या मूर्त साधनों का प्रयोग धर्मविरुद्ध समझा जाता है परंतु इंडोनेशिया में रामकथा की प्रस्तुतियों में इनका व्यापक प्रयोग धार्मिक रूढ़िवाद पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को तरजीह देने का सूचक है। आज के समय में जब सत्ता द्वारा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को अलग अलग तरह के बहाने बनाकर स्थगित करने के षड्यंत्र  करना आम बात है, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता लोकतंत्र की चुनौती बन गई है। अपने विरोधियों को केवल इसलिए मार डालना या मरवा देना कि उनकी विचारधारा आपकी विचारधारा से मेल नहीं खाती, सर्वथा अलोकतांत्रिक है। ऐसी परिस्थितियों में राम साहित्य हमें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सम्मान सिखाता है।

इस बात की ओर भी ध्यान दिया जाना चाहिए कि राम कथा में आरंभ से आज तक जो अनेक रूपांतरण कथा संयोजन से लेकर चरित्रांकन तक के क्षेत्र में हुए हैं, वे भी इसमें निहित व्यक्ति स्वातंत्र्य की प्रकृति के सूचक हैं. चाहे स्वयंभू कृत 'पउमचरिउ' की सीता के विद्रोही तेवर की बात करें अथवा नरेश मेहता कृत 'संशय की एक रात' के राम के अंतर्द्वंद्व की; चाहे भगवान सिंह कृत 'अपने अपने राम' में निहित जनवादी संदर्भों को देखें अथवा प्रतिभा सक्सेना कृत 'उत्तरकथा' में रावण के औदात्य को - राम साहित्य के ये तमाम रूपांतरण युगीन और सामाजिक संदर्भों से जुड़े प्रतीत होते हैं. इन परिवर्तनों में स्त्रीपक्षीय परिप्रेक्ष्य भी अत्यंत मुखर है.यहाँ एक पल ठहरकर डॉ. अंबेडकर की इस स्थापना पर पुनर्विचार करना समीचीन होगा कि उन्हें व्यक्ति स्वातंत्र्य की दृष्टि से इस्लाम, ईसाईयत और बौद्धमत ने आकृष्ट किया - खास तौर पर बौद्धमत ने. कहना न होगा कि राम साहित्य इस दृष्टि से और भी लोकतांत्रिक प्रकृति का साहित्य है. वह युगीन परिस्थिति के अनुसार नए रूपाकार में आसानी से ढल जाता है. अगर सांप्रदायिक संकीर्णताओं से हटकर विचार करें तो भारतीय भाषाओँ का राम साहित्य व्यक्ति स्वातंत्र्य का प्रबल पोषक दिखाई देगा. रचनाकारों और उनके समय के अंतर्विरोधों के बावजूद राम साहित्य अपनी लोकतांत्रिक प्रकृति के कारण प्रत्येक युग में युगीन प्रश्नों से जूझकर अपनी प्रासंगिकता सिद्ध करता रहा है.

