जीवन को अत्यंत सहज भाव से रत्न बताने वाले प्रगतिशील और जनपक्षीय कविता के शिखर-पुरुष त्रिलोचन जी आज हमारे बीच नहीं हैं - अब उनके लिए इस बात का कोई महत्व नहीं कि रत्न फूल में मिला है या धूल में। उन्होंने तो भरपूर जीवन जीकर अपने जीवन-रत्न को दोनों ही प्रकार की सार्थकता दी - फूल में मिले तो सुवास बन जाए, धूल में मिले तो लोक से एकमेक हो जाए! यही तो अकेलेपन का दंश झेलते कवि की सही मुक्ति है।
हर बड़ा रचनाकार बुनियादी तौर पर साधारण आदमी होता है। त्रिलोचन जी की विराटता का भी आधार यही साधारणता है। वे विलक्षण हैं, क्योंकि वे साधारण हैं! इतने साधारण जितना बसंत, जितनी बसंत की भाषा -
वे सही अर्थों में जनता के कवि थे, जनपद के कवि थे, जन के कवि थे। व्यक्तित्व और कृतित्व दोनों ही स्तरों पर वे ठेठ गँवई-गाँव की छाप अपने साथ लिए चलते दीखते हैं। इसे सहजता, लोक छटा, सादगी, अकृत्रिमता, फक्कड़पना और हिंदुस्तानियत के रूप में पहचाना जा सकता है। यही कारण है कि उन्हें निकट से जाननेवालों ने सदा यह महसूस किया कि ""त्रिलोचन जी से गंभीर से गंभीर विषय पर बात करते हुए कभी यह आभास नहीं होता कि आप किसी ज्ञानी, बहुपठ, बहुश्रुत, अधीत, सिद्ध व्यक्ति से बातें कर रहे हैं। सदैव यही लगता है कि अपने घर में या गाँव की चौपाल में किसी सयाने आदमी के पास बैठे हैं, जिसकी बातों से प्याज के छिलके पर छिलके उतरते जाते हैं, जिस की बातें केले के पत्ते के समान होती हैं। त्रिलोचन जी की बात में बात, बात में बात, ज्यों केले के पात में पात, पात में पात।'' (डॉ. कांति कुमार जैन)। इसीलिए जिसने भी सुना, यही कहा कि कोई अपना चला गया, परिवारीजन चला गया, बुजुर्ग चला गया! "गुलाब और बुलबुल' में त्रिलोचन जी के इस गँवई संस्कार की छवि खूब उभरी है -
त्रिलोचन जी के चले जाने का एक अर्थ यह भी है कि दुनिया की तीस से अधिक भाषाएँ जानने वाला और शब्दों के कौतुक करने वाला एक शिशु ह़ृदय हमारे बीच से चला गया। एक हृदय जो यह मानता था कि -
दरअसल, शब्दों के प्रति इस सहृदयता में ही वे सूत्र निहित हैं जो त्रिलोचन जी को भारतीयता के संस्कार का कवि बनाते हैं - ठेठ भारतीय कवि, जिसकी शिराओं में वाल्मीकि, कालिदास, तुलसी, निराला और कबीर के साथ-साथ मीर, ग़ालिब, नजीर और सुब्रह्मण्य भारती एक साथ संचारित हैं। इसी ठेठपन के बूते वे यूरोपीय ज्ञान को भी भारतीय संस्कार प्रदान कर सके। वे संज्ञाओं के नहीं क्रियाओं के कवि हैं -
इस अनिवार उद्यमशीलता और जीवट के कारण त्रिलोचन जी की कविता अपनी साधारणता में भी सबसे अलग दीपती है -
त्रिलोचन जी के न रहने का अर्थ है, एक ऐसे जड़ों से जुड़े रचनाकार का न रहना जिसने इसे माना और चरितार्थ किया हो कि ""अच्छी कविता पूरा जीवन माँगती है। कवि अपने पूर्ववर्ती रचनाकारों से सीखता है। सामाजिक स्थिति और आसपास के माहौल से ऊर्जा पाता है और अपनी अनुभूतियों से प्रेरणा लेकर कविता गढ़ता है। असली कविता वही है जिसमें लोकतत्व हो और जीवन की धड़कन रची-बसी हो।'' दरअसल वे जीवन, कविता और भाषा को पर्याय मानने वाले मनीषी थे -
