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गुरुवार, 27 फ़रवरी 2014

[व्याख्यान] 'सूं सां माणस गंध' पर प्रो. दिलीप सिंह





6/9/2013 को दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, हैदराबाद में 
डॉ. ऋषभ देव शर्मा के छठे कविता-संग्रह 
''सूं सां माणस गंध'' का
 लोकार्पण करते हुए दिया गया 
वरिष्ठ साहित्य-भाषा-चिंतक प्रो. दिलीप सिंह का 
अत्यंत सारगर्भित दो-टूक वक्तव्य.

मंगलवार, 25 फ़रवरी 2014

[व्याख्यान] तेलंगाना के प्रजाकवि कालोजी और उनकी कविता




'MERI AWAZ' - AN ANTHOLOGY OF 100 POEMS OF KALOJI TRANSLATED FRON TELUGU TO HINDI - WAS RELEASED ON 25.1.2014 AT SUNDARAYYA HALL, HYDERABAD BY FAMOUS FILM DIRECTOR B. NARSING RAO IN PRESENCE OF VIPLAVA POET VARAVARA RAO. MANNAR VENKATESHWAR COORDINATED THE FUNCTION ORGANISED BY ANDHRA PRADESH HINDI ACADEMY. RISHABHA DEO SHARMA SPOKE ON THE BOOK AT LENGTH.
HERE IS THE RECORDING OF RISHABHA DEO SHARMA'S SPEECH ON ''KALOJI AND HIS POETRY''.

शनिवार, 8 फ़रवरी 2014

असगर वजाहत के कथा संग्रह 'डेमोक्रेसिया' की समीक्षा

('भास्वर भारत' / जनवरी-फरवरी 2014 / पृष्ठ 54)

