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शुक्रवार, 29 मार्च 2013

कविता का समकाल -6) स्त्रीपक्षीय कविता के तेवर

कविता का समकाल/ आलोचना/
ऋषभ देव शर्मा/2011/लेखनी/ नई दिल्ली - 110059/
500 
रुपये/ 140 पृष्ठ/
ISBN 9788192082745
कविता के सामाजिक सरोकार का दायरा बड़ा व्यापक है। वह मानवजाति के प्रत्येक प्राणी की चिंता करती है। ऐसे में वह किसी समूह को हाशिए पर छोड़कर नहीं चल सकती। बल्कि हाशिए पर छूटे हुओं को फोकस में लाए बिना वह अपने सरोकार की व्यापकता को सिद्ध नहीं कर सकती। इसीलिए आज की कविता स्त्री और दलित से लेकर जल और पृथ्वी तक की चिंता करती है। इन सबकी उपेक्षा जो की जाती रही, उसकी कुछ तो भरपाई इस तरह हो सकती है। स्त्री को वस्तु बनाकर मनुष्य होने के अधिकार तक से वंचित कर दिया गया, यह मानव इतिहास की सच्चाई है। स्त्रीपक्षीय कविता इसीलिए स्त्री के मनुष्य होने को रेखांकित करती है। यह कविता न तो अनिवार्यतः केवल स्त्री रचनाकारों द्वारा रची गई है और न पुरुषविरोधी ही है। यह तो स्त्री के मानव अधिकारों के लिए आवाज उठानेवाली कविता है। निस्संदेह इस आवाज में स्त्री रचनाकारों का स्वर अग्रणी और प्रखर होना ही चाहिए। 

उल्लेखनीय है कि किसी रचना में निहित बेहतर मानवीय सरोकारों को लेकर हस्तक्षेप करने की काबिलीयत उसके स्त्रीपक्षीय होने की मूलभूत ज़रूरत है। भारतीय स्त्री के संबंध में गढ़े गए मिथों के संदर्भ में स्त्रीपक्षीय चिंतन का मानना है कि ‘नारी की भावशुद्धि‘ की लंबी गाथाएँ पुरुषनिर्मित सीमित मनोकामनाओं का परिणाम हैं। इसी का परिणाम है कि साहित्य में गंभीर स्त्री अंकन जितना कम मिलता है, लाजवंती देवियों की भरमार उतनी ही अधिक है। ऐसी स्थिति का खुलासा करती हुई स्त्रीपक्षीय कविता इस तथ्य को रेखांकित करती है कि घरेलू औरत सिर्फ रोटी नहीं बेलती, यदि उसे समाज चलाने और राष्ट्रनिर्माण का अवसर दिया जाए तो वह अपनी योग्यता प्रमाणित कर देगी और कर भी रही है। (प्रमीला के. पी., औरत की अभिव्यक्ति एवं आदमी का अधिकार, 2004) 

स्त्रीमुक्ति को प्रतिसंस्कृति की पहल बताते हुए लेखिका ने यह प्रतिपादित किया है कि हाशिए में अवस्थित स्त्रियों, बच्चों, मजदूरों, दलितों और प्रवंचितों की विभिन्न प्रकार के अधीशत्व से मुक्ति स्त्रीमुक्ति की चरमपरिणति होगी और इसके लिए स्त्रीपक्षीय कविता का संदेश है - 

‘‘मनुष्यता की रक्षा के लिए 
कहना नहीं, सहना तुरंत बंद कर देना होगा।"
                                               (कात्यायनी) 

स्त्रीकविता के तेवर का यह बदलाव काव्यभाषा के स्तर पर भी दिखाई देता है। इतिहास और परंपरा के हाथों निर्मित सभी भाषाओं में अधीशत्व के लक्षण पाए जाते है। इसीलिए स्त्री भाषा की माँग लिंग-समस्या की अपेक्षा अधिकारों के विनिमय के प्रश्न पर केंद्रित है। स्त्रीकविता इसीलिए प्रभुत्व की भाषा के स्थान पर कर्म की भाषा का विकास कर रही है जिसमें पुरुषवर्चस्ववादी यौन चुटकियों से आक्रांत अभिव्यक्ति को किनारे करके अभी तक अनकहे शब्दरूपों का चयन करने की प्रवृत्ति सामने आ रही है। इस प्रतिभाषा के निर्माण से असली संस्कृति का इजाफा हो रहा है, इसमें दो राय नहीं। 

