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रविवार, 19 अप्रैल 2020

(रामायण संदर्शन_संपादकीय) परमात्मा का प्राकट्य


संपादकीय
परमात्मा का प्राकट्य

प्रिय पाठको!
आज सारा विश्व एक नई और विचित्र महामारी की चपेट में आया हुआ है। कोविड-19 या कोरोना नाम के विषाणु से फैलने वाली इस महामारी की मनुष्य जाति के पास न तो अभी तक कोई कारगर औषधि है और न ही कोई रोकथाम कर सकने वाली वैक्सीन ही खोजी जा सकी है। ऐसी स्थिति में मनुष्य जाति अपने आप को असहाय और किंकर्तव्यविमूढ़ महसूस कर रही है। इस वैश्विक संकट से अपने आप को और अपने समाज को बचाने के लिए  एकांत सेवन और सामाजिक दूरी के नए नियमों का पालन करने की सलाह दी जा रही है। 

इसमें संदेह नहीं कि मानव मेधा आज नहीं तो कल इस महामारी का कोई न कोई समाधान अवश्य खोज लेगी। लेकिन इस समय की वास्तविकता यह है कि अतिशय महाबली राष्ट्रों से लेकर अत्यंत साधारण व्यक्ति तक सभी अपने आप को एक ऐसे प्रकृति प्रदत्त दुष्चक्र में फँसा हुआ अनुभव कर रहे हैं, जिससे निकलने में तमाम तरह की भौतिक कोशिशों के बावजूद सफलता नहीं मिल पा रही है। यदि यह कहा जाए कि कोरोना विषाणु ने भौतिक हानि की तुलना में वर्तमान पीढ़ी के मनुष्य की मानसिक और आत्मिक क्षति अधिक की है, तो शायद गलत न होगा। महामारी और मृत्यु के समक्ष अपनी तुच्छता और भंगुरता के बोध ने मनुष्यों के मानसिक बल और आत्म शक्ति को कमजोर बनाया है। इसका परिणाम एक ऐसी नकारात्मकता के रूप में सामने आ रहा है, जहाँ मनुष्य और मनुष्य के बीच एक नई तरह की संशय पूर्ण स्थिति और अवांछित छुआछूत जन्म ले रही है। यही नहीं, तमाम तरह की तार्किकताओं और वैज्ञानिक समझदारियों को अंगूठा दिखाते हुए, इस विषाणु के कारण नई तरह के अंधविश्वास और घृणा के भाव भी समाज के बीच उभर रहे हैं।

इस तमाम नकारात्मकता के निवारण और सकारात्मकता की पुनर्रचना के लिए ज्ञान, कर्म और इच्छा के समन्वय की बड़ी आवश्यकता है। इस आवश्यकता की पूर्ति के लिए मनुष्य को अपने आत्मबल को जगाना होगा। आत्मबल का यह जागरण कई प्रकार संभव है, जिनमें एक मार्ग भक्ति का भी है।  अनासक्त भाव से कर्म करते हुए, लोक कल्याण की भावना के साथ जीवन यापन करते हुए यदि हम अपने आराध्य के प्रति एकनिष्ठ विश्वास रखेंगे, तो अवश्य ही हमारे भीतर आत्मबल के रूप में स्वयं परमात्मा प्रकट होंगे।  

परमात्मा का प्राकट्य ऐसे हर क्षण में होता है, जब हम अपने आप को असहाय, निरीह और निरूपाय  पाते है। ऐसे हर क्षण नें परमात्मा नई संभावनाओं के रूप में अवतरित होते हैं। इस जगत का इतिहास साक्षी है कि जब जब नकारात्मकता का वैश्विक प्रसार हुआ है, तब तब परमात्मा ने किसी न किसी रूप में सकारात्मकता का अवतार धारण किया है। भगवान राम का प्राकट्य भी मनुष्य के भीतर आत्मबल और सकारात्मकता  के ही उदय होने का प्रतीकात्मक आख्यान है। भगवान राम के प्राकट्य के लिए प्रकृति की समस्त शक्तियाँ देवताओं के रूप में प्रजापति ब्रह्मा के नेतृत्व में जो प्रार्थना करती हैं, वह वास्तव में लोक रक्षण के निमित्त आत्मबल के जागरण की साधना ही तो है! 

संत तुलसीदास ने रामचरितमानस में इस प्रार्थना अथवा स्तुति में स्वयं परब्रह्म स्वरूप परम सत्ता का गुणगान करते हुए उन्हें जन सुखदाता, प्रणतपाल, समस्त शक्तियों के स्वामी, अविनाशी, सब घट वासी, व्यापक और परमानंद  बताते हुए यह कहा है कि वही सृष्टि के रचनाकार हैं और उन्हें सदा इस सृष्टि की चिंता है। इसी आत्मविश्वास के बल पर हम आज भी नकारात्मकता से के विरुद्ध सकारात्मक शक्तियों का जागरण कर सकते हैं क्योंकि असत, अंधकार और मृत्यु अंतिम सत्य नहीं हैं।  परम सत्य तो सत, प्रकाश और अमरत्व हैं तथा हम उसी अमृत की संतानें हैं। 

तो आइए, इसी आत्मविश्वास को लेकर हम भी आज के इस संकटकाल में अपने भीतर छिपे हुए राम रूपी अमरत्व के उदय के शुभ संकल्प के साथ अपने आराध्य की अभ्यर्थना करें! शुभमस्तु!
  • संपादक

जय जय सुरनायक!

जय जय सुरनायक जन सुखदायक प्रनतपाल भगवंता,
गो द्विज हितकारी जय असुरारी सिंधुसुता प्रिय कंता,
पालन सुर धरनी अद्भुत करनी मरम न जानइ कोइ,
जो सहज कृपाला दीनदयाला करउ अनुग्रह सोइ,

जय जय अबिनासी सब घट बासी ब्यापक परमानंदा,
अबिगत गोतीतं चरित पुनीतं मायारहित मुकुंदा,
जेहि लागि बिरागी अति अनुरागी बिगत मोह मुनिबृंदा,
निसि बासर ध्यावहिं गुनगन गावहिं जयति सच्चिदानंदा

जेहिं सृष्टि उपाई त्रिबिध बनाई संग सहाय न दूजा,
सो करउ अघारी चिंत हमारी जानिअ भगति न पूजा,
जो भव भय भंजन मुनि मन रंजन गंजन बिपति बरूथा,
मन बच क्रम बानी छाङि सयानी सरन सकल सूरजूथा,

सारद श्रुति सेषा रिषय असेषा जा कहुँ कोउ नहिं जाना,
जेहिं दीन पिआरे बेद पुकारे द्रवहु सो श्रीभगवउाना,
भव बारिधि मंदर सब बिधि सुंदर गुनमंदिर सुखपुंजा,
मुनि सिध्द सकल सुर परम भयातुर नमत नाथ पद कंजा,

जानि सभय सुरभूमि सुनि, बचन समेत सनेह,
गगनगिरा गंभीर भइ, हरनि सोक संदेह,
 (रामचरितमानस, बालकांड)

