हैदराबाद स्थित अंग्रेजी एवं विदेशी भाषा विश्वविद्यालय [इफ्लु] के कुलपति प्रो.अभय मोर्य बहुभाषाविद साहित्यकार हैं। समकालीन भारत के साथ-साथ रूस के इतिहास को उन्होंने भली प्रकार आत्मसात किया है। उन्हें रूसी भाषा एवं साहित्य की अंतरराष्ट्रीय एसोसिएशन द्वारा 1986 में सर्वोच्च सम्मान अलेक्सांद्र पुश्किन मेडल से अलंकृत किया जा चुका है। रूसी साहित्य, तुलनात्मक साहित्य और साहित्य शास्त्र के विद्वान प्रोफेसर अभय मोर्य शिक्षाविद के साथ-साथ एक सहृदय कवि और सोद्देश्य कथाकार भी हैं। उनका अंग्रेजी उपन्यास `फाल ऑफ ए हीरो´ 1998 में प्रकाशित हुआ। `युगनायिका´ शीर्षक से इसकी समानांतर कृति 2004 में हिंदी में सामने आई जिसका दूसरा संस्करण वर्ष 2008 में प्रकाशित हुआ है। इस बीच 2006 में उनका दूसरा उपन्यास `मुक्तिपथ´ भी आ चुका है जो पर्याप्त चर्चित रहा।
`युगनायिका´ (2004, 2008) में लेखक ने मुख्यत: आपात्कालीन भारत की युगीन परिस्थितियों को केंद्र बनाया है। इसके आगे पीछे का समय भी उपन्यास में चित्रित है परंतु वह एक प्रकार से या तो आपात्काल की भूमिका है या उसकी परिणति। कहा जा सकता है कि जिस प्रकार आंचलिक उपन्यास में व्यक्ति के स्थान पर अंचल को नायकत्व प्रदान किया जाता है उसी प्रकार 'युगनायिका' में अभय मोर्य ने युग अथवा काल को नायकत्व प्रदान किया है। यह काल भारतीय लोकतंत्र के स्वप्न के पूरी तरह ध्वस्त होने का काल है। एक राजनैतिक व्यवस्था के क्षेत्र में उत्पन्न निर्वात को भरने के लिए ऐसे में सहज ही दूसरी राजनैतिक व्यवस्था की आवश्यकता प्रतीत होती है। लेखक ने अत्यंत योजनाबद्ध रूप में इस वैकल्पिक व्यवस्था के लिए साम्यवाद या समाजवाद के भारतीय मॉडल को प्रस्तुत किया है। प्रो. मोर्य मार्क्सवादी दर्शन के मर्मज्ञ विद्वान हैं , इसलिए उनके द्वारा सुझाई गई व्यवस्था के सैद्धांतिक प्रारूप या आदर्श की परिपूर्णता पर कोई संदेह नहीं किया जा सकता। उन्होंने इसके सभी पक्षों पर 'युगनायिका' में अनेक स्थलों पर विस्तार से विचार-विमर्श किया है, बहस की है, निष्पत्तियाँ दी हैं। इस प्रकार वे मार्क्सवाद को भारतीय संदर्भ में एक आदर्श राजनैतिक व्यवस्था के रूप में प्रस्तुत करते हैं। यह विचारधारा ही प्रकारांतर से नए युग की नायिका है। इसे आदर्श और युटोपियन स्वप्न कहकर नहीं नकारा जा सकता। पिछली शताब्दी के उत्तरार्ध में सामाजिक, आर्थिक, नैतिक और राजनैतिक मूल्यों के पतन के संदर्भ में यह स्वप्न और आदर्श बहुत प्रासंगिक प्रतीत होता है। परंतु पाठक की दृष्टि से 'युगनायिका' की मुख्य समस्या यह है कि प्रगतिशीलता की यह विचारधारा पूरे उपन्यास में इस तरह सतह से लेकर तल तक छाई हुई है कि अनेक स्थलों पर औपन्यासिकता की क्षति हो गई है । विचारधाराकेंद्रित कथालेखन की यह सबसे नाजुक सीमा है।