मेरी दृष्टि में राम साहित्य लोकतांत्रिक व्यवस्था के जनता, समाज और राज्य जैसे मानकों की मर्यादा रक्षा का साहित्य है। कभी कभी इस साहित्य को शोषक व्यवस्था के संरक्षक के रूप में भी देखने दिखाने की कोशिश की जाती है जो वास्तव में खंडदृष्टि का परिणाम है। जैसा कि रवींद्रनाथ टैगोर ने अपने साहित्य में अनेक स्थलों पर प्रतिपादित किया है (उदाहरणार्थ गोराको देखा जा सकता है), भारत के मनीषियों ने वर्ण, पुरुषार्थ और आश्रम पर आधारित जो समाज व्यवस्था बनाई थी, वह केवल भारत के लिए नहीं थी बल्कि विश्व मानवता के समक्ष प्रस्तुत इस यक्ष प्रश्न का उत्तर थी कि मनुष्य, समाज बनाकर कैसे रहे। विभिन्न सभ्यताओं ने इस प्रश्न का उत्तर देने का प्रयास किया - व्यवस्थाएँ बनाईं पर वे या तो लागू नहीं हो सकीं या अधूरी लागू हुईं। यूनान और यूरोप के कुछ भागों में सामाजिक प्रश्नों की अपेक्षा आर्थिक प्रश्नों के महत्वपूर्ण बन जाने के कारण और कुछ में धार्मिक प्रश्नों के हावी हो जाने के कारण वे व्यवस्थाएँ पिछड़ गईं, मारामारी में तब्दील हो गईं। भारत ने भी समाज व्यवस्था का अपना मॉडल बनाया और लागू किया। उसकी दीर्घ उत्तरजीविता का श्रेय इस तथ्य को जाता है कि उसमें समाज ही महत्वपूर्ण बना रहा, सामाजिक मूल्यों पर आर्थिक और राजनैतिक मूल्य हावी नहीं हो सके। रामकथा की स्वीकृति प्रकारांतर से विश्व मानवता के लिए इस समाज व्यवस्था को प्रस्तावित करती है जो लोकतंत्र युग में इस साहित्य की प्रासंगिकता का एक सुदृढ़ आधार है। यहाँ यह याद रखना जरूरी है कि रामायण काल तक जाति का उदय नहीं हुआ था, जाति की अवधारणा महाभारतकालीन है। वर्ण और आश्रम को समाज व्यवस्था के रूप में प्रस्तुत करने वाला राम साहित्य यह भी प्रस्तावित करता है कि हर प्रकार की व्यवस्था असफल हो सकती है यदि उसे पुरुषार्थ व्यवस्था से न जोड़ा जाए। विभिन्न भारतीय भाषाओं का राम साहित्य यह दर्शाता है कि समाज व्यवस्था के लिए सभी वर्गों-वर्णों का ज्ञान और शिक्षा से जुड़ना जरूरी है तथा विवेक,ज्ञान और प्रयोगधर्मिता ही लोकसंग्रह, लोकमंगल और लोकरक्षण का आधार बन सकते हैं। इसके लिए जरूरी है कि रामसाहित्य को पूर्वग्रहमुक्त होकर देखा जाए। पुनर्पाठ की इस प्रविधि में यह स्थापना हमारी सहायता कर सकती है कि इकाइयाँ महत्वपूर्ण नहीं होतीं, उनके अंतर्संबंध महत्वपूर्ण होते हैं। राम साहित्य समाज की विभिन्न इकाइयों के सामंजस्यपूर्ण संबंध का समर्थन करता है जो सामाजिक न्याय और बंधुता के लोकतांत्रिक सिद्धांतों के अनुरूप है। राम विभिन्न आदिवासियों, वनवासियों या जनजाति समाजों को गले लगाते हैं अर्थात सामाजिक व्यवस्था की परिधि पर स्थित वर्गों को केंद्र में लाते हैं और उनकी सहायता से अन्याय और अत्याचार के सबसे बड़े गढ़ को तोड़ने में सफलता प्राप्त करते हैं। यह तथ्य आधुनिक लोकतंत्र के बड़े काम का है कि युद्ध के बाद सभी वर्गों के प्रतिनिधियों को उनके क्षेत्रों में स्वायत्तता प्रदान की जाती है। राजनैतिक परिवर्तन करने के लिए विभिन्न वर्गों का उपयोग करनेवाले राजनैतिक दल जनशक्ति को बाद में उपेक्षित छोड़ देते हैं जिससे वह अंततः राज्यविरोधी शक्ति के रूप में परिणत हो जाती है। जनसमर्थन  और जनशक्ति का सम्मान न करने वाली व्यवस्थाएँ जनप्रवाह में बह जाने के लिए अभिशप्त हुआ करती हैं। ऐसी स्थिति में संगठित होकर जनशक्ति ऐसे व्याध का रूप ले लेती है जो सत्ता के तलुवों को तीर से बींध कर उसके पुनःउदय की संभावनाओं तक को नेस्तनाबूद  कर डालता है। राम साहित्य में इस जनशक्ति की स्वीकृति लोकतंत्र के संदर्भ में उसकी प्रासंगिकता को ही सिद्ध करती है।


गुरुवार, 10 नवंबर 2011

'सिक्का बदल गया' [कृष्णा सोबती] पर चर्चा : ऑडियो

कुछ दिन पहले डॉ. बी. आर. अंबेडकर सार्वत्रिक विश्वविद्यालय, हैदराबाद के एम.ए.[हिंदी] के गद्य साहित्य के पाठ्यक्रम के तहत कृष्णा सोबती की कहानी 'सिक्का बदल गया' पर पाठनुमा चर्चा का अवसर मिला. ख़ास तौर से छात्रों के लाभार्थ उसकी ऑडियो रेकॉर्डिंग कर ली थी - टी वी पर प्रसारण के दौरान. पावर पॉइंट प्रेजेंटेशन तो पहले एक प्रविष्टि में दिया ही जा चुका  है.