शुक्रवार, 10 अप्रैल 2020

(इंद्रप्रस्थ भारती) विशालतम गणतंत्र की अस्मिता की भाषा

विशालतम गणतंत्र की
अस्मिता की भाषा
- ऋषभदेव शर्मा 
[1]
समय समय पर भारत की राष्ट्रभाषा और राजभाषा होने की हिंदी की योग्यता और संवैधानिकता को लेकर उठने वाले राजनैतिक विवादों और मतभेदों के बावजूद, समसामयिक परिप्रेक्ष्य में हिंदी भाषा के महत्व को रेखांकित करने की दृष्टि से पिछले पाँच वर्ष के भारतीय राजनीति और वैदेशिक कूटनीति के परिदृश्य का अवलोकन करने से यह स्पष्ट होता है कि इस अवधि में कूटनैतिक और वैदेशिक संबंधों के क्षेत्र में हिंदी ने अपनी साफ-साफ आहट दर्ज कराई है। प्रधानमंत्री द्वारा कूटनैतिक चर्चाओं और औपचारिक संबोधनों के लिए विभिन्न राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर हिंदी के व्यवहार से विश्व बिरादरी को यह संकेत मिला है कि भारत की भी अपनी राजभाषा (राष्ट्रभाषा) है और यदि वह इसके प्रयोग का आग्रही हो तो विशालतम गणतंत्र की अस्मिता की इस भाषा को दुनिया को इस देश के साथ संबंधों की खातिर व्यवहार में स्वीकार करना होगा। 
भाषा यदि राष्ट्रीय गौरव का एक प्रतीक है तो यह कहना होगा कि भले ही 14 सितंबर 1949 को हिंदी को भारत संघ की राजभाषा के रूप में संविधान ने अधिकृत कर दिया हो, व्यवहारतः विश्व बिरादरी के बीच भारत अब तक अंग्रेज़ी ही बरतता रहा है और धिक्कारा जाता रहा है: ऐसे में यदि भारत के प्रधानमंत्री तथा अन्य मंत्री/ अधिकारी राष्ट्रीय/ अंतरराष्ट्रीय औपचारिक अवसरों पर अपने वक्तव्य हिंदी में देना का नैतिक साहस दिखाते रहें तो इसे कूटनैतिक और वैदेशिक संबंधों के स्तर पर हिंदी के महत्व को स्थापित करने की पहल के रूप में देखना उचित होगा। इससे हिंदी को विश्वस्तरीय संबंधों की माध्यम-भाषा के रूप में प्रतिष्ठित होने के अवसर मिलेंगे तथा विदेशों में हिंदी पढ़ने-पढ़ाने को बढ़ावा मिलेगा। मानवीय और मशीनी अनुवाद के क्षेत्र में भी हिंदी की प्रतिष्ठा बढ़ेगी और जानबूझ कर इस भाषा की उपेक्षा करने वाले दूतावासों में इसे सम्मान मिलने की शुरूआत होगी। इस प्रकार के संकेत मिलने लगे है कि सभी देशों ने हिंदी से जुड़ने की दिशा में सोचना आरंभ कर दिया है। उदाहरणार्थ, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय, वर्धा के साथ विश्व के कई सारे बड़े देशों के विश्वविद्यालयों से हिंदी पढ़ाने की जिम्मेदारी के समझौते हुए हैं। केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा भी इस क्षेत्र में अग्रणी भूमिका निभा रहा है। इसके अंतर्गत एक अनिवार्य पाठ्यक्रम ‘भारत परिचय’ का भी है जिसमें विशेष बल 1857 के बाद के अर्थात आधुनिक भारत पर होगा। अभिप्राय यह है कि आने वाले समय में विश्व स्तर पर आर्थिक-राजनैतिक परिवर्तनों के साथ हिंदी के जुड़ाव के लक्षण दिखाई देने लगे है।
कोई भी भाषा तभी महत्वपूर्ण और सर्वस्वीकार्य होती है, जब वह अपने आपको निरंतर प्रगति की संस्कृति से जोड़कर नए नए प्रयोजनों (फंक्शंस) के अनुरूप अपनी क्षमता प्रमाणित करे। इसमें संदेह नहीं कि हिंदी ने अपना यह सामर्थ्य पिछले दशकों में सिद्ध कर दिखाया है कि वह विश्व मानव के जीवन व्यवहार के समस्त पक्षों को अभिव्यक्त करने वाली सर्वप्रयोजनवाहिनी भाषा है। बीज रूप में कहना हो तो हिंदी के महत्व का आज के परिप्रेक्ष्य में पहला समसामयिक प्रयोजन क्षेत्र कूटनैतिक और वैदेशिक संबंधों [डिप्लोमेसी] की भाषा का है तो दूसरा पहलू शासन [गवर्नेंस] की भाषा का। तीसरा क्षेत्र प्रतियोगिता परीक्षाओं और रोजगार दिलाने वाली भाषा का और चौथा चुनाव तथा राजनीति की भाषा का है। 
हिंदी के महत्व के पाँचवें आयाम के रूप में मीडिया की भाषा को देखा जा सकता है जिसके अंतर्गत प्रिंट और इलेक्ट्रानिक जन संसार माध्यमों के अलावा फिल्म और नए [सोशल] मीडिया पर हिंदी के प्रभावी प्रसार का आकलन करना होगा। सूचना उद्योग हो या मनोरंजन उद्योग, बहुभाषी होना और हिंदी का व्यवहार करना, दोनों क्षेत्रों में सफलता की गारंटी सरीखा है। इससे रंग-बिरंगी हिंदी के जो रूप सामने आ रहे हैं, वे हिंदी की लचीली और सर्वग्राही प्रवृत्ति के प्रमाण भी हैं और परिणाम भी। भाषा मिश्रण पर नाक भौं सिकोड़ने वालों को हिंदी की केंद्रापसारी प्रवृत्ति और अक्षेत्रीय / समावेशी स्वभाव को ध्यान में रखना चाहिए अन्यथा वे इसके बहुप्रयोजनीय स्वरूप के विकास में रोडे ही अटकाते रहेंगे। इसे भाषा के खिचड़ी हो जाने की अपेक्षा प्रयोजन-विशेष के लिए लचीलेपन के रूप में ही ग्रहण किया जाना उचित होगा। अर्थात हिंदी की पहले से विद्यमान और स्वीकृत सामाजिक शैलियाँ (हिंदी, उर्दू और हिंदुस्तानी) अब भी अपनी जगह हैं और जीवंत प्रयोग में हैं तथा आगे भी रहेंगी लेकिन हिंदी के जो नए रूप आज मीडिया के माध्यम से उभर रहे हैं उन्हें भी नई शैली के रूप में स्वीकारना ज़रूरी है।
हिंदी की इन विविध शैलियों के प्रयोग के संदर्भ अलग-अलग हैं जो भाषा के बहुआयामी विकास के ही प्रतीक हैं। इसी से हिंदी के महत्व का छठा आयाम भी जुड़ा हुआ है जो विज्ञापन की भाषा से संबंधित है। कहना न होगा कि उत्तरआधुनिक भूमंडलीकृत विश्व वस्तुतः भूमंडीकृत विश्व है। इस भूमंडी या अंतरराष्ट्रीय बाज़ार के जितने बड़े हिस्से को कोई भाषा संबोधित कर सके वह उतनी ही महत्वपूर्ण हो जाती है। हिंदी विज्ञापन भारत ही नहीं, दक्षिण एशिया और अरब देशों तक के उपभोक्ता को और साथ ही दुनिया भर में बसे भारतवंशियों को संबोधित और आकर्षित करने में सक्षम हैं; क्योंकि दुनिया भर में हिंदी समझने वालों की तादाद सर्वाधिक नहीं तो सर्वाधिक के आसपास अवश्य है। अतः ग्लोबल मीडिया और बाज़ार दोनों की भाषा की दृष्टि से अब कोई हिंदी को नकार नहीं सकता।
यहीं हिंदी भाषा के महत्व का सातवाँ बिंदु सामने आता है जिसका संबंध ज्ञान, विज्ञान और विमर्श की भाषा से है। भाषिक प्रयुक्तियों, तकनीकी शब्दावलियों और अभिव्यक्तियों की दृष्टि से हिंदी का भंडार अकूत है लेकिन शिक्षा के माध्यम के रूप में मातृभाषाओं को स्वीकार न करने के कारण सभी भारतीय भाषाओं सहित हिंदी के प्रयोक्ता संदेह, संशय और हीन भावना के शिकार हैं। समाज को इस औपनिवेशिक मानसिकता से बाहर आकार स्वतंत्र लोकशाही जैसा आचरण सीखना होगा और बुद्धिजीवियों को ‘निजभाषा’ के व्यवहार से जुड़े आत्मगौरव को अर्जित करना होगा। आज ज्ञान-विज्ञान-विमर्श के हर पक्ष को व्यक्त करने में हिंदी समर्थ हो चुकी है। पर जाने हमारे बुद्धिजीवी अपनी भाषा के व्यवहार में कब समर्थ होंगे ? भारत सरकार द्वारा प्रस्तावित नई शिक्षा नीति में हिंदी तथा भारतीय भाषाओं को प्रतिष्ठित करने के प्रस्ताव इस दृष्टि से अत्यंत महतवपूर्ण है। 
हिंदी के महत्व का आठवाँ आयाम भारत की संपर्कभाषा, राष्ट्रभाषा और राजभाषा के थ्री-डाइमेंशनल प्रकार्य से आगे बढ़कर फोर्थ डाइमेंशन के रूप में विश्वभाषा बनकर उभरने से संबंधित है। इसका एक पक्ष तो राजनैतिक और कूटनैतिक है – संयुक्त राष्ट्र की भाषा के रूप में। इसके लिए बार बार संकल्पबद्ध होकर भी भारत सरकार ने कुछ ठोस कार्य नहीं किया है। इससे हमारी अपनी भाषा के प्रति उदासीनता ही प्रकट होती है। लेकिन विश्वभाषा का दूसरा पक्ष शुद्ध रूप से व्यावहारिक है। व्यवहारतः आने वाले समय में वे भाषाएँ ही विश्वभाषा के रूप में टिकेंगी जिनमें बाज़ार की भाषा और कंप्यूटर की भाषा के रूप में टिके रहने की शक्ति होगी। बाजार की चर्चा पहले ही की जा चुकी है, रही कंप्यूटर की बात, तो आज यह जगजाहिर हो चुका है कि हिंदी कंप्यूटर  के लिए और कंप्यूटर हिंदी के लिए नैसर्गिक मित्रों जैसे सहज हो गए हैं। हिंदी के कंप्यूटर-दोस्त होने के कारण तमाम सॉफ्टवेयर कंपनियाँ अब ऐसे उपकरण और कार्यक्रम लाने को विवश हैं जो हिंदी-दोस्त हों। दरअसल हिंदी ने साबित कर दिया है कि वह ‘दोस्त भाषा’ है – मीडिया की दोस्त, बाजार की दोस्त, कंप्यूटर की दोस्त। इस प्रकार विश्वभाषा के रूप में भी अपने प्रकार्य को निभाने में हिंदी निरंतर अग्रसर है। इतना ही नहीं, वह कॉर्पोरेट जगत के दरवाज़े पर भी आ खड़ी हुई है तथा अंदर प्रवेश करने के लिए नया सोशियो-टेक्नोलॉजिकल अवतार लेने वाली है।
