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मंगलवार, 26 जनवरी 2010

बथुआ प्रेम की पराँठा परिणति

खतौली से लौटकर हलके-फुल्के अंदाज़ में लिख दी थी पिछली पोस्ट " सुंदर सुंदर सब्जियाँ तो मिलेंगी बुढापे में! " मित्रों के समक्ष प्रस्तुत करते हुए मन में संकोच सा भी था. लेकिन मैं विस्मित रह गया यह देखकर कि अपने डॉ.राधे श्याम शुक्ल जी ने उसे २४ जनवरी को अपने पत्र ''स्वतंत्र वार्ता'' के साहित्य वाले साप्ताहिक पन्ने पर छाप डाला. कई सारे मित्रों और छात्रों ने फोन करके विधिवत उस आलेख का नोटिस लिया. कुछ व्यक्तिगत ईमेल भी आए.और हाँ, ''हिन्दी भारत'' समूह पर भी अच्छा प्रतिसाद मिला. अपने ऐसे सभी मित्रों के प्रति आभार व्यक्त करने के साथ ही उन प्रतिक्रियाओं को यहाँ सहेजने का मोह मैं संवरण नहीं कर पाया. सो,यह पोस्ट तैयार हो गई.


भारत डायनेमिक्स के वरिष्ठ हिंदी अधिकारी होमनिधि शर्मा ने लिखा है-

पंडित जी, बढ़िया संस्‍मरण. इस बहाने हम भी थोड़ा-बहुत आपका गृह-नगर देख आए. पढ़कर फिल्‍म माचिस का वह गीत ताजा हो गया 'चप्‍पा-चप्‍पा चरखा चले, गोरी-चट गोरी जो कटोरी से खिलाती थी......' उम्‍मीद है 'गपशप' में महबूबनगर पर लिखा संस्‍मरण पसंद आया होगा.

होमनिधि शर्मा



शर्मा जी की ही तरह सैयद मासूम रज़ा भी एक अन्य वैज्ञानिक संस्थान में वरिष्ठ हिंदी अधिकारी हैं - नाभिकीय ईंधन सम्मिश्र में. उन्हें इलाहाबाद के दिल में छिपा अपना गाँव याद हो आया -

धन्यवाद सर,
मज़ा आ गया (कम से कम सुंदर सुंदर सब्जियाँ तो मिलेंगी खाने को बुढापे में) को पढ़कर. हाल ही लगभग ऐसा ही आनंद मैंने भी उठाया अपने गाँव इलाहाबाद में. मजबूरी ये है कि कुछ पाने के लिए बहुत कुछ खोना पड़ता है.
शुभ रात्रि
रज़ा



हैदराबाद विश्वविद्यालय के डॉ.आलोक पांडे जी को शायद सुकरात और कन्फ्युशीयस वाला आत्मव्यंग्य भा गया -

अच्छा लगा. वैसे भी सागरो मीना में दर्शन का सुख कहाँ!


अंग्रेज़ी एवं विदेशी भाषा विश्वविद्यालय के रूसी विभाग के प्रोफ़ेसर डॉ. जगदीश प्रसाद डिमरी मेरे प्रति अकारण परम स्नेह रखते हैं. गलती हो गई कि उनके लिए गुड़ नहीं लाया गया.ज्ञात हो कि हमारा जिला [मुज़फ्फर नगर] एशिया की सबसे बड़ी गुड़-मण्डी माना जाता है. तो डिमरी सर ने लिखा -

प्रिय ऋषभदेव जी ,
सुंदर सुंदर सब्जियों वाला आलेख मिला. बहुत अच्छा लगा. खतौली और चीतल की याद ताजा कर दी. ये दोनों मेरे घर जाने के रास्ते में पड़ते हैं. बथुवे की याद तरो ताजा कर दी. मोंडा से एक दिन बथुवा लाया था, लेकिन मजा नहीं आया. बथुवा मरा जैसा था .खतौली में गुड़ भी अच्छा बनता है. लाये हैं क्या?