अब प्रस्तुत है ऑडियो पाठ. सुनने के लिए क्लिक करें......... 

सोमवार, 7 नवंबर 2011

सूर्य की किरणों को कैमरे में क़ैद करें

फोटो कार्यशाला - 17  - लिपि भारद्वाज 


स्वतंत्र वार्त्ता : 7 नवंबर , 2011              अनुवाद : सीएमपी अंकल 
!!पढने के लिए कृपया चित्र पर क्लिक करें!! 

शनिवार, 5 नवंबर 2011

भारतीय काव्यशास्त्र की परंपरा [ऑडियो]

गत दिनों हमने अपने यहाँ [उच्च शिक्षा और शोध संस्थान, दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, हैदराबाद में] भारतीय काव्यशास्त्र पर त्रिदिवसीय व्याख्यानमाला आयोजित की थी. इस अवसर पर प्रो. जगदीश प्रसाद डिमरी जी ने अपने छह घंटे से अधिक के संबोधन में भारतीय काव्यशास्त्र की परंपरा को उजागर करते हुए विभिन्न विचारधाराओं की मूलभूत स्थापनाओं की सुबोध व्याख्या की.

मित्रों और छात्रों के आग्रह पर तीनो दिन की ऑडियो रिकॉर्डिंग के लिंक यहाँ दे रहा हूँ ताकि ज़रूरतमंदों के काम आ सके.....



शुक्रवार, 4 नवंबर 2011

कृष्णा सोबती की कहानी ''सिक्का बदल गया'' पर समीक्षात्मक चर्चा

अभी उस दिन यानी परसों ही तो डॉ. बी आर अंबेडकर सार्वत्रिक विश्वविद्यालय से फोन आया था कि शीघ्रातिशीघ्र वे एम ए के लिए कृष्णा सोबती की कहानी ''सिक्का बदल गया'' पर वीडियो पाठ रिकॉर्ड करना चाहते हैं. आनन फानन तैयारी करके आज रिकॉर्डिंग करा दी. ए वी पी आर सी से दोपहर बाद सामग्री दूरदर्शन को भी चली गई ताकि सोमवार 7  नवंबर 2011  को प्रातः 5-30  पर प्रसारण हो सके सप्तगिरि चैनल [हैदराबाद] पर. सहायक सामग्री के रूप में बनाई प्रस्तुति यहाँ सहेजी जा रही है.......

बुधवार, 2 नवंबर 2011

पारिभाषिक शब्दावली की समीक्षा के आधार

हैदराबाद,2  नवंबर 2011 
वैज्ञानिक एवं तकनीकी शब्दावली आयोग [नई दिल्ली] द्वारा यहाँ केंद्रीय बारानी कृषि अनुसंधान संस्थान [क्रीडा] में 1  और 2 नवंबर को पारिभाषिक शब्दावली विषयक द्विदिवसीय कार्यशाला आयोजित की गई. समापन सत्र की अध्यक्षता के लिए आयोजकों ने हमें भी बुलाया, तो प्रमाणपत्र वितरित करने से पहले ''पारिभाषिक शब्दावली की समीक्षा के आधार'' पर अपनी प्रस्तुति का भी अवसर हाथ लग गया. अवलोकन करें-

मंगलवार, 1 नवंबर 2011

भारतीय काव्यशास्त्रीय समीक्षादृष्‍टि पर त्रि-दिवसीय व्याख्यानमाला संपन्न

उच्च शिक्षा और शोध संस्थान में आयोजित त्रिदिवसीय व्याख्यानमाला 'भारतीय काव्यशास्त्रीय समीक्षादृष्टि '  के दूसरे दिन मुख्य वक्‍ता प्रो.जगदीश प्रसाद डिमरी के सान्निध्य में लिया गया सामूहिक चित्र

हैदराबाद, 1  नवंबर, 2011.