इतना ही नहीं, अनुवाद उद्योग की भाषा के रूप में हिंदी राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय संदर्भ में अत्यंत संभावनाशील और समर्थ भाषा के तौर पर अपने महत्व के नौवें आयाम को छू रही है। इसके अलावा अपने जन्म से ही साहित्य और संस्कृति की भाषा के तौर पर स्वयंसिद्ध सामर्थ्य आज भी उसकी प्रामाणिकता की दसवीं दिशा है जिसके द्वारा वह विश्व मानवता के भारतीय आदर्श को परिपुष्ट करती है। इसी से जुड़ा है हिंदी भाषा के महत्व का ग्यारहवाँ आयाम जो राष्ट्रीय अस्मिता और निज भाषा के गौरव से संबंधित है। कहना न होगा कि हिंदी केवल एक भाषा नहीं है वह भारतीय अस्मिता का पर्याय है – हम चाहे कितनी ही मातृबोलियों और मातृभाषाओं का व्यवहार करते हों, हिंदी उन सबमें निहित हमारे राष्ट्रीय गौरव का प्रतीक बनकर उभरती है। निस्संदेह, हिंदी के महत्व के और भी अनेक आयाम हैं लेकिन वे सब इस विराट आयाम में समा सकते हैं। वस्तुतः ‘निजभाषा उन्नति’ से जुड़े राष्ट्रीय गौरव के बोध के बिना हृदय की वह पीड़ा मिट ही नहीं सकती जिसके दंश का अनुभव करके कभी भारतेंदु हरिश्चंद्र ने पराधीन देश को अहसास कराया था कि ‘बिन निज भाषा ज्ञान के मिटत न हिय को शूल!’
[2]
हिंदी भाषा के आधुनिकीकरण और डिजिटलीकरण के संदर्भ में यह ध्यान रखना जरूरी है कि भूमंडलीकरण ने विगत कुछ दशकों में भारत जैसे महादेश के समक्ष जो नई चुनौतियाँ खड़ी की हैं उनमें सूचना विस्फोट से उत्पन्न हुई अफ़रा-तफ़री और उसे सँभालने के लिए जनसंचार माध्यमों के पल-प्रतिपल बदलते रूपों का महत्वपूर्ण स्थान है। इसमें संदेह नहीं कि वर्तमान संदर्भ में भूमंडलीकरण का अर्थ व्यापक तौर पर बाज़ारीकरण (भूमंडीकरण) है।
भारत दुनियाभर के उत्पाद निर्माताओं के लिए एक बड़ा ख़रीदार और उपभोक्ता बाज़ार है। बेशक, हमारे पास भी अपने काफ़ी उत्पाद हैं और हम भी उन्हें बदले में दुनियाभर के बाज़ार में उतार रहे हैं क्योंकि बाज़ार केवल ख़रीदने की ही नहीं, बेचने की भी जगह होता है। इस क्रय-विक्रय की अंतरराष्ट्रीय वेला में संचार माध्यमों का केंद्रीय महत्व है क्योंकि वे ही किसी भी उत्पाद को खरीदने के लिए उपभोक्ता के मन में ललक पैदा करते हैं। यह उत्पाद वस्तु से लेकर विचार तक कुछ भी हो सकता है। यही कारण है कि आज भूमंडलीकरण की भाषा का प्रसार हो रहा है तथा मातृबोलियाँ सिकुड़ और मर रही हैं।
आज के भाषा संकट को इस रूप में देखा जा रहा है कि भारतीय भाषाओं के समक्ष उच्चरित रूप भर बनकर रह जाने का ख़तरा उपस्थित है क्योंकि संप्रेषण का सबसे महत्वपूर्ण उत्तरआधुनिक माध्यम टी.वी. अपने विज्ञापनों से लेकर करोड़पति बनाने वाले अतिशय लोकप्रिय कार्यक्रमों तक में हिंदी में बोलता भर है, लिखता अंग्रेज़ी में ही है। इसके बावजूद यह सच है कि इसी माध्यम के सहारे हिंदी अखिल भारतीय ही नहीं बल्कि वैश्विक विस्तार के नए आयाम छू रही है। विज्ञापनों की भाषा और प्रोमोशन वीडियो की भाषा के रूप में सामने आनेवाली हिंदी शुद्धतावादियों को भले ही न पच रही हो, युवा वर्ग ने उसे देश भर में अपने सक्रिय भाषा कोष में शामिल कर लिया है। इसे हिंदी के संदर्भ में संचार माध्यम की बड़ी देन कहा जा सकता है।
सूचना संचार प्रणाली किसी भी व्यवस्था के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण होती है। अंग्रेज़ रहे हों या हिटलर जैसे तानाशाह, सबको यह मालूम था कि सैन्य शक्ति के अलावा असली सत्ता जनसंचार में निहित होती है। आज भी भूमंडलीकरण की व्यवस्था की जान इसी में बसती है। दूसरी तरफ़ समाज के दर्पण के रूप में साहित्य भी तो संचार माध्यम ही है जो सूचनाओं का व्यापक संप्रेषण करता है। साहित्य की तुलना में संचार माध्यमों का ताना-बाना अधिक जटिल और व्यापक है क्योंकि वे तुरंत और दूरगामी असर करते हैं। भूमंडलीकरण ने उन्हें अनेक चैनल ही उपलब्ध नहीं कराए हैं, इंटरनेट और वेबसाइट के रूप में अंतरराष्ट्रीयता के नए अस्त्र-शस्त्र भी मुहैया कराए हैं। परिणामस्वरूप संचार माध्यमों की त्वरा के अनुरूप भाषा में भी नए शब्दों, वाक्यों, अभिव्यक्तियों और वाक्य संयोजन की विधियों का समावेश हुआ है। इस सबसे हिंदी भाषा के सामर्थ्य में वृद्धि हुई है। संचार माध्यम यदि आज के आदमी को पूरी दुनिया से जोड़ते हैं तो वे ऐसा भाषा के द्वारा ही करते हैं। अत: संचार माध्यम की भाषा के रूप में प्रयुक्त होने पर हिंदी समस्त ज्ञान-विज्ञान और आधुनिक विषयों से सहज ही जुड़ गई है। वह अदालतनुमा कार्यक्रमों के रूप में सरकार और प्रशासन से प्रश्न पूछती है, विश्व जनमत का निर्माण करने के लिए बुद्धिजीवियों और जनता के विचारों के प्रकटीकरण और प्रसारण का आधार बनती है, सच्चाई का बयान करके समाज को अफ़वाहों से बचाती है, विकास योजनाओं के संबंध में जन शिक्षण का दायित्व निभाती है, घटनाचक्र और समाचारों का गहन विश्लेषण करती है तथा वस्तु की प्रकृति के अनुकूल विज्ञापन की रचना करके उपभोक्ता को उसकी अपनी भाषा में बाज़ार से चुनाव की सुविधा मुहैया कराती है। किस्सा कोताह कि आज व्यवहार क्षेत्र की व्यापकता के कारण संचार माध्यमों के सहारे हिंदी भाषा की भी संप्रेषण क्षमता का बहुमुखी विकास हो रहा है। हम देख सकते हैं कि राष्ट्रीय ही नहीं, विविध अंतरराष्ट्रीय चैनलों में हिंदी आज सब प्रकार के आधुनिक संदर्भों को व्यक्त करने के अपने सामर्थ्य को विश्व के समक्ष प्रमाणित कर रही है। अत: कहा जा सकता है कि वैश्विक संदर्भ में हिंदी की वास्तविक शक्ति को उभारने में संचार माध्यमों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
एक तरफ‍ साहित्य लेखन की भाषा आज भी संस्कृतनिष्ठ बनी हुई है तो दूसरी तरफ़ संचार माध्यम की भाषा ने जनभाषा का रूप धारण करके व्यापक जन स्वीकृति प्राप्त की है। समाचार विश्लेषण तक में कोडमिश्रित हिंदी का प्रयोग इसका प्रमुख उदाहरण है। इसी प्रकार पौराणिक, ऐतिहासिक, राजनैतिक, पारिवारिक, जासूसी, वैज्ञानिक और हास्यप्रधान अनेक प्रकार के धारावाहिकों का प्रदर्शन विभिन्न चैनलों पर जिस हिंदी में किया जा रहा है वह एकरूपी और एकरस नहीं है बल्कि विषय के अनुरूप उसमें अनेक प्रकार के व्यावहारिक भाषा रूपों या कोडों का मिश्रण उसे सहज जनस्वीकृत स्वरूप प्रदान कर रहा है। एक वाक्य में कहा जा सकता है कि संचार माध्यमों के कारण हिंदी भाषा बड़ी तेज़ी से तत्समता से सरलीकरण (तद्भवता) की ओर जा रही है। इससे उसे अखिल भारतीय ही नहीं, वैश्विक स्वीकृति प्राप्त हो रही है। स्वतंत्रता प्राप्ति के समय तक हिंदी दुनिया में तीसरी सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा थी परंतु आज स्थिति यह है कि वह दूसरी सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा बन गई है तथा यदि हिंदी जानने-समझने वाले हिंदीतरभाषी देशी-विदेशी हिंदी भाषा प्रयोक्ताओं को भी इसके साथ जोड़ लिया जाए तो सहज ही हिंदी दुनिया की प्रथम सर्वाधिक व्यवहृत भाषा सिद्ध हो सकती है। हिंदी के इस वैश्विक विस्तार का बड़ा श्रेय भूमंडलीकरण और संचार माध्यमों के विस्तार को जाता है। यह कहना ग़लत न होगा कि संचार माध्यमों ने हिंदी के जिस विविधतापूर्ण सर्वसमर्थ नए रूप का विकास किया है, उसने ‘भाषासमृद्ध’ समाज के साथ-साथ ‘भाषावंचित’ समाज के सदस्यों को भी वैश्विक संदर्भों से जोड़ने का काम किया है। यह नई हिंदी कुछ प्रतिशत अभिजात वर्ग के दिमाग़ी शगल की भाषा नहीं बल्कि अनेकानेक बोलियों में व्यक्त होने वाले ग्रामीण भारत की नई संपर्क भाषा है। इस भारत तक पहुँचने के लिए बड़ी से बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों को भी हिंदी और भारतीय भाषाओं का सहारा लेना पड़ रहा है।