उनकी ये सूक्तियाँ आनेवाली पीढ़ियों के बड़े काम की हैं कि "भाषा का परित्याग आत्मविश्वास खोना है' तथा "भाषा केवल ऊपरी आवरण नहीं है, वह रग-रग में रहती है।' भाषा-मरण की संकल्पनाओं के वैश्विक प्रसार के बीच त्रिलोचन जी के ये सुझाव भी बड़े काम के साबित हो सकते हैं कि "भाषा में डंडे का जोर नहीं चलता' तथा "भारत के जीवन को समझने के लिए भाषाओं का ज्ञान बहुत जरूरी है।' त्रिलोचन जी ने यह भी समझा और समझाया था कि भाषा बाजार पर नहीं अपने ठेठ प्रयोगकर्ता समाज के जीवन पर निर्भर है। वे मानते थे कि ""भाषा का संबंध आंतरिक विकास से भी होता है। किसी भाषा की गहराई में उतरना हो तो अपने क्षेत्र के ग्रामीण लोगों से मिलिए। उनका सुख-दुख बाँटिए। उनसे बातचीत कीजिए। अशिक्षित, अनपढ़ लोगों के बीच में रहिए। भाषा का मूल और सही रूप वहाँ मिलता है। इससे भाषा को नया तेवर मिलता है। यह सहजता कविता को मूल्यवान और अधिक सार्थक बनाती है।'' तुलसी को वे लोकतत्व की महत्ता के कारण ही अपना काव्य गुरु मानते हैं -
इसलिए भी त्रिलोचन जी का हमारे बीच से जाना शोक का विषय है कि वे गए तो हमारे बीच से शब्दों का एक मर्मी प्रयोक्ता चला गया - ऐसा प्रयोक्ता जिसे मौन को भी सुनना आता था -
यह "चुप' रहकर कहना और सुनना जिसे आ जाता है, वह जड़-चेतन, समस्त जगत, लोक और प्रकृति के साथ एकाकार हो जाता है, विश्वात्मा हो जाता है। त्रिलोचन जी इस उदात्त संवेदनशीलता के प्रतीक थे। उन्होंने कुरूप और सुंदर दोनों को एक साथ साधा - लोक के हित। सहज प्रकृति और सहज प्रेम उनके जीवन यथार्थ और काव्य यथार्थ दोनों में एक जैसे प्रवाहित हैं। प्रेम हो या काव्य, त्रिलोचन जी के लिए दोनों की सहजता अभीष्ट थी क्योंकि -
आज त्रिलोचन जी हमारे बीच नहीं हैं। पर हमें उनकी ज़रूरत है। और हमें उनकी ज़रूरत बार-बार होगी। ज़रूरत के वक्त जो काम आए, वही तो अपना है। त्रिलोचन जी हमारे अपने हैं, उनकी बड़ी ज़रूरत है। आनेवाले समय में भी वे बड़े काम के साबित होंगे। ...... और तब के लिए वे "ताप के ताए हुए दिन' में अपना पता देकर गए हैं -
श्रद्धांजलि: त्रिलोचन जी
वे शिखर थे.....
१० दिसंबर २००७ को नजीबाबाद से डा. देवराज का फोन आया. तिरुचिरापल्ली में आयोजित लेखक शिविर में था मैं. डा. साहब ने बताया- त्रिलोचन जी नहीं रहे, उनकी स्मृति में श्रद्धांजलि सभा का आयोजन किया जा रहा है. मोबाइल पर मेरी भी श्रद्धांजलि उन्होंने मांगी.
मैं क्या कहता?
यही कह सका कि त्रिलोचन जी के निधन के समाचार से ऐसा लगा जैसे अपने परिवार का कोई शिखर गिरा हो. अपना कोई बुजुर्ग चला गया हो. वे हमारी पीढ़ी को प्रेरणा देने वाले बुजुर्ग थे, शिखर थे.