विचारधारा को सृजनात्मकता का बाना पहनाने के लिए लेखक ने अमित, सुमित, विवेक, कविता, राजू, कमला और सूर्य जैसे संघर्षशील पात्रों का सृजन किया है जो प्रगतिशील शक्तियों का प्रतिनिधित्व करते हैं। प्रतिगामी या प्रगतिविरोधी शक्तियों का प्रतिनिधित्व करने वाले चरित्रों के रूप में महेश , तिवारी, पांडे, नागपाल, साजना और मीनू जैसे पात्र सिरजे गए हैं। काले पात्र पूरी तरह कालिख में रंगे हैं जबकि श्वेत पात्र सफेदी और कालिख के द्वंद्व को झेलने के लिए अभिशप्त हैं। जिन पात्रों की मानसिकता परिपक्व है वे कबीर की तरह इतने जतन से अपनी सफेदी बरकरार रखते हैं कि चाहें तो सगर्व घोषणा कर सकते हैं - दास कबीर जतन करि ओढ़ी , जस की तस धर दीनि चदरिया। लेकिन जहाँ हल्की सी भी फिसलन की संभावना थी वहां लेखक ने दर्शा दिया कि यह चादर सुर नर मुनि ओढ़ी,ओढ़ के मैली कीनि चदरिया। राजनीति, प्रशासन , न्यायपालिका, व्यापार और धर्म से जुड़ी काली ताकतों ने पिछले 50-60 वर्ष में भारतवर्ष में एक ऐसे अंधकारमय क्रूर तंत्र का निर्माण किया है जिसमें एक बार प्रवेश करने के बाद बेदाग निकल पाना मुश्किल है। इस काजल की कोठरी में सर्वत्र भ्रष्टाचार ही भ्रष्टाचार है। न किसी को देश की परवाह है और न समाज की। न किसी को मूल्यों की आवश्यकता है, न आदर्शों की। पैसे और पद प्रतिष्ठा की अनंत भूख कालव्यापिनी है। ऐसे में प्रगतिशील शक्तियाँ यदि रणनीति के तौर पर यह तय कर लें कि इस तंत्र में भीतर घुसकर इसे खोखला बनाया जाना चाहिए, तो यह बात सुनने में तो बहुत अच्छी लगती है परंतु व्यवहार के स्तर पर ऐसा कर पाना किसी ऐसे ही व्यक्ति के लिए संभव है जिसके पास हनुमान जैसी सत्यनिष्ठा हो जो सुरसा के पेट में घुसकर जीवित वापस निकल आए। पर अमित तो हनुमान नहीं था। मित्रमंडली ने उसे जज बनने से रोका, व्यवस्था की सुरसा के मुँह में प्रवेश करने में रोका, पर वह नहीं रुका। उसके अपने तर्क थे, अपना जोश था, आत्मविश्वास था, पर ये सब तब ढहने लगे जब बेईमानों की दुनिया में ईमानदार आदमी ने अपने बच्चों को हीन भावना से ग्रस्त होते देखा और पांडे तथा नागपाल जैसे राजनीति और न्यायपालिका के धुरंधर खिलाडियों ने आदर्शवादी सिद्धांत को ही ऐसी पटखनी दी कि अमित चारों खाने चित हो गया। मगरमच्छों से छीन कर मछलियों में बाँटने का सिद्धांत अमित को लुभा गया। वैकल्पिक पथ के उसके साथी भी कुछ ननुनच के बाद उसके साथ हो गए। करोड़ों का हेरफेर होने लगा। पहली किस्त छोटी मछलियों के लिए चली गई - मजदूरों के भले के लिए, महिलाओं के भले के लिए। पर उसके बाद इस कीचड़ से निकलने की सदिच्छा के साथ अमित ने संपत्ति का अंबार लगाना शुरू कर दिया, जिसकी परिणति एक झूठ से चलकर अनेक झूठों के रूप में सामने आई। आर्थिक भ्रष्टाचार अपने साथ दूसरी तमाम बुराइयाँ लेकर आया। शराब और औरत ने वैकल्पिक