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बुधवार, 30 सितंबर 2015

[भूमिका] कविता लिखती हूँ मैं, जैसे फूल उगाती हूँ मैं

भूमिका 

क्षणिकाओं अथवा मुक्तकों के अपने इस नए संकलन 'धड़क रहा सागर बूँद में' [2015] के साथ कवयित्री शशि कोठारी [1962] एक बार फिर अपने पाठकों के सामने हैं. वैसे इनमें से अधिकतर रचनाओं को वे फेसबुक पर भी प्रस्तुत कर चुकी हैं और वहाँ इन्हें पर्याप्त प्रशंसा मिली है. लघु आकार की इन रचनाओं से उनका जो कवि व्यक्तित्व उभरता है वह जागतिक चिंताओं से मुक्त ऐसे प्रेमी का व्यक्तित्व है जो अपने प्रेमपात्र को आराध्य, या आराध्य को प्रेमपात्र, मानता है. यह प्रेमपात्र या आराध्य बुद्धों, सूफियों और भक्तों का वह परमात्मा है जो आत्मा में ही रहता है पर अलग दीखता है; और जब दिख जाता है तो अलगाव नहीं रहता – अद्वैत घटित हो जाता है. शशि कोठारी की ये कविताएँ ‘प्रिय के साथ अद्वैत’ (चाहत प्रिय अद्वैतता : बिहारी) साधने की विविध दशाओं – प्रेम, समर्पण, पात्रता, भक्ति, आत्मविसर्जन, तल्लीनता, सायुज्य आदि - की ही सहज अभिव्यक्तियाँ हैं. शिल्प की दृष्टि से कहीं ये अनगढ़ भी प्रतीत हो सकती हैं लेकिन इनका सौंदर्य इस सहजता में ही निहित है – अकृत्रिम आत्मस्वीकृतियों में!

अपनी प्रेमाभक्ति की गोपन-अगोपन अनुभूतियों को शशि ने सहज संप्रेषणीय प्रतीकों और बिंबों में बाँध कर प्रकट किया है. इसके लिए बहुत बार वे समान उपादानों का सहारा लेती हैं और सूक्तियां गढती हैं – स्व रस से बढ़कर कोई रस नहीं/ मौन से कर्णप्रिय कोई शब्द नहीं/ साक्षीभाव से बढ़कर कोई भाव नहीं/ स्थितप्रज्ञ से बढ़कर कोई स्थिति नहीं. इसी तरह जब वे कमल और कीचड के बहाने अस्तित्व और माया के संबंध की बात करती है तो समानता को ही उभारती हैं. इसके विपरीत वे अभिव्यक्तियाँ हैं जहाँ द्वंद्व या विरोध का सहारा लिया गया है. ऐसे स्थलों पर भीतर-बाहर, स्व-पर, तृष्णा-तृप्ति, रत्न-कांच, दुःख-सुख, उजाला-अँधेरा, सूर्य-छाया, बिखरना-सिमटना, धरती-आकाश, स्थूल-सूक्ष्म, असीम-क्षुद्र और अनंत-क्षणभंगुर के बीच का तनाव पाठक को वैचारिक सामग्री प्रदान करता है.

कथन को विश्वसनीय और प्रभावी बनाने के लिए कवयित्री ने द्रष्टांत, प्रश्न और उद्बोधन की भाषिक युक्तियों का भरपूर इस्तेमाल किया है. स्व से अनजान होने के कारण पर से बंधे रहने को वे भीतर से अनजान होने के कारण बाहर भटकने के द्रष्टांत द्वारा समझाती हैं तो तिल में तेल और कुंडली में कस्तूरी होने के संदर्भ याद आने लगते हैं. प्रश्न उन्होंने स्वयं से भी किए हैं, पाठक से भी और प्रिय से भी – मन भीतर जाए कैसे?/ आँखों में जब फूल ही फूल हैं, फिर बहार क्या और पतझड़ क्या?/ बंध कर किसी घट से, यह दरिया रहे कैसे?/ हमें भला किस तरह छुओगे तुम?/ ऊपर उठ गए अब, कीचड में फिर धंसें क्यों?/ आत्मा हूँ मैं, फिर नारी बन क्यों सह गई? इसी प्रकार उद्बोधन भी अपने और पाठक दोनों के लिए हैं – प्यार का रस बड़ा मीठा, पर स्व का रस पियो तो जानो./ माया में उलझो नहीं, ऊपर उठ जाओ./ पुकारो, पूरी शिद्दत से पुकारो. संबोध्य जब प्रिय हो तो बात कुछ ऐसे बनती है – मैं खो जाऊँ तो तुम मिल जाओ / मैं मर जाऊँ तो तुम जन्म लो. बेशक, ‘मैं’ का खोना ‘तुम’ के मिलने की शर्त है. पर स्त्री मन इससे आगे जाता है, वह अपने गर्भ से ‘तुम’ को जनना चाहता है. 