इस संदर्भ में कुछ कविताओं की चर्चा भी यहाँ अपेक्षित है। ‘थपक थपक दिल थपक थपक‘ (2003 ई., राजकमल प्रकाशन, 1-बी, नेताजी सुभाष मार्ग, नई दिल्ली-110 002) की कविताओं में गगन गिल का स्वर मनुष्यता की ही चिंताओं से अनुप्रेरित है। उन्होंने विषय और भावों से लेकर भाषा और लय तक के चयन में इस कृति के गीतों में नई ज़मीन तोड़ी है। इन रचनाओं की सहजता, वेगशीलता, लोक संस्कृति के प्रति प्रीति, गाँव और प्रकृति की उन्मुक्तता, जूझते रहने की ज़िद तथा जीवन की ऊष्मा हिंदी की स्त्रीकविता के तेवर को परिपुष्ट करने वाली हैं। इस कथन को प्रमाणित करने के लिए ‘निचुड़ा-निचुड़ा‘ को देखा जा सकता है:- 

‘‘निचुड़ा निचुड़ा दिल था री माँ! 
मैला मैला डर था री माँ! 
माथा टुकता काग था री माँ! 
नीला हो गया साँस था री माँ!
 xxx
सूँघा सोती को नाग ने री माँ! 
ले गया वो मेरा श्वास था री माँ!
xxx 
अटक गया मेरा प्राण था री माँ! 
घुमड़ रुकी हर बात भी री माँ!
xxx 
जलता जलता ज़हर था री माँ! 
ऐंठ मुड़ी मेरी आँत थी री माँ! 
जड़ उखड़ गया मेरा मन था री माँ! 
कुचला गया जो एक साँप था री माँ!‘‘ 

गगन गिल की स्त्री का यह निचुड़ा निचुड़ा दिल अपनी अनिवार्य नियति से वाक़िफ है लेकिन अब अकेले रास्ते पर वापस लौटना संभव नहीं। खोल से बाहर निकलते ही नोंचने वाले पंजों, नाखूनों और डंकों के अनुभव के बाद तो शेर के पेट में चलते चले जाना भी मानो आसान हो जाता हो: 

‘‘जाऊँ हूँ जी जाऊँ हूँ 
रस्ते अकेले पे 
लौटे बिना ही कहीं 
दूर चली जाऊँ हूँ 
चुप हूँ जी बहुत चुप 
चाबी फेंक ताले बंद 
सुख में है अपना जी 
भटका करे था बहुत 
बच गई जी बच गई 
किसी घने दुख से 
बच गई 
देखा भले न था 
खोल से गुपचुप बाहर 
उसमें भी नोंच दें थे 
पंजे, नाखून और डंक 
दुनिया बुनिया का क्या जी 
मैल थी, मलाल थी 
आरी चलाती जी पे 
जी का जंजाल थी 
जाऊँ हूँ जी जाऊँ हूँ 
बीहड़ निराले में 
शेर के पेट में ही 
बैठी दूर जाऊँ हूँ।‘‘ 

लोकप्रतीकों और लोककथाओं से अभिव्यक्ति का नया तेवर प्राप्त करती हुई स्त्रीकविता स्त्री के लिए मानव अधिकार का सवाल ज़ोर देकर उठाती है। ‘मैं चल तो दूँ‘ (2005 ई.,सुमन प्रकाशन, 6-1-103/85, अभिनव कालोनी, पद्माराव नगर, सिकंदराबाद -500 025) में संकलित कविता वाचक्नवी की कविताएँ भी इसकी पुरज़ोर गवाही देती हैं। इसमें संदेह नहीं कि कविता वाचक्नवी व्यापक मानवीय सरोकारों वाली कवयित्री हैं। उनके कविता संग्रह में रिश्तों के छीजते जाने की कसक है, प्रणय की सुखद अनुभूतियाँ हैं, एकाकीपन से उपजनेवाले अवसाद का दंश है, सामाजिक विसंगतियों का खुलासा है, उपभोक्तावाद और उत्तर आधुनिकता पर व्यंग्य है, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय राजनीति के मुद्दे हैं, युद्ध से उपजा असुरक्षाभाव और आक्रोश है और साथ ही हैं प्रकृति, परिवेश और घर के विविधवर्णी चित्र। लेकिन जो एक स्वर इन सबमें व्यापता है, वह है - स्त्रीजीवन की मर्मांतक वेदना का स्वर। ‘भूकंप‘ कविता का एक अंश यहाँ द्रष्टव्य है: 

