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सोमवार, 28 फ़रवरी 2011

दूरस्थ शिक्षा पर त्रिदिवसीय समारोह संपन्न



दूरस्थ शिक्षा पिछड़े, वंचितों व गृहिणियों तक सीमित नहीं - डॉ. भारत भूषण




धारवाड में ‘दूरस्थ शिक्षा के विविध आयाम’ पर राष्ट्रीय संगोष्ठी एवं कार्यशाला

दक्षिण भारत में दूरस्थ माध्यम की शिक्षा  पर हिंदी में विचार-विमर्श  का यह पहला मौका था। देशभर में उच्चशिक्षा  को सर्वसुलभ बनाने में इस माध्यम की धाक जम चुकी है। अंग्रेजी में दूरस्थ शिक्षा की बढ़ती चुनौतियों-दिशाओं और संभावनाओं पर बातें भी होती रही हैं पर हिंदी में इन पर धारदार चर्चा धारवाड में दो दिनों की इस संगोष्ठी में 21-22 जनवरी, 2011 को की गई।

 दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, मद्रास की ओर से आयोजित इस संगोष्ठी का उद्घाटन करते हुए डेक (डिस्टेंस एजुकेशन काउंसिल ) के निदेशक डॉ. भारत भूषण ने गोष्ठी की इस खासियत पर खुशी  जाहिर करते हुए कहा कि उन्हें उम्मीद नहीं थी कि दक्षिण भारत के इस सुदूर स्थान पर भारत भर के इतने विद्वान जुटेंगे और हिंदी तथा हिंदुस्तान के नज़रिए से दूरस्थ शिक्षा माध्यम की परख करेंगे। भारत भूषण जी की सराहना से अभिभूत होते हुए दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के विश्वविद्यालय विभाग के सम-कुलपति आर.एफ. नीरलकट्टी ने कहा कि ‘‘दक्षिण भारत में दूरस्थ शिक्षा माध्यम की शिक्षा  की नींव वास्तव में महात्मा गांधी ने रखी थी। गांधी जी ने हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए दक्षिण के चारों राज्यों में हिंदी शिक्षण  की ‘मुक्त परंपरा’ कायम की जिसमें धर्म, जाति, आयु और लिंग का कोई स्थान नहीं था।’’ वे यह कहने में भी नहीं हिचके कि अगर दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा को प्रोत्साहन और सहयोग मिले तो वह दूरस्थ शिक्षा  को एक सार्थक विस्तार देने में पूरी तरह समर्थ है क्योंकि सभा के पास एक बहुत बड़ा और ‘वैलनिट’ मानव-संसाधन मौजूद है।




'दूरस्थ शिक्षा के विविध आयाम’ संगोष्ठी के आगाज़ से ही इन दोनों महानुभावों के वक्तव्यों ने उत्साह बढ़ाने वाले टॉनिक का काम किया। देश के कई हिस्सों से पधारे हिंदी विद्वानों की मौजूदगी से संगोष्ठी को आगे के सत्रों में ठोस ऊँचाई हासिल हुई। ये सभी विद्वान  कहीं-न-कहीं दूरस्थ शिक्षा के सरोकारों से जुड़े हुए हैं। इन्हें संबोधित करते हुए डॉ. भारत भूषण ने एक पते की बात और कही कि विश्वविद्यालयों  में अब दूरस्थ माध्यम शिक्षा को दूसरे दर्जे की अथवा नियमित शिक्षा से कमतर स्तर की शिक्षा समझने वाली धारणा में भारी बदलाव आया है।

स्वागत भाषण देते हुए संस्थान के कुलसचिव प्रो. दिलीप सिंह ने इस ओर भी इशारा  किया कि दूरस्थ शिक्षा एक प्रकार की सु-नियोजित शिक्षा है जिसमें सामग्री और तकनीक के इस्तेमाल से गुणवत्ता सिद्ध की जाती है। उन्होंने भारत में दूरस्थ शिक्षा के प्रसार में इग्नू की भूमिका की सराहना करते हुए आम जन में इसकी स्वीकार्यता और बढ़ती हुई लोकप्रियता को रेखांकित किया। डॉ. भारत भूषण की यह टिप्पणी दोनों दिन बहस का मुद्दा बनी रही कि - ‘दूरस्थ माध्यम की शिक्षा  सिर्फ़ पिछड़ों, वंचितों या घरेलू स्त्रियों तक सीमित नहीं है। आज इसने वह मुकाम हासिल कर लिया है कि देश भर के युवक और युवतियाँ इसे नियमित शिक्षा  का एक बढ़िया विकल्प मानकर बड़ी संख्या में पूरे विश्वास  के साथ अपना रहे हैं। इतना ही नहीं कौशल  तथा दक्षता युक्त यह शिक्षा  पूरी करने के बाद वे पूरे आत्मविश्वास  के साथ समाज में अपनी ख़ास जगह भी बनाने लगे हैं।






दीप-प्रज्वलन, प्रार्थना, स्वागत-सत्कार की औपचारिकता से शुरू उदघाटन  सत्र का संचालन प्रो. ऋषभदेव शर्मा ने अपने ख़ास अंदाज में किया। धन्यवाद देते हुए उन्होंने कहा कि पिछले कुछ सालों की प्रगति और दक्षिण भारत के हिंदी प्रेमियों की मांग को देखते हुए यह विश्वास  के साथ कहा जा सकता है कि दक्षिण में  हिंदी भाषा तथा हिंदी माध्यम की उच्च शिक्षा  की सरपरस्ती आगे आनेवाले सालों में दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, मद्रास द्वारा ही की जाएगी।
21 जनवरी के दोनों सत्र दूरस्थ शिक्षा  माध्यम के मूलभूत आयामों पर केंद्रित थे। आज के युवा-भारत की ज़रूरतों, आकांक्षाओं और उनके सपनों को पूरा करने के लिए किन-किन दिशाओं में अपने को अग्रसर करें, कहाँ-कहाँ खुद को बदलें और किस विधि से सर्वजन सुलभ और संप्रेषणीय बनें - आदि इन दोनों सत्रों की मूल चिंताएँ थीं। भारत के कोने-कोने में दूरस्थ शिक्षा  की पहुँच हो गई हैं। ‘ड्राप आउट्स’ के लिए यह माध्यम एक वरदान है।

दूरस्थ शिक्षा  की भूमिका पर बात करते हुए डॉ. गंगा प्रसाद विमल ने यह भी चेताया कि जब लोगों का विश्वास  हमें मिलता है तब हमारी जिम्मेदारी और भी बढ़ जाती है। ‘मुक्त शिक्षा’ ने इस बात को समझा भी है और अमली जामा भी पहनाया है। वह निरंतर ‘इन्नोवेटिव’ बनी रही है। शिक्षक  और कक्षा की सीमा को इसने असीम साधनों से जोड़ कर नव्य बना दिया है। डॉ. विमल ने कहा कि जब हमारे यहाँ दूरस्थ शिक्षा  आंध्र प्रदेश, राजस्थान और इग्नू में शुरू हुई थी तो हम सोचते थे कि यह चल नहीं पाएगी; पर धीरे-धीरे हमारे जैसे लोग भी इसे उत्सुकता से देखने लगे। सच में इस शिक्षा पद्धति ने मीडिया, इन्टरनेट, कंप्यूटर, सेटेलाइट और न जाने कितने उपकरणों का उपयोग करके अपनी भूमिका को विस्तार दे दिया है। उन्होंने इस शिक्षा  की रोजगारपक प्रकृति तथा यंत्र-साधित शिक्षण  पद्धति की भूरि-भूरि सराहना करते हुए कहा कि भारतवर्ष की एक बड़ी आबादी को उच्च एवं व्यावसायिक शिक्षा  देने का काम करके दूरस्थ शिक्षा  ने यह उजागर कर दिया है कि उसकी भूमिकाएँ बहुमुखी हैं और जता दिया है कि यह ज्ञान प्रदान करने वाली निष्क्रिय शिक्षा  प्रणाली नहीं बल्कि बोध और कौशल  पैदा करने वाली सक्रिय शिक्षा पद्धति है।


'दूरस्थ शिक्षा : निर्बाध शिक्षा का अवसर' के नजरिए से डॉ. ऋषभदेव शर्मा ने दूरस्थ शिक्षा  को ‘बाधा-विहीन शिक्षा' कहा क्योंकि इसे बिना किसी रुकावट के अपनाया जा सकता है - न कहीं आने-जाने की समस्या, न हाजिरी-क्लास का बंधन। खेती, मजदूरी, नौकरी, गृहस्थी के साथ यह शिक्षा जारी रखी जा सकती है। इसकी पाठ्य-सामग्री और सहायक-सामग्री अनेक तरह के शोध-संधान के बाद खास और वैज्ञानिक प्रक्रिया से इतनी संप्रेषणीय और बोधगम्य बनाई जाती है कि शिक्षार्थी की समझ भी निर्बाध गति से सही दिशा  में विकास पा सके। डॉ. शर्मा ने दूरस्थ शिक्षा  निदेशालय के आँकड़े देकर यह तथ्य सामने रखा कि इन पाठ्यक्रमों में गृहिणियों, ऑफिस कर्मचारियों, अध्यापकों की संख्या अनुपाततः कम नहीं है। उनके शब्दों में दूरस्थ शिक्षा स्वयं में निर्बाध होने के साथ-साथ किन्हीं कारणों से बाधित हो चुकी शिक्षा को जारी रख पाने का एक सुनहरा मौका भी है।

इसी क्रम में ‘हिंदी शिक्षण में दूरस्थ शिक्षा  की भूमिका' का मसला भी कम जरूरी नहीं था क्योंकि जिस संस्था के मंच पर यह विचार-मंथन आकार ले रहा था वह दक्षिण भारत में हिंदी का प्रचार-प्रसार करने वाली राष्ट्रीय महत्व की संस्था का मंच था। दक्षिण भारत और विशेष रूप से केरल प्रांत में हिंदी की उच्च शिक्षा  और शोध के जो गवाक्ष दूरस्थ शिक्षा  ने खोले हैं, उनका आकलन करते हुए प्रो. सुनीता मंजनबैल ने इस बात पर विशेष  बल दिया कि दक्षिण भारत के लिए तैयार हिंदी ‘सिम’(स्वाध्याय सामग्री) को अलग ढंग से तैयार किया जाय जैसा कि दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के दूरस्थ शिक्षा निदेशालय ने किया है। उन्होंने यह भी बताया कि दूरस्थ माध्यम के प्रसार से दक्षिण भारत में हिंदी अध्येताओं की संख्या में आशातीत वृद्धि हुई है।


