आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी (१९०७) का आधुनिक हिन्दी साहित्य में अप्रतिम स्थान है। उन्होंने निबंध, उपन्यास, आलोचना, साहित्येतिहास और काव्य आदि विविध क्षेत्रों में प्रभूत साहित्य सृजन किया तथा साहित्य और संस्कृति चिंतक के रूप में पिछली शताब्दी के उत्तराद्र्ध में संपूर्ण हिंदी जगत को प्रभावित और आंदोलित किया। वे जीवन का मर्म समझने और समझाने वाले सूक्तिकार तथा व्याख्याता भी थे। इसके अलावा अध्यापक के रूप में भी उनकी ख्याति साहित्यकार के रूप में ख्याति से किसी भी प्रकार कम नहीं है। वे भव्य और दिव्य गुणों के जीवंत पुंज थे तथा अपने कर्तृत्व और कृतित्व द्वारा उन्होंने मानवीय जिजीविषा के उदात्त स्वरूप की साधना का उदाहरण प्रस्तुत किया।
’ऊँचा-लंबा कद, गौर दिव्य वर्ण, उज्ज्वल-उन्नत भाल, दाएँ तिर्पक के साथ ऊपर की ओर मुड़े छोटे केश, बड़ी-बड़ी आँखें, उन पर काले फ्रेम का चश्मा, आजानबाहु, लंबी मूँछें, लम्बी नाक, खादी का धोती, कुर्ता और चादर, हाथ में छड़ी तथा सर्वोपरि पान से रंगे होंठों पर सदा खेलती मुस्कान। अपने सामने वाले को एक क्षण में आकृष्ट कर अपने चरणों पर झुकाने वाली भव्य-दिव्य मुद्रा। सभा-गोष्ठी में सबसे ऊँचा, आकर्षक और गौरव-मंडित शिखर व्यक्तित्व।’
’यह फक्कड़ाना मस्ती द्विवेदी जी के लिए मानो एक कसौटी हो, जिस पर वे अपने चरित्रों को परख रहे हों। इतना ही नहीं, उनके फूलों और वृक्षों में भी फक्कड़ाना मस्ती है – चाहे वह आशोक हो या कुटज या देवदारु।’।
’मैं साहित्य को मनुष्य की दृष्टि से देखने का पक्षपाती हूँ। जो वाग्जाल मनुष्य को दुर्गति, हीनता और परमुखापेक्षिता बचा न सके, जो उसकी आत्मा को तेजोद्दीप्त न बना सके, जो उसके हृदय को परदुःखकातर और संवेदनशील न बना सके, उसे साहित्य कहने में मुझे संकोच होता है।’ यहाँ प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि वह मनुष्य कौन है जिसे द्विवेदी जी साहित्य का केंद्र बनाना चाहते हैं। उत्तर साफ है। नगरों और गाँवों फैला हुआ, सैंकड़ों जातियों और संप्रदायों में विभक्त अशिक्षा और दारिद्र रोग से पीड़ित मानव समाज ही उनका संबोध्य है। वे मानते हैं कि भाषा और साहित्य की समस्या वस्तुतः इसी समाज कि समस्या है। इसलिए भाषा समस्या के समाधान के लिए हमें इसी की ओर देखना होगा- ’शताब्दियों की सामाजिक, मानसिक और आध्यात्मिक गुलामी के भार से दबे हुए ये मनुष्य ही भाषा के प्रश्न हैं और संस्कृति तथा साहित्य की कसौटी हैं। जब कभी आप किसी विकट प्रश्न के समाधान का प्रयत्न कर रहे हों, तो इन्हें सीधे देखें। अमेरिका या जापान में ये समस्याएँ कैसे हल हुई हैं, यह कम सोचें; किंतु असल में ये हैं क्या और किस या किन कारणों से ये ऐसे हो गए हैं, इसी को अधिक सोचें।’
’रजनी-दिन नित्य चला ही कियामैं अनंत की गोद में खेला हुआ;
चिरकाल न वास कहीं भी कियाआँधी से नित्य धकेला हुआ;
न थका न रुका न हठा न झुका, किसी फक्कड़ बाबा का चेला हुआ:
मद चूता रहा, तन मस्त बना अलबेला मैं ऐसा अकेला हुआ।'
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3 टिप्पणियां:
सुन्दर समीक्षा की है आपने। शुक्रिया।
@अनूप शुक्ल
आभारी हूँ.
पुस्तक छोटी है, लेकिन एक तो पर्याप्त सूचनाप्रद है, और दूसरे भ्रमात्मक नहीं है . [निर्भ्रान्तता आलोचना में दुर्लभ होती जा रही है न!]
पंडितजी पर डॊ. बाछोतियाजी की लिखी पुस्तक का अच्छा परिचय मिला- आभार॥
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