‘‘तुम्हारे घरों की नींव 
मेरी बाँहों पर थी 
अपने घर के मान में 
सरो सामान में 
भूल गए तुम। 
मैं थोड़ा हिली 
तो लो भरभराकर गिर गए 
तुम्हारे घर। 
फटा तो हृदय 
मेरा ही।‘‘ 

कविता ने स्त्री की यातना को कई कोणों से चित्रित किया है। इस संदर्भ में उनकी एक छोटी कविता ‘उसी दिन से‘ इस प्रकार है - 

‘‘जिस दिन 
धुनिये ने 
सेमल की रुई तक को 
धुन डाला 
हवा उसी दिन से 
चिपकी जाती है 
मेरे होठों पर।‘‘ 

अपनी अभिव्यक्ति की खोज करती हुई स्त्रीकविता प्रणय के लिए भी नई भाषा ईजाद करती है - 

‘‘यह सच है, सखे! 
मेरी भाषा की गढ़न 
कविता नहीं लिख सकती, 
वाक् और अर्थ के नियंता 
सुधीजन 
चकला बेलन की चतुर्दिक परिधि में फैले आटे में 
बु़झी तीलियों से 
कविता लिखने के अपराध में 
दंडित भी करेंगे मुझे, 
बवाल भी करेंगे खूब 
पर 
तुम्हारी दाल भात छुई उँगलियाँ 
आटे में उकेरी कविता को बचा लें 
इसी विश्वास से भर 
मैं, तुम्हें 
अपने चौके में बिठा 
अपने हाथों से परोस 
लवण और शक्कर 
सब चखाना चाहती हूँ ....।
 xxx 
बचा सको 
आटे में चींटियाँ लगी कविता को 
तो दाल-भात छुआ अपना हाथ दो, सखे!‘‘
                                                  (व्रतबंध)

लोक और शास्त्र दोनों के प्रतीकों और प्रसंगों का अद्भुत जख़ीरा कविता वाचक्नवी के स्मृतिकोश में विद्यमान है। वे इस सबका उपयोग स्त्री के मानवाधिकार के संघर्ष की कविता रचने के लिए बखूबी करती हैं। ‘मैं चल तो दूँ‘, ‘जल समाधि‘, ‘उत्तरकांड‘, ‘कालपुरुष‘ और ‘गार्गी उवाच‘ में मिथकीय प्रसंगों का नया निर्वचन स्त्रीकविता के खास तेवर को उभारता है: 

‘‘ऋषि! 
तुम भले ही हाँक ले जाओ सब गाय 
और भले ही, तत्वदर्शी होने का 
अहं तुम्हारा 
रहे जीवित 
पर 
आकाश में गूँजते 
तरंगों में लहराते 
विद्युत से कौंधते 
मेरे प्रश्न तो सुनते जाओ। 
शास्त्रार्थ से तुम न दे सकोगे 
इनके उत्तर 
छूट जाएगा सारा दंभ। 
छोड़ दो गउएँ 
मूक प्राणी हैं ..... 
कुछ न कहेंगी 
हकाल ले जाओ भले, 
किंतु मैं 
रोकती हूँ तुम्हारा मार्ग, 
ठहरो .....!! 
प्रश्न तो सुनो, याज्ञवल्क्य!!!‘‘
                               (गार्गी उवाच)

इसी भाँति सविता सिंह के कविता संग्रह ‘नींद थी और रात थी‘ (2005 ई., राधाकृष्ण प्रकाशन, जी-17, जगतपुरी, दिल्ली-110 051) की कविताओं में भी स्त्रीपक्ष व्यापक मानवीय सरोकारों के साथ जुड़कर ही अभिव्यक्त हुआ है। इससे कवित्व को गरिमा मिली है तथा नारेबाजी के सतही मोह से मुक्ति भी। सविता सिंह की कविताएँ ज़ोर देकर स्त्री के सच होने की बात उठाती हैं: 