हिंदी के इस रूप विस्तार के मूल में यह तथ्य निहित है कि गतिशीलता हिंदी का बुनियादी चरित्र है और हिंदी अपनी लचीली प्रकृति के कारण स्वयं को सामाजिक आवश्यकताओं के लिए आसानी से बदल लेती है। इसी कारण हिंदी के अनेक ऐसे क्षेत्रीय रूप विकसित हो गए हैं जिन पर उन क्षेत्रों की भाषा का प्रभाव साफ़-साफ़ दिखाई देता है। ऐसे अवसरों पर हिंदी व्याकरण और संरचना के प्रति अतिरिक्त सचेत नहीं रहती बल्कि पूरी सदिच्छा और उदारता के साथ इस प्रभाव को आत्मसात कर लेती है। यही प्रवृत्ति हिंदी के निरंतर विकास का आधार है और जब तक यह प्रवृत्ति है तब तक हिंदी का विकास रुक नहीं सकता। बाज़ारीकरण की अन्य कितने भी कारणों से निंदा की जा सकती हो लेकिन यह मानना होगा कि उसने हिंदी के लिए अनुकूल चुनौती प्रस्तुत की। बाज़ारीकरण ने आर्थिक उदारीकरण, सूचनाक्रांति तथा जीवनशैली के वैश्वीकरण की जो स्थितियाँ भारत की जनता के सामने रखी, इसमें संदेह नहीं कि उनमें पड़कर हिंदी भाषा के अभिव्यक्ति कौशल का विकास ही हुआ। अभिव्यक्ति कौशल के विकास का अर्थ भाषा का विकास ही है।
यहाँ यह भी जोड़ा जा सकता है कि बाज़ारीकरण के साथ विकसित होती हुई हिंदी की अभिव्यक्ति क्षमता भारतीयता के साथ जुड़ी हुई है। यदि इसका माध्यम अंग्रेज़ी हुई होती तो अंग्रेज़ियत का प्रचार होता। लेकिन आज प्रचार माध्यमों की भाषा हिंदी होने के कारण वे भारतीय परिवार और सामाजिक संरचना की उपेक्षा नहीं कर सकते। इसका अभिप्राय है कि हिंदी का यह नया रूप बाज़ार सापेक्ष होते हुए भी संस्कृति निरपेक्ष नहीं है। विज्ञापनों से लेकर धारावाहिकों तक के विश्लेषण द्वारा यह सिद्ध किया जा सकता है कि संचार माध्यमों की हिंदी अंग्रेज़ी और अंग्रेज़ियत की छाया से मुक्त है और अपनी जड़ों से जुड़ी हुई है। अनुवाद को इसकी सीमा माना जा सकता है। फिर भी, कहा जा सकता है कि हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं ने बाज़ारवाद के खिलाफ़ उसी के एक अस्त्र बाज़ार के सहारे बड़ी फतह हासिल कर ली है। अंग्रेज़ी भले ही विश्व भाषा हो, भारत में वह डेढ़-दो प्रतिशत की ही भाषा है। इसीलिए भारत के बाज़ार की भाषाएँ भारतीय भाषाएँ ही हो सकती हैं, अंग्रेज़ी नहीं। और उन सबमें हिंदी की सार्वदेशिकता पहले ही सिद्ध हो चुकी है।
बाज़ार और हिंदी की इस अनुकूलता का एक बड़ा उदाहरण यह हो सकता है कि पिछले डेढ़-दो दशक में संचार माध्यमों पर हिंदी के विज्ञापनों के अनुपात में लगभग शत प्रतिशत उछाल आया है। इसका कारण भी साफ़ है। भारत रूपी इस बड़े बाज़ार में सबसे बड़ा उपभोक्ता वर्ग मध्य और निम्नवित्त समाज का है जिसकी समझ और आस्था अंग्रेज़ी की अपेक्षा अपनी मातृभाषा या राष्ट्रभाषा से अधिक प्रभावित होती है। इस नए भाषिक परिवेश में विभिन्न संचार माध्यमों की भूमिका केंद्रीय हो गई है।
[3]
भारतीय जनता को आज सरकार पर दबाव बनाना होगा कि सारे ज्ञान-विज्ञान और साहित्य-वाङ्मय को यथाशीघ्र इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर भारतीय भाषाओं – यथासंभव हिंदी - में उपलब्ध कराया जाए। आज हिंदी और भारतीय भाषाओं के बीच अनुवाद के जो सॉफ्टवेयर उपलब्ध हैं, उन्हें और भी विकसित करके मुक्त रूप से (मुफ्त) इंटरनेट पर उपलब्ध कराया जाना चाहिए। इससे इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और कंप्यूटर पर हिंदी का प्रयोग बढ़ेगा। विश्वभाषा के रूप में हिंदी तभी जीवित रहेगी जबकि वह इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और अंतरराष्ट्रीय बाजार की चुनौती का सामना कर सकेगी। 
भाषा सदा गतिशील होती है। मीडिया ने उसे और अधिक त्वरा प्रदान कर दी है। नई नई जरूरतों के अनुरूप शब्द, वाक्य और अभिव्यक्ति चुनने तथा वाक्य संयोजन की विधियों को भी विकसित करते रहना होगा। ऐसा करके ही हिंदी व्यापक जनमत का निर्माण करने वाली भाषा बन सकती है, क्योंकि उसकी पैठ व्यापक जनसंख्या तक है और मीडिया की मजबूरी है कि वह इतनी व्यापक पैठ वाली भाषा की उपेक्षा नहीं कर सकता। इसीलिए चाहे विकास के कार्यक्रम हों अथवा जनशिक्षण के, चाहे विज्ञापन हो या समाचार, चाहे मनोरंजन हो या इतिहास, मीडिया को सरल, अर्थपूर्ण और विषयवस्तु की प्रकृति के अनुकूल भाषा की तलाश रहती है। हिंदी ने व्यवहारक्षेत्र की इस बहुविध व्यापकता के अनुरूप अपने को ढालकर अपनी भाषिक संचार क्षमता का विकास बहुत तेजी से कर दिखाया है। यही कारण है कि आज अंतरराष्ट्रीय चैनलों में हिंदी फैशन से लेकर विज्ञान और वाणिज्य तक सब प्रकार के आधुनिक संदर्भों को बखूबी व्यक्त कर रही है। 
इस प्रकार स्पष्ट है कि हिंदी की वास्तविक शक्ति को उभारने में संचार माध्यमों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। जहाँ आज भी एक ओर लेखन की भाषा संस्कृतनिष्ठता के आग्रह से जुड़ी है, वहीं संचार माध्यम की भाषा जनस्वीकृति के आग्रह से जुड़ी होने के कारण जनभाषा के अधिक निकट है। विषयक्षेत्र के अनुरूप विविध प्रकार की मिश्रित भाषाओं का विकास करने में टी.वी. धारावाहिकों की भूमिका भी निर्विवाद है, जिन्होंने जनभाषा के पौराणिक से लेकर जासूसी धारावाहिकों तक के अनेक चेहरे गढ़ डाले हैं। राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय घटनाचक्र के समाचार-विश्लेषण संबंधी कार्यक्रमों में भी भाषामिश्रण की छटा देखते ही बनती है। इनकी भाषा में तत्समता और सरलीकरण का संतुलन भी द्रष्टव्य है। 
आज जरूरत है कि हिंदी के व्यापक उपभोक्ता समाज की संख्या को ध्यान में रखते हुए हिंदी में ‘डेटा बेस’ विकसित किए जाएँ, हिंदी में वेबसाइट पर विभिन्न विषयों के शब्दकोश और विश्वकोश उपलब्ध हों, वैज्ञानिक चैनलों के साथ साथ आध्यात्मिक, साहित्यिक और सांस्कृतिक चैनल भी हिंदी में - और भारतीयता को उभारने के दृष्टिकोण से - स्थापित किए जाएँ। इस सारी तैयारी के साथ हिंदी वैश्वीकरण और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की संयुक्त चुनौती का सामना कर सकती है, इसमें संदेह नहीं। 
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उपर्युक्त चर्चा के आधार पर, वैश्विक बाज़ार से मोर्चा लेने वाली विश्व के विशालतम गणतंत्र की अस्मिता की भाषा के रूप में ‘हिंदी के भविष्य’ के संबंध में यह कहा जा सकता है कि (1) हिंदी और उसका भविष्य इस शती में बाज़ार और प्रौद्योगिकी/तकनीक के बल पर सुरक्षित है और रहेगा। (2) हिंदी अब अंग्रेजी के रास्ते पर है अर्थात अंग्रेज़ी के साथ ग्लोबल भाषा के रूप में स्वयं को सिद्ध करने वाली है। (3) आने वाले समय में हिंदी पूरी तरह अक्षेत्रीय (सर्वक्षेत्रीय) भाषा के रूप में उभरेगी। (4) हिंदी पर से तथाकथित हिंदी-बैल्ट का वर्चस्व लगातार घटेगा। (5) भविष्य में हिंदी सबकी साझी हिंदी होगी - किसी इस या उस वर्ग, क्षेत्र , जाति, धर्म या संप्रदाय की नहीं।
साथ ही ‘भविष्य की हिंदी’ के स्वरूप के बारे में भी कुछ भविष्यवाणियाँ की जा सकती हैं। यथा – (1) बाज़ार के दबाव और विज्ञापन के प्रभाव के कारण हिंदी-व्याकरण के नियम टूटेंगे और भाषा का लचीलापन बढ़ेगा। (2) देशज शब्दों का प्रयोग बढ़ेगा क्योंकि उनके माध्यम से अधिक बड़ी जनसंख्या को संबोधित करना संभव होगा। (3) बिंदास शब्दावली की सार्वजनिक रूप से स्वीकृति बढ़ेगी। (4) अभी तक व्यक्तिगत संबंधों में जो भाषा की शालीनता और सामाजिक नैतिकता है, वह भी टूटेगी। (5) हिंदी के विभिन्न रूप क्षेत्रवार विकसित और स्वीकृत होंगे तथा पिजिनीकरण और कोड मिश्रण/परिवर्तन के बढ़ने के साथ हिंदी का बचा-खुचा पंडिताऊपन टूट जाएगा। (6) साहित्य में भी ये सारी चीज़ें आएँगी और एक ही कृति में विविध भाषा रूपों के प्रयोग की प्रवृत्ति बढ़ेगी। (7) भविष्य की हिंदी के स्वरूप निर्धारण में सोशल नेटवर्किंग साइटों की प्रभावी भूमिका होगी तथा हिंदी में शब्दों के संक्षेपीकरण की प्रवृत्ति और सीमित शब्दों में संप्रेषण के कौशल का विकास होगा। 
    
