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शुक्रवार, 24 मार्च 2017

मिल जाएँ दो पानियों जैसे : तेलुगु काव्य 'शुकोपनिषद' की भूमिका

मिल जाएँ दो पानियों जैसे


वैयक्तिकता और निजी अस्मिता के चरम विस्फोट के इस दौर में जो सामाजिक संस्था सर्वाधिक विचलित हुई दिखाई देती है, वह है विवाह व्यवस्था. भारतीय समाज की नींव माने जाने वाले परिवार के हिलने से इस समाज-सभ्यता की पूरी संरचना काँपने लग गई है. विदेशी आर्थिक चकाचौंध इस खतरे को और बढ़ा देती है. ऐसे में साहित्य की ज़िम्मेदारी बनती है कि वह लोक को मंगलकारी श्रेयस्कर मार्ग पर चने के लिए प्रेरित और प्रवृत्त करे. इस उदात्त विषय को अभिव्यक्त करने के लिए ऐसे साहित्यकार की आवश्यकता है जो भारतीय परिवार-संस्कृति के उच्च आदर्शों और जीवनमूल्यों से अनुप्रेरित और अनुप्राणित हो. समकालीन तेलुगु साहित्य के अग्रणी हस्ताक्षर डॉ. मसन चेन्नप्पा ऐसे ही उदारमना कवि हैं.  

प्रस्तुत काव्यशुकोपनिषद’ में डॉ. मसन चेन्नप्पा ने आस्ट्रेलिया की अपनी साहित्यिक यात्रा के बहाने, भारतीय साहित्य की शुक-संवाद की काव्यरूढि का सहारा लेकर भारतीय विवाह पद्धति की व्याख्या करके, वहाँ जाकर एक दूसरे से अलग रह रहे पति-पत्नी के मन में परिवार के प्रति निष्ठा की पुनर्स्थापना की संक्षिप्त सी गाथा लिखी है. मूलतः इतिवृत्तात्मक और उपदेशात्मक कथन में रोचकता की सिद्धि के लिए कवि ने यह मनोरंजक फैंटेसी गढ़ी है कि आस्ट्रेलिया में कवि को ऐसा तेलुगुभाषी शुक-शुकी युगल मिल जाता है जो अपने पालक दंपति के एक दूसरे से अलग हो जाने के कारण आश्यहीन हो गया है. संयोगवश वह दंपति कवि से मिलने और उसका व्याख्यान सुनने वालों में शामिल है. बस यह बोध होते ही कवि भारतीय परिवार व्यवस्था और विवाह पद्धति के प्रतीकों की व्याख्या करके उन पति-पत्नी के अहं को पिघलाने में सफलता प्राप्त कर लेता है. वे दोनों पुनः मिल जाते हैं और लोक कथाओं के दंपतियों की सुखमय जीवन व्यतीत करते हैं.

इस प्रकार, इस सुखांत कथा-काव्य में यह प्रतिपादित किया गया है कि भारतीय दृष्टिकोण के अनुसार विवाह अथवा स्त्री-पुरुष संबंध कोई बंधन, समझौता या अनुबंध नहीं है, बल्कि एक ऐसा संस्कार है जिसके माध्यम से स्त्री और पुरुष आदिम दैहिक आवेगों का उदात्तीकरण  करके मानसिक, आत्मिक, सामाजिक और नैतिक धरातलों पर परस्पर समर्पण द्वारा समरसता की प्राप्ति हेतु इस प्रकार एक दूसरे से मिलते हैं जिस प्रकार भिन्न दिशाओं से आने वाली जलधाराएँ एक दूसरे में विलीन हो जाती हैं. पारस्परिक सम्मान और परिवार के प्रति साझा दायित्व उन्हें सदा जोड़कर रखता है. अहं और वर्चस्व इस व्यवस्था के ऐसे शत्रु हैं जो किसी भी हँसते-खेलते परिवार को तिनका-तिनका बिखरा सकते हैं. अतः पति-पत्नी को सत्ता के संघर्ष जैसी स्थिति से बचकर बराबरी, साझेदारी और जिम्मेदारी के बलपर विवाह और परिवार की रक्षा करनी होती है. कहना न होगा कि इस औदात्य की कमी होते जाने के कारण ही आज परिवार विखंडित और विघटित हो रहे हैं. यह कृति  पाठकों को परिवार से जुड़े उदार मूल्यों को अपनाने और अपने मानस को संस्कारित करने की सत्प्रेरणा दे सकेगी, ऐसी आशा की जानी चाहिए.

