हिंदी पत्रकारिता का प्रश्न राष्ट्रभाषा और खड़ी बोली के विकास से भी संबंधित रहा है। हिंदी भाषा विकास की पूरी प्रक्रिया हिंदी पत्रकारिता के भाषा विश्लेषण के माध्यम से समझी जा सकती है। इस विकास में भाषा के प्रति जागरूक पत्रकारों का अपना अपना योगदान हिंदी को मिलता रहा है। ये पत्रकार हिंदी भाषी भी थे और हिंदीतर भाषा-भाषी भी। इनमें से कई बोली क्षेत्रों के थे, कुछ पहले साहित्यकार थे बाद में पत्रकार बने, तो कुछ ने पत्रकारिता से शुरू करके साहित्य जगत में अपना स्थान बनाया। इन सभी ने अखिल भारतीय स्तर पर बोली और समझी जाने वाली भाषा हिंदी के लिए अपना पूरा जीवन समर्पित किया। इनके लिए हिंदी और राष्ट्रीयता एक दूसरे के पर्याय थे। क्योंकि ये पत्रकार भिन्न भाषा परिवेशों के थे इसलिए हिंदी पत्रकारिता में शैली वैविध्य अपनी चरम अवस्था में दिखाई देता है। हिंदी पत्रकारिता का यह सौभाग्य रहा कि समय और समाज के प्रति जागरूक पत्रकारों ने निश्चित लक्ष्य के लिए इससे अपने को जोड़ा। वे लक्ष्य थे राष्ट्रीयता, सांस्कृतिक उत्थान और लोकजागरण। तब पत्रकारिता एक मिशन थी, राष्ट्रीय महत्व के उद्देश्य पत्रकारिता की कसौटी थे और पत्रकार एक निडर व्यक्तित्व लेकर खुद भी आगे बढ़ता था और दूसरों को प्रेरित करता था। हिंदी के इन पत्रकारों ने न तो ब्रिटिश साम्राज्य के सामने घुटने टेके और न ही अपने आदर्शों से च्युत हुए इसीलिए समाज में इन पत्रकारों को अथाह सम्मान मिला। हिंदी पत्रकारिता के विकासक्रम में कुछ पत्रकार प्रकाशस्तंभ बने जिन्होंने अपने समय में भी अपनी उपस्थिति दर्ज कराई और अनेक युवकों को लक्ष्यवेधी पत्रकारिता के लिए तैयार किया। वास्तव में वह पूरा शुरूआती समय हिंदी पत्रकारिता का स्वर्णयुग कहा जा सकता है। हिंदी के गौरव को स्थापित करने, हिंदी साहित्य को बहुमुखी बनाने, भारतीय भाषाओं की रचनाओं को हिंदी में लाने, हिंदी भाषा और देवनागरी लिपि के महत्व पर टिप्पणी करने तथा इन सबके साथ सामाजिक उत्थान का निरंतर प्रयत्न करने में ये सभी पत्रकार अपने अपने समय में अग्रणी रहे। ’हिंदी प्रदीप’ के संपादक बालकृष्ण भट्ट केवल पत्रकार ही नहीं, उद्भट साहित्यकार भी थे। विभिन्न विधाओं में उन्होंने रचनाएँ कीं जिन्हें पढ़ने पर यह पता चलता है कि भट्ट जी की शैली में कितना ओज और प्रभाव था। सरल और मुहावरेदार हिंदी लिखना उन्हीं से आगे अपने वाले पत्रकारों ने सीखा। हिंदी पत्रकारिता बालकृष्ण भट्ट की कई कारणों से ऋणी है। एक तो उन्होंने निर्भीक पत्रकारिता को जन्म दिया, दूसरे गंभीर लेखन में भी सहजता बनाए रखने की शैली निर्मित की, तीसरे हिंदी साहित्य की समीक्षा को उन्होंने