ऋषभदेव शर्मा
परामर्शी (हिंदी), मौलाना आजाद राष्ट्रीय उर्दू विश्वविद्यालय, हैदराबाद/ आवास : 208 ए, सिद्धार्थ अपार्टमेंट्स, गणेश नगर, रमंतापुर, हैदराबाद – 500013. मोबाइल : 8074742572. <rishabhadeosharma@yahoo.com>   


गुरुवार, 9 अप्रैल 2020

(प्रवासी जगत) अभिमन्यु अनत के साहित्य में सामाजिक-आर्थिक चेतना


अभिमन्यु अनत के साहित्य में सामाजिक-आर्थिक चेतना

  • - ऋषभ देव शर्मा एवं गुर्रमकोंडा नीरजा  
        जिस मजदूर के हाथ से 
        तुमने मोती छीन लिया था 
        पगडंडी से लौटते 
        उसने कच्चू के पत्ते से 
        ओस की बूँद को 
        मुट्ठी में बाँध लिया है 
        उल्लसित वह उतना ही है 
        जितना तुम हो।“
                (अनत 1982 अ : 16) 
अभिमन्यु अनत (1937-2018) के कविता संग्रह कैक्टस के दाँत (1982) की उल्लसित वह इतना ही शीर्षक यह कविता मॉरिशस के सच्चे निर्माता भारतवंशी मजदूरों की वेदना, जिजीविषा और संघर्ष की गाथा को प्रतिबिंबित करती है। रचनाकार ने अत्यंत निकट से यह देखा, जाना और पहचाना है कि मजदूर अपने माथे की श्रम बूँदों को खेत में पहुँचकर बोता है और जब ये बूँदें लहलहाती फसल में रूपांतरित होती हैं तो उन हरे-भरे दानों को कोई और अपनी तिजोरी के लिए बटोर कर ले जाता है तब आक्रोश में आकर मजदूर सूरज को निगल लेता है। (अनत 1982 अ : तृप्ति’. 14)। यही वह केंद्रीय सामाजिक-आर्थिक चेतना है जो अभिमन्यु अनत के समग्र साहित्य को अनुप्राणित करती है।  
अस्तित्ववादी मुहावरे से मुक्त लेखक की सामाजिक-आर्थिक चेतना उनके उपन्यास एक बीघा प्यार (1972, 1999) में ठोस आकार ग्रहण करती दिखाई देती है। अदम्य साहस, निष्ठा और श्रम की महिमा इस उपन्यास के केंद्र में हैं। सत और असत का आदिम मिथ यहाँ चरितार्थ हुआ है। बेशक, यथार्थ से मुठभेड़ में आदर्श बहुत बार घायल होता है और पराजित होता हुआ-सा लगने लगता है। लेकिन मानवीय रिश्तों और पारिवारिकता के सूत्रों के प्रति आस्था अंततः सत की विजय के रूप में ही प्रतिफलित होती है। समाज का कमेरा वर्ग इस हद तक उच्च वर्ग का गुलाम है कि अपने व्यक्तिगत और घरेलू निर्णय लेने की भी आजादी उसे हासिल नहीं है। हीरा ऐसी ही चेतनाहीन पीढ़ी का प्रतिनिधि है। लेकिन सोम इस स्थिति के प्रति असंतोष और आक्रोश से भरा हुआ है। उसे यह बात बिलकुल पसंद नहीं थी कि हर काम के लिए सभा के प्रधान की सलाह लेते फिरें। “किसी को अपने घर से निकालना या अपने यहाँ स्थान देना यह तो अपनी व्यक्तिगत बात ठहरी। इतना अधिकार तो आदमी को होना चाहिए कि कुछ कामों को वह अपने न्याय और अपनी पसंद पर कर सके। यह सब सोचते हुए सोम को महसूस हो रहा था कि वे अपना खा-पीकर भी दूसरे की कठपुतलियाँ हैं, और इसी बात की उसे चिढ़ थी।“ (अनत 1999 : 28)। उसके युवा आंदोलन के साथ सहानुभूति रखने के पीछे भी यही वजह थी कि वह एक व्यक्ति की धड़कनों पर दूसरे व्यक्ति की सत्ता को स्वीकार नहीं करता था। समाज में पुराने और नए का संघर्ष भी उसके चरित्र में दिखाई देता है। वह यह नहीं मानता कि नए लोग पुराने लोगों से अलग ख्याल रखकर अलग ढंग से अपनी अलग दुनिया बनाए। लेकिन यह भी उसे बर्दाश्त नहीं कि पुराने ढंग और तरीकों को आज भी उसी तरह बनाए रखा जाए जैसे वे सुदूर अतीत में थे। कहना न होगा कि सोम के माध्यम से यहाँ लेखक ने सामाजिक मूल्यों के परिवर्तन को रूपायित किया है। साथ ही यह भी रेखांकित किया है कि सामाजिक और सांस्कृतिक मान्यताएँ और नैतिकताएँ समाज के आर्थिक ढाँचे की हलचलों से नियंत्रित होती हैं। उपन्यास में यह आर्थिक ढाँचा अत्यंत विषमतापूर्ण है। किसानों और मजदूरों का सारा उत्पादन उच्च वर्ग के हाथों में चला जाता है, जबकि निम्न वर्ग के पास ढंग का घर तक नहीं है – “छत के रीसने के कारण घर के गोबर का फर्श जहाँ-तहाँ भीग गया था। तीनों कमरों की तीनों चारपाइयों को उनकी जगह से हटाकर दूसरी जगहों पर रखा गया था जहाँ ऊपर के छाजन में छेद न था।“ (अनत 1999 : 56)। यह गरीबी मॉरिशस के मजदूरों को उन नियुक्ताओं की देन है जिनके बहकावे में पड़कर कभी इनके पूर्वज भारत में सभी कुछ छोड़कर मॉरिशस आ गए थे। अपने घर-बार और ज़मीनों से दूर उन्हें मॉरिशस में गुलाम और बैल की तरह काम करना पड़ा। हाड़-तोड़ मेहनत के बल पर अभाव, दुख और दारुण यंत्रणाओं को सहते हुए उन्होंने यहाँ अपने लिए थोड़ी बहुत जमीन बना तो ली लेकिन उस पर बड़े लोगों की बुरी नजर रहती थी। अपने भारतीय संस्कार वश वे फिर भी इस जमीन को अपनी माँ मानते थे और चाहते थे कि प्राण चला जाए पर जमीन का टुकड़ा न जाए। लेकिन हीरा को परिस्थितिवश जमीन का वह टुकड़ा भी गिरवी रखना पड़ता है। जब वह जमींदार से धोखा खाता है तो उसे बार-बार अपने पूर्वजों की कहानी याद आती है। “एक तरह से उन्हें भी तो इसी तरह का धोखा हुआ था। वे भारत छोड़कर यहाँ इसीलिए पहुँचे थे कि वहाँ के पत्थरों के नीचे से वे सोना निकाल पाते पर वह उनके साथ भाग्य का करारा व्यंग्य था। आज हीरा भी अपने को उसी व्यंग्य का शिकार समझ रहा था और अपने को सांत्वना भी दे पा रहा था तो उन्हीं पुरानी बातों को सोचकर।“ (अनत 1999 : 106)। हीरा और सोम अपनी भलमनसाहत के चलते विपरीत परिस्थितियों और शोषण के दुष्चक्र में फँस जाते हैं। आपसी संबंधों की दृढ़ता और कौटुंबिक मूल्यों के प्रति आस्था उन्हें इस विषम संघर्ष में विजय दिलाती है तो खेती से मुँह मोड़ रहा सोम अपने भाई से मिले इस मंत्र से प्रेरित होकर निःशंक भाव से खेतों की ओर लौट आता है कि “हमें अपने खेत का पूरा विश्वास करना चाहिए। हमारी सब आशाएँ उसी पर हैं और फिर उससे अच्छा हमारे लिए कोई भी दूसरा साधन नहीं हो सकता। सच मानो सोम, इस बार मेरे भीतर बहुत बड़ा आत्मविश्वास है। हमारा पसीना इस बार अवश्य रंग लाएगा।“ (अनत 1999 : 138)। इस बहाने लेखक ने वर्तमान मॉरिशस के विकास में खेतिहर मजदूरों और छोटे किसानों के योगदान को भली प्रकार रेखांकित किया है। साथ ही शिक्षित बेरोजगारी की इस समस्या को भी उभारा है कि अच्छे खासे प्रमाण पत्रों के बावजूद लोगों को ढंग की नौकरी नहीं मिल पाती है। 