जे पी. डिमरी



अपने सत्य नारायण शर्मा कमल जी तो सदा मेरी हर रचना पर आशीर्वाद देते ही हैं. उन्हें भी खतौली की जलेबियाँ पसंद हैं. अत्यंत स्नेहपूर्वक उन्होंने लिखा -

प्रिय ऋषभ देव जी,
आपके खतौली प्रवास पर आपके वरिष्ठ मित्र कवि-साहित्यकारों के साथ
बीते समय का वृत्तान्त पढ़ कर मन आनंद से भर गया | गाज़ियाबाद
से मुज़फ्फरनगर देहरादून या हरिद्वार आते जाते खतौली से कई बार
गुज़रा हूँ | मुख्य मार्ग पर नहर से मिले होटल में उस समय बढ़िया
खाना और जलेबी आदि मिलती थी | हरी ताज़ी सब्जियों का मज़ा
तो पश्चिम उत्तर प्रदेश में देखते और खाते ही बनता है | यादें ताज़ा
हो गईं |
सस्नेह
कमल


आदरणीय अनूप भार्गव जी ने तेवरी में रूचि दर्शाई है -

आदरणीय ऋषभ जी:
आप के सुन्दर और स्वादिष्ट संस्मरण के लिये धन्यवाद :-) बहुत रोचक और मन से लिखा हुआ लगा ।
मेरा अनुमान है कि यह वही प्रो. देवराज हैं जिन की ज्योति बसु जी पर लिखी कविता आप ने कुछ दिन पहले भेजी थी । बहुत सशक्त कविता है ।
मेरी अज्ञानता समझ लीजिये लेकिन ’तेवरी काव्यांदोलन’ के बारे में और जानने की इच्छा है । आप की कुछ तेवरी पढी हैं और बहुत अच्छी लगीं, बस जानकारी वहीं तक सीमित है ।
सादर
अनूप भार्गव


अब शीघ्र ही कुछ पोस्टें तेवरी के इतिहास और प्रवृत्तियों पर लिखनी होंगी. प्रिय डॉ.बी. बालाजी को भी तेवरी से जुड़ा प्रसंग रोचक लगा. उन्होंने अपने चंद्रमौलेश्वर प्रसाद जी के स्वास्थ्य के बारे में भी पूछा है. दरअसल प्रसाद जी के कोलिक अल्सर के ऑपरेशन से दो दिन पहले ही बालाजी और मैं उनके आवास पर गए थे. बालाजी लिखते हैं -

नमस्कार सर.
'सुंदर सुंदर सब्जियाँ तो मिलेंगी बुढापे में!'
संस्मरण पढ़ने का मौका मिला. पढ़कर अच्छा लगा .तेवरी आन्दोलन की जानकारी मिली. तेवरी आन्दोलनकारियों की दोस्ती भी अच्छी लगी. यह 'अपनापन' का दर्पण है. बहुत से स्थल मन को छूते हैं.
आपके द्वारा इस तरह के संस्मरणों के संकलन की प्रतीक्षा रहेगी.
एक संस्मरण का संकलन हो ही जाए.
चंद्रमौलेश्वर जी का क्या हाल है.

शुभ रात्रि.
आपका
बालाजी


संकलन-फंकलन तो खैर अभी सपने में भी नहीं सोचा - कोई संभावना नहीं. हाँ, चन्द्र मौलेश्वर जी ऑपरेशन के बाद स्वास्थ्यलाभ कर रहे हैं - अभी अस्पताल में ही हैं और आज कुछ चले-फिरे भी. अरे हाँ, उन्होंने भी बथुवे में रुचि प्रदर्शित की थी फोन करके.अब यह सुरुचि सम्पन्नता ही तो है कि वरिष्ठ कवयित्री डॉ. प्रतिभा सक्सेना जी को गन्ने से लेकर सब्जियों तक सब कुछ प्रत्यक्ष हो आया -