प्रशस्त किया और चौथे हिंदी पत्रकारिता पर ब्रिटिश साम्राज्य के किसी भी प्रकार के अत्याचार का उन्होंने खुलकर विरोध किया। भारतेंदु हरिश्चंद्र (कविवचन सुधा, हरिश्चंद्र मैगजीन,हरिश्चंद्र चंद्रिका, बालाबोधिनी) हिंदी पत्रकारिता के ही नहीं, आधुनिक हिंदी के भी जन्मदाता माने जाते हैं। भारतेंदु ने अपने पत्रों और नाटकों के द्वारा आधुनिक हिंदी गद्य को इस तरह विकसित करने का प्रयत्न किया कि वह जनसाधारण तक पहुँच सके। संस्कृत और उर्दू - दोनों की अतिवादिता से हिंदी को बचाते हुए उन्होंने बोलचाल की हिंदी को ही साहित्यिकता प्रदान करके ऐसी शैली ईजाद की जो वास्तव में हिंदी की केंद्रीय शैली थी और जिसे बाद में गांधी और प्रेमचंद ने ’हिंदुस्तानी’ कहकर अखिल भारतीय व्यवहार की मान्यता प्रदान की। भारतेंदु के लिए स्वभाषा की उन्नति ही सभी प्रकार की उन्नतियों का मूलाधार थी। ’बालाबोधिनी’ महिलाओं पर केंद्रित हिंदी की पहली पत्रिका है। इसमें महिलाओं ने लिखा और भारतेंदु की प्रेरणा से अनेक महिलाएँ हिंदी पत्रकारिता के क्षेत्र में आई। ज्ञान विज्ञान की दिशा में हिंदी पत्रकारिता को समृद्ध करने का कार्य भी भारतेंदु ने ही पहली बार किया। इतिहास, विज्ञान और समाजोपयोगी सामयिक विषयों पर उनकी पत्रिकाओं में उत्कृष्ट सामग्र छपती थी। प्रताप नारायण मिश्र (ब्राह्मण) आधुनिक हिंदी के सचेतन पत्रकार माने जा सकते हैं। उन्होंने हिंदी गद्य और पद्य दोनों को नया संस्कार दिया। इनके समय तक प्रचलित हिंदी या तो अरबी-फारसी निष्ठ थी, या संस्कृतनिष्ठ, अथवा उसमें भारतेंदु की तरह बोलियों का असंतुलित मिश्रण था। मिश्र जी ने ठोस हिंदी गद्य को जन्म दिया। देशज, उर्दू और संस्कृत का जितना सुंदर मिश्रित प्रयोग मिश्र जी में मिलता है, वैसा अन्यत्र दुर्लभ है। वे हिंदी की प्रकृति को एक विशिष्ट शैली में ढालने वाले पहले पत्रकार थे। महामना मदनमोहन मालवीय (हिंदोस्थान, अद्भुदय, मर्यादा)का हिंदी के प्रति दृष्टिकोण दृढ़ था। वे हिंदी के कट्टर समर्थक थे। अखिल भारतीय हिंदी साहित्य सम्मेलन की स्थापना उन्होंने अपने इसी हिंदी प्रेम के कारण की थी। वे समय-समय पर अनेक पत्रों से संबद्ध हुए। हिंदी के प्रति उनका दृष्टिकोण बहुत साफ था कि हिंदी भाषा और नागरी अक्षर के द्वारा ही राष्ट्रीय एकता सिद्ध हो सकती है। नागरी प्रचारिणी सभा, काशी हिंदू विश्वविद्यालय और हिंदी प्रकाशन मंडल की स्थापना करके उन्होंने यह सिद्ध कर दिया कि हिंदी भाषा और भारतीय संस्कृति के उत्थान का रास्ता ही भारत के उत्थान का एक मात्र रास्ता है। मालवीय जी वाणी के धनी थे, जितना प्रभावशाली बोलते थे, उतना ही प्रभावशाली लिखते