डेमोक्रेसिया अर्थात लोकतंत्र की भदेस भणिति
समीक्षक : ऋषभ देव शर्मा 
वरिष्ठ कथाकार असगर वजाहत हिंदी कहानी-उपन्यास के क्षेत्र में पिछले पाँच दशक से सक्रिय हैं. वे कथ्य और शिल्प की दृष्टि से निरंतर कुछ-न-कुछ नया करते रहते हैं. ‘डेमोक्रेसिया’ (2013) की कहानियाँ भी उनकी नव-नवोन्मेषशालिनी मेधा की परिचायक हैं. संग्रह का शीर्षक अपने आप में इसका द्योतक है. एक तरफ तो यह लोक और तद्भवता की सूचना देता है तथा दूसरी ओर लोकतंत्र के विडंबनापूर्ण, त्रासद और हास्यास्पद होते चले जाने को उभारता है. डेमोक्रेसी के भीतर से उभरती निरंकुशता, बेपरवाही और हताशा जैसी स्वतंत्र भारत की सच्चाइयाँ इस संग्रह की कहानियों में कुछ इस तरह साकार होती हैं कि पढ़ने वाले के रोंगटे खड़े हो जाते हैं.
समाज के निरंतर अमानुषिक और क्रूर होते जाने को भी लेखक ने बखूबी दर्ज किया है. संग्रह की पहली ही कहानी ‘ड्रेन में रहने वाली लड़कियाँ’ इसका ज्वलंत प्रमाण है. यह कहानी असगर वजाहत को एक किस्सागो और शैलीकार के रूप में प्रतिष्ठा दिलाने के लिए काफी है. लेखक ने समसामयिक वीभत्स सच को फैंटेसी के साथ जोड़कर संसार से लड़कियों के गायब होते जाने और नालियों में आबाद होते जाने की कल्पना के सहारे पुरुषवादी मानसिकता पर गहरी चोट की है. ‘ड्रेन में रहने वाली लड़कियाँ’ शीर्षक यह कहानी स्त्री विमर्श की भी श्रेष्ठ कहानी मानी जा सकती है. यह स्त्री विमर्श तब चरम पर पहुँचता है जब गटर में रहने वाली लड़की को पाने के लिए गटर में उतरने वाले हिम्मती पुरुष को दूसरे सब पुरुष अपना पुरुषत्व दे देते हैं. तो भी अंततः वह किसी भी लड़की को ड्रेन से बाहर लाने में सफल नहीं होता बल्कि जब ड्रेन से वापस आता है तो दुनिया के सारे पुरुषों से लिए गए पुरुषत्व को खो चुका होता है. लेखक एक व्यंग्योक्ति के साथ कहानी को पूरा करता है – ‘हे, आजकल संसार में रहने वाले आदमियो, तुम्हारे पास और कुछ हो या न हो, पुरुषत्व नहीं है जबकि ‘ड्रेन’ में रहने वाली लड़कियाँ, लड़कियाँ हैं, पर उनके पास पुरुषत्व है.’ तमाम पुरुषों से पुरुषत्व इकट्ठा करने की कल्पना दुर्गा के अवतार की याद दिलाती है जिन्हें महिषासुर का मर्दन करने के लिए समस्त देवताओं ने अपनी शक्तियाँ दी थीं. सामूहिक शक्ति प्राप्त करके देवी तो विजयी हो गई थी लेकिन इस कहानी का हिम्मती पुरुष पराजित होता है. एक स्त्री विरोधी समाज का भविष्य इसके अलावा और हो भी क्या सकता है?
यह तो हुई संग्रह की पहली कहानी. आगे बढ़ने से पहले एक भार फिर से ‘भूमिका’ पलटकर देख लें. कहानी कला और अपनी रचना प्रक्रिया के बारे में असगर वजाहत ने यहाँ कुछ बड़े पते की बातें कही हैं – 1. हर अभिव्यक्ति को रोचक होना चाहिए. 2. रचना कुछ मूल्यों, विचारों, प्रतिक्रियाओं, अस्वीकृतियों के बिना निरर्थक है. 3. समाज को अधिक मानवीय समाज बनाना ही कलाओं का काम रहा है. 4. अच्छी रचना का रहस्य कई तरह के अनुपातों में छिपा होता है. 5. अनुपातों का बिगड़ना, उनसे खिलावाड़ करना, उसे तोड़ना और जोड़ना – अनुपात का विस्तार और कला की सुंदरता में शुमार होता है. 6. खिलाड़ी और लेखक दोनों अपने क्षेत्रों में ‘अद्भुत’ की तलाश करते हैं. 7. एक शैली की चपेट में आ जाना रचनाकार की मौत होती है. 8. जीवन इतना नंगा हो गया है कि अब लेखक उसकी परतें क्या उखाड़ेगा! 9. मानवीय संबंधों में जितनी गिरावट आई है, मनुष्य का जीवन जितना मूल्यहीन हुआ है, सत्ता जैसा निर्मम नाच दिखा रही है, मूल्यहीनता की जो स्थिति है, स्वार्थ साधने की जो पराकाष्ठा है, हिंसा और अपराध का बोलबाला है, सत्ता और धन के लिए कुछ भी कर देने की होड़, असहिष्णुता और दूसरे को अपमानित करने का भाव जो आज हमारे समाज में है, वह पहले नहीं था. आज हम अजीब मोड़ पर खड़े हैं. रचनाकार के लिए यह चुनौतियों से भरा समय है. 10. साहित्यिक विमर्श राजनैतिक स्तर पर उपेक्षित जातियों, समूहों तथा समुदायों के स्थापित होने के विमर्श है. राजनीति में जिनको जिनको स्वर मिलता गया उन्होंने साहित्य में अपने विमर्श खड़े करने शुरू कर दिए. 11. मेरे लिए कहानी लिखना लगातार कठिन होता जा रहा है. 12. अखबारी लेखन और कहानी लेखन के अंतर्द्वंद्व ने मेरी कहानियों पर प्रभाव डाला है. पहला प्रभाव यह पड़ा है कि मेरी कहानियों से केंद्रीय पात्र गायब हो गए हैं. अब समय मेरी कहानियों का प्रमुख पात्र है. 13. व्यंग्य, हास्य, नाटकीयता आदि के माध्यम से अपने समय और समाज को समझने का काम मुझे अच्छा लगता है. 14. उत्तर आधुनिकता और दूसरे साहित्यिक-सामाजिक आंदोलन जो कहीं और किसी और देश के इतिहास और समाज में महत्वपूर्ण हो सकते हैं, वे हमारे यहाँ भी होंगे, यह मानना ज्यादती होती. दरअसल हम पश्चिम से आक्रांत हैं.
इन लेखकीय स्थापनाओं और उद्घाटनों के आलोक में यदि ‘डेमोक्रेसिया’ की कहानियों को देखा जाए तो कहना होगा कि ये कहानियाँ हमारे आज के समय और समाज के अमूर्तन से उपजी कहानियाँ हैं जिनमें प्रतीक विधान और फैंटेसी के रास्ते भारतीय लोकतंत्र की व्यापक सच्चाइयों को हास्यास्पद और पैरोडीवत स्वरूप में प्रस्तुत किया गया है. इस प्रस्तुति में एक ऐसी नाटकीयता है जो हास्य को करुणा से और पैरोडी को पैथोस से जोड़कर करुणहास्य की सृष्टि करती है. यहाँ सामूहिक मानवीय संवेदना केंद्र में है जिसे हम इक्कीसवीं सदी के इन आरंभिक वर्षों के भारतीय जनमानस की संवेदना भी कहा सकते हैं. लेखक ने विचारधारा और विमर्श के दबाव से इन कहानियों को बचाया है इसलिए ये कहानियाँ वर्गों और समुदायों की नहीं मनुष्यों की कहानियाँ हैं. यथास्थान कहानी सुनाने के अलग अलग तरीकों का इस्तेमाल करते हुए भदेस भणिति के माध्यम से डेमोक्रेसी के डेमोक्रेसिया बन जाने की उपहासास्पद शोकांतिका को संप्रेषित करने में इस कहानी संग्रह की चरितार्थता स्वयं सिद्ध है. प्रमाणस्वरूप ‘मुखमंत्री और डेमोक्रेसिया’ शृंखला की इस संक्षिप्त सी कहानी को देखा जा सकता है –