तेलुगु के इस संक्षिप्त कथा-काव्य को हिंदी जगत के सम्मुख प्रस्तुत करने का स्तुत्य कार्य वरिष्ठ हिंदी-तेलुगु-हिंदी काव्यानुवादक डॉ. एम. रंगय्या ने अत्यंत निष्ठापूर्वक किया है. यह कृति मूल कवि और अनुवादक दोनों के लिए यशस्कारी हो, इसी शुभेच्छा के साथ ...
-         ऋषभदेव शर्मा
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गुरुवार, 23 मार्च 2017

(भूमिका) चुप रहूँ ... या बोल दूँ : प्रवीण प्रणव


चुप रहूँ ... या बोल दूँ / प्रवीण प्रणव/ गीता प्रकाशन, हैदराबाद/ 2017/ 149 रुपए/ पेपरबैक : 136  पृष्ठ 

भूमिका 

आपने कहा है तो मान जाता हूँ 
चलिए हामी में सर हिलाता हूँ 

दरिया मिलता है यूँ तो समंदर से 
मैं अश्कों को पानी में मिलाता हूँ ...

ज़रा मुश्किल तो है पर बच्चों को 
सूखी रोटी ख़्वाबों संग खिलाता हूँ 

बहुत खुश हैं सब कारखाने गिन के 
खेत ये सरसों के थे, मैं गिनाता हूँ

प्रवीण प्रणव अपनी इस नई काव्यकृति ‘चुप रहूँ.. या बोल दूँ’ के माध्यम से हमारे समय की बहुत सी चिंताओं के साथ-साथ व्यक्ति-मन की गहराइयों की खोज-खबर लेकर आ रहे हैं. इस कृति में मुख्य रूप से उन्होंने अपनी ग़ज़लों को शामिल किया है. साथ ही कुछ गीत और नज़्में भी हैं. हालाँकि वे इन विधाओं के परंपरागत अनुशासन का पूरी तरह पालन करने का कोई दावा नहीं करते, फिर भी इसमें शक की गुंजाइश नहीं है कि विभिन्न कव्यविधाओं के शिल्प पर उनकी अच्छी पकड़ है, और अगर कहीं वे कुछ तोड़-फोड़ करते दिखाई देते हैं तो उसका कारण अनुशासनहीनता नहीं बल्कि कथ्य को शिल्प से अधिक महत्त्व देने की ज़िद है. 

प्रवीण प्रणव के कथ्य का बड़ा हिस्सा उस द्वंद्व ने घेर रखा है जो बड़ी सीमा तक आज के भारतीय युवा मानस का द्वंद्व है – चुप रहूँ या बोल दूँ! हम एक ऐसे समय में जी रहे हैं जब बहुत बार ऐसी इच्छा होती है कि सब कुछ बोल दिया जाए, चीख कर बोल दिया जाए, खुलेआम बोल दिया जाए; लेकिन उसी क्षण यह भी बोध होता है कि बोलने का कोई अर्थ नहीं रह गया है क्योंकि उसका कोई प्रभाव होने वाला नहीं. यह द्वंद्व वैयक्तिक संदर्भ में भी उतना ही सच है जितना सामाजिक संदर्भों में. प्रवीण प्रणव का यह द्वंद्व शायद हर रचनाकार का द्वंद्व हुआ करता है. कभी किसी महाकवि को यह शिकायत होती है कि मैं बाँहें फैला-फैला कर लोगों को आगाह किए जा रहा हूँ और लोग हैं कि सुनते ही नहीं. किसी अन्य कवि को यह विश्वास व्यक्त करना पड़ता है कि अनंत काल और असीम पृथ्वी पर कभी तो कहीं तो कोई मेरा समानधर्मा होगा और मेरी बात समझेगा. किसी और कवि को लगता है कि कविता का प्रभाव होने में पूरा जीवन निकल सकता है तो किसी अन्य को यह संतोष रहता है मैंने तो अपना संदेश दे दिया चाहे वह जहाँ तक पहुँचे. अभिप्राय यह है कि प्रवीण प्रणव अपने रचनाकर्म की सार्थकता और कृतार्थता तलाश रहे हैं. यह तलाश ही किसी रचनाकार को सक्रिय रचनाधर्मी बनाती है और वह निजता के कोनों-अंतरों में झाँककर; और जगत की विसंगतियों को उभारकर भी; ‘आज’ से बेहतर एक ‘कल’ की रचना करना चाहता है. कहना न होगा कि प्रवीण आज के अंधेरों से जूझकर कल के लिए किरणें खोज लाने की कोशिश करने वाले कवि हैं. 