आत्मसाक्षात्कार और आत्मबोधन के अवसरों पर रचनाकार का स्त्री मन खुल कर व्यक्त हुआ है. प्रकृति-पुरुष का मिथक ऐसे में बड़े काम का सिद्ध होता है. मैं एक स्पंदन-धडकन-थिरकन-पुलकन हूँ, मैं फूल-पंछी-कंगन-कुंदन बन महक-चहक-खनक-दहक गई हूँ, सागर-मौन होकर भी मैं लहर-शब्द बन क्यों उछल-फिसल गई? मेरा कुछ बह गया है, मेरा कुछ ठहर गया है, ठहरा मैं बहते मैं को देख रहा है, प्यार धीरज और विश्वास से./ मैं नाजुक बेलिया, तुम सुदृढ़ दरख़्त, बेल बलवती होती गई, दरख़्त पिघलने लगा./ चाँद को चाँद की आस है. इस अद्भुत प्रणयलीला का चरम उत्कर्ष यह है - तूने अपना सर्वस्व मेरे नाम किया, मैं भी अपना स्नेह तुम पर बरसाना चाहूँ, और यह कहकर उतर गया सागर बूँद में, अहो! नन्ही बूँद मिटी नहीं, आप सागर बन गई. पर इस फलागम तक पहुँचने के लिए पात्रता हासिल करनी पड़ती है. परंपरित पुरुष-सोच समर्पण से पहले पवित्रता माँगता है – देह पवित्र नहीं, मन पावन नहीं, कैसे करूँ प्रभु, भजन मैं तेरा? अपावनता का कारण भी साफ़ है – तुम्हारी दृष्टि तो सदा मुझ पर थी, मेरी ही नज़र संसार पर टिकी रही. दृष्टि पलटते ही मिलन घटित हो जाता है; आग और पानी का मिलन – तुम आग हम पानी, बड़ा खूबसूरत यह मेल है, खुद में मर कर तुम में जीती हूँ, कितना खूबसूरत यह खेल है. शायद प्रेमियों का मोक्ष इसी तरह होता है कि – धड़क रहा सागर बूँद में, समा गया आकाश घट में, मुझमें वही समाया है, जी रहा वही मुझमें.

हर रचनाकार से उसके सृजन का प्रयोजन पूछा जाता है. कोई और पूछे न पूछे उसका मन तो पूछता ही है. शशि कोठारी ने इस प्रश्न का उत्तर कुछ इस तरह दिया है – कविता लिखती हूँ मैं, जैसे फूल उगाती हूँ मैं, किसी का घर महके न महके, मेरा घर तो महक ही जाता है. कवयित्री ने यह भी स्वीकार किया है कि – आप ही कवयित्री भी मैं, कविता भी मैं ही. रचनाकार और रचना की यह अद्वैतता भी प्रिय-अद्वैतता का ही एक रूप है. यहाँ आकर कवि और कविता, प्रेमी और प्रेम, अस्तित्व और सृजन एक हो जाते हैं – अब तो बस यही चाहूँ, जीवन कविता बन निखर जाए. 

जीवन और कविता के एक होने की यह कवि-कामना चरितार्थ हो; यह शुभकामना करते हुए मैं इस कृति के प्रकाशन पर शशि जी को हार्दिक बधाई देता हूँ.


21 सितंबर 2014                                                                                                        - ऋषभ देव शर्मा