थे। हिंदी भाषा का ओज उनकी पत्रकारिता से प्रकाशित होता है। मेहता लज्जाराम शर्मा (सर्वहित, वेंकटेश्वर समाचार) गुजराती भाषी थे, लेकिन हिंदी भाषा के प्रचार-प्रसार में उन्होंने अपना सारा जीवन लगा दिया था। उनका दृढ़ विश्वास था कि’एक-न-एक दिन पूरे भारत में हिंदी का डंका बजेगा, प्रांतीय भाषाएँ हिंदी की आरती उतारेंगी, बहन उर्दू इसकी बलैया लेगी तथा अंग्रेजी हतप्रभ होकर हिंदी के गले में फूलों की माला पहनाएगी।’ हिंदी और उर्दू, दोनों भाषाओं की पत्रकारिता को प्रतिष्ठित करने वाले बाबू बालमुकुंद गुप्त (अखबारे-चुनार, हिंदी बंगवासी, भारतमित्र) ने पत्रकारिता को साहित्य निर्माण और भाषा चिंतन का भी माध्यम बनाया। गुप्त जी ने ’भारत मित्र’ में महावीर प्रसाद द्विवेदी की ’सरस्वती’में प्रयुक्त ’अनस्थिरता’ शब्द को लेकर जो लेखमाला लिखी, वह पर्याप्त चर्चा का विषय बनी। इसी तरह उन्होंने ’वेंकटेश्वर समाचार’ के मेहता लज्जाराम शर्मा द्वारा प्रयुक्त ’शेष’ शब्द पर भी खुली चर्चा की। उनकी ये चर्चाएँ उनकी भाषाई चेतना को व्यक्त करने वाली हैं। वे मूलतः उर्दू के पत्रकार थे इसलिए जब हिंदी की सहज चपलता में व्यवधान होता देखते थे तो विचलित हो जाते थे। उनकी व्यंग्योक्तियाँ अत्यंत प्रखर होती थीं। इससे हिंदी पत्रकारिता को नई शैली भी मिली और निर्भीकता, दृढ़ता और ओजस्विता के साथ विनोदप्रियता का अद्भुत सम्मिश्रण भी। वे वास्तव में राष्ट्रव्यापी साहित्यिक विवादों के जनक और व्यंग्यात्मक शैली के अग्रदूत पत्रकार थे। उर्दू भाषा के साथ वे हिंदी की हिमायत करते थे। उर्दू और हिंदी के विवाद में उन्होंने हमेशा हिंदी का पक्ष लिया। माधव राव सप्रे (छत्तीसगढ मित्र, कर्मवीर) रा्ट्रीयता की प्रतिमूर्ति थे। उनकी हिंदी निष्ठा अपराजेय थी। उनका कहना था, ’मैं महाराष्ट्रीय हूँ, परंतु हिंदी के विषय में मुझे उतना ही अभिमान है जितना किसी भी हिंदी भाषी को हो सकता है। मैं चाहता हूँ कि इस राष्ट्रभाषा के सामने भारतवर्ष का प्रत्येक व्यक्ति इस बात को भूल जाए कि मैं महाराष्ट्रीय हूँ, बंगाली हूँ, गुजराती हूँ या मदरासी हूँ।’ हिंदी के मूर्धन्य कथाकार प्रेमचंद का एक प्रेरक स्वरूप उनके जागरूक पत्रकार का भी है। ’माधुरी’, ’जागरण’ और ’हंस’ का संपादन करके उन्होंने अपनी इस प्रतिभा का भी उत्कृष्ट उदाहरण पेश किया और हिंदुस्तानी शैली को सर्वग्राह्य तथा लोकप्रिय बनाने का महत्व कार्य किया। हिंदी के मासिक पत्रों के संपादन में जो ख्याति महावीर प्रसाद द्विवेदी और प्रेमचंद की है वैसी ही ख्याति दैनिक पत्रों के संपादन में बाबूराव विष्णुराव पराड़कर (आज) की है। दैनिक हिंदी पत्रकारिता के वे