पहले सत्र के आखिरी पर्चे में बी.बी. खोत ने दूरस्थ शिक्षा  के माध्यम से 'कौशल विकास' की संभावनाओं और घटकों का परिचय दिया। उनके मत में दूरस्थ शिक्षा  ‘कौशलयुक्त शिक्षा’ का सार्थक उदाहरण है। कौशल  विकास में सहायक ‘सिम लेखन की विशेष  पद्धति’, ‘प्रश्न-पत्र निर्माण’, ‘बोध-विस्तार’ आदि के उदाहरणों द्वारा श्री खोत ने यह प्रतिपादित किया कि शिक्षार्थी में कौशल  दक्षता उत्पन्न और स्थापित करना ही दूरस्थ शिक्षा का पहला और आखिरी उद्देश्य है।

दूसरा सत्र सही मायने में व्यावहारिक था क्योंकि यह सत्र पहले सत्र की प्रतिपत्तियों की परख करने वाला था। अगर दूरस्थ शिक्षा की भूमिकाओं, उसके उत्तरदायित्वों और लक्ष्यों को सर्वस्वीकार्य आयाम देने हैं तो निश्चित ही सामग्री-निर्माण, प्रश्न -निर्माण, मूल्यांकन पद्धति और परीक्षा संबंधी छात्र सुविधाओं को त्रुटिहीन, आदर्श और गुणवत्ता पुष्ट बनाना अनिवार्य होगा। ये और ऐसे ही कई मुद्दे दोपहर बाद की इस चर्चा-विमर्श  में उठे।


दूरस्थ शिक्षा  माध्यम के लिए सामग्री-निर्माण की प्रक्रिया की विशिष्टता और अधिगम संबंधी सूक्ष्मताओं की अनुकूलता पर प्रो. टी.वी. कट्टीमनी ने विचार किया। सामग्री परीक्षा और मूल्यांकन - इन तीनों के अंतस्संबंध को बनाए रखने को भी उन्होंने दूरस्थ शिक्षा प्रणाली की सफलता का मूलाधार बताया। बी.ए. और एम.ए. स्तर की हिंदी के ‘सिम’ निर्माण में समेटे जाने वाले सामयिक-विमर्शों  की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि नियमित पद्धति से दी जानेवाली हिंदी की उच्च शिक्षा  सामयिक संदर्भों, सभ्यता-विमर्श  तथा उत्तर आधुनिक चिंतन को स्थान देने में हिचकती है जबकि दूरस्थ शिक्षा की मुक्तता हिंदी पाठ्यक्रम को भी मुक्त और समीचीन बनाने का काम कर रही है।


अनुदेशन  सामग्री और ‘सिम’ के भेदोपभेदों को डॉ. हीरालाल बाछोतिया ने सैद्धांतिक और व्यावहारिक दोनों धरातलों पर प्रस्तुत किया। उन्होंने इस बात की सराहना की कि दूरस्थ शिक्षा में खासकर इग्नू ने ‘सिम’ के लिखित पाठ को अन्य दृश्य-श्रव्य माध्यमों से सप्लीमेंट करने का अथवा फ़ेस-टु-फेस शिक्षण  को सहायक बना कर इस्तेमाल करने का जो काम किया है उसने कौशलपरक शिक्षा को एकदम नया और अनूठा आयाम प्रदान कर दिया है।

डॉ. माधव सोनटक्के ने नियमित हिंदी पाठ्यक्रमों की परंपरागत प्रश्न-निर्माण एवं मूल्यांकन पद्धति पर चुटकी लेते हुए कहा कि परीक्षा और मूल्यांकन की रूढ़िबद्धता को दूरस्थ शिक्षा  ने एक हद तक तोड़ा है। प्रश्न-पत्र निर्माण और मूल्यांकन को बोध और दक्षता के विकास में सहयोगी बनाने की अपील करते हुए उन्होंने कई उपयोगी मॉडल्स सामने रखे।

इस संदर्भ में दूरस्थ शिक्षा  निदेशालय, दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के विद्यार्थियों को परीक्षा संबंधी जो सुविधाएँ दी जाती हैं उनका पारदर्शी  विवेचन श्रीमती गीता वर्मा ने किया। उन्होंने बताया कि निदेशालय की ‘सिम’ के निर्माण में देशभर के विद्वान विशेषज्ञों की मदद ली गई है । इन सबने ‘सिम’ में ही सतत मूल्यांकन के बिंदु निर्धारित कर दिए हैं  जिनको दत्त कार्य तथा प्रश्नपत्र में भी सम्मिलित करके दृढ़ीकरण की माप की जाती है। प्रश्नों  के ‘विषयपरक’ और ‘बोधपरक’ प्रकारों की भी उन्होंने चर्चा की तथा निदेशालय  के बी.ए., एम.ए., डिप्लोमा पाठ्यक्रमों के प्रश्नपत्रों से इनके उदाहरण दिए।


22 जनवरी को तीसरे सत्र में दूरस्थ शिक्षा  प्रणाली के सर्वथा नवीन आयामों पर बातचीत हुई। पहले दोनों सत्रों की अनुगूंज भी इस सत्र में सुनाई देती रही। प्रो. टी.मोहन सिंह ने कौशल  आधारित शिक्षा  के परिप्रेक्ष्य में दूरस्थ शिक्षा  का अवगाहन करते हुए ‘कौशल’ को शिक्षा और सही मायनों में शिक्षित  करने, होने का मानदंड माना। उन्होंने अर्जन, अधिगम और बोधन की अनुकूल प्राप्यता को ‘कौशल’ की कसौटी कहा तथा  आंध्र प्रदेश में हिंदी भाषा कौशल उत्पन्न करने के बीच आनेवाली समस्याओं पर विचार करते हुए इन्हें  समतल करने वाले  रास्तों की भी चर्चा की। व्यावहारिक हिंदी अर्जन पर उन्होंने हिंदी व्याकरण की जटिलता के मद्देनजर प्रकाश  डाला तथा हिंदी की शैलियों के अधिगम को ‘भाषा कौशल' के लिए जरूरी स्वीकार किया।

तकनीकी आधारित शिक्षा को दूरस्थ शिक्षा  की धुरी के रूप में व्याख्यायित करते हुए श्रीमती निधि सिंह ने तकनीकी साधित शिक्षण सामग्री निर्माण की प्रविधियों की चर्चा की। उन्होंने तकनीकी माध्यमों/उपकरणों की संभावनाओं और सीमाओं की पहचान को भी रेखांकित किया और कहा  कि इस पहचान के आलोक में ही दूरस्थ माध्यम शिक्षा के विद्यार्थियों को सहज-संप्रेषणीय शिक्षा  से जोड़ा जा सकता है। साहित्यिक एवं साहित्येतर पाठों को तकनीकीबद्ध करने की प्रचलित और अद्यतन पद्धतियों के इस्तेमाल को भी उन्होंने विविध तकनीकी उपकरणों के उपयोग से संबद्ध करके दिखाया।


इसी क्रम में डॉ. अर्जुन चव्हाण ने दूरस्थ शिक्षा  में संचार माध्यमों की उपयोगिता स्थापित की। भारत में शिक्षा संबंधी सुविधाओं के अभाव पर रोष प्रकट करते हुए प्रो. चव्हाण ने संचार माध्यमों के व्यावसायीकरण पर भी चिंता व्यक्त की। उच्च शिक्षा और संचार माध्यमों की उपादेयता की अनदेखी करनेवाली नियमित शिक्षा पद्धति को अधूरा मानते हुए उन्होंने दूरस्थ शिक्षा की इसलिए सराहना की कि यह प्रणाली संचार माध्यमों की शैक्षिक शक्ति को पहचानने वाली है और इसने ‘मीडिया’ को मनोरंजन की सीमा से निकाल कर शिक्षा-प्रसार के महत् उद्देश्य से ला जोड़ा है।


चौथा सत्र दूरस्थ शिक्षा  निदेशालय  की ‘सिम’(स्वाध्याय सामग्री) के आकलन पर केंद्रित था। हिंदी की सामग्री का श्रीमती एन. लक्ष्मी, अंग्रेजी की सामग्री का श्रीमती गीता वर्मा तथा शिक्षाशास्त्र की सामग्री का आकलन प्रो. अरविंद पांडेय ने किया। इस सत्र में प्रस्तुत विवेचन भी अत्यंत पारदर्शी थे। इस सत्र में प्रस्तुत आकलन की सफलता डॉ. भारत भूषण की समापन-सत्र में दी गई इस टिप्पणी से पुष्ट हो जाती है कि ‘मुझे प्रसन्नता है कि निदेशालय  की सामग्री दूरस्थ शिक्षा के लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए बहुत सोच-समझकर और मेहनत से बनाई गई है। सामग्री के आकलन से यह भी पता चलता है कि आपका विज़न एकदम क्लियर है और आपकी मंशा स्टूडेंट फ्रेंडली।’

22 जनवरी की शाम। समापन सत्र की अध्यक्षता डॉ. भारत भूषण ने की। संगोष्ठी की रपट प्रो. दिलीप सिंह ने प्रस्तुत की। टिप्पणीकार थे - डॉ. गंगा प्रसाद विमल, डॉ. टी.वी.कट्टीमनी, डॉ. टी. मोहन सिंह, डॉ. अर्जुन चव्हाण, डॉ.ऋषभ देव शर्मा और डॉ. हीरालाल बाछोतिया। सभी टिप्पणीकारों ने इस बात की सराहना की कि ‘दूरस्थ माध्यम शिक्षा ' पर हिंदी में और वह भी दक्षिण भारत में यह संगोष्ठी आयोजित की गई। संगोष्ठी की गंभीरता और सुगठन ने सभी को मुग्ध कर दिया था। प्रो. दिलीप सिंह ने कहा कि यह संगोष्ठी निदेशालय  के लिए मार्गदर्शक  का काम करेगी। और यह भी जोड़ा कि संगोष्ठी दूरस्थ शिक्षा  निदेशालय के कामकाज से संबद्ध उसके आंचलिक और क्षेत्रीय केंद्रों के उपस्थित कार्यकर्ताओं, अध्यापकों, संचालकों आदि के लिए एक किस्म का प्रषिक्षण भी सिद्ध हुई है। डॉ. भारत भूषण संगोष्ठी की सुचारु व्यवस्था से अत्यंत प्रसन्न थे। उन्होंने कहा कि ऐसा लग रहा है कि यह गोष्ठी आपकी नहीं बल्कि दूरस्थ शिक्षा परिषद, नई दिल्ली की है। उन्होंने संगोष्ठी में पढ़े गए कई आलेखों की सराहना भी की। उन्होंने कहा कि दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा एकनिष्ठ और उत्साही कार्यकर्ताओं से भरी-पूरी है। उन्होंने यह भी कहा कि ‘भविष्य दूरस्थ शिक्षा का ही है। सभा ने सही समय पर इस शिक्षा  प्रणाली में प्रवेश  किया है। आपकी निष्ठा और समझ को देख कर मुझे कोई संदेह नहीं है कि दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा बहुत जल्द ही दूरस्थ शिक्षा की एक अग्रणी संस्था बन कर उभरेगी।' उल्लेखनीय है कि समारोह के आरंभ में सभा के दूरस्थ शिक्षा निदेशालय द्वारा तैयार की गई स्वाध्याय सामग्री और दूरस्थ माध्यम से संपन्न एम.फिल. तथा पीएच. डी.के शोधप्रबंधों की प्रदर्शनी भी लगाई गई थी जिसका उद्घाटन डॉ. भारत भूषण ने रिबन काटकर किया.  