जूझ और खोज की मनोवृति के कारण कवि प्रवीण प्रणव में एक ख़ास तरह की प्रश्नाकुलता दीखती है. वे जब यह पूछते हैं कि मैं खामोशी ओढ़े रहूँ या सारे रहस्यों पर से परदे उठा दूँ, तो लोकतंत्र का नाटक कर रही तानाशाही व्यवस्थाओं के बीच अभिव्यक्ति के संकट को बहुत सहज ढंग से व्यक्त कर देते हैं. यह न समझा जाए कि कवि किसी असमंजस में है या उसे कर्तव्य-अकर्तव्य की पहचान नहीं. दरअसल उसके प्रश्न लाक्षणिक रूप में उत्तर भी हैं. कवि जब प्रश्न करता है कि बच्चों को राजा-रानी की कपोलकल्पनाएँ दूँ अथवा यह बताऊँ कि भविष्य किस कदर धुंधला है, तो हमें समझ जाना चाहिए कि वह कल्पना के ऊपर यथार्थ को तरजीह देने वाला कवि है. जनता सीधे जवाब माँगती है और राजनीति गोलमोल जवाबों को प्राथमिकता देती है, इस द्वंद्व से हमें कवि का व्यंग्य समझ लेना चाहिए कि वह जनता का पक्षकार है, सत्ता का चाटुकार नहीं. दहशत और मासूमियत के बीच वह शिशुसुलभ सरलता को संभव बनाने वाला रचनाकार बनना चाहता है – नन्हें बच्चे हैं सिहरे हुए, बेचैनी हवाओं में है घुली हुई / काश कहीं से मासूमियत लाके, फिजाओं में मैं घोल दूँ. यह कवि की इच्छा भी है, संकल्प भी और कृतार्थता भी. इस कविता संग्रह की प्रथम रचना में अभिव्यक्त यह शिव-संकल्प वस्तुतः संपूर्ण कृति में परिव्याप्त है – पाठक इसे स्वयं महसूस करेंगे. 

कवि प्रवीण प्रणव राजनैतिक दुरभिसंधियों में घिरे जन-गण-मन की पीड़ा को अनेक प्रश्नों, उद्बोधनों, प्रतीकों और बिंबों के माध्यम से रूपायित करते हैं. यद्यपि वे स्वयं सौंदर्य के चितेरे हैं, फिर भी उन्हें विश्वास है कि केवल सौंदर्य को देखना सचाई को आधा देखना है, पूरी सचाई को देखे बिना उस विद्रूपता का अंकन नहीं किया जा सकता जो किसी भी कलाकार के समक्ष चुनौती खड़ी किया करती है. यही कारण है कि कवि प्रवीण प्रणव बार-बार अँधेरे और मौत के इलाके में भी अपने पाठक को ले जाते है. इस इलाके में भूख, बेकारी और विनाश का ऐसा तांडव है कि साल भर की मेहनत के बावजूद कपास उगाने वाला किसान फाँसी की रस्सी तक के लिए तरस जाता है – अब मुट्ठी भर फसल हाथ में लिए सोचता है/ तन ढकने को कपड़ा तो बन न सकेगा इससे/ इतने में तो फाँसी की रस्सी भी न बनेगी/ एक और साल जीना पड़ेगा अब ठीक से मरने के लिए. 