आदि-पुरुष कहे जा सकते है। उन्होंने हिंदी भाषा का मानकीकरण ही नहीं,आधुनिकीकरण भी किया और हिंदी की पारिभाषिक शब्द संपदा की अभिवृद्धि की। माखनलाल चतुर्वेदी (कर्मवीर, प्रभा, प्रताप) साहित्य, समाज और राजनीति, तीनों को अपनी पत्रकारिता में समेटकर चलते थे। उनकी साहित्य साधना भी अद्भुत थी। उनके भाषण और लेखन में इतना ओज था कि वे भावों को जिस तरह चाहते, प्रकट कर लेते थे। उनका यह स्वरूप भी उनके पत्रों के लिए वरदान साबित हुआ। उनका लेखन हिंदी भाषा के प्रांजल प्रयोग का उदाहरण है। उनका यह कहना था कि ’ऐसा लिखो जिसमें अनहोनापन हो, ऐसा बोलो जिस पर दुहराहट के दाग न पड़े हों।’ अमर शहीद गणेश शंकर विद्यार्थी (अभ्युदय, प्रताप) ने हिंदी पत्रकारिता में बलिदान और आचरण का अमर संदेश प्रसारित किया और हिंदी भाषा को ओजस्वी लेखन का मुहावरा प्रदान किया। इसी प्रकार शिवपूजन सहाय (मारवाड़ी सुधार, मतवाला, माधुरी) अकेले ऐसे पत्रकार हैं जिनका हिंदी की विविध शैलियों पर समान अधिकार था। स्वातंत्र्योत्तर हिंदी पत्रकारिता में अज्ञेय (प्रतीक, नया प्रतीक, दिनमान, नवभारत टाइम्स) ने साहित्यिक पत्रकारिता को नवीन दिशाओं की ओर मोड़ा। ’शब्द’ के प्रति वे सचेत थे इसलिए भाषा और काव्य भाषा पर ’प्रतीक’ में संपादकीय, लेख, चचाएँ, परिचर्चाएँ प्रकाशित होती रहती थीं। अज्ञेय ने ’दिनमान’ के माध्यम से राजनैतिक समीक्षा और समाचार विवेचन की शैली हिंदी में विकसित की। उन्होंने’नवभारत टाइम्स’ के साहित्यिक- सांस्कृतिक परिशिष्ट को ऊँचाई प्रदान की जिससे कि दैनिक पत्र का पाठक भी इनके महत्व को समझने लगा। धर्मवीर भारती (धर्मयुग) ने सर्वसमावेशी लोकप्रिय पत्रिका की संकल्पना साकार की जिसमें राजनैतिक, साहित्यिक, सांस्कृतिक सामग्री के साथ ही फिल्म, खेल, महिला जगत,बालजगत जैसे स्तंभ सम्मिलित हुए। धर्मवीर भारती की जागरूक दृष्टि ने हिंदी रंगमंच व लोक कलाओं को भी महत्व दिया और नई नई विधाओं जैसे यात्रावृत्तांत, रिपोर्ताज, डायरी आदि में लेखन को भी। इससे हिंदी भाषा की अनेकानेक विधाओं और प्रयुक्तियों का बहुआयामी विकास हुआ। आर्येंद्र शर्मा (कल्पना) मूलतः वैयाकरण थे। उनकी पुस्तक ’बेसक ग्रामर ऑफ हिंदी’भारत सरकार ने प्रकाशित की जिसे आज भी हिंदी का मानक व्याकरण माना जाता है। भाषा के प्रति उनकी गंभीरता और अच्छी रचनाओं को पहचानने की विवेकी दृष्टि ने ’कल्पना’ को अपनी एक अलग जगह बनाने में मदद की। छठे दशक से हिंदी में विभिन्न नए-नए क्षेत्रों की पत्रकारिता का उभार दिखाई देने लगता है। इसके लिए हिंदी को नई शब्दावली और अभिव्यक्तियों की आवश्यकता पड़ी। वास्तव में किसी भी भाषा से बाह्यजगत