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शनिवार, 26 सितंबर 2009

आकाशधर्मी आचार्य पं. हजारी प्रसाद द्विवेदी




आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी (१९०७) का आधुनिक हिन्दी साहित्य में अप्रतिम स्थान है। उन्होंने निबंध, उपन्यास, आलोचना, साहित्येतिहास और काव्य आदि विविध क्षेत्रों में प्रभूत साहित्य सृजन किया तथा साहित्य और संस्कृति चिंतक के रूप में पिछली शताब्दी के उत्तराद्‌र्ध में संपूर्ण हिंदी जगत को प्रभावित और आंदोलित किया। वे जीवन का मर्म समझने और समझाने वाले सूक्तिकार तथा व्याख्याता भी थे। इसके अलावा अध्यापक के रूप में भी उनकी ख्याति साहित्यकार के रूप में ख्याति से किसी भी प्रकार कम नहीं है। वे भव्य और दिव्य गुणों के जीवंत पुंज थे तथा अपने कर्तृत्व और कृतित्व द्वारा उन्होंने मानवीय जिजीविषा के उदात्त स्वरूप की साधना का उदाहरण प्रस्तुत किया।


गत दिनों उनके शताब्दी वर्ष के संदर्भ में देश भर में अनेक चर्चा परिचर्चा और संगोष्ठियाँ आयोजित की गईं। उन पर वृत्त चित्र भी बनाए गए। फिल्मांकन भी किया गया। ऐसी विविध योजनाओं के निकट से जुड़े रहे डॉ. हीरालाल बाछोतिया ने आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी को जन्म शताब्दी वर्ष पर अपनी श्रद्धांजलि ’आकाशधर्मी आचार्य पं. हजारी प्रसाद द्विवेदी’ शीर्षक पुस्तक के रूप में अर्पित की है। यह पुस्तक संक्षिप्त होते हुए भी द्विवेदी जी के व्यक्तित्व और कृतित्व के सभी आयामों को समेटे हुए है तथा शोधार्थियों से लेकर सामान्य पाठक तक की जिज्ञासा को तुष्ट करने में सक्षम है।।


छोटे-छोटे अध्यायों में लिखी गई यह पुस्तक जीवनी और इतिहास का भी रस देती है तथा आलोचना और मूल्यांकन का तोष भी प्रदान करती है। लेखक की सर्जनात्मकता ने आचार्य को मानो साकार कर दिया है –

’ऊँचा-लंबा कद, गौर दिव्य वर्ण, उज्ज्वल-उन्नत भाल, दाएँ तिर्पक के साथ ऊपर की ओर मुड़े छोटे केश, बड़ी-बड़ी आँखें, उन पर काले फ्रेम का चश्मा, आजानबाहु, लंबी मूँछें, लम्बी नाक, खादी का धोती, कुर्ता और चादर, हाथ में छड़ी तथा सर्वोपरि पान से रंगे होंठों पर सदा खेलती मुस्कान। अपने सामने वाले को एक क्षण में आकृष्ट कर अपने चरणों पर झुकाने वाली भव्य-दिव्य मुद्रा। सभा-गोष्ठी में सबसे ऊँचा, आकर्षक और गौरव-मंडित शिखर व्यक्तित्व।’

लेखक ने अनेक संस्मरणों के सहारे पंडित हजारी प्रसाद द्विवेदी की जीवन संघर्ष और जीवनी शक्ति को भली प्रकार उभारा है। इसी संदर्भ में उनका फक्कड़पन भी भली प्रकार आलोकित हो सका है। वे ध्यान दिलाते हैं कि द्विवेदी जीने अपने संपूर्ण लेखन में इस फक्कड़पन को अंतराधारा की तरह निरंतर प्रवाहित रखा है। यही कारण है कि उनके कबीर सिर से पैर तक मस्त मौला है, तो बाणभट्ट घुमक्कड़ और मस्त जीव है। इसी प्रकार सीदी मौला भी फक्कड़ चरित्र है, इतना ही नहीं उनके सभी उपन्यासों के विशिष्ट चरित्रों में यह गुण पाया जाता है। इसका विस्तार संपूर्ण प्रकृति में है।

’यह फक्कड़ाना मस्ती द्विवेदी जी के लिए मानो एक कसौटी हो, जिस पर वे अपने चरित्रों को परख रहे हों। इतना ही नहीं, उनके फूलों और वृक्षों में भी फक्कड़ाना मस्ती है – चाहे वह आशोक हो या कुटज या देवदारु।’।