भावनाओं के सहज और आत्मीय उद्गार, विगत की स्मृतियों के साथ और प्रभावी हो गये हैं, सीधे मन में उतर जाते हैं.
उत्तरप्रदेश का वह भाग कुछ दूसरे ही हवा-पानी से युक्त है. मैं बारह वर्ष से भी अधिक उधर रही हूँ, वहीं से एम.ए.किया. वहाँ के लोग, वहाँ का गन्ना, मेवा पड़ा ताज़ा गुड़, लुकाट, लीचियाँ और सब्ज़ियां - आपने कह ही दिया (मेरे बोलने को कुछ नहीं बचा)! यह जान कर अच्छा लगा कि अभी भी यथावत् हैं.
आपका आभार कि फिर वही सब प्रत्यक्ष-सा हो गया..
सादर,
प्रतिभा सक्सेना


डॉ. शकीला खानम जी, डॉ अंबेडकर ओपन यूनिवर्सिटी में हिंदी विभाग की अध्यक्ष हैं. उन्हें भी अपना गाँव याद आया -

आदरणीय,
आप का आलेख पढ़कर मुझे बहुत अच्छा लगा. मेरे मन में भी अपने गाँव की पुरानी स्मृतियाँ ताज़ी हो गयी.
सादर,
शकीला.



प्रो. शकीला जी ने स्लाइड शो बाद में देखा - और ध्यान से देखा. दो तस्वीरें हिंदी की उपेक्षा को उजागर करने को लगाई गयी थीं - मैडम ने उनका सटीक नोटिस लिया -

नमस्कार !
अभी-अभी तस्वीरें भी देखी है ! इनमें से अंग्रेज़ी की दीवार-हिंदी लाचार वाली तस्वीर और स्लोगन - दोनों बहुत अच्छे लगे. ऐसी तस्वीरों को राजभाषा विभाग की दृष्टि में ले जाना चाहिए. संसदीय राजभाषा समिति अपने निरीक्षण के बहाने जबतब अधिकारियों को परेशान करती रहती हैं तब क्या उनकी नज़र इनपर पडती नहीं? या तेवरी की प्रजा सिर्फ अंग्रेज़ी ही जानती हैं ? !
सादर,
शकीला



उड़न तश्तरी ने ब्लॉग पर टिप्पणी में कहा -

गांव की चौपाल सी महकती सुन्दर संस्मराणात्मक पोस्ट.
आनन्द आ गया.


और आदरणीय गुरुदयाल अग्रवाल जी ने तो कृपा की बरसात ही कर दी -

I was away to Bangalore for a couple of days having returned to Hyderabad only on 23.1.10
night. I read this article in Varta yesterday which truely depicts the picture of the heavenly
pleasures of meeting old friends (for 'friends' read 'friends who are only friends and nothing
else'). This is further loaded with 'bathua' the miracle in green leaves. This also happens to be
my weakness and stands certified from the fact that during this season if ever I happen to go
to Delhi all my relations keep a packed of boiled 'bathua' for me and sometimes I have to
carry more than 2/3 kg of the same to Hyderabad and enjoy it for a long long time
Now it is available here also but not always
With happly bathua greetings
as ever yours
g.d.agarwala


गुरुदयाल जी के बथुवा-प्रेम से अभिभूत होकर उन्हें फोन किया तो लंबी बात हुई. वे बोले - ''आपका संस्मरण पढ़कर एक बात समझ में आई कि आपके जीवन में एक बड़ी कमी है.'' ''वह क्या?''-मेरी उत्सुकता स्वाभाविक थी. उनका उत्तर परम स्वादिष्ट था -''यह कि आपने अभी तक मेरे हाथ के पराँठे नहीं खाए. एक बार खाएँगे तो बार बार संस्मरण लिखेंगे.'' अब आप समझ सकते हैं कि आगे क्या हुआ होगा.
जी हाँ, फरवरी के दूसरे सप्ताह उन्होंने मुझे सपरिवार अपने घर पराँठों के आस्वादन के लिए न्यौत दिया है.
अब लिखने को रह क्या गया?