की संकल्पनाओं को अपनी भाषा में ले आना और फिर उन्हें स्थापित कर लोकप्रिय बनाना आसान काम नहीं है लेकिन पत्रकारिता हमेशा से इस कठिन कार्य को अपनी पूरी दक्षता और दूरदृष्टि से साधती रही है। फिल्म पत्रकारिता का ही उदाहरण लें तो फिल्मों का जन्म भारत में नहीं हुआ और फिल्म तकनीक से लेकर उसकी वितरण व्यवस्था तक की भाषाई उद्भावना हमारी भाषाओं में नहीं थी। जब भारत में फिल्में बनना शुरू हुईं और उन्हें अपार लोकप्रियता मिली तो पत्रकारिता ने बाह्यजगत के इस विषय क्षेत्र को स्थान दिया और इसकी अभिव्यक्ति का मार्ग बनाया। हिंदी पत्रकारिता में फिल्म पत्रकारिता लोकप्रियता के शिखर पर पहुँची तो इसीलिए कि उसने हिंदी भाषा को फिल्म-प्रयुक्ति की तकनीकी अभिव्यक्ति में भी समर्थ बनाया और पाठकों का ध्यान रखते हुए भाषा में रोचकता और मौजमस्ती की ऐसी छटा बिखेरी कि फिल्म पत्रकारिता की भाषा अपना एक निजी व्यक्तित्व लेकर आज हमारे सामने हैं। छायांकन (फोटोग्राफी), ध्वनिमुद्रण (साउंड रिकार्डिंग), नृत्य निर्देशन (कोरियोग्राफी) जैसे पक्ष अनुवाद के माध्यम से पूरे किए गए तो शूटिंग, डबिंग, लोकेशन, आउटडोर, इनडोर, स्टूडियो को अंग्रेजी से यथावत ग्रहण करके हिंदी में प्रचलित किया गया। बॉक्स-आफिस के लिए टिकट-खिड़की जैसे प्रयोगों का प्रचलन हिंदी पत्रकारिता की सृजनात्मक दृष्टि और अंग्रेजी शब्द के संकल्पनात्मक अर्थ के भीतर जाकर हिंदी से नया शब्द ग्ढ़ने की क्षमता का स्वतः प्रमाण है। फिल्मोद्योग जैसे संकर शब्दों की रचना भी हिंदी पत्रकारिता ने बड़ी संख्या में की जो आज अपनी अनिवार्य जगह बना चुके हैं, या कहा जाए कि हिंदी फिल्म पत्रकारिता की प्रयुक्ति का आधार बन चुके हैं। इस संकरता को हिंदी फिल्म पत्रकारिता वाक्य स्तर पर भी स्वीकृति देती है - कैमरा फेस करते हुए मुझे दिक्कत हुई, एग्रीमेंट साइन करने के पहले मैं पूरी स्क्रिप्ट पढ़ता हूँ,न्यूड सीन अगर एस्थेटिक ढंग से फिल्माया जाए तो मुझे कोई उज्र नहीं, ’फ़िजा’ के प्रीमियर पर सभी स्टार मौजूद थे - इत्यादि। इसका तात्पर्य यह है कि फिल्म पत्रकारिता ने हिंदी भाषा के माध्यम से नए अंग्रेजी शब्दों/संकल्पनाओं से भी क्रमशः अपने पाठकों को परिचित कराने का बड़ा काम किया है। वे थ्री-डायमेंशनल के साथ-साथ त्रि-आयामी का और ड्रीम-सीक्वेंस के साथ-साथ स्वप्न-दृश्य का प्रयोग करते चलते हैं। पाठक जिस शब्द को स्वीकृति प्रदान करता है, वह स्थिर हो जाता है और अन्य दूसरे शब्द बाहर हो जाते है। इससे यह भी पता चलता है कि पत्रकारिता किसी प्रयुक्ति-विशेष को बनाने या निर्मित करने का ही काम नहीं करती, बल्कि उसे चलाने, पाठकों तक ले जाकर