23 जनवरी को पुनश्चर्या पाठ्यक्रम एवं कार्यशाला का आयोजन किया गया।दूरस्थ शिक्षा निदेशालय से संबंधित चारों प्रांतों (तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, केरल और कर्नाटक) के लगभग पचास पदाधिकारी, अध्यापक एवं संगोष्ठी में देश भर से पधारे सभी विद्वान  कार्यशाला में उपस्थित थे। कार्यशाला  के मुख्यतः दो उद्देश्य  थे - एक यह कि निदेशालय के कार्यकलाप से जुड़े सभी लोग विचार-विमर्श द्वारा अपनी समस्याओं का समाधान ढूंढें, निदेशालय के स्तरीय संचालन के लिए रचनात्मक सुझाव दें तथा एक-दूसरे से बातचीत करके कुछ नया सीखें। दूसरा उद्देश्य यह था कि निदेशालय  द्वारा निर्मित हिंदी साहित्य की शिक्षण सामग्री का पुनरवलोकन करके आवश्यक  रिवीज़न का परामर्श  दिया जाय।


कार्यशाला  के उद्घाटन में सभी अतिथि विद्वानों ने अनौपचारिक टिप्पणियाँ प्रस्तुत कीं। प्रारंभ में प्रो. दिलीप सिंह ने कार्यशाला  के उद्देश्यों पर प्रकाश डालते हुए उपस्थित जन का स्वागत किया।


 डॉ. भारत भूषण ने संकेत किया कि ज्ञान और चिंतन तथा भाषा और साहित्य के स्वरूप में आज इतनी तेजी से परिवर्तन आ रहे हैं कि मानविकी और साहित्य की निर्मित सामग्री को चार-पाँच साल में एक बार परिवर्धन-परिवर्तन की दृष्टि से देखा जाना चाहिए। उन्होंने यह भी बताया कि दूरस्थ  शिक्षा  कार्यक्रम चलाने की चुनौतियाँ अलग हैं और हम सब को इसका सामना करने के लिए हमेशा  तैयार रहना चाहिए। उन्होंने प्रसन्नता व्यक्त करते हुए कहा कि - ‘मैंने 21 की सुबह निदेशालय की ‘सिम’ की प्रदर्शनी का उद्घाटन करते हुए आपकी सामग्री देखी और कुछ सुझाव भी दिए थे। आपकी सामग्री काफी अच्छी है पर अच्छे को और-और बेहतर बनाने की ज़रूरत हमेशा रहती है। आपके पास प्रबुद्धजनों की अनुभवी टीम है। मुझे विश्वास  है कि इस चर्चा-परिचर्चा से हम सब कुछ-न-कुछ नया सीखेंगे और अपने विद्यार्थियों को भी नया और उपयोगी दे सकेंगे।’ और फिर टीम बनाकर आठ टीमों ने वरिष्ठ विद्वानों की देखरेख में पूरे दिन चर्चाएँ कीं, समाधान ढूँढ़े और सामग्री की बेहतरी के लिए लिखित सुझाव दिए जिन्हें अगली सामग्री-संशोधन  कार्यशालाओं में ध्यान में रखकर सामग्री की गुणवत्ता में वृद्धि की जाएगी।












23 जनवरी की शाम। दूरस्थ शिक्षा पर केंद्रित तीन दिन का यह समारोह जब संपन्नता को प्राप्त हुआ तो सभी प्रतिभागी अपने-आप को संपन्नतर महसूस कर रहे थे। सभी ने इस दूरदर्शितापूर्ण  और सामयिक आयोजन के लिए दूरस्थ शिक्षा निदेशालय, उच्च शिक्षा  और शोध संस्थान, दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा की सराहना करते हुए परस्पर विदा ली।



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- प्रो. दिलीप सिंह,
कुलसचिव, उच्च शिक्षा और शोध संस्थान, दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, चेन्नई - 600 017 .




रविवार, 27 फ़रवरी 2011

डॉ.डी.विजय भास्कर के पाँच तेलुगु नाटक

भूमिका

डॉ. डी. विजय भास्कर (27 मई, 1959) तेलुगु के प्रतिष्ठित नाटककार हैं। उन्होंने 25 से अधिक मौलिक नाटकों की रचना की है, कई नाटकों का अनुवाद किया है। उनके अपने नाटकों का अनेक भारतीय और विदेशी भाषाओं में अनुवाद और मंचन हो चुका है। उनके नाटकों को अखिल भारतीय स्तर पर सफलता और ख्यति प्राप्त है। यदि यह कहा जाए कि डॉ. डी. विजय भास्कर नाटक में जीते हैं तो अत्युक्ति न होगी। नाट्य साहित्य के प्रति गहरी अनुरक्ति के कारण उन्होंने नाट्य की भारतीय और पाश्चात्य परंपराओं का गहन अध्ययन किया है। आर. शांता सुंदरी ने उनके पाँच चयित नाटकों का मनोयोगपूर्वक हिंदी अनुवाद किया है। उनका यह कार्य हिंदी और तेलुगु भाषासमाजों के मध्य साहित्यसेतु को सुदृढ़ करनेवाला तो है ही, भारतीय साहित्य की अवधारणा को भी पुष्ट करनेवाला है।

डॉ. डी.विजय भास्कर के नाटक उनकी गहन जीवनासक्ति के सूचक हैं। इन नाटकों में नाटककार ने जनसामान्य के हर्ष और विषाद को सघन संवेदनशीलता के साथ समाविष्ट किया है। वस्तुविन्यास, शीलनिरूपण और फलश्रुति के साथ साथ तकनीक की दृष्टि से भी नाटककार विजय भास्कर की नाट्यकृतियों को तेलुगु नाटक के इतिहास में नए उन्मेष का प्रतीक माना जाता है। इसके मूल में नाटक विधा के प्रति नाटककार के एकनिष्ठ समर्पण की विद्यमानता दिखाई देती है। नाट्यशास्त्र और रंगमंच की बारीकियों से परिचित विजय भास्कर पढ़े जाने के लिए नहीं, खेले जाने के लिए नाटक लिखते हैं। एक सफल संप्रेषक के रूप में वे सदा अपने प्रेक्षक को ध्यान में रखते हैं। नाटक के लिए नाटक नहीं, प्रेक्षक के लिए नाटक लिखनेवाले इस नाटककार ने मुख्यतः समकालीन समाज की समस्याओं और विडंबनाओं पर अपना ध्यान केंद्रित किया है तथा समस्या चित्रण से आगे जाकर बहुत सहज भाव से समाधान प्रस्तुत करने का भी साहस किया है। 

अपनी उर्वर कल्पना शक्ति के बल पर डॉ. विजय भास्कर यथार्थ और स्वप्न का प्रायः इतना सुंदर जादुई घोल तैयार करते हैं कि दर्शक कुछ समय के लिए एक आभासी दुनिया में तैरने लगता है और जब वह वापस अपनी दुनिया में लौटता है तो नाट्य जगत के इस यथार्थ से कुछ न कुछ ऊर्जा और प्रेरणा लेकर ही लौटता है। ‘गांधी जयंती’ इस दृष्टि से अत्यंत सफल फैंटेसी नाटक है। इसमें आरंभ से अंत तक अविश्वसनीयता और नाटकीयता के बावजूद इतनी यथार्थपरकता है कि दर्शक को पूरी की पूरी फैंटेसी विश्वसनीय लगने लगती है - चाहे वह यमलोक हो या मर्त्य लोक। ‘मिनिस्टर’ में भी मृत्यु का साक्षात दिखाई देना, तीन महीने की अतिरिक्त अवधि प्रदान करना और अंततः हृदय परिवर्तन के बाद दीर्घायु देना भले ही किसी महास्वप्न जैसा हो लेकिन इस महास्वप्न में राजनीति का जो यथार्थ दिखाई देता है, रक्त संबंधों के प्रति जो मोहभंग घटित होता है और मानवीय संबंधों की जिस गहराई का बोध होता है, वह सब हमारे चारों ओर का ठोस सच है। ऐसा ठोस सच जिसे भारतीय लोकतंत्र में साधारण नागरिक क्षण क्षण झेल रहा है।

उत्तर आधुनिक कलादृष्टि किसी भी कृति को पाठ के रूप में स्वीकार करती है और यह मानती है कि उसके एकाधिक उपपाठ या अंतर्पाठ हो सकते हैं। यह दृष्टि यह भी मानती है कि कृति का एक स्थगित पाठ भी होता है। ‘बादलों के चित्र’ ऐसा ही प्रयोगशील नाटक है। नाटककार एक सूत्रधार और नट-नटी के माध्यम से मंच पर मूकाभिनय प्रस्तुत करता है और अलग अलग दर्शक उसकी अलग अलग व्याख्याएँ उपपाठों की तरह प्रस्तुत करते हैं। स्त्री विमर्श पर केंद्रित यह नाटक दहेज की समस्या, संपत्ति में स्त्री के अधिकार की समस्या और संतति तथा नियोग से संबंधित समस्या को अत्यंत मार्मिक ढंग से प्रस्तुत करता है। हर स्थिति में औरत को सताया और जलाया जाता है; और एक प्रेक्षक चीख उठता है - इस तरह औरतों को सताकर जला डालने के नाटक मत खेलो। इसे नाटक की सफलता मानते हुए सूत्रधार प्रसन्न होता है लेकिन नाटककार अब तक के एक स्थगित पाठ को यहाँ प्रस्तुत करता है - स्त्री के सशक्तीकरण का पाठ; पुरुष वर्चस्व ने आज तक जिसे अनुपस्थित रखा। यहाँ नाटककार मिथक का सहारा लेता है। औरत छटपटाकर काली का सा भयंकर रूप धारण कर लेती है और आगे जो कुछ होता है वह इस सूक्ति के माध्यम से फलागम को प्राप्त करता है - स्त्री जब तक बकरे की तरह सब कुछ सहती रहेगी, यह अत्याचार बंद नहीं होगा इसीलिए अपनी समस्या को सुलझाने के लिए, अपने अस्तित्व की रक्षा करने के लिए स्त्री को साँप की तरह फुफकारना पड़ेगा, बाघ की तरह पंजा मारना पड़ेगा, जरूरत पड़ने पर काली का रूप लेना पड़ेगा।