‘ग़मे दौराँ’ तक ही महदूद नहीं है प्रवीण प्रणव की कविता की दुनिया. ‘ग़मे जानाँ’ को भी उन्होंने शिद्दत्त से, और बखूबी, बयान किया है. मीलों चले थे साथ हम, अब तन्हाइयों का सफ़र है ये/ दर्द से रिश्ता तेरा-मेरा एक सरीखा लगता है/ वो मुझसे दूर रहता तो शायद बावफ़ा रहता/ शब भर तेरी आँखों में सहर दिखता रहा मुझको/ गाँव के घर ने मुझे बड़ी हसरतों से पाला था/ हमसफ़र है कि नहीं खुलके बता तो दे/ कभी सोचा न था कि इश्क में ये दिन भी आएगा/ खामोश रह जाने की सज़ा ही पाई है तूने चकोर/ चाँद ने किया है वादा लौट के फिर आने का/ हँसता हूँ कि आइना टूटा हुआ न लगे/ कुछ तो राबता रख मुझसे, मोहब्बत न सही कुछ और सही / मैं पढ़ लूँ आखिरी कलाम फिर तुम चले जाना – जैसी अभिव्यक्तियाँ कवि की गहन निजी अनुभूतियों का पता देती हैं. 

‘चुप रहूँ.. या बोल दूँ’ के प्रकाशन पर मैं कवि प्रवीण प्रणव को हार्दिक बधाई देता हूँ और शुभकामना करता हूँ कि यह कृति उन्हें शुभ्र यश का भागी बनाए!


28.2.2017.                                                                                                          - ऋषभदेव शर्मा

मंगलवार, 21 मार्च 2017

प्रयास 2016 : हिंदी भाषा एवं शिक्षण : बीज भाषण






न्यू होराइजन कॉलेज, बेंगलूरु (कर्नाटक) में 29 जनवरी, 2016 को ''हिंदी भाषा एवं शिक्षण'' विषय पर एकदिवसीय संगोष्ठी हुई थी. 

मुझे उसमें बीज भाषण करने का अवसर मिला था. 

हिंदी विभाग की अध्यक्ष और संगोष्ठी संयोजक डॉ. नीलिमा दुबे के संपादकत्व में उस संगोष्ठी के सभी भाषण और शोधपत्र ''प्रयास 2016'' (आईएसबीएन - 9788191074840) के रूप में प्रकाशित हुए हैं. 

उन्होंने एक घंटे के मेरे बीज भाषण का सार-संक्षेप भी इसमें सम्मिलित किया है जो यहाँ साभार सहेजा जा रहा है.



मंगलवार, 14 मार्च 2017

सैर `कथाकारों की दुनिया' की

- डॉ. सुपर्णा मुखर्जी, हैदराबाद
`कथाकारों की दुनिया' [2017] डॉ. ऋषभदेव शर्मा [1957] की ओर से पाठकों को दिया गया एक और नायाब उपहार है. संपूर्ण पुस्तक 6 खंडों में विभक्त है. पहले दो खंडों में लेखक ने जहाँ हिंदी उपन्यासों और उपन्यासकारों की दुनिया की सैर कराई है, वहीं तीसरे और चौथे में वे अपने पाठक को कहानीकारों और लघुकथाकारों की दुनिया के कोनों-अंतरों से रूबरू कराते हैं. पाँचवाँ खंड तेलुगु तथा छठा खंड तमिल के कथाकारों की भोगी और सिरजी दुनिया से हमारा परिचय कराते हैं जो इस पुस्तक की प्रासंगिकता का विशिष्ट आयाम है. इस प्रकार, पहले 4 खंडों में हिंदी कथा साहित्य का तो परिशीलन-अनुशीलन किया ही गया है लेकिन अंतिम 2 खंडों में तेलुगु और तमिल कथाजगत का भी परिभ्रमण किया गया है. यही वह खास बात है जो इस पुस्तक को औरों की तुलना में खास बनाती है. हिंदी पाठक को तमिल के कहानी साहित्य के उद्भव और विकास के बारे में पढ़कर भारतीय साहित्य की मूलभूत चिंताओं का जैसा बोध इस पुस्तक का अंतिम आलेख द्वारा होता है, उससे हमारी साहित्यिक-आत्मा का विस्तार होता है. ऐसे प्रयास अन्य भारतीय भाषाओँ के साहित्येतिहास के संदर्भ में होने आवश्यक हैं.