उनकी सहमति जानने और लोकप्रियता की कसौटी पर इन्हें कसने का भी काम करती है। ऐसा ही क्षेत्र खेलकूद पत्रकारिता का भी है। क्रिकेट और टेनिस जैसे जो खेल सर्वाधिक लोकप्रिय हैं। उनकी संकल्पनात्मकता भारतीय नहीं है। पत्रकारिता ने ही इन्हें हिंदी में उजागर करने का प्रयत्न किया है। खेलकूद की हिंदी पत्रकारिता ने अंग्रेजी भाषा के कई मूलशब्दों को यथावत अपनाया क्योंकि ये शब्द उन्हें पाठकीय बोध की दृष्टि से बाह्य लगे और इसीलिए इनके अनुवाद का प्रयत्न नहीं किया गया। जैसे, स्लिप, गली, मिड ऑन, मिड ऑफ, कवर, सिली प्वाइंट - जैसे शब्द जो क्रिकेट के खेल की एक विशेष रणनीति के शब्द हैं, अतः इस रणनीति को किसी शब्द के अनुवाद द्वारा नहीं, बल्कि शब्द की संकल्पना को हिंदी में व्यक्त करते हुए पाठकों के मानस में स्थापित किया गया। इतना ही नहीं, इन आगत शब्दों के साथ एक और प्रक्रिया भी अपनाई गई जिसे ’हिंदीकरण’ की प्रक्रिया कहा जाता है अर्थात् इन अंग्रेजी शब्दों के साथ रूप-परिवर्तन के लिए हिंदी के रूपिमों को इस्तेमाल किया गया जैसे रन/रनों, पिच/पिचें,विकेट/विकेटों, ओवर/ओवरों इत्यादि। कहीं-कहीं तो इस रूप-परिवर्तन के साथ ही ध्वन्यात्मक परिवर्तन भी हिंदी की अपनी प्रकृति का रखा गया है जैसे कैप्टेन/कप्तान और कैप्टेंसी/कप्तानी। अनुवाद के दोनों स्तर खेलकूद पत्रकारिता की हिंदी में मिलते हैं - शब्दानुवाद और भावानुवाद। शब्दानुवाद के स्तर पर - टाइटिल/खिताब, सेंचुरी/शतक, सिरज/शृंखला, वन-डे/एकदिवसीय आदि को देखा जा सकता है तो भावानुवाद के स्तर पर - एल.बी.डब्ल्यू/पगबाधा, कैच/लपकना आदि को। इसका तात्पर्य यह है कि नई प्रयुक्तियों के निर्माण में हिंदी पत्रकारिता सृजनात्मकता को साथ लेकर चलती है। सृजन के अभाव में लोकप्रिय प्रयुक्ति निर्मित नहीं हो सकती। इस अभाव ने ही प्रशासनिक हिंदी को जटिल और अबूझ बना दिया है। इस सृजनात्मकता का हवाला उन अभिव्यक्तियों के जरिए भी दिया जा सकता है जो हिंदी की खेल पत्रकारिता ने विकसित की हैं। इन्हें हम हिंदी की ’अपनी अभिव्यक्तियाँ’ भी कह सकते हैं, जैसे - पूरी पारी चौवन रन पर सिमट गई। तेंदुलकर ने एक ओवर में दो छक्के और तीन चौके जड़े। भारतीय टीम चौवन रन बनाकर धराशायी हो गई। इनके साथ ही हिंदी पत्रकारिता में अंग्रेजी की अभिव्यक्तियों को लोकप्रिय बनाने की प्रक्रिया भी दिखाई देती है - द्रविड़ अपने फॉर्म में नहीं थे। शोहैब अख्तर की गेंदबाजी में किलिंग इंस्टिक्ट दिखाई दिया। रन लेते समय पिच की डेफ्थ नहीं समझ पाए। खेलकूद पत्रकारिता ने अंग्रेजी के तकनीकी शब्दों को अपने पाठकों में स्वीकार्यता दिलाई है और वाक्यों के बीच इनका