“मुखमंत्री कोसी नदी में से निकले. उनके एक हाथ में पूड़ियों का थाल और दूसरे हाथ में मिठाईयों का थाल है.
मुखमंत्री ने आवाज़ लगाई, “आईए जो-जो हमारे वोटर हैं, भोजन कर लीजिए.” सब लोग भोजन पर टूट पड़े. थाल सफाचट हो गए.
कुछ लोगों में मुखमंत्री से कहा, “आपके विरोधियों ने भी भोजन कर लिया है.”
मुखमंत्री ने विरोधियों को पकड़ा. उनके गले में हाथ डाला और गिन-गिनकर एक-एक पूड़ी और एक-एक मिठाई का टुकड़ा निकाल लिया.
फिर मुखमंत्री बोला, “जाइए उनका खाइए जिन्हें वोट देते हैं .. अरे ये तो डेमोक्रेसिया है भइया.”
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डेमोक्रेसिया,
असगर वजाहत, 
2013, 
राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 
मूल्य : रु. 250, 
पृष्ठ – 144

मंगलवार, 4 फ़रवरी 2014

तेलुगु कवि के.एस. रमणा के काव्यानुवाद की 'भूमिका'

गहन जीवनानुभवों की कलापूर्ण अभिव्यक्ति में माहिर विलक्षण प्रतिभावान कवि के. एस. रमणा (1956) यद्यपि मध्यायु में ही यह जगत छोड़ गए तथापि तेलुगु जगत को उन्होंने अपनी लेखनी से मेधा का जो प्रसाद दिया है वह उनकी कीर्ति को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए पर्याप्त है. वक्तव्य और नारेबाजी से आक्रांत सपाट कविता के युग में सघन बिंबों वाली कविता रचने वाले के. एस. रमणा ‘निशि’ कविता के पुरोधा माने जाते हैं. घोर नैशांधकार से संत्रस्त वैयक्तिक, सामाजिक, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय परिवेश के त्रास को झेलने, देखने, भोगने वाले आज के मनुष्य की चिंताओं, मनोदशाओं और छटपटाहटों को व्यंजित करने वाली इन कविताओं में विशेष रूप से आकृष्ट करने वाली बात यह है कि कवि अंधकार के समक्ष आत्मसमर्पण नहीं करता तथा प्रकाश की छोटी से छोटी किरण को पूरा सम्मान देता है. इसका रहस्य उसकी अटूट जिजीविषा और अथाह जीवनासक्ति में निहित है. 