प्रेमचंद का नाम किसने नहीं सुना है. प्रेमचंद का नाम लेते ही किसान जीवन की त्रासदी आँखों के सामने घूम जाती है, दरिद्र किसान की बेचारी पत्नी और अर्द्धनग्न बच्चों का चेहरा याद आता है. तो क्या केवल इसलिए प्रेमचंद का नाम अमर है? क्या इतना ही काफी है प्रेमचंद को प्रासंगिक मानने के लिये? निश्चय ही उत्तर है -`नहीं'. किसान जीवन के अलावा भी प्रेमचंद के पास कहने के लिये बहुत कुछ था. उन्होंने कहा भी है. लेखक हमें प्रेमचंद की दुनिया में विद्यमान स्त्री से मिलवाता है. प्रेमचंद की दुनिया में "नारी की सहिष्णुता का गुणगान किया गया है xxx जहाँ कहीं वे परंपरागत भारतीय नारी की पृथ्वीवादी इमेज से बाहर निकले हैं, वहाँ उन्होंने स्त्री द्वारा नीच पति की खुशामद न करने की दृढता भी प्रकट की है xxx प्रेमचंद की नारी दृष्टि को यदि एकसूत्र में बाँधना हो तो कहा जा सकता है कि प्रेमचंद की दुनिया में स्त्री न तो दासी है और न देवी, वियोगिनी है न प्रतियोगिनी; वह सबसे पहले सहचरी और माँ है."(शर्मा, ऋषभदेव. (2017). कथाकारों की दुनिया. भारत, नई दिल्ली : तक्षशिला प्रकाशन. पृ. 42).

`विवाह' संस्था भारतीय संस्कृति और सभ्यता के अंतर्गत महत्वपूर्ण स्थान रखती है. बदलते परिवेश तथा प्राचीन परिवेश में भी `विवाह' को लेकर अनेक समस्याओं जैसे दहेज प्रथा, अनमेल विवाह, बहुविवाह, विवाह विच्छेद आदि को देखा जा सकता है. लेकिन इन सब समस्याओं के बाद भी प्रेमचंद "विवाह को एक ऐसा समझौता और समर्पण मानते थे जिसके संपन्न हो जाने के बाद उससे मुक्त होना अनैतिक है." (वही. पृ. 40). लेखक के अनुसार ,"विवाह को वे (प्रेमचंद) समझौता अवश्य मानते हैं, परंतु यह भी कहते हैं कि पुरुष पर अवलंबित होने के कारण स्त्री को पराधीनता का दंश भोगना पड़ता है. `मंगलसूत्र' में संपत्ति पर कानूनी अधिकार न होने के कारण स्त्री की दुर्दशा का चित्रण किया गया है. इस उपन्यास की पुष्पा मुखर और प्रखर है. वह संपत्ति संबंधी गलत परंपरा पर चोट करते हुए कहती है-"अगर मैं तुम्हारी आश्रिता हूँ, तो तुम भी मेरे आश्रित हो. मैं तुम्हारे घर में जितना काम करती हूँ, उतना ही काम दूसरों के घर में करूँ तो अपना निर्वाह कर सकती हूँ या नहीं? बोलो. तब मैं जो कुछ कमाऊँगी वह मेरा होगा. यहाँ मैं चाहे प्राण भी दे दूँ पर मेरा किसी चीज़ पर अधिकार नहीं. तुम जब चाहो मुझे घर से निकाल सकते हो." (वही. पृ. 41).