पथ के खोजी को पूर्णत: पथभ्रष्ट कर दिया और इस तरह हुआ एक नायक या महानायक का पतन। कविता ने अमित को छोड़ दिया और वह और भी दलदल में फँसता चला गया। लेकिन लेखक की सहानुभूति कहीं-न-कहीं उसके साथ बनी रही। इसलिए लेखक ने उसके भीतर की सफेदी को पूरी तरह पराजित नहीं होने दिया। मरणांतक हृदयाघात ने अमित को बदल दिया। तनिक सी सफेदी प्रकाश का स्रोत बन गई। कविता भी वापस आ गई। सबने मिलकर पांडे और नागपाल के चक्रव्यूह को ध्वस्त कर दिया। महाभारत का अभिमन्यु अधिक विश्वसनीय लगता है क्योंकि वह चक्रव्यूह में मारा जाता है। 'युगनायिका' का अमित यहाँ आकर अविश्वसनीय सा लगने लगता है - लेकिन यदि लेखक ने उसे भ्रष्टाचार के चक्रव्यूह में शहीद कर दिया होता तो उस स्वप्न का क्या होता जो वैकल्पिक पथ के रूप में देखा गया है, इसीलिए एक करुण त्रासदी अंत में एक फिल्मी सुखांत कथा बन जाती है। उपन्यास का यह अंत प्रगतिशील शक्तियों की अंतिम विजय में लेखक के चरम विश्वास का प्रतीक है।
`युगनायिका´ को विशेष बल प्राप्त होता है इसमें निहित स्त्री विमर्श और दलित विमर्श से। उपन्यासकार की दृढ़ मान्यता है कि भारतीय समाज में दलितों और स्त्रियों के शोषण का आधार मनुसंहिता और मनुवाद हैं। उनके विचार से जातिवाद हमारे समाज के शरीर और आत्मा में फैल रहा कैंसर जैसा रोग है। यह निश्चय ही चिंता का विषय है कि भारतीय हिंदू समाज में जातिवाद की बीमारी समाप्त होने के बजाय बढ़ती ही जा रही है। यह प्रश्न भी विचारणीय है कि यह समझ सही साबित क्यों नहीं हुई कि शिक्षा के प्रसार के साथ-साथ जाति प्रथा अपने आप दम तोड़ देगी। यह तो मालूम नहीं कि मनु के तथाकथित वचनों का समाज में कभी पालन होता भी था या नहीं, लेकिन जो दृश्य भारतीय राजनीति का आज हमारे सामने है उसमें यह बात बहुत यथार्थ प्रतीत नहीं होती कि पंचायत से लेकर विधानसभा और लोकसभा चुनावों में कम्युनिस्टों को छोड़कर मुख्यधारा की सभी पार्टियाँ जातीय समीकरण को ध्यान में रखकर अपने-अपने उम्मीदवार खड़ा करती हैं। इसके विपरीत सच्चाई यही है कि कम्युनिस्ट भी किसी से कम कम्युनल साबित नहीं हुए। लेखक ने काली टोपी और खाकी निक्कर वालों की खूब लानत मलामत की है, जिसके औचित्य से इनकार नहीं किया जा सकता, लेकिन अन्य प्रकट और छद्म सांप्रदायिक ताकतों का भी मुखौटा उतारे जाने की जरूरत थी जिनसे लेखक ने कन्नी काट ली है।
स्त्री विमर्श की दृष्टि से यह उपन्यास स्त्री मुक्ति का पक्षधर है और स्त्री पुरुष संबंधों को अत्यंत खुलेपन से देखने के साथ-साथ स्त्री और पुरुष की परस्पर वफादारी पर जोर देता है। स्त्री की शैक्षणिक और आर्थिक स्थिति मजबूत होने की आवश्यकता का लेखक ने बार-बार प्रतिपादन किया है। यह बात बड़ी महत्वपूर्ण है कि लेखक ने धर्म और प्रेम दोनों को व्यक्तिगत मामला माना है जिनमें समाज