अपने अभिप्राय को संप्रेषित करने के लिए नाटककार डी.विजय भास्कर कई तरह की संप्रेषण युक्तियों का सफल प्रयोग करते हैं। फैंटेसी, सूक्तिगठन और मिथक के अलावा उनकी सबसे प्रिय संप्रेषणयुक्ति प्रतीकवत्ता, ध्वन्यात्मकता, व्यंजनाशक्ति अथवा व्यंग्य के मारक प्रयोग में निहित है। मुहावरों, लोकोक्तियों और सूक्तियों की तर्ज पर नाटककार ने ऐसी अनेक व्यंग्योक्तियाँ गढ़ी हैं जिनका कटाक्ष त्रासद हँसी के रूप में प्रतिफलित होता हुआ दर्शक की चेतना को झकझोर डालता है। सभी नाटकों में किसी एक स्थल पर भाषण की प्रोक्ति का भी प्रयोग किया गया है, लेकिन उसके लिए ऐसे स्थल का चयन किया गया है कि घटनाओं के तनाव से उत्पन्न वातावरण में ये भाषण तनिक भी बोझिल प्रतीत नहीं होते और नाटककार सहजता से अपने अभिप्रेत को प्रेक्षक के मस्तिष्क में बोने में सफल हो जाता है। अन्य नाटकों की तरह ‘कुर्सी’ में भी इन सभी युक्तियों का अत्यंत सटीक निर्वाह हुआ है। दलित विमर्श पर केंद्रित इस नाटक में सामाजिक न्याय और मानव अधिकार हनन की भीषण स्थितियों का अंकन दिल दहला देने वाला है। वर्चस्व की इस लड़ाई में कुर्सी का प्रयोग प्रतीक की तरह किया गया है - नाटक के अंत में भीमैया का भाषण दलित आंदोलन की सही दिशा निर्धारित करता है। इस नाटक के अंत में पात्र परिचय की शैली भी ध्यान खींचती है। जनतंत्र के मंदिर में दलितों के अधिकारों का राज्याभिषेक लेखक की लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति प्रतिबद्धता का द्योतक है।

बोधकथा और फैंटेसी का अत्यंत रोचक इस्तेमाल इस संग्रह के अंतिम नाटक ‘जिंदगी का खेल’ में द्रष्टव्य है। बात शुरू तो होती है गधे, कुत्ते और बंदर के अपनी अपनी उम्र के बीस बीस साल मनुष्य को देने से; लेकिन आगे जब इसके परिणामों का खुलासा होता है तो नाटक वृद्धावस्था पर एक अत्यंत गंभीर विमर्श में बदल जाता है। हमारे समय की अत्यंत ज्वलंत समस्या है वृद्धों का पुनर्वास। भविष्य में इसके और जटिल होते जाने की संभावनाएँ हैं। लेखक ने इसका समाधान प्रकृति, समाज और व्यक्ति के सामंजस्य में खोजने का प्रयास किया है जो उच्च जीवन मूल्यों के प्रति उनकी आस्था का प्रतीक है। मनुष्य के भीतर निहित देवत्व की संभावनाओं में नाटककार का विश्वास अन्य नाटकों में भी बार बार व्यंजित हुआ है जो उन्हें विपरीत परिस्थितियों में भी पराजित न होने वाली सदाशयता और जिजीविषा का चितेरा बनाने के लिए पर्याप्त है।

अनुवादक आर. शांता सुंदरी ने यथासंभव लक्ष्य भाषा की प्रकृति के अनुरूप भाषांतरण में सफलता प्राप्त की है। इस हेतु वे विशेष साधुवाद की अधिकारी हैं। इसमें संदेह नहीं है कि डॉ. डी. विजय भास्कर की नाट्य कृतियों के इस अनुवाद से भारतीय साहित्य संपन्नतर हुआ है।

शुभकामनाओं सहित।

22 फरवरी, 2011 

शनिवार, 26 फ़रवरी 2011

ब्लागर -सर्वे : सहयोग का अनुरोध

कुमार लव द्वारा ब्लागरों के संबंध में एक सर्वेक्षण किया जा रहा है.
इस विषय में प्राप्त उनकी अपील सहयोग के अनुरोध के साथ यहाँ प्रकाशित की जा रही है.
सभी ब्लॉगर मित्र सहयोग करने की कृपा करें.
(ऋषभ)




Hi,

I am doing a study to understand what are the different skills that Indian bloggers have developed to participate in the new media revolution. Since no such study has been carried out so far, I hope this would help educators who are preparing students to enter into the world soon as well.

Also, it would let us appreciate the differences in a Hindi blogger and a blogger who blogs in English.

Please help us in the endeavor by filling the survey:


It will take about 10 minutes, and is completely anonymous.

Thanks a lot for your participation (in anticipation). I would share the results of this study with you before I publish it anywhere, by the end of April.

Regards
Luv 

शुक्रवार, 25 फ़रवरी 2011

'धरती का विलाप':पर्यावरण विमर्श



भूमिका
डॉ. पी. विजय लक्ष्मी पंडित तेलुगु की प्रतिष्ठित समकालीन कवयित्री हैं. उन्हें अपने सामाजिक सरोकारों के लिए ख़ास तौर पर जाना जाता है. 'धरती का विलाप' उनकी चर्चित लंबी कविता है. जो मनुष्य को पृथ्वी की ओर से संबोधन के रूप में लिखी गई है. इस कविता की उपलब्धि आधुनिक मनुष्य को उसके द्वारा प्रकृति के अविवेकपूर्ण दोहन के दुष्परिणामों के सम्बन्ध में चेतावनी देने में निहित है. इसके लिए कवयित्री ने पौराणिक ढंग की फैंटेसी की रचना की है. भारतीय यह मानते हैं कि जब पृथ्वी राक्षसों के अत्याचारों से त्रस्त हो जाती है तो वह गाय अथवा स्त्री का रूप धारण करके भगवान् विष्णु के समक्ष प्रार्थना करती है और तब भगवान् विष्णु अवतार धारण करके भू भार का हरण करते हैं. डॉ. विजय लक्ष्मी पंडित ने भी पृथ्वी का मानवीकरण किया है परन्तु उनकी पृथ्वी किसी भगवान् के समक्ष नहीं बल्कि अपनी संतान अर्थात मनुष्य के समक्ष उपस्थित होती है और उसके हाथों हुई अपनी दुर्दशा का बखान करती है. सही भी है यदि मनुष्य पृथ्वी और उसके परिवेश के साथ मनमाना आचरण करने से बाज़ नहीं आया तो वह दिन दूर नहीं जब मानव अस्तित्व को संभव बनाने वाले सभी तत्व इस हद तक विकृत हो जायेंगे कि प्रलय को घटित होने से नहीं रोका जा सकेगा. परन्तु इस कविता की ख़ास बात यह है कि पौराणिक फैंटेसी रचते हुए भी कवयित्री ने अवतार और प्रलय जैसे रूपकों का प्रयोग नहीं किया बल्कि पृथ्वी की पीड़ा को सीधे सीधे वैज्ञानिक तथ्यों की सहायता से उजागर करने का प्रयास किया है. इससे कविता थोड़ी सपाट ज़रूर हो गई है लेकिन उसका विचार पक्ष सदृढ़ भी हुआ है.

कवयित्री ने यह दर्शाया है कि रसवंती, गंधवती और रत्नगर्भा पृथ्वी अब इतनी जीर्ण शीर्ण और जर्जर हो गई है कि उसका शरीर कोटर के समान प्रतीत होता है. ऐसा उसके पुत्र मनुष्य की प्रकृति पर अधिकार पाने की अबाध आकांक्षा के कारण हुआ है जिसने नैसर्गिक सहअस्तित्व की उपेक्षा करके प्रकृति के सभी तत्वों का अंधाधुंध शोषण किया है. पृथ्वी मनुष्य को याद दिलाती है कि उसने तथाकथित प्रगति चक्र को तीव्रता से दौडाने के निमित्त प्रकृति चक्र को खंडित करते हुए वनस्पति और जीवधारियों का नाश करके पूरे वातावरण को विष वायु से भर डाला है. धरती के पर्यावरण के गरम होते जाने को कवयित्री ने मनुष्य द्वारा प्रकृतिमाता, पृथ्वीमाता,वृक्षमाता और नदीमाता के प्रति अवज्ञा का परिणाम माना है. उन्होंने लाभ और लोभ के लिए प्रकृति-चक्र का अतिक्रमण करने वाली मनुष्य जाति को कसाई की संज्ञा दी है. जिसके कुकृत्यों के कारण अन्नपूर्णा दरिद्र हो गयी है, तालाबों का जल वाष्प बन गया है, आकाश गर्म हवाओं से भर उठा है तथा पृथ्वी की साड़ी जैसी ओज़ोन पर्त में छेद हो गए हैं. इसके अलावा कवयित्री ने विस्तार से प्रकाश संश्लेषण की प्रक्रिया,भूकंप,ज्वालामुखी तथा ध्वनि प्रदूषण के परिणामों से जुड़े वैज्ञानिक तथ्य भी प्रस्तुत किये हैं और यह भी दर्शाया है कि अणुशक्ति के विस्फोट से उत्पन्न विकिरण किस प्रकार पर्यावरण को हानि पहुंचाता है.