इसमें संदेह नहीं कि आज का मनुष्य अपने अंतरंग से लेकर जागतिक जीवन तक सर्वत्र युद्धरत है. ये युद्ध तरह तरह के हैं. बाहर के युद्ध देह के मर्मस्थलों पर वार करते हैं तो भीतर के युद्ध गोपनगुह्य अंतरलोकों को क्षत-विक्षत करते हैं. ऐसे में कवि युद्ध और प्रेम को आमने-सामने रखकर यह सूक्ति गढ़ता है – युद्ध में/ घाव होते हैं/ अनिवार्य है/ प्रेम के समान ही. प्रेम के अनुभवों को सर्वथा नई भंगिमा में व्यंजित करते हुए के.एस. रमणा ‘एक काला प्रेम गीत’ रचते हैं. कवि को एक सपने से प्रेम है, सपने को सच करते आंदोलन से प्रेम है, आंदोलन को जीवन मान चुके ‘तुम’ से प्रेम है, ‘तुम’ के साथ इस राह पर चलना अत्यंत कष्टकर है लेकिन कवि को संतोष है कि यह उसका अपना चयन है - भले ही इसके बदले में कचहरी का कटघरा, जेल की दीवार, लाठियों का चुंबन और संगीन के कटाक्ष मात्र मिलें. संतोष यह है कि - “तुम तो रोबेन द्वीप के बंदी हो/ मैं मैं हूँ न, सहज ही/ मेरे हृदय में उमड़ते प्रेम का बंदी बना.” प्रेम के इस पंथ में जब अकेलेपन से सामना होता है तब इसकी करालता समझ में आती है – “ हाँ ! अकेलापन एक सूली-सा है/ यह बिलकुल सच है/ सूली पर छितरे जीसस के/ खून की कसम खाकर कहता हूँ.” पर प्रेमपथिकों को इसकी परवाह कब रही है? वे तो आग के दरिया में डूबकर जाने के लिए अभिशप्त हैं; और इसी में उनका आनंद निहित है – “अग्निकुंड में चलने का निर्णय/ जब मैंने लिया/ तभी मैंने ताप की चिंता छोड़ दी./ तेरे ओठों की लालिमा का मूल/ मेरे रुधिर का उफान जब बना/ मेरे अस्तित्व का दुःख/ तुझे शहनाई के गीत-सा भासित हुआ.”

मृत्यु और अंधकार ने आज के मनुष्य को सब ओर से अपनी अजगरी गुंजलक में लपेट रखा है - कुछ इस तरह कि लपेट का कसाव दिनानुदिन बढ़ता जाता है. ऐसे में ‘निशि’ कविता में यदि मृत्यु बारंबार आती है तो इसे कवि की आतंकित मनोदशा न मानकर मृत्युबोध का प्रतीक मनाना उचित होगा. थेनेटॉस और पैथॉस की विषम सच्चाइयों का बयान करती कविताओं में मृत्यु के अनेक चित्र हैं – मनुष्य और मुर्दे को कौन अलग करता है/ कपाल मोक्ष के लिए इंतजार करती आँखों में नमी नहीं/ जीवन यात्रा को रोकना/ मृत्यु में जीवन की इच्छा को तलाशना/ अचानक मर जाना/ मरणोपरांत ही बतियाना/ सूली पर चढ़ने के बाद ही जीवन को समझना/ समाधि से ही जागरण के लिए प्रार्थना करना/ मृत व्यक्तियों को भी जीवित रखने के प्रयत्न शुरू करना/ आँखों पर वसंत की चिता सुलगना/ मृत्यु को वश में करना/ पल पल मृत्यु बाधा की प्रतीक्षा में तार का टूटना. लेकिन कवि का यह विश्वास इन सारी मृत्युओं से बड़ा है कि “अस्तित्व सागर के उस ओर है एक आकाश/ काली शीतल रात के जागरण में मुकुलित/ तिनकों के माथे पर/ दमकती पसीने की बूँदें.” यह विश्वास कवि को उस भारतीय चेतना से विरासत में मिला है जो मृत्यु को सत्य मानते हुए भी उसे अंतिम सत्य नहीं मानती. 

जीवन संघर्ष और भीषण अमानुषिक यथार्थ का बोध रमणा की कविताओं को एक झील-सा गहरा ठहराव प्रदान करता है. यह ठहराव रचना-प्रौढ़ि के क्षणों में सूक्तिवत झलकता छलकता है – सौ पुरस्कारों से बढ़कर एक तिरस्कार महान है/ नग्नता से बढ़कर कोई सौंदर्य नहीं/ मरण की पहचान के लिए जीवित होना जरूरी है न !/ किसी भी विश्वास में डूब जाना ही अच्छा है – किनारे पर पड़ी मछली-सा पल-पल तड़पते मरने की अपेक्षा/ युद्ध और युद्ध के बीच का विराम ही शांति है/ अज्ञात एवं आदिम भय के देव चिरंजीव हैं.”