गुरुवार, 21 जनवरी 2010

सुंदर सुंदर सब्जियाँ तो मिलेंगी बुढापे में!





इस बार कई साल बाद ११ जनवरी को मैं अपने गृह-नगर खतौली में था. प्रो.देवराज भी संयोगवश मणिपुर से कुछ समय के लिए इन दिनों वहाँ आए हुए हैं. हम दोनों मिले तो १९८० से १९८३ की वे तमाम यादें ताज़ा हो आनी ही थीं जब हम दोनों पर तेवरी का जुनून हुआ करता था. तय हुआ कि जब संयोगवश इस बार तेवरी दिवस पर हम लोग साथ हैं तो विधिवत पुरानी यादों को मिल बैठ कर दुहराएँ और कुछ आपस में सुनें -सुनाएँ.

जगदीश सुधाकर जी का मूड उस दिन [यह बात ९ जनवरी की रात ११ बजे की है] उखड़ा हुआ था . देर तक हम दोनों की 'जुगाली' से शायद चिढ़कर बड़बड़ाए ,'' समस्या मैं दिए देता हूँ - एक थी तेवरी.'' मुझे बात लग गई और मैं लगा उन्हें उसी '८० के आंदोलनी अंदाज़ में बताने कि तेवरी ''थी'' नहीं ''है''; और कि कथ्य और शिल्प की जिस जनपक्षीयता की आवाज़ उस वक़्त हम लोगों ने उठाई थी , आज और भी समकालीन हो गई है. जसवीर राणा जी ने भी मेरी बात को पानी दिया तो सुधाकर जी के हाथ कंबल से बाहर निकल आए. लेकिन भोजन आने से उनका उकसाऊ आशु-काव्य स्थगित हो गया. दरअसल हम यार लोगों में वे सीनियर तो हैं ही,अकेले आशुकवि भी हैं - ऊपर से हास्यव्यंग्य में सिद्धहस्त. वे व्यंग्य से बाज नहीं आते और खासतौर से मैं चिढ़ने से नहीं चूकता. पहले तो हम दोनों एकदूसरे को काफी जलीकटी सुना देते थे. पर इस वक़्त सचमुच हम चारों को भूख लगी थी इसलिए विवाद होते होते बच गया जिसका हम सभी को अफ़सोस रहेगा क्योंकि वे कई रचनाएँ अब अनलिखी रह जाएँगी जो पहले की तरह इस तरह की बहस के बाद खुद-बखुद हम यारों के भीतर से फूट कर निकलनी थीं. अफ़सोस!

ठंड और कुहरे से भरी ठिठुराती-ठिठुरती रात के तीसरे पहर वे तीनों कम्बलवान मुझे सर्दी से बचने की हिदायत देते हुए अपने घरों को रवाना हुए तो इस संकल्प के साथ कि ११ को दिन भर बाहर काव्य-शास्त्र -विनोद और मधुर-कलह में बिताएँगे. मेरी आँखें गीली हो आई थीं, इसे वे अँधेरे में भी ताड़ गए ; और तेजी से निकल लिए. उनकी आँखें भी तो भरी हुई थीं!

११ जनवरी. तेवरी काव्यांदोलन की वर्षगाँठ. उस समय के सब युवा मित्र अब ५० पार के बूढ़े हैं . कुछ तो काल के प्रवाह में सदा सदा के लिए बिला भी गए - शौरमी और चमचा की तरह असमय. कुछ से कभीकभार का प्रत्यक्ष या परोक्ष संपर्क बचा हुआ है - पवन और रमेशराज की तरह. सुधाकर जी और राणा जी ने गुरुदत्त विद्रोही और धनीराम सुधीर जैसे शुभचिंतकों के भी अब न रहने की सूचना दी.

सुधाकर जी और राणा जी दोनों ही कुछ ऐसे कामों में फँस गए कि मैं और देवराज जी दिन भर उनकी राह देखते रह गए.