कवयित्री ने 'धरती का विलाप' के माध्यम से यह समझाने का प्रयास किया है कि पृथ्वी का इतिहास ही मनुष्य का इतिहास है. अतः पृथ्वी और उसके पर्यावरण को प्रदूषित करके मनुष्य स्वयं अपने विनाश को आमंत्रित कर रहा है. यहाँ यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि पर्यावरण प्रदूषण से उत्पन्न होने वाले इन सारे खतरों के बारे में सूचना देते रहना या सावधान करते रहना भर ही क्या कविता का प्रयोजन है. कविता का प्रयोजन यदि इतना ही है तो यह काम तो मौसम विभाग करता ही रहता है. इसलिए मौसम की भविष्यवाणी करने और चेतावनी देने से आगे बढ़कर कवयित्री ने मनुष्य जाति के समक्ष उपस्थित संभावित प्रलय से बचने का मार्ग भी सुझाया है. यह मार्ग है प्रकृति के प्रति संवेदनशील होने का मार्ग. दरअसल भौतिक उपलब्धियों की अंधी दौड़ में मनुष्य ने प्रकृति के सौंदर्य को देखना ही बंद कर दिया है. पृथ्वी आज उससे इतना भर चाहती है कि वह खुली आँखों से और खुले मन से सृष्टि के सौंदर्य का आस्वादन करे, उसके साथ आत्मीयता का अनुभव करे, अस्तित्वगत रिश्ते को महसूस करे और चेतना के स्तर पर संपूर्ण सृष्टि की पारस्परिकता की अनुभूति उपलब्ध करे. बहते हुए झरने, खिलते हुए फूल, उड़ती हुई तितलियाँ, गुनगुनाते हुए भंवरे और सूर्य की परिक्रमा करती हुई धरती के सौंदर्य का संवेदनशीलता के साथ साक्षात्कार करके मनुष्य मिट्टी की अनंत उर्वरता और प्रकृति की विविध शक्तियों के रहस्य को समझ सकता है. यह समझ उसके भीतर इस बोध को जगाएगी कि केवल धर्म ही अपनी रक्षा करने वाले की रक्षा नहीं करता, पृथ्वी और प्रकृति भी अपने रक्षक की रक्षा करती हैं. यदि मनुष्य पृथ्वी और उसके पर्यावरण की रक्षा करेगा तो पृथ्वी भी उसकी रक्षा करेगी. इसलिए प्रकृति में जो वनस्पतियों और जीवधारियों की विविधता है उसके मूल में निहित अस्तित्व की परस्पर निर्भरता के रहस्य को समझकर इस विविधता की रक्षा करना ही आज के मनुष्य का धर्म है. अन्यथा केवल वन और वन्यप्राणी ही नष्ट नहीं होंगे, प्रकृति का संतुलन बिगड़ जाने से मनुष्य भी नष्ट हो जाएगा . 

कवयित्री डॉ.विजय लक्ष्मी पंडित स्वयं वनस्पति विज्ञान की गंभीर अध्येता रही हैं. वे धरती और मनुष्य के बिगड़े हुए सम्बन्ध के प्रति चिंतित अवश्य हैं लेकिन निराश नहीं है. धरती के सपने के रूप में कवयित्री का अपना सपना इस प्रकार अभिव्यक्त हुआ है - 
"सपने देख रही हूँ मैं
कि मेरे वत्स सभी
संग्रामों से रहित जगत में
हाथों में हाथ डाले
खेलते-कूदते
दौड़ पड़ती नदियों से
हरे भरे जंगलों से
शोभायमान गाँवों से
गगनचुम्बी सगर्व
ऊंचे उठे नगरों से.
सबके दिल सदा
प्रेम, भ्रातृत्व, समरसता से भरे रहें
इस धरा की गोद में सभी
प्रसन्न मन से
शान्ति-गीत का आलाप करें.
ऐसे सुदिन कब आएँगे ?
- कहते कहते
भूमाता का कंठ
दुःख से गद्गद हो गया."
डॉ.पी विजयलक्ष्मी पंडित की यह कविता इस प्रकार पर्यावरण विमर्श की प्रतिनिधि समसामयिक तेलुगु कविता के रूप में सामने आती है. डॉ. एम. रंगय्या ने इसका अनुवाद भी अत्यंत मनोयोगपूर्वक किया है तथा मूल रचना के सन्देश को अविकृत रूप में हिंदी पाठक तक पहुंचाने में सफलता प्राप्त की है. आशा है हिंदी काव्य जगत में पर्यावरण संरक्षण पर केन्द्रित इस प्रयोजनपरक कविता को यथेष्ट सम्मान प्राप्त होगा.

शुभकामनाओं सहित. 

रविवार, 20 फ़रवरी 2011

राज्य बहुसंस्कृतिवाद की विफलता......

हैदराबाद, २० फ़रवरी २०१० :

'हिंदी भारत' चर्चा समूह के चिंतनशील वरिष्ठ सदस्य चंद्रमौलेश्वर प्रसाद, अनूप भार्गव, अनिल जनविजय और सत्यनारायण शर्मा 'कमल' ने 'स्वतंत्र वार्ता' के संपादक  राधश्याम शुक्ल के आलेख  'राज्य बहुसंस्कृतिवाद की विफलता पर छिड़ी बहस' पर गत सप्ताह जो बहु-आयामी विचार-विमर्श किया, उसे 'स्वतंत्र वार्ता' ने आज सम्मानपूर्वक प्रकाशित किया है. वैसे विमर्श अभी चालू है; और स्वयं डॉ.राधेश्याम शुक्ल का एक और आलेख (पिछले आलेख की शृंखला  में) सामने आया है. उसे भी देखा जाएगा. लेकिन पहले इसे देखते चलें......... 


बुधवार, 16 फ़रवरी 2011

उन्होंने अभी अखबार नहीं पढ़ा


प्रसिद्ध हिंदी-तेलुगु भाषाशास्त्री और अनुवादक डा.पोलि विजयराघव रॆड्डी के निधन पर जब हमलोग संवेदना प्रकट करने गए, तो साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत सुप्रसिद्ध तेलुगु कवि प्रो.एन गोपि द्वार पर ही एक छोटी सी कुर्सी पर बैठे दिखाई दिए. घर के बुज़ुर्ग की भूमिका निभाते वे सबको सांत्वना दे रहे थे और आने वालों के 'कैसे हुआ','कब हुआ' जैसे सवालों के उत्तर दे रहे थे. मुझे देखा तो खड़े होकर एक कोने में आ गए. हम दोनों डॉ. रेड्डी के जीवट और उनके जाने से पैदा होने वाले शून्य पर दबी आवाज़ में बात कर रहे थे. बातों बातों में उन्होंने अपनी जेब से एक मुड़ा तुड़ा कागज़ निकाला और पढ़कर सुनाया. उन्होंने वहाँ बैठे बैठे बड़े सबेरे एक कविता लिखी थी इस आकस्मिक घटना से उत्पन्न शून्य को व्यक्त करते हुए. अत्यंत मार्मिक उस तेलुगु कविता का श्रीमती आर शांता सुंदरी ने हिंदी में अनुवाद किया है -

उन्होंने अभी अखबार नहीं पढ़ा  
कुत्ते के पिल्ले की तरह सिकुडा पडा है
अखबार कुर्सी पर
जब भी हिलता है उस कमरे का परदा
चिहुंक उठते हैं अक्षर.
अक्षर चाहते हैं पढें वे उन्हें
अबतक बारहवें पृष्ठ तक पहुंच गए होते वे
पिछले पन्नों पर लगी गंदगी को
खेल के पन्ने से पोंछ लेते .
आए दिन
खेलों पर भी ज़रा सी कालिख लग ही जाती है
पर कोई बात नहीं.
अभी कमरे के अंदर से कोई आहट नहीं आ रही है.
अल्मारी में रखी किताबें
कुलबुला रही हैं बेचैन होकर
दोनों भाषाओं के पदकोशों में
बदलते जा रहे हैं अर्थ
उनके स्वरचित ग्रंथों के पन्नों से
आ रही है उनकी उंगलियों की गति की ध्वनि.
पंखा चलने को है तैयार
खिडकी से आती धूप का एक टुकडा
चाहता है बनना उनके माथे की सजावट.
धोकर रखा तौलिया
तरस रहा है बैठने को उनके कंधे पर.
ग्रहण किए सभी पुरस्कार उनके
उदास हैं उन गहनों की तरह
जिन्हें पहननेवाला कोई नहीं
तस्वीर में
उनका सत्कार करनेवाले राष्ट्रपति भी
झांक रहे हैं कमरे में
द्वार पर लगे वंदनवार के पत्ते
न जाने क्यों ताल से बेताल हो रहे हैं.
साथ के कमरे में
शोक की देवी के दिल में
उठते भंवर को अखबार नहीं जानता.
रोज़ मिलनेवाले परिचितों के चेहरों पर
पहले जैसी रौनक नहीं.
दूर देहात से आई संवेदना को
खुले आसमान के नीचे खडे पौधे
पहचान लेंगे ज़रूर
पर
फिलहाल वे खुदको भूले हैं
सूरज की रोशनी में.
कमरे में से एक चिडिया
उड गई पंख फडफडाती
सडक चलते लोगों में
एक महान परिवर्तन का आभास पाने की ताकत नहीं.
कुर्सी पर अखबार
छटपटा रहा है अभी तक
कल
उसके बगल में एक और आकर गिरेगा
उसे भी वे पढ नहीं पाएंगे
उन्हीं के बारे में चाहे उसमे खबर छपे
तो भी!
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(प्रसिद्ध हिंदी-तेलुगु भाषाशास्त्री और अनुवादक डा.पोलि विजयराघव रॆड्डी के निधन पर.)
९.२.२०११
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मूल तेलुगु कविता :डा.एन.गोपि
अनुवाद : आर.शांता सुंदरी

शनिवार, 12 फ़रवरी 2011

जाना एक समर्पित हिंदी-चिंतक का


शख्सियत   

जाना एक समर्पित हिंदी-चिंतक का 

अपने चिंतन और कर्म से निरंतर कई दशकों तक हिंदी-भाषा-विज्ञान के विभिन्न हलकों को समृद्ध करने वाले वरिष्ठ हिंदीसेवी डॉ पोलि विजय राघव रेड्डी इस ८/९ फरवरी की मध्यरात्रि में नश्वर जगत से अक्षर जगत की ओर प्रस्थान कर गए. उनकी भौतिक देह आज हमारे बीच नहीं है, लेकिन उनकी यशःकाया उनकी अनेक मूल्यवान कृतियों के रूप में हमारे साथ है; रहेगी. वे लम्बे समय तक केन्द्रीय हिंदी संस्थान के विभिन्न केंद्रों में प्राध्यापक, रीडर और प्रोफ़ेसर प्रभारी / क्षेत्रीय निदेशक के रूप में कार्यरत रहे तथा   कुछ अवधि के लिए आंध्र प्रदेश हिंदी अकादमी के अध्यक्ष भी ; लेकिन एक शब्द-साधक के रूप में उन्होंने हिंदी की जो अविस्मरणीय सेवा की, वह इन उपलब्धियों की तुलना में कहीं बहुत बड़ी है. यही कारण है कि हमारे बीच से उनका चले जाना हिंदी और अन्य  भारतीय भाषाओँ के मध्य से एक सांस्कृतिक सेतु के लुप्त हो जाने सरीखा है. 