‘‘चारों तरफ़ नींद है 
प्यास है हर तरफ़ 
जागरण में भी 
उधर भी जिधर स्वप्न जाग रहे हैं 
जिधर समुद्र लहरा रहा है 
दूर तक देख सकते हैं 
समतल पथरीले मैदान हैं 
प्राचीनतम-सा लगता विश्व का एक हिस्सा 
और एक स्त्री है लाँघती हुई प्यास।‘‘
                                          (स्त्री सच है)

स्त्रीपक्षीय कविता देह की राजनीति को भी भलीभाँति समझती है और उसके पैंतरों को नाकामयाब करने पर कटिबद्ध है। ‘जैसे सौंदर्य में स्वायत्त स्त्रियाँ‘ में सविता सिंह आगाह करती हैं कि चमक कई तरह की होती है - आँख की, मन की, आत्मा की और देह की - ठीक उसी तरह जैसे भूख भी कई तरह की होती है - मन की, तन की और ज्ञान की। जो लोग चमक और भूख के सारे प्रकारों को जान लेते हैं वे मीठे जलवाले झरने के पास अपने स्वयं चुने रास्ते से पहुँचते हैं और जीवन की विरल अनंतता को जी पाते हैं और: 

‘‘वे खुश वैसी स्त्रियों की तरह होते हैं 
जो स्वायत्त होती हैं अपने सौंदर्य में।‘‘ 

और तब आता है वह मुकाम ‘जहाँ चट्टानें भाषा जानती हैं‘

‘‘मैं उन सुरम्य घाटियों से गुज़र रही हूँ 
जहाँ चट्टानें भाषा जानती हैं 
ठंड महसूस करती हैं 
सिहरन में इनके भी काँपते हैं होंठ 
हरी काली कहीं 
कहीं बदरंग भूरी 
रंगों के प्रति सजग फिर भी 
जिस्म की ठोस इच्छाओं से बंधी 
प्रकृति की हर आवाज़ को सुनती हैं ये चट्टानें 
एक-एक शब्द बचाती हैं अपने भीतर 
सारे आत्मीय स्पर्श लौटाने के लिए हमें 
मैं उन सुरम्य घाटियों से गुजर रही हूँ 
एक झरना जहाँ बह रहा है 
एक लाल चिड़िया जहाँ मेरा इंतजार कर रही है।‘‘ 

निश्चय ही इस मुकाम पर पहुँचकर कविता की भाषा में स्त्री का मानुषीकरण और प्रकृति का स्त्रीकरण एक दूसरे के पूरक हो जाते हैं।


स्त्रीपक्षीय कविता के तेवर 
'कविता का समकाल'
- ऋषभ देव शर्मा

गुरुवार, 14 मार्च 2013

स्त्रीत्व की गरिमा का परिवार से कोई विरोध नहीं


-   
डॉ. ऋषभ देव शर्मा

या श्रीः स्वयं सुकृतिनां भवनेष्वलक्ष्मीः
पापात्मनां कृतधियां हृदयेषु बुद्धिः I
श्रद्धा सतां कुलजनप्रभवस्य लज्जा
तां त्वं नताः स्म परिपालय देवि विश्वं II

भारतीय वाङ्मय में स्त्री और स्त्रीत्व को चरम गरिमा प्रदान की गई है और यह समझा जाता है कि सभ्य समाज में स्त्री को सब प्रकार से सम्मानपूर्ण स्थान मिलना चाहिए. लेकिन दूसरी ओर इसी देश के सामाजिक आचरण में स्त्री को पशुओं और दलितों की श्रेणी में रखा जाना भी एक कटु सत्य है. इतिहास गवाह है कि सत्ता और वर्चस्व के पुरुष के हाथ में केंद्रित होते जाने से स्त्री को शासित और अबला बनने को मजबूर कर दिया गया. एक ओर स्त्री को साक्षात शक्ति मानना तथा दूसरी ओर किसी असहाय, निरीह, मूक प्राणी ही नहीं अन्य वस्तुओं की भाँति पुरुष द्वारा रक्षा और भोग किए जाने की चीज मानना – समाज के स्त्री विषयक सोच अथवा समाज में स्त्री की स्थिति के परस्पर दो विरोधी प्रतीत होने वाले पक्ष हैं. आशय यह कि लंबी कंडीशनिंग ने हमारे यहाँ स्त्री को बलहीन और अशक्त बना डाला. शक्तिशाली को शक्तिहीन बनाने की अपेक्षा अशक्त को सशक्त बनाना अधिक चुनौतीपूर्ण और कठिन है. इसलिए स्त्रीत्व की गरिमा को पुनर्स्थापित करने के लिए आज सामाजिक अभियान चलाने की जरूरत है.