प्रयोग करके धीरे-धीरे इन्हें हिंदी पत्रकारिता की शब्दावली के रूप में स्वीकार्य बना दिया है। नो बॉल, वाइड बॉल, बाउंड्री लाइन, ओवर द पिच, लेफ्ट आर्म,राइट आर्म - जैसे शब्द अब हिंदी पाठक के लिए अनजाने नहीं रह गए हैं। पत्रकारिता ने ये शब्द ही नहीं, इनके संकल्पनात्मक अर्थ भी अपने पाठकों तक पहुँचा दिए है। शब्द गढ़ना एक बात है और शब्दों को लोकप्रिय करके किसी प्रयुक्ति का अंग बना देना दूसरी बात है। हिंदी पत्रकारिता ने इस दूसरी बात को संभव करके दिखाया है। अतः आज यह कहने में संकोच नहीं होना चाहिए कि बाह्य जगत से संबंधित विभिन्न प्रयुक्तियों/उपप्रयुक्तियों के निर्माण, स्थिरीकरण और प्रचलन में हिंदी पत्रकारिता की भूमिका स्तुत्य है। पत्रकारिता के माध्यम से आज खेल-तकनीक, खेल-प्रशिक्षण पर भी सामग्री प्रकाशित की जाती है। खिलाड़ियों और खेल संगठनों के पदाधिकारियों के साक्षात्कार इसे एक नया आयाम दे रहे हैं। यदि संचार के अन्य माध्यमों को भी यहाँ जोड़ लें तो रेडियो पर कमेंट्री और टीवी पर सीधे प्रसारण में जब से हिंदी को स्थान मिला है, एक विशेष प्रकार की खेलकूद की मौखिक प्रयुक्ति अस्तित्व में आई है। इस पर कुछ शोधकार्य भी हुए हैं जिन्हें और आगे ले जाने की जरूरत है। संक्षेप में कहा जाए तो हिंदी पत्रकारिता ने समय के साथ चलते हुए और नवीनता के आग्रह को अपनाते हुए सामाजिक आवश्यकता के तहत हिंदी भाषा विकास का कार्य अत्यंत तत्परता, वैज्ञानिकता और दूरदृष्टि से किया है। सहज संप्रेषणीय भाषा में नई संकल्पनाओं को व्यक्त करने के लिए भाषा-निर्माण या कहें प्रयुक्ति-विकास का जैसा आदर्श बिना किसी सरकारी सहयोग या दबाव के हिंदी पत्रकारिता ने बनाकर दिखाया है, उसे भाषाविकास अथवा भाषानियोजन में सामग्री नियोजन (कॉर्पस डेवलेपमेंट) की आदर्श स्थिति कहा जा सकता है। पुनश्च - यह तो हुई हिंदी के ’विकास’ में पत्र-पत्रिकाओं की भूमिका की चर्चा। लेकिन इधर के कुछ वर्षों में संचार माध्यम (मुद्रित और इलेक्ट्रानिक, दोनों) जिस प्रकार हिंदी को विकृत करते रहे हैं वह अत्यंत चिंतनीय है। अतः कभी अवसर मिलने पर हिंदी के ’विनाश’ में संचार माध्यम की भूमिका पर अलग से विस्तृत चर्चा करेंगे। |
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रविवार, 27 सितंबर 2009
हिंदी भाषा के विकास में पत्र-पत्रिकाओं का योगदान
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1 टिप्पणी:
बहुत मेहनत से लिखा गया है यह लेख और साथ में वरिष्ठ साहित्यकारों के चित्र इसकी उपयोगिता और बढाते हैं। एक ऐतिहासिक लेख के लिए बधाई॥
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