दरअसल के.एस. रमणा बिंबों के कवि हैं. वे प्रत्यक्ष अनुभवों को अप्रस्तुत छवियों के साथ जोड़कर ऐसे शाब्दिक दृश्यबंध रचते हैं कि बोध के विविध धरातल सहज ही अग्रप्रस्तुत हो उठते हैं. शाम होती है तो कवि को लगता है कि सूरज अपनी तलवार तेज कर रहा है और चाँद जख्मों को कुरेदता निकल पड़ा है. इसी प्रकार जब भोर फूटती है तो कवि को लगता है कि सारे पंछी निशांत गायन के लिए पर खोल रहे हैं और निद्रा में मग्न नयन पलकों की अंजुली से प्रकाश का पान कर रहे हैं. कवि का यह लगना उसे औरों से अलग करता है क्योंकि इस लगने में ही सौंदर्यबोध का वह मर्म निहित है जिसे काव्यशास्त्री कभी व्यंजना, कभी ध्वनि तो कभी प्रतीयमानता कहते हैं. कवि की सफलता इसमें है कि उसकी यह प्रतीति सबकी प्रतीति बन जाए. कहना न होगा कि कवि के.एस. रमणा इस दृष्टि से सफल कवि हैं. कुछ और बिंबों का सौंदर्य विधान उल्लेखनीय है – पूरब की दिशा में दीप को देख/ प्रकाश नदी में डुबकी लगाकर/ सारी बातें अपने मौन से मुक्त हुईं *** निश्चल दीप के अतराफ हिलती काली लहरें/ कल की यादें हैं और भविष्य की आशाएँ हैं *** नमी विहीन धारा की छाती पर/ कोलाहल-सा बरसता आदिम भय *** बचपन के कोमल गाल पर नटखट हवा की पुलकावालियाँ. रमणा की काव्यभाषा की यह बिंबात्मकता तब और भी प्रभविष्णु हो उठती है जब वे सृजनात्मक विशेषण-विशेष्य संबंधों की सृष्टि करते हैं. जैसे –विकृत चर्म, कोको बालिका, पेप्सी बाबू, ऊष्मल सूर्योदय, शीतल सूर्यास्त, प्रथम प्राणी, अंतिम सांस, शैशव धूप, चौंकती मछलियों के बच्चे, फिसलते शौक़ीन पत्थर, पसीजते दिल, डरावनी निशानियाँ, घोर निशा, मृदुल गहन मधुरता.

अंततः यह रेखांकित करना आवश्यक है कि जीवनासक्ति और मृत्युबोध के बीच के.एस. रमणा की कविताओं में सपनों के टूटने की आहटें हैं, अपनों के छूटने की पीड़ा है, गिरते मानवीय मूल्यों की चिंता है, अत्याचार के आगे अवश होते जनसामान्य की करुणा है, मानवाधिकारों के प्रति सजग नागरिक चेतना है, सामाजिक न्याय को निरंतर स्थगित करती हुई आर्थिक विषमता से उपजी हताशा है – और इन सबसे ऊपर संवेदना से उपजे जीवन सौंदर्य के प्रति आस्था है : “वेदना और वेदना के बीच का विराम भले ही एक पल का हो/ जीवन सौंदर्य का रहस्य हमारी समझ में आ ही जाता है.”

विषम अनुभवों की जटिल अभिव्यक्ति के कवि के रूप में के.एस. रमणा एक चुनौतीपूर्ण कवि हैं. वे अपने पाठक से विशिष्ट काव्य दीक्षा की अपेक्षा रखते हैं. ऐसे में स्वाभाविक है कि उनकी कविताओं का अनुवाद और भी चुनौतीपूर्ण कार्य है. अनुवादश्री डॉ. एम. रंगैया ने इस चुनौती को स्वीकार किया है और रमणा के काव्य का यह हिंदी अनुवाद कार्य अत्यंत मनोयोगपूर्वक संपन्न किया है. इसमें संदेह नहीं कि उनकी यह अनुवाद साधना पूर्णतः सार्थक और सफल है. आशा ही नहीं बल्कि मुझे पूरा विश्वास है कि हिंदी जगत उनके इस सारस्वत अभियान का स्वागत और सम्मान करेगा. 