लाल पसीना (1977) इतिहास की चक्की में पिसकर रह जाने वाले ऐसे पात्रों की गाथा है जिन्होंने मर खप कर मॉरिशस का इतिहास रचा है। मॉरिशस के द्वीप के रूप में जन्म लेने से लेकर एक मजबूत अर्थ व्यवस्था बनने तक की दास्तान इसमें कही गई है। यह पूरी दास्तान विषम परिस्थितियों से संघर्ष की दास्तान तो है ही, शोषण और प्रतिरोध की दास्तान भी है। इस दास्तान के पन्ने भारतीय मजदूरों के खून पसीने से कुछ इस तरह भीगे हुए हैं कि उन्हें आग भी नहीं जला सकती। यह खून पसीना मॉरिशस की जमीन में इस तरह जज़्ब हो गया है कि आज भी धरती की सोंधी गंध उसकी गवाही देती रहती है। (अनत 1977 : 14)। सोने का लालच देकर इन मजदूरों को उसी तरह धोखे से यहाँ लाया गया था जिस तरह मारीच स्वर्णमृग बनकर राम को पंचवटी से दूर ले गया था। फूलो भी तीन सौ व्यक्तियों के साथ समुद्री जहाज से यही सपना लेकर वहाँ उतरी थी। (अनत 1977 : 86)। उन सबके लिए जो परीयों का देश था उसका यथार्थ बेहद डरावना निकला। भारत के किसी सुदूर प्रांत में अपना सब कुछ छोड़ आए इन भारतवंशियों ने अपनी जड़ों को बचाए रखने के लिए भी जी जान से यत्न किए। गोरे मालिकों को पसंद नहीं था फिर भी उन्होंने रामायण’, हनुमान और कालीमाई को अपने अस्तित्व के साथ जोड़कर रखा। कैदी हैं तो क्या हुआ? भारत का जीवन दर्शन फिर भी मन प्राण में बसा हुआ है – “हम सबन मिलके गाँव में कालीमाई की स्थापना करना चाहत रहीं पर कोठी वाले गोरवा ने आज्ञा ही ना दी... साले मौगों को मालूम नाहीं कि राज करते राजा जइहें, रूप करते रानी, बेद पढ़ते पंडित जइहें, रह जयहीं नेक निशानी।“ (अनत 1977 : 16)। लेखक ने यह भी दर्शाया है कि अंग्रेजों द्वारा मॉरिशस को जीतने के पहले से ही शोषण की परंपरा वहाँ जम चुकी थी। यदि कोई मजदूरों को संगठित करने या शोषण का विरोध करने के लिए प्रेरित करता तो इसे जमींदारों के खिलाफ विद्रोह माना जाता और उस व्यक्ति को कैदखाने में डालकर भीषण यातनाएँ दी जाती थीं। उपन्यास का पात्र कुंदन लगातार यह अनुभव करता है कि संगठित न होने के कारण ही मजदूरों की यह दुर्दशा है। इसीलिए वह मजदूरों के भाईचारे के लिए सतत प्रयत्नशील है। लेखक ने अनेक स्थलों पर यह दर्शाया है कि मजदूरों की दशा कुत्तों से भी बदत्तर थी। नदी के जिस ठौर पर साहब के कुत्ते को नहलाया जाता था वहाँ नहाते पकड़े जाने पर किसन को नंगी पीठ पर दस कोड़े की सजा मिली थी। (अनत 1977 : 53)। ऐसे श्रम और शोषण से आर्थ लोक के लिए एक ही शरणस्थली थी। जहाँ पहुँचकर ये “लोग दिन-भर की कड़ी मेहनत की थकान को सचमुच ही भूल जाते... कोड़ों और बाँसों की बौछार के दर्द भी अपने-आप कम हो जाते थे। गा-बजा-कर तथा खुली हवा को अपनी फरियाद सुना कर ये सभी मजदूर आश्वासन पा जाते। भीतर और बाहर की पीड़ा को कम करने के लिए इससे अच्छा उपाय उनके लिए दूसरा था ही नहीं। वह उल्लास उनके अपने ढंग का रो-तड़पकर अपनी कुंठा को मिटाना था। उसे भूल जाना था।“ (अनत 1977 : 52)। सहने की भी एक हद होती है। जब ऐसी स्थिति असह्य हो गई कि जरा-जरा सी बात पर मजदूरों का खाना कुत्तों और सूअरों के सामने डाल दिया जाता और उन्हें भूखों मरने की सजा दी जाती तो किसन का गुस्सा फूट ही पड़ा – अब हद हो गई। अब हमारा एक ही इरादा है। आप लोग यह जान लें कि हम लोग भी आदमी हैं। और आदमी के साथ आदमी की तरह पेश आना चाहिए।“ (अनत 1977 : 115)। उसने संगठन और विद्रोह का बिगुल तो बजा दिया लेकिन अत्याचार का क्रम रुख नहीं पाया। अमानुषिकता का नग्न नृत्य तो तब देखने को मिला जब स्पेन के किसी जहाज द्वारा वहाँ आई महामारी को भारतीय मजदूरों के बीच बिखरने दिया गया। बस्ती के आधे लोग मर गए। उन्हें अन्न और दवा के लिए अपनी स्त्रियॉं को गोरे साहबों की अंकशायिनी बनाना पड़ा। संपूर्ण जाति की रक्षा के लिए ज़ीनत को रेमो साहब के बेटे के पास भेजते समय उसके पति दाऊद का यह कथन अत्यंत कारुणिक है कि “एक बहुत बड़े उद्देश्य के लिए थोड़ी देर आँखें मूँद लेने से क्या अनर्थ हो जाएगा? तुम औरत हो ज़ीनत। और औरत की देह रोटी का कोई टुकड़ा नहीं होती जो किसी के मुँह लगने से जूठी हो जाए। तुम जूठी नहीं होओगी। पर याद रहे, अपने को उसके हवाले करने से पहले सौदा हो जाना चाहिए। तुम पहले उसे राजी कर लेना, फिर अपने को समर्पित करना। (अनत 1977 : 167)। दाऊद और ज़ीनत की यह त्रासदी मॉरिशस के इतिहास की नींव में दबे हुए साधारण आदमी के बलिदान की उदात्त गाथा है। साथ ही लेखक की स्त्री विमर्श की गहरी समझ भी इससे व्यंजित होती है। धीरे-धीरे सब की समझ में स्वामी की यह बात आने लगती है कि “हमारी रक्षा के लिए कोई आगे नहीं आएगा। हमें अपनी रक्षा खुद करनी होगी। हमारी लड़ाई तो कोई दूसरा लड़ नहीं सकता। अपनी लड़ाई हमें खुद लड़नी है।“ (अनत 1977 : 218)। और मदन तथा मीरा मजदूरों की इस अपनी लड़ाई के अगुआ बन जाते हैं। वे लोगों को यह समझाने में सफल होते हैं कि मॉरिशस के खेतों में उनके द्वारा उगाए गए गन्नों की पोर में रस के रूप में भरी हुई समृद्धि के वास्तविक अधिकारी वे स्वयं हैं जिससे उन्हें कोठी के मालिकों ने वंचित कर रखा है। एक-एक कर आस-पड़ोस के गाँवों के मजदूर संगठित होते हैं। भाग्यवाद के अंधेरे से वे लोग बाहर आते हैं। लेकिन मालिकों का क्रोध मदन पर उतरता है – उसकी आँखें फोड़ दी जाती हैं। (अनत 1977 : 339)। इसके बावजूद वह पराजित नहीं होता। मनु और श्रद्धा की तरह मदन और मीरा जागरण के पुरोधा बनते हैं। वे अब तक अभाव और अन्याय सहकर घुट-घुट कर जीने वाले मजदूरों को अस्मिता की रक्षा की लड़ाई में एकजुट करने में कामियाब होते हैं।                                        
अपनी ही तलाश (1982) में लेखक ने मॉरिशस की युवा पीढ़ी पर आधुनिकता और बाजारवाद के भटकाव भरे प्रभाव को दर्शाया है। दूसरे देशों के अबाध आगमन के कारण मॉरिशस में बाजारवाद भारत की तुलना में काफी पहले अपने विकराल रूप में आता हुआ दिखाई देता है। शायद इसी का एक प्रभाव इस रचना पर यह भी पड़ा है कि इसके पृष्ठ-पृष्ठ पर नशा और सेक्स बिखरा पड़ा है। अकेलेपन और अस्तित्ववाद के खोल को भेदने पर यह समझ में आता है कि अपनी ही तलाश एक ऐसे देश की प्रतीक कथा भी है जो हर स्तर पर दूसरों के सहारे जीता है लेकिन अपनी जड़ों की तलाश, अपनी अस्मिता की खोज के दंश को हर क्षण अपनी आत्मा को खरोंचते पाता है, गढ़े हुए काँटे की तरह।“ (अनत 1982 आ : आवरण)। इसी क्रम में लेखक की सामाजिक और आर्थिक चेतना भी अभिव्यंजित होती चलती है। एल एस डी के नशे में ही सही लेकिन आख्याता अपनी पीढ़ी के राजनीति द्वारा शोषण को भी बखूबी उकेरता है। वह महसूस करता है कि स्वतंत्रता के बाद की युवा पीढ़ी को राजनैतिक विश्वास ने उसी प्रकार जी भर कर छला है जिस प्रकार पहले की पीढ़ी को धार्मिक विश्वासों ने छला था। धार्मिक विश्वासों ने उस पीढ़ी को सामाजिक सक्रियता से छिन्न करके आत्मलीन बना दिया था तो राजनैतिक विश्वासों ने इस पीढ़ी को अपने आप तक सिकोड़ने का काम किया है। यह आधुनिक पीढ़ी नशे और सेक्स की शरण खोजती है ठीक वैसे ही जैसे पहले की पीढ़ी के लोग “अपने लिए आत्मशांति के वास्ते दूसरों को पीछे छोड़ गए - यातनाओं को भुगतते रहने के लिए।