"भारत में काव्यशास्त्रीय चिंतन के बीज  ऋग्वेद  काल से ही उपल्ब्ध होने लगते हैं यहाँ तक कि दसवें मंडल में आम भाषा और साहित्य भाषा के अलग होने का भी  संकेत प्राप्‍त होता है. किसान जिस तरह छलनी की सहायता से अच्छे अनाज का चुनाव करता है रचनाकार भी लोक से उसी प्रकार श्रेष्‍ठ भाषा को छाँटकर उसका सर्जनात्मक उपयोग करता है. आगे चलकर वैदिक और बौद्ध साहित्य में वाक्‌ विषयक चिंतन का विकास हुआ तथा ईसा की पहली शताब्दी के आस पास भरतमुनि ने नाट्‍यशास्त्र की रचना की. उन्होंने इसकी सामग्री का आधार पाठ, गीत, अभिनय और रस के रूप में चारों वेदों को बनाया."

ये विचार यहाँ उच्च शिक्षा और शोध संस्थान, दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा में ''साहित्य संस्कृति मंच'' द्वारा आयोजित त्रि-दिवसीय व्याख्यानमाला ''भारतीय काव्यशास्त्रीय समीक्षादृष्टि''  के अंतर्गत संस्कृत और रूसी भाषा के मूर्धन्य विद्वान प्रो.जगदीश प्रसाद डिमरी ने प्रकट किए. 

प्रो.ऋषभ देव शर्मा की अध्यक्षता में संपन्न इस व्याख्यानमाला के पहले दिन शुक्रवार को प्रो.डिमरी ने विस्तार से भारतीय काव्यशास्त्र की परंपरा का विश्‍लेषण किया और ऐतिहासिक तथा सामाजिक परिस्थितियों के साथ जोड़कर उसकी व्याख्या की. 

व्याख्यानमाला के दूसरे दिन शनिवार को प्रो.जे.पी.डिमरी ने अलंकारवाद, गुण-रीति वाद और रस-ध्वनि का विवेचन करते हुए यह प्रतिपादित किया कि भारतीय सौंदर्यशास्त्र इन्हीं सिद्धांतों की नींव पर खड़ा हुआ है. रसों की चर्चा करते हुए जब उन्होंने हर रस के अलग अलग देवता और रंग पर प्रकाश डाला तथा भाव विवेचन के संदर्भ में इस सिद्धांत की मनोवैज्ञानिकता का मर्म समझाया तो उपस्थित छात्र और शोधार्थी ही नहीं अध्यापकगण भी चमत्कृत रह गए. 

व्याख्यानमाला के  समापन सत्र में मंगलवार 1 नवंबर, 2011 को अतिथि वक्‍ता ने व्यावहारिक समीक्षा द्वारा प्राचीन और आधुनिक साहित्य के विवेचन के लिए भारतीय काव्यशास्त्र की प्रासंगिकता पर प्रकाश डाला. रस और वक्रोक्ति की कसौटी पर क्रमशः सूरदास के पद 'मधुवन, तुम कत रहत हरे' और सुमित्रानंदन पंत की कविता 'उच्छ्वास' के विवेचन द्वारा उन्होंने इस समीक्षा प्रणाली को सोदाहरण स्पष्ट किया.

व्याख्यान के उपरांत चर्चा परिचर्चा में डॉ.साहिरा बानू, डॉ.बलविंदर कौर, डॉ.जी.नीरजा, डॉ.गोरखनाथ तिवारी, डॉ.मृत्युंजय सिंह, डॉ.पी.श्रीनिवास राव, डॉ.बी.बालाजी, डॉ.पूर्णिमा शर्मा, राधा कृष्ण मिरियाला, सरिता मंजरी, जी.संगीता, राजीव कुमार, रामप्रकाश साह, अजय कुमार मौर्य, अंजु  कुमारी, टी.सुभाषिणी, प्रमोद कुमार तिवारी आदि ने विचारोत्तेजक टिप्पणियाँ की.

संस्थान की ओर से संपर्क सचिव ने उत्तरीय और स्मृतिचिह्न प्रदान कर प्रो.डिमरी के प्रति कृतज्ञता प्रकट की तथा छात्रों ने भी वाग्देवी की प्रतिमा समर्पित कर सम्मान किया.