मैं देवराज जी के साथ होऊँ तो एक बड़ी गड़बड़ हमेशा हो जाती है कि हम हँसना भूल जाते हैं. गंभीर हो जाते हैं. उस दिन भी यही हुआ. हम दोनों पोस्ट ऑफिस गए, फिजियोथिरेपिस्ट के पास गए, सुबह से शाम तक अपने छोटे से कस्बे की गलियों में दूकान-दूकान घूमे,पैदल ही चीतल [गंगनहर पर पार्क] तक हो आए; और लगातार बातें भी करते रहे. बातें भी क्या कम हैं करने को? उन गली-सड़कों पर घूमते वक़्त हम हमेशा सुकरात और कंफ्यूशियस हुआ करते थे. आज भी हो गए. आनन फानन एक योजना बना डाली - मौका मिलते ही हैदराबाद में ''पूर्वोत्तर की सच्चाई'' पर सम्मलेन की.

होली चौक पर जलेबियाँ खाईं - ठेले के सामने खड़े होकर - ताजा गरमागरम. दुकानदार ने बैठने को कहा. पर हमें तो पहले की तरह खड़े रहकर अतीत की जुगाली करनी थी. मूंगफलीवाले ने तो हमें पहचान भी लिया. बाहर रोटीरोजी कमाने गए युवा को उसके अपने गाँव में पहचानने वाले धीरे धीरे ख़तम हो जाते हैं न! इतने बरस बाद सड़क पर किसी ने पहचाना तो सही!

चीतल पार्क कितना बदल गया है. खुलापन न दिखा. सब बंद-बंद सा लगा. वहाँ कुछ खानेपीने का मन नहीं हुआ. पर आए हैं तो कुछ तो लेंगे ही न. सो वेज-सूप ले लिया. सूप क्या था साहब ,सारी मौसमी सब्जियाँ थीं. मिर्च ज़रूर ज़रुरत से ज्यादा थी, लेकिन यह क्षण भर में खोपड़ी में कौंध गया कि अपनी खतौली जैसी सब्जियाँ न ऋषभ को हैदराबाद में नसीब हो सकती हैं , न देवराज को मणिपुर में. देवराज जी ने जब कहा कि हर सड़क पर गुजरते हुए मैं तो तड़प के साथ देखा करता हूँ ताज़ा तरकारियों को कि यहाँ से जाकर हमने जाने क्या क्या खो दिया, तो बात गंभीर होते हुए भी मैं जोर से हँस पड़ा. शायद बहुत दिन बाद संक्रामक हँसी हँस रहा था ,तभी तो देवराज भी हँसने लगे यह बताते हुए कि - मैं तो अवकाशप्राप्ति के बाद यहीं लौटने के बारे में गंभीरता से सोच रहा हूँ - कम से कम सुंदर सुंदर सब्जियाँ तो मिलेंगी खाने को बुढापे में.[ अपने सुधाकर जी सुंदर को स्वादिष्ट और स्वादिष्ट को सुंदर कहते हैं.यानी पुरुष या स्त्री स्वादिष्ट और मिठाई या सब्जी सुंदर!]

