भारत एक बहु-भाषिक और बहु-सांस्कृतिक देश है. इस देश की समस्याएँ व्यापक स्तर पर एक जैसी भी हैं और स्थानीय स्तर पर भिन्न भी. लेकिन जो चीज़ इस महादेश को जोड़कर रखे हुए है वह है इसकी साझी सांस्कृतिक और साहित्यिक विरासत. मुख्य भूमि से भौगोलिक परिस्थितिवश दूर पड़ गए भूखंड भी किसी न किसी रूप में इस विरासत में साझीदार है. ये तमाम साझीदार मनुष्य जीवन को श्रेष्ठतर बनाने की अपनी-अपनी साधनाओं के द्बारा साझी भारतीय संस्कृति और भारतीयता को पुष्ट करते हैं. प्रश्न उठता है क्या भारतीयता क्षेत्रीयताओं के मिश्रण भर का नाम है? शायद नहीं. जब तक ये क्षेत्रीयताएँ परस्पर संवाद नहीं करतीं देश, समाज, मनुष्य, और मनुष्यता के विषय में उदात्त चिंतन नहीं करती, तब तक वे भारतीयता की ओर उन्मुख नहीं हो पातीं. इसी प्रकार यह प्रश्न भी स्वाभाविक है कि क्या विभिन्न भारतीय भाषाओं के साहित्य को एक जगह सजा देने से वह भारतीय साहित्य बन जाता है? जब तक सौंदर्य बोध की सर्वनिष्ठता, मनुष्य, देश और पृथ्वी की बेहतरी के लिए एक सी चिंता नहीं होगी तब तक क्षेत्रीय विशेषताओं के होते हुए भी कोई साहित्य भारतीय साहित्य नहीं बन सकता. गुलाब की सारी पंखुडियां जैसे एक वृंत पर जुड़ी होती हैं सब भारतीय भाषाओं का साहित्य भी जब तक वैसे ही एक जैसे उदात्त प्रयोजन से जुड़ा नहीं होगा तब तक उसे भारतीय साहित्य कैसे कहा जा सकता है? भारतीय साहित्य की यह संकल्पना जहाँ एक ओर भारत की विविधता में एकता को परिपुष्ट करती है वहीं विश्व साहित्य के बीच भारतीयता की पहचान और योगदान को सुनिश्चित कर सकती है. इसके लिए यह बात तो ध्यान में रखनी ही होगी कि भारत में लिखे जा रहे केवल अंग्रेज़ी के साहित्य को भारतीय साहित्य मान लेना बहुत बड़ी भूल है. इसीलिए पिछले कुछ दशकों में इस प्रकार के प्रयास अत्यन्त गंभीरता से किए गए हैं कि भारतीय साहित्य का अपना देसी मुहावरा उभर कर सामने आ सके.इसदृष्टि से डॉ. आर. एस. सर्राजू(1958) का शोधपरक ग्रन्थ 'भारतीय उपन्यास साहित्य का उद्भव : तुलनात्मक समाज शास्त्रीय विश्लेषण(2005) एक सराहनीय प्रयास है.
डॉ. सर्राजू ने अपने अध्ययन में भारतीय भाषाओं में कथा साहित्य की परम्परा एवं गद्य के विकास की पड़ताल करते हुए भारतीय उपन्यास सृजन के तथ्यों और प्रामाणिकता का विवेचन किया है. इसके अनंतर भारतीय उपन्यास साहित्य के उद्भव की पृष्ठभूमि पर विचार किया गया है. उन्होंने भारतीय उपन्यासों के आरम्भ से 1920 तक के विकास का तुलनात्मक समाज शास्त्रीय विश्लेषण किया है और भारतीय उपन्यास की मौलिकता के आधारबिन्दु भी निर्धारित किए हैं. इतना ही नहीं अंत में विश्व के उपन्यास साहित्य के उद्भव सम्बन्धी विवध विचारों का मंथन करते हुए लेखक ने भारतीय उपन्यास साहित्य के सिद्धांत के निरूपण का भी प्रयास किया है.