और व्यवस्था की दखलंदाजी नहीं होनी चाहिए। यह बात विचारणीय है कि लड़के-लड़कियों के स्वच्छंद संबंधों के कारण पश्चिमी देश पिछड़ नहीं गए, वहाँ कोई सामाजिक विपदा नहीं आन पड़ी, पर हमारे समाज का अधिकांश भाग अभी भी घोर प्रतिक्रियावादी और दकियानूसी सामाजिक मूल्यों, प्रथाओं और अंधविश्वासों का शिकार है। पुरुष वर्चस्ववाद के भयावह रूप को लेखक ने जहाँ नागपाल और महेश जैसे खलनायकों के माध्यम से चरितार्थ किया है वहीं अमित को भी बख्शा नहीं है। कविता उसे फटकारते हुए ठीक ही कहती है कि असल में स्वार्थी पुरुष इसीलिए नारी मुक्ति के विरुद्ध होते हैं, उनके आर्थिक रूप से आत्म निर्भर होने के खिलाफ होते हैं क्योंकि तब वे औरत के साथ अपने पाँव की जूती की तरह व्यवहार न कर सकेंगे, तब वे उसके साथ अपनी मनमानी न कर सकेंगे। उपन्यासकार ने इस तथ्य को भली प्रकार उभारा है कि भारतीय मध्यवर्गीय पुरुष कितना भी उदारवादी एवं जनतांत्रिक क्यों न हो, स्त्री यदि उसे छोड़कर चली जाए तो उसके अहं को बहुत ठेस लगती है। समाज भी ऐसे पुरुष को हीन दृष्टि से देखने लग जाता है, लोग सोचने लगते हैं कि जरूर पुरुष में नपुंसकता जैसा भयंकर दोष होगा, तभी तो नारी पुरुष को छोड़कर गई होगी, अन्यथा भारतीय स्त्री आदमी को नहीं त्यागती, उसे ठोकर मारकर नहीं जाती। यही कारण है कि कविता के जाते ही अमित पूरी तरह ध्वस्त हो जाता है।
अंतत: इस तथ्य की ओर संकेत करना आवश्यक है कि इस उपन्यास में प्रोफेसर अभय मोर्य ने सटीक व्याख्या करते हुए भारत में आपात्काल और रूस में स्टालिन काल की जो तुलना की है वह किसी की भी आँख खोलने के लिए पर्याप्त है। इसमें संदेह नहीं कि ये दोनों ही कालखंड नृशंसता और दमन की क्रूर मिसालें हैं।
यों तो 'युगनायिका' ऐसा विशाल उपन्यास है जिसमें समकालीन युग की तमाम विकृतियों का खुलासा किया गया है लेकिन सामाजिक समानता, मानवाधिकार और सत्य की अंतिम विजय के प्रति लेखकीय विश्वास इसकी अपनी उपलब्धियाँ हैं। लेखक ने अनेक स्थलों पर प्रकृति और मनोभावों का बहुत प्रभावशाली बिंब प्रतिबिंब भाव से अंकन किया है। ऐसे स्थलों पर उपन्यास की भाषा काव्यात्मक हो उठी है जिससे उपन्यासकार की सौंदर्यचेतना के भी उतना ही प्रबल होने की सूचना मिलती है जितनी प्रबल उनकी प्रगतिशील चेतना है।
युगनायिका (उपन्यास)/ अभय मोर्य/ स्वराज प्रकाशन , 4697/3, 21 ए, अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली-110 002/ द्वितीय संस्करण, 2008/ रु. 60/-(पेपर बैक)/ 328 पृष्ठ
2 टिप्पणियां:
अच्छी समीक्षा! प्रकाशक के अतिरिक्त उपन्यास कहाँ से खरीदा जा सकता है?
@दिनेशराय द्विवेदी Dineshrai Dwivedi
टिप्पणी के लिए आभार!
मुझे पुस्तक एक दैनिक से मिली थी जिसके लिए नियमित स्तम्भ लिखता हूँ.
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