हाँ, त्रिलोचन शिखर थे. वैसे ही शिखर जैसे नागार्जुन, शमशेर और केदार नाथ अग्रवाल थे. इन्हें पढ़-सुनकर हमने कविता कहना सीखा. वे जनपक्षीय तेवर की कविता के अनुल्लंघनीय शिखर थे. ऐसे शिखर के गिर जाने से अब जनपक्षीय काव्य में बड़ा शून्य उत्पन्न होता दिखाई दे रहा है. ऐसा शून्य जो जल्दी भरा नहीं जा सकता.
मुझे याद आता है, त्रिलोचन जी को मैंने माता कुसुम कुमारी साहित्य सम्मान सम्बन्धी समारोह के अवसर पर एक बार नजीबाबाद में ही देखा था. मैं मद्रास से आया हूँ, यह जानकर उन्होंने विस्तार से दक्षिण भारत की संस्कृति और तमिल भाषा पर चर्चा की थी. बल्कि, बात मेरे नाम की व्युत्पत्ति और अर्थ से शुरू हुई थी और समकालीन तमिल साहित्य तक खिंचती चली गई थी. आज याद करता हूँ, मुझ पर उनके व्यक्तित्व का पहला प्रभाव एक बहु भाषाविद जैसा पड़ा था. सुनने में आया कि वे कोई तीस-तैंतीस भाषाओं के जानकार थे. जानकार होना अलग बात है और शब्दों से खेलना, कौतुक करना अलग. दरअसल वे शब्दों से कौतुक करने वाले कलाकार थे.
त्रिलोचन जी को मैं भारतीय भाषाओं की एकता के प्रबल समर्थक के रूप में भी देखता रहा हूँ. मेरे लेखे वे ठेठ भारतीयता के कवि थे. ऐसा ठेठपन जो उन्हीं के लिए सम्भव था और आज सिरे से दुर्लभ होता जा रहा है.
त्रिलोचन जी के साहित्य के सरोकार अत्यन्त व्यापक हैं और भारतीयता की जड़ों से जुड़े हैं. उनकी रचनाओं के माध्यम से हम भारतीय साहित्य के मूल सरोकारों की पहचान कर सकते हैं और भारतीय चेतनाधारा के अजस्र प्रवाह के साथ जुड़ सकते हैं. यह ठेठपन, यह देसीपन उन्होंने जहाँ एक ओर अपने अवधी और भोजपुरी धरती के संस्कार से प्राप्त किया है वहीं इसे उन्होंने कालिदास, कबीर और तुलसी से लेकर उर्दू तक के साहित्यकारों से अर्जित किया है. उनके विशद भाषा ज्ञान ने इसे धार दी है. बेशक त्रिलोचन जी के बाद इतनी विराटता को इतनी सादगी से संभालने वाला कोई नहीं रहा.
याद आता है मुझे, नजीबाबाद का उनका उस दिन का भाषण. उन्होंने बहुत ज़ोर देकर हिन्दी के मानकीकरण की ज़रूरत बताई थी उनका मानना था कि हिन्दी जैसी अनेक स्रोतों से रस ग्रहण करने वाली व्यापक भाषा में अनेक विकल्पों का होना स्वाभाविक है. परन्तु यदि हम इसे सार्वदेशिक भाषा के रूप में देखना चाहते हैं तो इसका मानकीकरण और आधुनिकीकरण आवश्यक है. मैं समझता हूँ कि हमारे जैसे भाषाकर्मियों के लिए उनके इस सूत्र पर अमल करना उनके प्रति सार्थक श्रद्धांजलि होगी.
सच ही त्रिलोचन जी जन कवि थे, जनपद के कवि थे, लोकतांत्रिक चेतना के कवि थे. उनके काव्य जनपद में न दबना स्वीकार्य था न दबाना. वे फक्कड़पने में कबीर के वंशज थे. उन्हें न झुकना बर्दाश्त था न झुकाना प्रिय. वे आज जब याद आते हैं तो उनका ज़ोरदार ठहाका भी याद आता है. हिंदी साहित्य में ज़ोरदार ठहाके लगाने वालों की भी एक परम्परा रही है. मुझे लगता है कि त्रिलोचन जी के न रहने से एक बड़ा ठहाका सहसा लुप्त हो गया है. एक बड़ा शून्य छोड़कर.
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