बहुत दिनों के बाद इतनी दूर पैदल चलने से थक गया था. डॉ.साहब को तो खूब पैदल चलने की आदत है, पर मैं सचमुच आलसी और मोटा हो गया हूँ. पहली बार मेरा ध्यान इस बात की ओर गया कि जी टी रोड पर स्थित पश्चिमी उत्तर प्रदेश का यह प्रमुख कस्बा कुछ ख़ास बदला नहीं है. काफी जड़ता है. तभी एक गड्ढे में पैर पड़ने से घुटना लचक गया. ख़याल आया कि खतौली में ऑटो नहीं आया अभी तक. एक रिक्शा संभावित सवारी समझकर हमें घूरता हुआ धीरे धीरे पास से गुजरा. मैंने डॉ. साहब से कहा - इस मौसम में रिक्शा पर सवार होना अत्याचार से कम नहीं होगा न? डॉ.साहब समझ गए कि मैं थक रहा हूँ. उन्होंने अपनी गति धीमी कर दी. कीमती के होटल में भोजन किया तो मैं विस्मित रह गया कि आज के ज़माने में भी दो आदमी मात्र ३५ रूपए में भरपेट लंच कर सकते हैं. देवराज जी ने फिर दुहराया - यहीं लौटना है. मैंने जोड़ा - सब्जी ही नहीं रोटी भी सुंदर मिलती हैं - गोरी, गरम और गदबदी! फिर वही संक्रामक हँसी - कुछ डर नहीं कि कोई 'असभ्य' कहेगा या पूछेगा कि 'मास्टर होकर इस तरह ठहाके क्यों लगाते हो'!

शाम हो आई. देवराज जी के घर बैठक जमी. सुधाकर जी और राणा जी भी आ गए - अन्य मित्र भी. दस दिन से धुंध बरस रही थी. अब हल्की सी वर्षा भी होने लगी. भाभी [श्रीमती देवराज] ने तमाम सब्जियाँ मँगा रखी थीं - जानती हैं वे कि ऋषभ आएगा तो पकौड़ी की फरमाइश करेगा. मैं देवराज जी का ब्लॉग [चौपला] बनवाने में लगा था इसलिए फरमाइश में चूक गया . लेकिन भाभी नहीं चूकीं. जमकर यार लोगों ने पकौड़ियाँ खाईं . मगभर चाय का दूसरा दौर चल रहा था कि भूड़ [ मेरे घर] से भतीजे का फोन आ गया ,'' कहाँ हैं? आपने बथुए को कहा था ,आ गया है. ज्योति [बहू] पूछ रही हैं कि रायता बनाएँ या पराँठे ?'' ''अरे हाँ! मैं तो भूल ही गया था . चाहे जो बना लें. मुझे तो बथुए से मतलब है. और हाँ ,हम सब आ रहे हैं.''

सुधाकर जी ने पूछा था - क्यों ,वहाँ हैदराबाद में नहीं मिलता क्या बथुआ? मुझसे पहले देवराज बोल पड़े - सुधाकर जी भी नहीं मिलते. अब क्या बताऊँ कि क्या क्या नहीं मिलता. [ वैसे प्रो. जे. पी. डिमरी कह रहे थे कि उन्हें कभी कभार मोंडा मार्केट में बथुआ मिल जाता है. मिलता होगा. पर मेरी खतौली जैसा कतई नहीं.] राणा जी ठहरे बेसिकली किसान आदमी , सो उन्होंने वे दिन याद दिलाने शुरू कर दिए जब हरे साग खेत से तोड़कर लाया करते थे. [ वे कुछ दिन कितने सुंदर थे जब........!]

खैर, जमकर बथुए के पराँठों का आनंद लिया गया. गाजर के हलवे ने देवराज जी को फिर सब्जियों के सौंदर्यशास्त्र पर व्याख्यान का सुअवसर मुहैया कराया.

और बाद में मुँह में घुलती हुई गुड़ की कंकर! सुंदर भी , स्वादिष्ट भी.

शुक्रवार, 15 जनवरी 2010

अंतिम प्रणाम,जीजी


विमला जीजी [१९४६-२००९] परमतत्व में विलीन हो गईं.
माँ के जाने [२००५]के बाद से तो हम सब उन्हीं में माँ को देखने लगे थे.
माँ ने ३० अगस्त को अंतिम साँस ली थी,जीजी ने ३० दिसंबर को.
प्रकृति कैसे कैसे संयोग रचती है!
बड़े भैया,जीजाजी और जीजी तीनों ही दुर्घटना में गए.
और तो और ,जीजी छत से आँगन में उसी जगह गिरीं जहाँ विद्युतस्पर्शाघात से जीजाजी गिरे थे.