२५ जून १९३८ को कोंड्लोपल्ली  [राजमपेट तहसील, आंध्र प्रदेश] में पोलि वेंकट सुब्बा रेड्डी और कासिरेड्डी  चंगम्मा दम्पति के घर जन्मे पोलि विजय राघव रेड्डी की गिनती उन बहुत ही थोड़े से हिन्दीतरभाषी भाषावैज्ञानिकों में होती है जिन्होंने हिन्दी भाषा के उन पक्षों पर कार्य किया है जिनकी आज के संदर्भ में हिन्दी भाषा और आधुनिक हिन्दी भाषाविज्ञान को बड़ी ज़रूरत है. उन्होंने द्वितीय भाषा के रूप में हिंदी शिक्षण, राजभाषा हिंदी के प्रचलन एवं विस्तार तथा  हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओँ के व्यतिरेकी अध्ययन को अपने व्यापक और सतत लेखन द्वारा एक सुनिश्चित दिशा प्रदान की. स्मरणीय है कि रेड्डी जी मात्र २० वर्ष की आयु में हिंदी पंडित बनने के इरादे से प्रशिक्षण प्राप्त करने आगरा गए, तो ऐसे रमे कि २० साल तक वहीं रह गए. केन्द्रीय हिंदी संस्थान में उन्होंने इस दौर में अनेक उतार-चढ़ाव देखे. इसके बाद और  २० वर्ष उन्होंने हिंदीतरभाषी  क्षेत्रों  में हिन्दी सेवा करते गुज़ारे. ६० की  वय में अवकाश प्राप्त करने के बाद तो वे लेखन में और भी सक्रिय हो गए थे. यह कोई मुहावरा नहीं बल्कि यथार्थ है कि वे अपने अंतिम क्षणों तक हिंदी सेवा में रत थे - इन दिनों वे 'तेलंगाना जनांदोलन' पर हिंदी में एक प्रामाणिक पुस्तक तैयार करने में जुटे थे!

डॉ रेड्डी के भाषावैज्ञानिक लेखन की मूलभूत खासियत  यह है कि उन्होंने लिखते समय हमेशा हिंदी को इतर भाषाभाषियों को सिखाने के उद्देश्य को अपने सामने रखा. १९८६ में प्रकाशित उनकी किताब ''व्यतिरेकी विश्लेषण'' इस दृष्टि से आज भी अपनी तरह की इकलौती किताब है. कुछ लोगों को यह जानकर आश्चर्य हो सकता है कि तेलुगुभाषी इस विद्वान् ने स्कूली स्तर पर दो ही भाषाएँ पढी थीं - अंग्रेज़ी और संस्कृत. तेलुगु इतरविषयों  की माध्यम भाषा भर थी. संस्कृत कहानी और तेलुगु छंद लिखकर उसी जमाने में बालक विजय राघव ने सृजन के क्षेत्र में पहला कदम रखा. आगे चलकर आगरा पहुँचने पर  प्रो. ब्रजेश्वर वर्मा , बाल कृष्ण राव और रामकृष्ण नावडा जैसे गुरुओं ने उनकी रचनाधर्मिता को वह धार दी जिसने देशभर में अपना लोहा मनवाया. उन्होंने मौलिक ,अनूदित और सम्पादित लगभग ५० पुस्तकों के माध्यम से हिन्दी को समृद्ध किया और भारतीय भाषा और साहित्य की अविस्मरणीय  सेवा की.  उनके इस विपुल कार्य और  योगदान को मान्यता प्रदान करते हुए  विभिन्न संस्थाओं और सरकारों ने उन्हें समय-समय पर उपाधियों,पुरस्कारों और सम्मानों से नवाज़ कर हिन्दीजगत की ओर से कृतज्ञता ज्ञापित की.  २००६ में उन्होंने महामहिम राष्ट्रपति के हाथों गंगाशरण सिंह पुरस्कार प्राप्त किया जो उनकी हिन्दी सेवा की सार्वदेशिक प्रतिष्ठा का प्रतीक है.

प्रो रेड्डी ने विपुल अनुवाद कार्य किया. इसे वे हिंदी साहित्य को भारतीय साहित्य का प्रतिनिधि बनाने का रास्ता मानते थे. उनके द्वारा अनूदित पहली कहानी  १९६२ में धर्मयुग में छपी थी; और उसके बाद उन्होंने  पीछे फिर कर नहीं देखा. वे मानते थे कि भारतीयता की भावना हमारी प्रत्येक भाषा के साहित्य में है. साहित्य  के अनुवाद के माध्यम से एक भाषाभाषी दूसरी भाषा के साहित्य को जान सकेगा, उससे निकटता स्थापित कर सकेगा. भावनात्मक एकता को सुदृढ़ करने के लिए वे सभी मित्रों को भी श्रेष्ठ कृतियों के अनुवाद की प्रेरणा देते थे.  उनका मानना था कि अनुवाद कार्य को भारतीय साहित्य की रूपरेखा को ध्यान में रखते हुए सुनियोजित ढंग से किए जाने की ज़रूरत है. उल्लेखनीय है कि उन्होंने तेलुगु कहानियों का जो योजनाबद्ध ढंग से अनुवाद प्रस्तुत किया है, वह अनूठा है. इसके साथ ही वे लोकसाहित्य के भी प्रबल पक्षधर थे तथा लोकभाषाओं और लोकसाहित्यों के संरक्षण के बारे में हमेशा सोचते रहते थे. यहाँ यह याद करना समीचीन होगा कि डॉ रेड्डी ने पूर्वोत्तर भारत की भाषाओँ , विशेषकर बोडो जनजाति की भाषाओँ, पर जो कार्य किया, वह महत्वपूर्ण तो है ही, हिंदी में अपनी किस्म का पायोनियर कार्य भी है. स्मरण रहे कि वे स्वयं अपनी जिस कृति को सर्वाधिक महत्वपूर्ण मानते थे ,उसका सम्बन्ध भी पूर्वोत्तर से है - 'संस्कृति संगम उत्तर पूर्वांचल'.

अभी डॉ. विजय राघव रेड्डी कई और किताबें दक्षिण भारत में हिंदी का अध्ययन, केंद्रीय हिंदी संस्थान, भारत का भाषिक यथार्थ  तथा उत्तर-पूर्वांचल का भाषा-साहित्य जैसे विषयों पर लिखना चाहते थे. लेकिन काल को यह स्वीकार नहीं था! शायद इन विषयों पर उनके नोट्स उनकी फाइलों में मिल जाएँ. उनकी अर्धांगिनी प्रो. शकुंतला रेड्डी भी प्रतिष्ठित भाषाविद हैं, वे भविष्य में प्रो विजय राघव रेड्डी के इन पुस्तकों के स्वप्न को साकार कर सकती हैं - ईश्वर उन्हें यह शक्ति दे!

गुरुवार, 10 फ़रवरी 2011

वसंत पंचमी : निराला जयंती समारोह


निराला की कविता आज के मनुष्य की चेतना से जुड़ने में सक्षम है - डॉ.राधेश्याम शुक्ल. 

हैदराबाद, ०८ फरवरी २०११(प्रेस विज्ञप्ति)| 

"वसंत पंचमी सृजन का पर्व है. सकल शब्दमयी सरस्वती की प्रतिमा मनुष्य के भीतरी और बाहरी अस्तित्वों के तादात्म्य का प्रतीक है. उसका सम्बन्ध ऐसे अजर-अमर संसार से है जो काव्य का संसार है. वास्तव में मनुष्य एक साथ तीन समानांतर संसारों में जीता है. पहला संसार दार्शनिकों और वैज्ञानिकों का अर्थात ज्ञान का संसार है, तो दूसरा संसार आम जीवन का अर्थात कर्म का संसार है. जबकि तीसरा संसार भावनाओं और संवेदनाओं का, स्वप्नों और संभावनाओं का तथा आत्म और अध्यात्म का संसार है - यही है कवि का संसार. इसीलिए, कविता का यथार्थ जीवन के यथार्थ का आइना नहीं होता, बल्कि कवि के मानस का आइना होता है. कवि का मानस, जितना उज्ज्वल  होगा, उसका कवित्व उतना ही उदात्त होगा. वाल्मीकि, व्यास, कालिदास और निराला इसीलिए महाकाव्य की चेतना के कवि हैं कि वे इस तीसरे संसार में जीते हैं. इसी से निराला की कविता में, वह शक्ति आई है कि वह आज के मनुष्य की चेतना से जुड़ने में सक्षम है. निराला ने कभी आत्म-पीड़ा और आत्म-दया का भाव नहीं दिखाया, बल्कि सतत जीवन संघर्ष का उदहारण अपने व्यक्तित्व और कृतित्व द्वारा सामने रखा." 