इसी प्रकार लोक और शास्त्र के संबंध में आचार्य द्विवेदी की दृष्टि की डॉ. बाछोतिया ने कई स्थलों पर अच्छी विवेचना की है और यह दर्शाया है कि उनके लिए लोक जीवन, लोक साहित्य और लोक चरित्र का साहित्य में केंद्रीय महत्व था और शास्त्र से बढ़कर उनके लिए लोक था। अपनी इस लोकचेतना के बल पर ही द्विवेदी जी भारतीय चिंताधारा की उस अविच्छन्न परंपरा को खोज सके। जिसके सहारे उन्होंने संप्रदायवादी और साम्राज्यवादी इतिहास दृष्टि का खंडन किया जो अनजाने ही देश की हिन्दू-मुस्लिम साधारण जनता को विभाजित करने के दुष्चक्र का अंग बन गई थी। पंडित जी ने प्रतिपादित किया है कि भारत में जनता के असंतोष को विद्रोह का रूप देने के लिए वैचारिक और भावनात्मक शक्ति की भूमिका लोकधर्म ने ही निभाई है। यह लोकधर्म उनके इतिहास और आलोचना संबंधी चिंतन से लेकर उपन्यासों और निबंधों तक में व्याप्त है। उनका लोक अत्यंत व्यापक है और मनुष्यता का पर्याय है। मनुष्य और मनुष्यता भी उनके लिए साहित्य का चरम लक्ष्य है। लेखक ने उनकी इस विश्व दृष्टि को भी भली प्रकार उकेरा है।


डॉ. हीरालाल बाछोतिया ने द्विवेदी जी की विश्व दृष्टि के आधार पर उनकी भाषा विषयक मान्यताओं क भी सुन्दरव्याख्या की है। वे याद दिलाते हैं कि द्विवेदी जी के अनुसार सहज मनुष्य ही सहज भाषा बोल सकता है और यह अवस्था अपने को दलित द्राक्षा के समान निचोड़ कर महासहज को समर्पण करने में से प्राप्त होती है। उन्होंने द्विवेदी जी के इस प्रसिद्ध उदाहरण की भी चर्चा की है कि

’मैं साहित्य को मनुष्य की दृष्टि से देखने का पक्षपाती हूँ। जो वाग्जाल मनुष्य को दुर्गति, हीनता और परमुखापेक्षिता बचा न सके, जो उसकी आत्मा को तेजोद्दीप्त न बना सके, जो उसके हृदय को परदुःखकातर और संवेदनशील न बना सके, उसे साहित्य कहने में मुझे संकोच होता है।’ यहाँ प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि वह मनुष्य कौन है जिसे द्विवेदी जी साहित्य का केंद्र बनाना चाहते हैं। उत्तर साफ है। नगरों और गाँवों फैला हुआ, सैंकड़ों जातियों और संप्रदायों में विभक्त अशिक्षा और दारिद्र रोग से पीड़ित मानव समाज ही उनका संबोध्य है। वे मानते हैं कि भाषा और साहित्य की समस्या वस्तुतः इसी समाज कि समस्या है। इसलिए भाषा समस्या के समाधान के लिए हमें इसी की ओर देखना होगा- ’शताब्दियों की सामाजिक, मानसिक और आध्यात्मिक गुलामी के भार से दबे हुए ये मनुष्य ही भाषा के प्रश्न हैं और संस्कृति तथा साहित्य की कसौटी हैं। जब कभी आप किसी विकट प्रश्न के समाधान का प्रयत्न कर रहे हों, तो इन्हें सीधे देखें। अमेरिका या जापान में ये समस्याएँ कैसे हल हुई हैं, यह कम सोचें; किंतु असल में ये हैं क्या और किस या किन कारणों से ये ऐसे हो गए हैं, इसी को अधिक सोचें।’

इस प्रकार इसमें संदेह नहीं हि लेखक ने आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के व्यक्तित्व और चिंतन को अत्यंत सजगतापूर्वक सहज भाषा शैली में यथावश्यक उदाहरणों और खुलासों के साथ विवेचित किया है । अतः इस पुस्तक का हिंदी जगत में स्वागत होना स्वाभाविक है।अंत में द्विवेदी जी की प्रसिद्ध कविता ’रजनी-दिन नित्य चला ही किया’ के आरंभिक छंद को प्रस्तुत करते हुए हम अपनी बात पूरी करते हैं –


’रजनी-दिन नित्य चला ही कियामैं अनंत की गोद में खेला हुआ;

चिरकाल न वास कहीं भी कियाआँधी से नित्य धकेला हुआ;

न थका न रुका न हठा न झुका, किसी फक्कड़ बाबा का चेला हुआ:

मद चूता रहा, तन मस्त बना अलबेला मैं ऐसा अकेला हुआ।'

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समीक्षित कृति : आकाशधर्मी आचार्य पं. हजारी प्रसाद द्विवेदी(व्यक्तित्व एवं कृतित्व)लेखक : डॉ. हीरालाल बाछोतियाप्रथम संस्करण : २००७मूल्य : १४५ रूपये साजिल्दप्रकाशक: किताबघर प्रकाशन,४८५५/२४, दरियागंज,नई दिल्ली-११०००२

3 टिप्‍पणियां:

अनूप शुक्ल ने कहा…

सुन्दर समीक्षा की है आपने। शुक्रिया।

RISHABHA DEO SHARMA ऋषभदेव शर्मा ने कहा…

@अनूप शुक्ल


आभारी हूँ.
पुस्तक छोटी है, लेकिन एक तो पर्याप्त सूचनाप्रद है, और दूसरे भ्रमात्मक नहीं है . [निर्भ्रान्तता आलोचना में दुर्लभ होती जा रही है न!]

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद ने कहा…

पंडितजी पर डॊ. बाछोतियाजी की लिखी पुस्तक का अच्छा परिचय मिला- आभार॥