"`कथाकारों की दुनिया' के लेखक की मान्यता है कि एक दुनिया कथाकार को मिलती है, जिस पर उसका कोई वश नहीं होता और एक दुनिया वह रचता है, जिस पर उसका शासन चलता है."(देवराज, दो शब्द. शर्मा, ऋषभदेव. (2017). कथाकारों की दुनिया. भारत, नई दिल्ली : तक्षशिला प्रकाशन. पृ.V). इसके अनुरूप कथाकारों के निजी परिवेश के साथ-साथ लेखक ने कथाकारों के द्वारा रचित दुनिया के कोने-कोने को खंगाला है. उदाहरण के लिए, यह पुस्तक हमें पात्रों के मनोविश्लेषण के बहाने जैनेंद्र जैसे कथाकार की दुनिया से भी भली भाँति परिचित कराती है.

विवाह जब भारतीय समाज का इतना महत्वपूर्ण अंग है फिर उसे लेकर इतनी समस्यओं को क्यों देखा जाता है? इस प्रश्न का उत्तर तेलुगु उपन्यासकार कानेटि कृष्णमूर्ति `मीनन' के तेलुगु उपन्यास `क्रतु' में मिलेगा. "इस उपन्यास में यह तथ्य भी उभरकर सामने आता है कि विज्ञान की दुनिया पर भावनाओं की दुनिया की नैतिकता लागू नहीं होती. परंतु जब स्त्री-पुरुष संबंधों से लेकर शिशु जन्म तक में विज्ञान का हस्तक्षेप होता है तो वैयक्तिक जीवन से लेकर सामाजिक मर्यादाओं तक की चूलें हिल जाती हैं."(शर्मा, ऋषभदेव. (2017). कथाकारों की दुनिया. भारत, नई दिल्ली : तक्षशिला प्रकाशन पृ.363). साथ ही, इस महत्वपूर्ण जानकारी को हिंदी जगत तक पहुँचाने का श्रेय डॉ. ऋषभदेव शर्मा और उनकी पुस्तक ‘कथाकारों की दुनिया’ को जाता है कि "आत्मप्रचार से दूर रहकर निरंतर साहित्य सेवा में रत रहे कथाकार मीनन के इस पर्याप्त चर्चित तेलुगु उपन्यास का हिंदी में जी.परमेश्वर ने अत्यंत मनोयोगपूर्वक अनुवाद किया है." (वही. पृ. 364).

`काम' भावना मनुष्य की आदिम भावना है. यह मनुष्य की व्यक्तिगत आवश्यकता होने के साथ-साथ संसार के विकास चक्र को बढाने के लिए सामाजिक आवश्यकता भी है. लेकिन यही भावना अनैतिक रूप धारण कर ले तो एड्स किसी भी व्यक्ति के जीवन को `इमारत के खंडहर' का रूप प्रदान कर सकता है. तेलुगु कथाकार सैयद सलीम के उपन्यास `नई इमारत के खंडहर' के विवेचन के रूप में लेखक ने हिंदी पाठकों की दुनिया को एक उत्कृष्ट उपहार प्रदान किया है.

जीवन कब किस मोड़ पर घूमे यह तो किसी को नहीं पता. ऐसे में बदलते समय के परिदृश्य में मनुष्य की कुछ अतृप्त आकांक्षाएँ-वासनाएँ क्या हमेशा ही नाजायज और टुच्ची कहला सकती है. ‘कथाकारों की दुनिया’ कहती है - `नहीं'. स्त्री-पुरुष दोस्त हो सकते हैं, विवाहेतर संबंध भी पवित्र हो सकता है. असल में परिस्थितियों की जाँच-पड़ताल करना आवश्यक है और उससे भी अधिक आवश्यक है किसी भी व्यक्ति की व्यक्तिगत स्वतंत्रता का हनन न करना. अनामिका के उपन्यासों में यह बात पाई जाती है. "लेखिका ने विवाहेतर संबंधों को सदा हेय और घृणित मानने की पुरुषवादी मानसिकता का भी प्रत्याख्यान किया है."(वही. पृ. 96). ‘अवांतर कथा’ की नायिका वसुंधरा के वैयक्तिक मतामत को इस संदर्भ में देखा जा सकता है-"आसक्ति हमेशा टुच्ची हो, जरूरी तो नहीं. उदात्त और परिष्कृत, गंभीर और व्यापक प्रेम इतना नायाब तो नहीं. फिर लोगों को विश्वास करते इतनी देर क्यों लग जाती है कि स्त्री और पुरुष का संबंध विवाह के पार भी शुभ और सच्चा हो सकता है."(वही. पृ. 96).