“ (अनत 1982 आ : 63)। समाज में व्याप्त आत्मनिराशा, कुंठा, घुटन और आत्महत्या सहित तमाम तरह के नकारवाद की जड़ शायद इन्हीं विश्वासों में है। इसीलिए मिशलीन पूछती है कि दूसरों की दुनिया और दूसरों की ज़िंदगी हम क्यों जिए? वह ऐसी ज़िंदगी को डूब जाने देना चाहती है जो दूसरों के अंधविश्वास, निजी कानून और रिवाजों के हाथों गिरवी है। युवा पीढ़ी के समाज के प्रति विद्रोह को समझने के लिए मिशलीन के मानस को पढ़ना काफी है। यह स्थिति मॉरिशस में विदेशी मुद्रा अर्जित करने की होड़ से भी जुड़ी हुई है। होटल व्यवसाय इसका केंद्र है जिसे पुलिस का भी सहयोग प्राप्त है। गाँव के नवजवान पर्यटन उद्योग के सहारे पसरती अपसंस्कृति का विरोध करते हैं तो तंत्र उन्हीं को खलनायक बना देता है। (अनत 1982 आ : 66)। आख्याता को सामाजिक-आर्थिक वर्ग अंतराल का भी स्पष्ट बोध है। अंधाधुंध आधुनिकीकरण ने समाज को आर्थिक स्तर पर दो परस्पर विरोधी वर्गों में बाँट दिया है। एक विवश और अधिकारहीन वर्ग है जबकि दूसरा समर्थ और अधिकार संपन्न वर्ग है। यह एक नई तरह की गुलामी है जो आर्थिक शक्तियों पर निर्भरता से पैदा हुई है। आख्याता के ये शब्द इस नई व्यवस्था की प्रामाणिक व्याख्या करते हैं – “मैं जो जीता हूँ उसके क्षण-क्षण के मालिक तुम हो। इस दुनिया में मेरे तरह भी बहुत से लोग हैं और तुम्हारी तरह भी। बहुत सारे लोग ऐसे हैं जो जिस जीवन को जीते हैं वे उनके अपने नहीं होते। और बहुत से ऐसे लोग होते हैं जिनकी मुट्ठी में दूसरों का जीवन बंधक होता है।“ (अनत 1982 आ : 161)। 
मॉरिशस में आप्रवासी भारतीय मजदूरों की 150 वीं वर्षगाँठ पर लिखे गए उपन्यास गांधी जी बोले थे (1984) में लेखक ने “प्रवासी भारतियों के शोषणग्रस्त जीवन के अंधकार को चीरकर उगते स्वाधीन चेतना के सूर्य की कथा प्रस्तुत की है। अपने बचपन में कथानायक परकास, दक्षिण अफ्रीका से भारत लौट रहे गांधी जी को सुनता है। उन्हीं के आदर्श से प्रेरित होकर वह अन्याय के अस्वीकार के लिए शिक्षा व राजनीति को स्वीकार करता है तथा मानवोचित अधिकारों की प्राप्ति के लिए शोषित मजदूर किसानों को संगठन और संघर्ष के लिए प्रेरित करता है। मॉरिशस के समाज में उस औपनिवेशिक दासता के काल में भारतीयों की स्थिति तथा मर्मांतक दरिद्रता के बीच अपनी ही बहुविध जड़ता और गौरांग सत्ताधीशों से उनके संघर्ष को इस उपन्यास में समग्रतः अभिव्यक्त किया गया है।“ (शर्मा, पूर्णिमा (2011). उपन्यास, भाषा और स्वातंत्र्य चेतना. नई दिल्ली : लेखनी. 46)। इस उपन्यास में एक स्थान पर यह द्वंद्व उपस्थित होता है कि व्यक्तिगत सुख, गृहस्थ जीवन और सामाजिक प्रतिष्ठा अधिक महत्वपूर्ण है या धर्म के नाम पर समाज को तोड़ने वाली शक्तियों के खिलाफ़ संघर्ष करना अधिक बड़ी सार्थकता है। उपन्यास के केंद्रीय पात्र प्रकाश और मीरा समाज को संगठित रखने के लिए संघर्ष का मार्ग चुनते हैं। वे मजदूरों के संघर्ष को कमजोर करने के षड्यंत्रों का जमकर मुक़ाबला करते हैं। गिरफ्तार मजदूरों को छुड़ाने के लिए सत्याग्रह का मार्ग भी अपनाते हैं। अन्याय के विरुद्ध लड़ाई के लिए पत्रकारिता का भी सहारा लेते हैं जिसकी प्रेरणा उन्हें वकील माणिकलाल से प्राप्त होती है। (अनत 1984 : 167)। जनता की एकता का आह्वान करने वाला प्रकाश गांधी जी के संदेश से निरंतर प्रेरणा प्राप्त करता है। वह महिलाओं को राष्ट्रीय कार्यों में सक्रिय रूप से भागीदारी के लिए प्रेरित करने का काम मीरा को सौंपता है। वह चाहता है कि महिलाएँ इस बात को समझें कि अलग-अलग होकर हम न तो इस देश में अपनी इज्जत करा पाएँगे और न ही अपने अधिकार हासिल कर सकेंगे। उसे यह चिंता है कि एक समुदाय के रूप में एकता न टूटने पाए क्योंकि जिस दिन यह एकता टूट गई उस दिन वे किसी मोल के नहीं रहेंगे। उसकी इच्छा है कि मॉरिशस में शोषण के खिलाफ खड़े होने के लिए सिर्फ भारतीयों को ही नहीं बल्कि प्रत्येक मजदूर को एक सूत्र में बंध जाना चाहिए। उसकी मान्यता है कि “मजदूर तो अपने आप में एक विशाल जाति है। पूँजीपति तो हमेशा यह चाहते रहे हैं कि मजदूर जाति कभी एक जाति के रूप न रहे क्योंकि धनपतियों का कल्याण इसी में है कि मजदूर वर्ग मुसलमान, क्रियोल, हिंदू आदि अलग-अलग धर्मों में बंटा रहे। अब तो हिंदू भी हिंदू नहीं रहा। ... कभी जात-पाँत में बंट रहा है तो कभी प्रांतों के साथ जुड़कर विभाजित हो रहा है। यदि यही चलता रहा तो इससे लाभ उठाकर धनवान और धनी बनता चला जाएगा तथा गरीब और गरीब बनता रहेगा।“ (अनत 1984 : 140)। सामाजिक एकता और राजनैतिक जागरूकता की इस जरूरत को प्रकाश ने सबसे पहले तब महसूस किया था जब गोरों के सिपाहियों और कुत्तों ने दो सौ से अधिक आदमियों के सामने नोच-नोच कर देवराज चाचा की हत्या कर दी थी। लेकिन गाँव का कोई भी आदमी इस क्रूर कांड के विरोध के लिए आगे नहीं आया था। प्रकाश ने क्रमशः यह समझा कि इसका कारण कमजोरी नहीं भय था। इसीलिए वह स्वतंत्रता की चेतना को जगाने के लिए मजदूर संघ का गठन करते हुए इस बात पर सबसे अधिक ज़ोर देता है कि “आप में से किसी को डरना नहीं है। इस बस्ती में जो कुछ होता रहा है वह आप लोगों के इस तरह डरने की वजह से। यहाँ की कोठी के मालिक को न तो कानून अपने हाथ में लेने का अधिकार है और न ही किसी मजदूर को खरगोश समझकर उसका शिकार करने का। पुलिस का काम जनता की सुरक्षा है न कि हत्यारे की सुरक्षा।“ (अनत 1984 : 159)। इस प्रकार इस उपन्यास में आर्थिक वर्ग चेतना प्रखर सामाजिक और राजनैतिक चेतना के रूप में मुखर हुई है। 
निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि अभिमन्यु अनत के साहित्य में सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक प्रश्नों की गहरी समझ परिलक्षित होती है। वे एक ओर जहाँ उन तमाम त्रासद स्थितियों की गवाही देते हैं जिनसे मॉरिशस के खेतों में सचमुच सोना उपजाने वाले भारतवंशियों को गुजरना पड़ा है। वहीं दूसरी ओर उस जिजीविषा का भी पता देते हैं जिसकी जड़ें भारतीय संस्कृति में गहरे पैठी हुई हैं। लेखक की आर्थिक समझ और वर्ग चेतना बेहद साफ और निर्भ्रांत है। इसीलिए वह भारतवंशी मजदूरों के वर्ग शत्रु की पहचान कराने और उससे टकराने का जज्बा पैदा करने में कामियाब है। अंततः, इस परिप्रेक्ष्य में कैक्टस के दाँत की कविता कुहासे में द्रष्टव्य है -         
        कुहासे को गले में लपेटे
        झूल रहा आदमी 
        सहम गई है हवा संकुचित अँधियारे में 
        सूरज को ओढ़ा आया है आदमी 
        एक काली चादर 
        सेंहुड़ पर रख आया है नवजात शिशु को 
        तान रहा आदमी 
        समय को प्रलय-रेखा के उस पार 
        आपाधापी में समय जा गिरा 
        कड़ाह के खौलते पानी में 
        रेत के पहाड़ पर ध्वजा गाड़ आया 
        दहाड़ते ज्वारभाटे के मुँह में 
        चिराग जला आया आदमी 
        दम तोड़ते परिंदे के डैनों को 
        अपने में जोड़कर 
        ऊपर जा पहुँचा उड़कर आदमी 
        विस्फोट के बाद ताकि 
        देख सके वह नीचे के 
        प्रज्वलित दृश्यों को 
        अपनी साँसों के कुहासे में!
                    (अनत 1982 अ : 2) 
       
