फ़ॉलोअर

शनिवार, 17 अगस्त 2019

(भूमिका) खूँटी पर आकाश : ज्ञानचंद मर्मज्ञ का निबंध संग्रह


भूमिका

‘खूँटी पर आकाश’ ज्ञानचंद मर्मज्ञ के बाईस निबंधों का संग्रह है। वैसे तो ज्ञानचंद मर्मज्ञ की प्रसिद्धि मुख्यतः ओज के कवि और सरस गीतकार के रूप में है, लेकिन एक राष्ट्रीय और सामाजिक चेतना संपन्न पत्रकार तथा निबंधकार के रूप में भी उनकी उपलब्धियां रेखांकित करने योग्य हैं। धीर-गंभीर और सौम्य स्वभाव के धनी ज्ञानचंद मर्मज्ञ ने अपने निबंधों के माध्यम से उस जीवन दर्शन को सरल, सहज और रोचक ढंग से रूपायित किया है, जिसकी जड़ें भारतीय मनीषा में हैं। अपने इस सांस्कृतिक बोध को वे युगबोध के साथ जोड़कर प्रायः अत्यंत समयोचित और प्रासंगिक प्रश्नों पर सटीक टिप्पणी करते हैं। भारतीय चिंतन परंपरा से उन्होंने समन्वय और सामंजस्य की दीक्षा प्राप्त की है तथा ‘खूँटी पर आकाश’ टाँगने का उनका उपक्रम यथार्थ और स्वप्न के सामंजस्य का ही उपक्रम है।

इन निबंधों में अभिव्यक्त लेखक के जीवन दर्शन की केंद्रीय स्थापना यह है कि क्षणिक होने के बावजूद मनुष्य के अस्तित्व की सार्थकता उसकी अदम्य जिजीविषा और लोक कल्याण की चेष्टा में निहित है। इसी मूल विचार को अलग अलग समस्याओं के संदर्भ में ये निबंध पल्लवित-पुष्पित करते हैं। इसके लिए लेखक भारी-भरकम विचारात्मक गद्य की अपेक्षा काव्यात्मक अथवा ललित गद्य की बुनावट का सहारा लेता है। प्रायः सभी निबंध आरंभ से ही कथा के समान रोचकता, उत्सुकता और जिज्ञासा जगाते हैं। दृष्टांतों के माध्यम से भी लेखक आरंभ से ही पाठक को अपने साथ जोड़ने का सफल प्रयास करता है। दरअसल ज्ञानचंद मर्मज्ञ इन निबंधों को पढ़ने के लिए नहीं, कहने और सुनने के लिए लिखते हुए प्रतीत होते हैं। यही कारण है कि वे सदा अपने पाठक को सामने रखते हैं,उसे संबोधित करते हैं और अपने साथ जोड़ कर ले चलते हैं। इसके लिए वे कथा तत्वों का भी भली प्रकार समावेश करते हैं। यह अकारण नहीं है कि उनके ये निबंध काव्यात्मकता और कथात्मकता दोनों के सहारे, अथवा कहें कि काव्य और कथा के ताने-बाने के सहारे, बहुत कुशलता से अपनी अभिप्रेत वैचारिकता को प्रभावी अभिव्यक्ति दे पाते हैं।

यदि यह कहा जाए कि ज्ञानचंद मर्मज्ञ विचारों की मिट्टी को शैलीय उपकरणों के पानी में गूँथ कर ऐसे निबंधों की रचना करते हैं जिन्हें पढ़ते समय बीच बीच में कविता, कहानी और किस्सागोई का सा आनंद मिलता है, तो गलत न होगा। इसके लिए वे कभी शब्दों के साथ खिलवाड़ करते हैं, कभी शब्द और पदबंधों की आवृत्ति के द्वारा आकर्षण उत्पन्न करते हैं। कभी समानांतर क्रियाओं की झड़ी लगाते हैं, कभी सूक्तियाँ गठित करते हैं, कभी प्रतीकों, बिंबों, उपमानों और खासकर रूपकों के प्रयोग द्वारा कथन में चमत्कार जगाया करते हैं। अभिव्यक्ति पर लेखक का यह विचक्षण अधिकार ही इन निबंधों को सहज बोधगम्य और सुग्राह्य बनाता है। पाठक को पता ही नहीं चलता कि किस तरह कांतासम्मित उपदेश की तर्ज पर लेखक समाज, देश, लोकतंत्र, राजनीति, परिवार, भाषा, रिश्ते और दुनिया की तमाम तरह की चिंताओं के यथार्थ से उसका साक्षात्कार कराते हुए उसके मानस में सकारात्मकता और सक्रियता के बीजों को छींटता चला जाता है। इस तरह हर निबंध पढ़ने के साथ पाठक मानसिकता, चेतना और आनंदानुभूति जैसे सभी धरातलों पर अपने आप को संपन्नतर महसूस करता है।