`कथाकारों की दुनिया' ने बहुत स्पष्ट रूप में इस सच्चाई को सबके सामने रखा है कि "इक्कीसवीं सदी की स्त्री अपने अधिकारों और अपनी अस्मिता की चाह को सुदृढ बनाने के लिये तत्पर है. समान शैक्षिक अवसर और समान आर्थिक स्वावंबन के अपने अधिकार के लिए वह समाज, घर और परिवार से टकराने में पीछे नहीं हट रही है." (वही. पृ.93). लेकिन ‘’इसका अर्थ यही नहीं कि उसे पुरुषविहीन दुनिया चाहिए. नहीं, उसे ऐसी शोषणविहीन, सुंदर और समन्वित दुनिया चाहिए जिसमें स्त्री-पु रुष का भेदभाव न हो."(वही. पृ. 93).

आज के `कथाकारों की दुनिया' में हर एक विषय को लेकर विमर्श की एक परंपरा निकल पड़ी है. यह विमर्श प्रायः नारेबाज़ी, आरोप-प्रत्यारोप को लेकर ही शुरू होता है. लेकिन डॉ. शर्मा ने अपनी पुस्तक में कहीं भी नारेबाजी करनेवालों या विमर्श के नाम पर ख्याली पुलाव बनानेवालों को स्थान नहीं दिया है. उन्होंने लीक से हटकर बिना फतवेबाजी के निराला की रचना `कुल्लीभाट' को समलैंगिक विमर्श के संदर्भ में स्थापित किया है. "सोलह साल की अवस्था में निराला गौने के बाद पत्नी को लिवा लाने ससुराल गए तो डलमऊ स्टेशन पर उतरते ही इक्का-मालिक कुल्ली से उनकी मुलाकात हुई और सास की नसीहत के बावजूद दोनों में शीघ्र घनिष्ठता हो गई. कुल्ली यौन विकृति का शिकार था. उसने एकांत में निराला के प्रति अपने आकर्षण को व्यक्त भी किया."(वही. पृ. 115). डॉ. शर्मा बताते हैं कि सन् 1939 में रचित लघु उपन्यास ‘कुल्लीभाट’ आत्मकथा और संस्मरण के रंग में रँगा हुआ है. उनके अनुसार `कुल्लीभाट' हिंदी में किन्नर विमर्श अथवा समलैंगिक विमर्श की आहट बहुत शांत तरीके से सुनानेवाला उपन्यास है.

ये तो केवल कुछ विशेष झलकियाँ हैं. लेकिन यह स्पष्ट करने के लिए पर्याप्त हैं कि "कथाकारों की दुनिया' ग्रंथ साहित्य के शोधकर्ताओं के लिए अकादमिक महत्व का तो है ही, साथ ही अध्येताओं के लिये यह हिंदी कथा-साहित्य के अनछुए पहलुओं की ओर गैर-पारंपरिक विचारदृष्टि विकसित करने में सहायक सिद्ध होगा." (वेंकटेश्वर, एम.. अभिमत. शर्मा, ऋषभदेव. (2017). कथाकारों की दुनिया. भारत, नई दिल्ली : तक्षशिला प्रकाशन. पृ.VII).

392 पृष्ठोंवाली डॉ. शर्मा की इस पुस्तक `कथाकारों की दुनिया' में तमिल कहानी के उद्भव और विकासयात्रा की जानकारी भी प्रदान की गई है तथा तेलुगु की कथाकृतियों की भी विवेचना की गई है,. यह इस पुस्तक की अपनी एक निजी विशेषता है जिससे इसकी उपादेयता और संग्रहणीयता बढ़ गई है. 

पुस्तक का नाम : कथाकारों की दुनिया
लेखक : ऋषभदेव शर्मा 
प्रथम संस्करण : 2017
मूल्य : रु.800/-
पृष्ठ : 392 (सजिल्द)
प्रकाशक : तक्षशिला प्रकाशन, 
दरियागंज, नई दिल्ली – 110002.