शुभकामनाओं सहित 
ऋषभ देव शर्मा 

वसंत पंचमी :  4 फरवरी 2014

सोमवार, 3 फ़रवरी 2014

तेलंगाना के प्रजाकवि कालोजी की 'मेरी आवाज़' के 'दो शब्द'

दो शब्द


जनकवि कालोजी नारायणराव (1914 - 2002) को उनकी जन्मशताब्दी के अवसर पर इस अनूदित कविता संग्रह ('मेरी आवाज़' - 2014) के माध्यम से अपनी श्रद्धा समर्पित करने का आंध्रप्रदेश हिंदी अकादमी का निर्णय स्तुत्य और श्लाघनीय है. कालोजी का नाम बीसवीं शताब्दी में हुए उन महान भारतीय साहित्यकारों में सम्मिलित है जिन्होंने अपने समय और समाज की नब्ज को पहचाना तथा उसकी चिंता और चेतना को ऐसी ओजपूर्ण अभिव्यक्ति प्रदान की जिसकी गूँज शताब्दियों पार तक काल के कर्ण-कुहरों में ध्वनित-प्रतिध्वनित होती रहेगी. 

यह कविता संग्रह कवि कालोजी की अपनी आवाज का प्रतिनिधि है. कवि की यह आवाज उनके मानस की अंतरंग गहराइयों से फूट पड़ी स्वतःस्फूर्त आवाज है. अन्याय करने को ही अन्याय न मानकर अन्याय सहने, और उससे आगे बढ़कर अन्याय देख कर चुप रह जाने तक को अन्याय की कोटि में रखने वाले कालोजी की संवेदना अत्यंत गहन है, सूक्ष्म है और व्यापक है. उनका हृदय वाल्मीकि-परंपरा की उस करुणा से आप्लावित है जो किसी पर भी किसी भी प्रकार का अन्याय और अत्याचार होते देखकर चीत्कार कर उठती है. ये कविताएँ कवि हृदय के उसी चीत्कार की निष्पत्तियाँ हैं. चीत्कार में तराश नहीं होती, आवेग होता है. इन कविताओं में भी सहज आवेग है – पर एक सधे हुए कवि की तराश भी. कालोजी की यह आवाज एक राष्ट्रभक्त स्वतंत्रता सेनानी की आवाज है. कालोजी की यह आवाज हर तरह के अन्याय और शोषण के प्रतिकार की लोकतांत्रिक आवाज है. कालोजी की यह आवाज अभिव्यक्ति पर अंकुश लगाने वाली ताकतों के खिलाफ एक जागरूक नागरिक की आवाज है. कालोजी की यह आवाज उपेक्षा के शिकार तेलंगाना की आवाज है. कालोजी की यह आवाज धोखा खाए हुए जनगण की आवाज है. इस आवाज में दर्द है तो गुस्सा भी. खीझ है तो आवेश भी. जिद है तो संघर्ष भी. आकांक्षा है तो विद्रोह भी, चिंता है तो चेतना भी. कहना न होगा कि कवि कालोजी की यह आवाज कवि कालोजी की अपनी आवाज है जिसमें भारत के आम आदमी की तमाम आवाजें शामिल हैं. यह आवाज व्यक्ति की भी आवाज है और समष्टि की भी. इस आवाज में अभिधेयार्थ के साथ इतने संपृक्तार्थ सम्मिलित हैं कि उन्हें अलग अलग वर्गीकृत करके देखना आसान नहीं है. यही कारण है कि कालोजी कभी हमें वेमना और कबीर के समानधर्मा लगते हैं तो कभी जनकवि नागार्जुन और महाश्वेता देवी के. 