साहित्य को लोकमंगल की साधना तथा मनुष्य को साहित्य का परम लक्ष्य मानने वाली विचारधारा के समर्थक ज्ञानचंद मर्मज्ञ अपनी लेखकीय जिम्मेदारी के प्रति बेहद सचेत और ईमानदार हैं। इसीलिए वे समसामयिक जीवन यथार्थ के हर उस पहलू को अनावृत करते हैं जहाँ कोई विडंबना या विसंगति है। सात्विक क्रोध और करुणा से संचालित निबंधकार ज्ञानचंद मर्मज्ञ का कवि-हृदय जिन स्थितियों और दृश्यों से विचलित होता है, उन्हें बदल कर आदर्श की स्थापना भी करना चाहता है। स्त्री-जीवन की त्रासदी, पुरुष प्रधान समाज में उसकी नियति, अपनी जमीन से कटते हुए आज के मनुष्य का दोगला चरित्र, प्रकृति और पर्यावरण को नष्ट करते हुए आदमी के भीतर बढ़ते हुए जंगलीपन, नैसर्गिकता का क्षरण, सब प्रकार की लालसा और विलासिता की बढ़ती हुई भूख, प्रकाश और अंधकार के भेद तक से भी अपरिचित लोगों पर समाज को तम से मुक्त करने की जिम्मेदारी आने से उत्पन्न संकट, कर्मशीलता और धैर्य के स्थान पर झपट कर प्रभुत्व हासिल करने की चालाकी, वर्ग,जाति, धर्म, वर्ण, नस्ल और भाषा के भेदों में लगातार बंटते जाते और खंडित होते मानव समाज की शोकांतिका, भारतीय संस्कृति के मूलभूत कुटुंब-मूल्यों के विघटन तथा इस सबके बीच विलुप्त होते जा रहे मनुष्यत्व को खोज लाने की बेचैनी ज्ञानचंद मर्मज्ञ के निबंधों में बार-बार झलकती है; और पाठक को सोचने के लिए मजबूर करती है कि आने वाली पीढ़ियों को यदि हम बेहतर कल सौंपना चाहते हैं तो हमें अपने आज को उदार मानवीय मूल्यों के सहारे परिष्कृत और परिमार्जित करना होगा। इस कार्य में साहित्यकारों की बड़ी भूमिका हो सकती है; लेकिन यदि साहित्यकार यश, अर्थ, उपाधि और पुरस्कार के पीछे ही दौड़ते रहें, तो उनसे ऐसी उम्मीद नहीं की जा सकती। इसलिए ज्ञानचंद मर्मज्ञ चाहते हैं कि साहित्यकार पहले अपने जीवन में औदात्य का समावेश करें और तब समाज को उच्च मनोभूमि की दिशा में प्रेरित करें ताकि उनका साहित्य पाठकों के मन के मर्म स्थलों को छू सके। स्वयं लेखक का भी प्रयास यही है और कहना न होगा कि इसमें उन्हें सफलता प्राप्त हुई है क्योंकि उनकी अपनी कथनी और करनी में कोई फर्क नहीं है।

कहने को बहुत बातें हैं, लेकिन उन्हें लोकार्पण के अवसर के लिए बचाकर रखता हूँ। फिलहाल ‘खूँटी पर आकाश’ के प्रकाशन के अवसर पर मैं लेखक को हार्दिक बधाइयाँ देता हूँ। मुझे पूरा विश्वास है कि यह कृति उनके यश को चतुर्दिक प्रसारित करने वाली सिद्ध होगी।

1 जनवरी, 2019                                                                         - ऋषभदेव शर्मा