ये उदगार 'स्वतंत्र वार्ता'  दैनिक के सम्पादक डॉ. राधे श्याम शुक्ल ने वसंत पंचमी के अवसर पर उच्च शिक्षा और शोध संस्थान, दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के साहित्य-संस्कृति मंच द्वारा आयोजित निराला जयंती समारोह के मुख्य अतिथि के रूप में बोलते हुए प्रकट किए. समारोह की अध्यक्षता प्रो.ऋषभ देव शर्मा ने की. वरिष्ठ गीतकार विनीता शर्मा और कवि  डॉ.देवेन्द्र शर्मा विशेष अतिथि के रूप में उपस्थित रहे. इस अवसर पर विनीता शर्मा ने विशेष रूप से वसंत और निराला पर केन्द्रित अपने कई गीत प्रस्तुत किए. 
आरम्भ में सरस्वती-दीप-प्रज्वलन के उपरांत सभा के विशेष अधिकारी एस.के.हलेमनी की ओर से अतिथियों को अंगवस्त्र प्रदान कर सम्मानित किया गया.  के.नागेश्वर राव ने सरस्वती वंदना प्रस्तुत की. संध्या रानी, गायकवाड भगवान विश्वनाथ, जटावत श्रीनिवास राव और डॉ.जी.नीरजा ने निराला की कविताओं का वाचन किया. डॉ.पेरीशेट्टी श्रीनिवास राव ने 'अभी न होगा मेरा अंत' का तेलुगु अनुवाद प्रस्तुत किया. डॉ.गोरखनाथ तिवारी, डॉ.मृत्युंजय सिंह और मिसाले उत्तम लक्ष्मण ने क्रमशः महादेवी वर्मा, डॉ.  रामविलास शर्मा और अमृतलाल नागर के निराला सम्बन्धी संस्मरण पढ़ कर सुनाए . हेमंता बिष्ट ने जब निराला की प्रसिद्ध कहानी 'देवी' का वाचन किया तो सब भावाभिभूत हो गए. 

उच्च शिक्षा और शोध संस्थान में संपन्न निराला पर केन्द्रित शोधकार्यों की प्रदर्शनी भी इस अवसर पर आयोजित की गई. जिसमें, उनकी कविताओं, कहानियों, उपन्यासों और संस्मरणों के विविध  पहलुओं  पर तो अनुसन्धान किया ही गया है, साथ ही उनकी तुलना 'अमृतं कुरिसिन रात्रि' और 'कृष्णपक्षमु' जैसी तेलुगु रचनाओं के साथ भी की गई है. 

कार्यक्रम के अंतिम चरण में प्रो.ऋषभ देव शर्मा ने निराला की क्लासिक कृति 'राम की शक्तिपूजा' का भावपूर्ण सस्वर वाचन किया. संचालन डॉ.बलविंदर कौर ने किया तथा कार्यक्रम संयोजिका डॉ.साहिरा बानू बी बोरगल ने धन्यवाद ज्ञापित किया.
प्रस्तुति - डॉ.जी. नीरजा 

बुधवार, 9 फ़रवरी 2011

श्रद्धांजलि : विजयराघव रेड्डी नहीं रहे

डॉ. विजयराघव रेड्डी इज नो मोर।’ प्रो.एन. गोपि का फोन था। अविश्वास नहीं किया जा सकता था। श्रीनिवासपुरम (रामांतपुर, हैदराबाद) में एक ही गली में आमने सामने हैं दोनों के घर। पर मन न माना। डॉ.रामनिवास साहू का फोन मिलाया। केंद्रीय हिंदी संस्थान परिवार के नाते। उन्होंने दुखी सी आवाज में कन्‍फर्म किया। मंगलवार, 8 फरवरी, 2011 को रात के बारह बजे डॉ.विजयराघव रेड्डी ने अंतिम सांस ली। कुछ समय पूर्व बीमार जरूर थे, पर इन दिनों तो ठीक ही थे। अस्थमा और प्रोस्टेट की व्यथा काफी अरसे से थी। पर अचानक ऐसा हो जाएगा - लगता न था। सोचा डॉ.शकुंतला रेड्डी जी को फोन करूँ। पर कर न सका। ऐसे मौकों पर मैं बड़ा असहाय सा हो जाता हूँ - असहज सा भी। दूर पास के दोस्तों को फोन कर करके जैसे स्वयं को हल्का करने की कोशिश करता रहा। 

अभी कुछ ही दिन पहले तो हमने उन्हें उच्च शिक्षा और शोध संस्थान में बुलाया था। वे हर वर्ष हमारे व्यतिरेकी भाषाविज्ञान के विद्यार्थियों को संबोधित करने आया करते थे। मैं खुद उस कक्षा में बैठा। लगभग दो घंटे तक वे पढ़ाते रहे थे। बोर्ड पर कभी कोई तालिका बनाते, कभी कोई आरेख खींचते। बीच बीच में छात्रॊं से तेलुगु में भी बतियाते। मैंने हिंदी और तेलुगु के व्यतिरेक संबंधी कई जिज्ञासाएँ रखीं। उन्होंने उदाहरण देकर सबका समाधान किया। वे बहुत जोर से नहीं बोलते थे, पर उनकी क्लास सुनकर यह लगा कि प्रभावी अध्यापन के लिए गलेबाजी की अपेक्षा विषय की गहरी समझ चाहिए होती है। और वह उनके पास थी। आज जब डॉ.विजयराघव रेड्डी की लहीम शहीम पर सुदृढ़ काया पंचतत्व में विलीन हो गई है तो पता नहीं उनके छात्रों को कैसा लग रहा होगा। लेकिन मुझे जरूर ऐसा लग रहा है कि भाषाविज्ञान का एक सुलझा हुआ अध्यापक हमारे बीच से चला गया। 

डॉ.विजयराघव रेड्डी का जन्म 25 जून, 1938 को आंध्र प्रदेश की राजम्‌पेट तहसील के कोंड्‍लोपल्ली गाँव में हुआ था। वे सही अर्थों में सेल्फ मेड मैन थे। 1959 में वे केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा में शैक्षिक सहायक के रूप में नियुक्‍त हुए थे। अपने श्रम और प्रतिभा के बल पर उच्च शिक्षा प्राप्‍त करते हुए आगे चलकर उन्होंने इस संस्थान के विभिन्न केंद्रों में अध्यापन किया और हैदराबाद केंद्र के क्षेत्रीय निदेशक के रूप में यथासमय अवकाश ग्रहण किया। बाद में दो वर्ष उन्होंने आंध्र प्रदेश हिंदी अकादमी के अध्यक्ष के रूप में भी भाषा और साहित्य की सेवा की। उनके न रहने का अर्थ यह भी है कि तुलनात्मक साहित्य, भारतीय साहित्य और अनूदित साहित्य के परिप्रेक्ष्य में हिंदी साहित्य का पुनर्पाठ करनेवाला एक गहन अध्येता नहीं रहा। 

डॉ.विजयराघव रेड्डी का कार्यक्षेत्र लगभग पूरा भारत रहा। आगरा तो केंद्र था ही, हैदराबाद में लंबे समय तक रहकर उन्होंने भाषा शिक्षण-प्रशिक्षण के साथ साथ भारतीय भाषाओं के सौहार्द का वातावरण भी अपने सुचिंतित  व्याख्यानों, अनुवादों और शोध पत्रों द्वारा बनाया। पूरे भारत में उनके मित्र और प्रशंसक हैं - मद्रास में प्रो.दिलीप सिंह हों या असम में चित्र महंत अथवा इम्‍फाल में देवराज, सभी उनके यूँ अचानक चले जाने की खबर से धक्‌ से रह गए। किसी को संतोष था तो यही कि चलो अभी तीन दिन पहले फोन पर उनसे बात तो हो गई थी। जबकि किसी को मलाल था कि काफी अरसे से उनके खत का जवाब नहीं दिया गया था। दरअसल रेड्डी जी भाषाविद होकर भी रूखे सूखे विद्वान नहीं थे। वे सहृदय दोस्त थे। मौका मिलते ही कोई किस्सा - कहानी या चुटकुला सुना बैठते थे। खुलकर हँसते थे और कभी कभी तो ताली देने के लिए हथेली भी बढ़ा देते थे। मैं उन्हें हर प्रकार से वरिष्‍ठ जानकर संकोच और दूरी बरतता था पर वे हमेशा अपनी बाँह से मेरी पीठ घेर कर मुझे खींचकर छाती से लगा लेते थे। आज सोचता हूँ तो पाता हूँ कि सदा सबके मुँह पर खरी बात कह देने वाले और कभी कभी कठोर भी प्रतीत होनेवाले पोलि विजयराघव रेड्डी भीतर से बहुत आर्द्र थे। तभी तो उनके स्पर्श में इतनी ऊष्‍मा थी। निश्‍चय ही देश भर में फैले उनके दोस्तों को लग रहा होगा कि एक अंतरंग मित्र चला गया, यारों का यार चला गया।

डॉ.विजयराघव रेड्डी को कुछ वर्षों से हम लोग लौहपुरुष कहने लगे थे - जब से पूर्वोत्तर में एक खतरनाक सड़क हादसे को झेलकर वे फिर से पहले की तरह अपने सारस्वत कार्य क्षेत्र में आ डटे थे। ऐसी अदम्य जिजीविषा सबमें नहीं होती। इसी जिजीविषा के बल पर उन्होंने पूर्वोत्तर भारत को अपनी साहित्यिक आत्मा का हिस्सा बना लिया था। अगर मैं कहूँ कि पूर्वोत्तर भारत के हिंदी जगत की उनके न रहने से अपूरणीय क्षति हुई है, तो यह शत प्रतिशत सच होगा। उन्होंने वहाँ की भाषाओं और बोलियों के संबंध में जो जानकारियाँ संग्रहीत करके हिंदी जगत के सामने प्रस्तुत कीं, उन्हें कभी भुलाया नहीं जा सकता। खास तौर से बोडो जनजाति से संबंधित ऐसी जानकारियाँ इस भाषावैज्ञानिक ने खोजबीन कर प्रस्तुत कीं  जो इससे पहले हिंदी में नितांत अनुपलब्ध थीं। दरअसल उनके निधन से हमने हिंदी का एक ऐसा व्यावहारिक भाषाचिंतक खो दिया है जिसे भाषाविज्ञान की बारीकियों के साथ साथ इस देश की जमीनी सच्चाई की बारीकियाँ भी मालूम थीं।

पोलि विजयराघव रेड्डी नहीं रहे अर्थात एक भाषाचिंतक, एक अनुवादक, एक अध्यापक, एक अनुसंधाता और एक लेखक नहीं रहा। नहीं, इतना ही नहीं, वे नहीं रहे तो एक संस्कृति सेतु नहीं रहा, वे नहीं रहे तो एक स्वागतातुर मित्र नहीं रहा, वे नहीं रहे तो एक निश्‍छल हँसी नहीं रही।

जाओ, डॉ.पोलि विजयराघव रेड्डी, आप अपनी महायात्रा पर जाओ। आपके महाप्रयाण के अवसर पर हिंदी जगत आपकी सेवाओं का स्मरण करते हुए आपको अश्रुपूर्ण विदाई दे रहा है। ओम्‌ शम्।।