बहुमुखी प्रतिभावान कालोजी का अनुभव संसार जितना व्यापक है अध्ययन भी उतना ही विराट है. उनकी कविताओं को पढ़ते समय उनके अनुभव और अध्ययन की यह विशालता पाठक को चमत्कृत करती है. लेकिन वे इसे ऐसी भाषा-शैली में बाँधकर प्रस्तुत करते हैं कि ये रचनाएँ संप्रेषणीयता और साधारणीकरण का जनपदसुखबोध्य उदाहरण बन जाती हैं. इसमें संदेह नहीं कि कालोजी की कविताएँ प्रसंगगर्भी कविताएँ हैं – राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन के प्रसंग, रजाकार आंदोलन के प्रसंग, हैदराबाद मुक्ति संग्राम के प्रसंग, देश-विदेश की राजनीति के प्रसंग, कांग्रेस के इतिहास के प्रसंग, आपातकाल के प्रसंग और तेलंगाना आंदोलन के प्रसंग तो है ही, अनेक पौराणिक और सांस्कृतिक प्रसंग भी इनके साथ गुँथे हुए हैं. इन प्रसंगों को सहज-ग्राह्य बनाने के लिए तथा जनता की वेदना और विद्रोह चेतना को अधिक मारक बनाने के लिए बहुभाषाविद कवि ने तद्भव और देशज पदावली को ग्रहण करते हुए अपनी विशिष्ट और निजी काव्यभाषा का निर्माण किया है. उन्होंने तेलंगाना अंचल की, साहित्य की दृष्टि से प्रायः उपेक्षित और तिरस्कृत, आंचलिक तेलुगु को काव्यभाषा का दर्जा दिया – सम्मान दिलाया. स्थानीय मुद्दे और स्थानीय भाषा ही नहीं, स्थानीय संस्कृति भी कालोजी की कविता की प्राणरेखा है. उल्लेखनीय है कि ये ही वे तमाम इलाके हैं जिनमें संचरण करना और जिनका भाषांतरण करना अनुवादकों के लिए चुनौतीपूर्ण हो सकता है. 

सरलता और सहजता का अनुवाद करना सरल और सहज नहीं होता. कालोजी का अनुवाद करना भी सरल और सहज नहीं है क्योंकि उनकी कविताएँ ऊपर से एकार्थी लगती हैं लेकिन भीतर से वे अनेक अर्थस्तरों वाली हैं. प्रसन्नता का विषय है कि इन कविताओं के सभी हिंदी अनुवादक स्रोत और लक्ष्य भाषाओं के मर्मज्ञ विद्वान ही नहीं, दोनों भाषा-समाजों की भाषिक संस्कृति और सामाजिक संस्कृति के भी मर्म को समझने वाले हैं. उन्होंने अत्यंत सावधानी के साथ स्रोत के संदेश को सुरक्षित रखते हुए लक्ष्य भाषा की प्रकृति के अनुरूप अनूदित पाठ का गठन किया है. 

यहाँ यह कहना आवश्यक है और प्रासंगिक भी, कि आंध्र प्रदेश हिंदी अकादमी के वर्तमान निदेशक डॉ. के. दिवाकराचारी जी अपनी नियुक्ति के तुरंत बाद से ही अपने ढंग से हिंदी को बढ़ावा देने में और आंध्र के प्रमुख साहित्यकारों की देन के बारे में सारे देश को जानकारी देने के लिए कृतसंकल्प और कार्यरत हैं. अपने इसी शुभ-संकल्प को साकार करने के लिए उन्होंने ‘तेलंगाना की आत्मा’ कालोजी नारायण राव की “ना गोडवा” की तेलुगु कविताओं को “मेरी आवाज़” के नाम से हिंदी में अनुवाद कराकर इस संग्रह के रूप में प्रकाशित करने का श्लाघनीय कार्य किया है. डॉ. के. दिवाकराचारी जी के इस अथक प्रयास में अकादमी के अनुसंधान अधिकारी डॉ. बी. सत्यनारायण, श्रीमती पी. उज्ज्वला वाणी, अनुवादक श्री एन. अप्पल नायुडु, श्रीमती सीएच. इंद्राणी तथा अन्य कर्मचारी भी अपने-अपने योगदान में संलग्न रहे. ये सभी तथा अनुवादक और पाठ-संपादक गण इस सारस्वत अनुष्ठान की संपन्नता के लिए बधाई के पात्र हैं. 

इसमें संदेह नहीं कि हिंदी के पाठक इस काव्य और इसकी काव्यभाषा को अपने हृदय के निकट पाएँगे. आशा की जानी चाहिए कि हिंदी के माध्यम से यह काव्य और भी अनेक भाषाओं तक पहुँचेगा और कालजयी कवि कालोजी की कीर्ति का दिगंतव्यापी प्रसार करेगा. 

शुभकामनाओं सहित 
- ऋषभदेव शर्मा

9 सितंबर 2013, कालोजी जयंती 

द्रष्टव्य- 
 http://hyderabadse.blogspot.in/2014/01/100-25-2014.html

http://hyderabadse.blogspot.in/2014/01/blog-post_26.html

http://www.youtube.com/watch?v=mzh5MKczRvU

http://saagarika.blogspot.in/2013/09/blog-post_24.html