विवेच्य पुस्तक में जिन 12 भारतीय भाषाओं के उपन्यास साहित्य का विवेचन किया गया है, वे अध्ययन कालीन(1980) अष्टम अनुसूची तक सीमित है. यथा असमी, बंगला, गुजराती, हिन्दी, मराठी, कन्नड़, मलयालम, उड़िया, पंजाबी, तमिल, तेलुगु और उर्दू. जैसा कि मालूम है, तब से अब तक भारतीय संविधान की अष्टम अनुसूची में कई सारी भाषाएँ जुड़ चुकी हैं और उनमे से कई के पास अपनी समृद्ध साहित्य परम्परा है. इसलिए 2005 में प्रकाशित इस पुस्तक में एकाधिक स्थानों पर आठवीं अनुसूची के नाम पर केवन 15 भाषाओं का उल्लेख उचित नहीं लगता. ज़रा सी सावधानी से इसे सुधारा जा सकता था-भले ही मणिपुरी आदि इन बाद में जुड़ी भाषाओं के उपन्यासों का विवेचन न जोड़ा जा सकता. वैसे यहाँ यह कहना अप्रासंगिक न होगा कि इस अध्ययन की दूसरी कड़ी के रूप में इन भाषाओं के उपन्यासों और उनकी भारतीयता की अलग से पड़ताल आवश्यक है. उम्मीद की जाने चाहिए कि डॉ. सर्राजू इस दिशा में प्रयास करके अपने इस अध्ययन को अद्यतनता और परिपूर्णता प्रदान करेंगे उल्लेखनीय है कि विशेष रूप से मणिपुरी भाषा के सम्बन्ध में हिन्दी में पर्याप्त मौलिक और अनूदित सामग्री उपलब्ध है.
यहाँ यह भी कहना आवश्यक है कि विभिन्न भारतीय भाषाओं के प्रथम मौलिक उपन्यास का निर्धारण आम तौर पर विवादास्पद मुद्दा रहा है तथापि कुछ ऐसे उपन्यास अवश्य है जिनकी इस प्रकार के अध्ययन में उपेक्षा नहीं की जा सकती. पंडित गौरी दत्त का 1870 में रचित हिन्दी उपन्यास 'देवरानी जेठानी की कहानी' इसी प्रकार का उपन्यास है. आश्चर्य की बात है कि पृष्ट २९ पर इस कृति को गोविन्द नारायण द्बारा लिखित बताया गया है. तथा आगे कहीं भी इसकी वस्तु और शिल्प आदि पर विचार नहीं किया गया है न ही इसका कोई समाजशास्त्रीय विश्लेषण किया गया है जबकि इसकी कथावस्तु में समाज की दृष्टि से विचार करने की काफ़ी संभावना थी. इसी प्रकार यह तथ्य भी विस्मयकारी है कि बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय के अन्य उपन्यासों पर काफ़ी विस्तार से चर्चा करने के बावजूद 'आनंद मठ' को उल्लेख भर कर के छोड़ दिया गया है.
इन सीमाओं के बावजूद इस ग्रन्थ की विशदता और उपादेयता को नकारा नहीं जा सकता. लेखक की यह स्थापना महत्त्वपूर्ण है कि भारतीय उपन्यास ने प्रथम चरण में राष्ट्रीय इतिहास के स्वरुप संकेतों को नए सामजिक संबंधों के रूप में गठित किया तथा आगे चल कर सुधारवादी विचारधारा को बल मिलने पर एक ओर तो विश्व मानवतावाद का प्रतिपादन किया तथा दूसरी ओर भारत की राजनैतिक स्वतंत्रता की मांग के साथ अपने आप को जोड़ा. संभवतः ये ही वे सर्व सामान्य बिन्दु हो सकते हैं जिनके आधार पर विवेच्य काल के भिन्न-भिन्न भाषाओं के उपन्यासों में से सही अर्थ में 'भारतीय' उपन्यासों का चयन किया जा सकता है. क्योंकि अंततः भारतीयता ही भारतीय साहित्य की कसौटी है, न कि भारतीय भाषाओं में लिखा जाना भर.
* भारतीय उपन्यास साहित्य का उद्भव : तुलनात्मक समाजशास्त्रीय विश्लेषण/
डॉ. आर. एस. सर्राजू/
मिलिंद प्रकाशन, हैदराबाद/
2005/
रुपए-275 /
पृष्ठ-248(सजिल्द)
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