शुक्रवार, 4 फ़रवरी 2011

बच्चन की बेचैनी

बच्चन मस्ती के कवि हैं। होंगे। मुझे तो वे बेचैनी के कवि दिखते हैं। ऐसी बेचैनी जो मेरी अपनी भी है। पता ही नहीं चलता, कब बच्चन की बेचैनी मेरी बेचैनी हो जाती है और मेरी बेचैनी बच्चन की। कवि के रूप में बच्चन बच्चन हैं और मैं मैं हूँ। बच्चन के सम बस बच्चन हैं। पर मनुष्य के रूप में बच्चन बेचैन हैं। उनकी बेचैनी अकेले उनकी नहीं है। उनकी बेचैनी मेरी भी है। और भी न जाने किस किस की। इन सारे अपने जैसे बेचैनों को ही लक्ष्य करके कवि ने यह वसीयत की होगी - प्राणप्रिये, यदि श्राद्ध करो तुम मेरा तो ऐसे करना/पीनेवालों को बुलवाकर खुलवा देना मधुशाला। बेचैन आत्माओं की कितनी चिंता है बच्चन को। होगी ही। जो बेचैन है वही तो दूसरे की बेचैनी को समझेगा। जिसने अभाव नहीं देखा, मृत्यु नहीं देखी, अपमान नहीं देखा, उदासी नहीं देखी, वह भला किसी और के अभाव को, मृत्यु को, अपमान को, उदासी को क्या जानेगा? पर बच्चन ने इन सबको देखा है, भोगा है, जिया है इसलिए वे खुद भी बेचैन दिखते हैं और औरों की बेचैनी भी बिना कहे देख लेते हैं।

बहुत बेचैनी है। चैन कहाँ है? जीवन की आपाधापी में कब वक्त मिला? कहीं नहीं। कभी नहीं। बस बेचैन दग्ध-उर व्यंग्यपूर्वक ‘आनंद करो’ की पुकार लगाता है जैसे कोई मस्त फक़ीर अलख जगा रहा हो। यह दग्ध-उर की बेचैनी ऐसी अनबुझ आग है जो मधुपान से बुझ सके शायद - कुछ आग बुझाने को पीते/ये भी, कर मत इन पर संशय। लेकिन बुझती नहीं यह आग। और भड़कती है। इसी बेचैनी में हर पीनेवाला और-और की रटन लगाता जाता है। इस बेचैनी ने लाल सुरा की धार को लपट बना दिया है। पर पीनेवाला इस ज्वाला को गटागट पी जाता है क्योंकि उसके भीतर विषम अनुभवों की इससे कहीं भयानक ज्वाला दहक रही है। इतनी कि नशे में भी दर्द बना रहता है। मदहोशी में भी विगतस्मृतियाँ हरी रहती हैं। सच ही भीतरी बेचैनी की ज्वाला मदिरा की ज्वाला से बड़ी है। बच्चन ने इस आग को ही आनंद बना दिया। उनकी मधुशाला में उस हर प्राणी का स्वागत है जो अपनी बेचैनी को उत्सव बना सके - पीड़ा में आनंद जिसे हो, आए मेरी मधुशाला।

कितनी कितनी बेचैनी! कैसी कैसी बेचैनी! एक अनादि-अनंत तृषा से भरी बेचैनी। कवि स्वयं प्यासा प्याला बन गया। पात्र और हाला ने एक दूसरे को खूब छका, खूब पिया। पर प्यास वैसी की वैसी रही। वह क्षण भी आ उपस्थित हुआ जब साकी ने मधुपात्र से गरल ढालना शुरू कर दिया। हाथ प्याले का स्पर्श भूल गए। जिह्वा सुरा का स्वाद भूल गई। एक एक कर पाँचों तत्व संज्ञा को छोड़ चले। पर तृषा न छूटी। भर्तृहरि होते तो ‘वैराग्य शतक’ लिखते। ठीक ही तो है, भोग नहीं भुगते गए, हमीं भुगतते रहे। तप कहाँ तपे गए, हमीं तपते रहे। वक़्त कहाँ चुका, हमीं चुक गए। इस तरह हम जीर्ण-जर्जर हो गए लेकिन तृषा आज भी वैसी की वैसी चिरयौवना है। पर बच्चन ‘वैराग्यशतक’ नहीं लिखते, राग का चरम उत्कर्ष लिखते हैं। साक़ी के हाथों ेमें भले ही गरल का पात्र हो, मेरे कानों में मधु का अनाहत नाद गूँजता रहे - कानों में तुम कहती रहना,मधुकण,प्याला,मधुशाला। होगा राम नाम सत्य उनके लिए जिन्हें मरकर चैन मिल जाता है, मेरी अमर बेचैनी के लिए तो मधुशाला ही अंतिम सत्य है। मेरी बेचैन मिट्टी से मरजीवा पाँखी की तरह नया जीवन जन्म लेगा। मेरी बेचैनी फिर एक प्याले में ढलेगी - किन सरस करों का परस आज, करता जाग्रत जीवन नवीन? मिट्टी का तन और मस्ती का मन इस सरस परस से फिर बेचैनी से भर जाएगा। मैं खोजूँगा इसी सरस परस को। जब तक यह न मिलेगा मैं भटकता रहूँगा। नहीं, मुझे धन-कुबेरों का ठाट-बाट नहीं चाहिए; किसी राजा-महाराजा का माल-ख़ज़ाना और राज-पाट भी नहीं। मेरी बेचैनी को अमरों का लोक भी नहीं सुहाता; अमरित भी नहीं। मैं तो बस सरस-हृदय की खातिर हर बार बिना मोल बिका हूँ। उसके मिलते ही हर ओर मधुशाला सज उठती है। पर बेचैनी तब भी बनी रहती है। बेचैनी बच्चन को छोड़ती नहीं। मधुपूर्ण मिलन के क्षण में भी एक खटका सा लगा रहता है - जब दिनकर की तमहर किरणें तम के अंदर छिप जाएँगी/जब निज प्रियतम का शव रजनी तम की चादर से ढक देगी ग् ग् ग् तब हम दोनों का नन्हा सा संसार न जाने क्या होगा? बेचैन है कवि कि जब रस-रूप-गंध-शब्द-स्पर्श जैसे सारे साधन छिन जाएँगे, तब मानव की चेतनता का आधार न जाने क्या होगा? होगा; मानव की चेतनता का आधार अवश्य होगा - कवि की बेचैनी!

यह बेचैनी बच्चन को रात रात भर जगाती है। सुखिया संसार खाता है और सोता है, दुखिया कवि जागता है और रोता है। दुनिया भर की बेचैनी को सीने पर धरकर सोया जा सकता है क्या? रोया तो जा सकता है। कबीर रोएँ या बच्चन, जब रोते हैं तो लोक उनके साथ रोता है। सब ओर बेचैनी का पारावार लहराने लगता है। इसे तनिक नज़दीक जाकर देखो, दोस्त, तो समझोगे कितनी व्यापक है बच्चन की बेचैनी। यह निज की पीड़ा भर नहीं, सृष्टि की वेदना है। सार्वजनीन बेचैनी।

कौन बेचैन नहीं है यहाँ? बच्चन की आँख से देखो। तुम जिन लहरों को सागर का शृंगार समझते हो, वे उसकी बेचैनी हैं। वायु को आकाश की क्रीड़ा मत समझ लेना, वह आकाश की बेचैनी है। यह रंग-बिरंग जगत मिट्टी की मूरत नहीं, उसकी बेचैनी है। कली की बेचैनी का नाम है गंध। मधुवन की बेचैनी की संज्ञा है पुष्प। कोयल की कूक को मनुहार मान लोगे तो चूक जाओगे, उसमें छिपी बेचैनी को पहचानने की कोशिश करो तो कुछ बात बने। बेचैन है हर सच्चा गायक। बेचैन वीणा भी है। भावनाओं के पीछे साँसों की बेचैनी छिपी है और कवि की कृति में उसके दग्ध-उर की बेचैनी। कविता यदि हृदय की अभिव्यक्ति है तो कहना ही होगा कि सचमुच, कविता बेचैनी का दूसरा नाम है - गान गायक का नहीं व्यापार, उसकी विकलता है;/राग वीणा की नहीं झंकार, उसकी विकलता है;/भावनाओं का मधुर आधार साँसों से विनिर्मित,/गीत कवि-उर का नहीं उपहार, उसकी विकलता है।

जिस दिन यह बेचैनी चुक जाएगी, उस दिन कविता भी चुक जाएगी। लेकिन कविता कभी नहीं चुकेगी क्योंकि बेचैनी कभी नहीं चुकती। बेचैनी पहचान है मनुष्य होने की। बच्चन मनुष्य हैं। मनुष्य होकर कवि; और कवि होकर मनुष्य। उनकी बेचैनी - मधु की प्यास - शाश्वत है। यह बेचैनी उन्हें विवश करती है प्यार के पल में भी जलन खोजने को। उन्हें अधर के रस कणों से तृप्ति नहीं मिलती। वे उन्मत्त होकर मानो चीखते हैं - खींच लो तुम प्राण ही इन चुंबनों से। नहीं, यह आत्मपीड़न नहीं है। प्यार के क्षण में मरण की इच्छा है। प्यार के क्षण में भी जो जीवित रह गया - जिसने आपा नहीं मेटा, जिसने हथेली पर सिर नहीं धरा - उसने प्रेम जाना ही नहीं: प्यार के क्षण में मरण भी तो मधुर है। कवि को यह मरण प्रिय है क्योंकि इसमें भी मधु है। अजीब लग सकती है बच्चन की यह बेचैनी। पर सच यही है कि मौन प्रिय को मुखर करके प्रणय की जय का उल्लास भले मिलता हो, कवि के हृदय की तृष्णा परितृप्त नहीं होती। कहा न, बच्चन मनुष्य हैं। जो मिल जाता है, उससे उन्हें चैन नहीं मिलता। तन मिल जाता है तो वे मन की खोज में निकल पड़ते हैं। रस मिल जाता है तो वे संतोष के लिए बेचैन होने लगते हैं। जिसने अमृत कलश की ओर कभी भूलकर भी देखा नहीं, उसे जब मधु मिल गया तो वह अमृतकण के लिए बेचैन हो उठा। बच्चन जी, मधु तो प्रतिध्वनि है जिसके लिए इतने बेचैन रहे; ध्वनि तो अमृतकण ही है -

है अधर में रस, मुझे मदहोश कर दो,/किंतु मेरे प्राण में संतोष भर दो,
मधु मिला है, मैं अमृतकण खोजता हूँ; /मैं प्रतिध्वनि सुन चुका, ध्वनि खोजता हूँ।