संदर्भ ग्रंथ 
  1. अनत, अभिमन्यु (1972, 1999 तृतीय आवृत्ति). एक बीघा प्यार. नई दिल्ली : राजकमल 
  2. अनत, अभिमन्यु (1977, 1997 आवृत्ति). लाल पसीना. नई दिल्ली : राजकमल 
  3. अनत, अभिमन्यु (1982 अ). कैक्टस के दाँत. दिल्ली : ज्ञान भारती
  4. अनत, अभिमन्यु (1982 आ). अपनी ही तलाश. नई दिल्ली : अक्षर 
  5. अनत, अभिमन्यु (1984). गांधी जी बोले थे. नई दिल्ली : राजकमल 

  • डॉ. ऋषभ देव शर्मा, पूर्व आचार्य एवं अध्यक्ष, उच्च शिक्षा और शोध संस्थान, दभाहिप्र सभा। आवास : 208 ए, सिद्धार्थ अपार्टमेंट्स, गणेश
नगर, रामंतापुर, हैदराबाद – 500013. rishabhadeosharma@yahoo.com 
  • डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा, सह संपादक : स्रवंति’, असिस्टेंट प्रोफेसर, उच्च शिक्षा और शोध संस्थान, दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, खैरताबाद, हैदराबाद – 500004. neerajagkonda@gmail.com