स्त्रीत्व-गरिमा के इस अभियान की केंद्रीय आकांक्षा यह होनी चाहिए कि समाज के सभी क्षेत्रों में स्त्री के अस्तित्व को मनुष्य के रूप में स्वीकृति प्राप्त हो. स्त्री और पुरुष की ऐसी समानता की व्यावहारिक प्रतिष्ठा आवश्यक है जिसमें स्त्री अन्या, द्वितीयक, गौण, उपेक्षिता अनुगामिनी या अनुचर नहीं, अनिवार्य और सहचर की भूमिका में हो. अर्द्धनारीश्वर, वाक् और अर्थ, साम और ऋक् तथा द्यावापृथिवी जैसे मिथकों के माध्यम से भारतीय संस्कृति ने सभ्यता के आरंभ से ही स्त्री-पुरुष की इस समानता को स्वीकृति प्रदान की है. इसी युग्म-भाव और पारस्परिकता को आधुनिक संदर्भ में प्रतिष्ठित करना आज की ज़रूरत है. शक्ति और शिव के योग संबंधी मिथ को सामाजिक धरातल पर घटित होते देखने की इच्छा को नोस्टेलजिया न समझा जाए क्योंकि यह रूपक गतिशील है जड़ नहीं और इसे अपनाते समय आधुनिक समाज की आमूलचूल परिस्थितियों को ध्यान में रखना होगा. स्त्री और पुरुष – किसी का भी दूसरे पर निर्भर होना या अंश-अंशी होना, आज स्वीकार्य नहीं हो सकता. आज तो दोनों को एक-दूसरे की स्वतंत्रता और अस्मिता का सम्मान सीखना होगा. स्त्री को अबलापन से पैदा होने वाली हीनता ग्रंथि से बाहर आना होगा और वह आत्मबल अर्जित करना होगा जो एक खास तरह की निर्भीकता प्रदान करता है और विकट परिस्थिति में आत्मनिर्णय का प्रतीक भी है. पातिव्रत्य के नाम पर गुडिया बना दी गई सीता, सावित्री, द्रौपदी और राधा के चरित्रों में निहित इस तेजस्विता को पहचानना होगा वे पुरुष की अनुगामिनी छाया मात्र नहीं हैं. वे अपनी सशक्तता को निर्विवाद रूप से प्रमाणित करने में सक्षम हैं. लेकिन स्त्री के अबला रूप की पोषक शक्तियों ने उनकी इस तेजस्विता की उपेक्षा करके उन्हें पति-परमेश्वर की अनुचरी मात्र बनाकर रख दिया. उन्हें जब तक फिर से परमेश्वरी नहीं बनाया जाता, तब तक स्त्री-पुरुष-समता का दावा नहीं किया जा सकता. परमेश्वरी बनाने का अर्थ स्त्री के मानवी रूप की पूर्ण स्वीकृति मात्र है, देवी बनाकर पूजना नहीं.

यह भी सामाजिक-सांस्कृतिक विडंबना ही है कि समाज स्त्री को या तो देवी के रूप में पूजता है या दानवी के रूप में उससे घृणा करता है. स्त्री के ये दोनों ही अतिरंजित रूप न तो सामान्य हैं और न स्वीकार्य. सशक्त स्त्री का अर्थ देवी या दानवी होना नहीं, मानवी होना है जिसमें पुरुष की तरह ही शक्तियाँ भी हैं और दुर्बलताएँ भी. यही मनुष्य की सहज पूर्णता है. मानवी होने के इस नैसर्गिक अधिकार से स्त्री को सभ्यता के किसी असभ्य मोड पर वंचित कर दिया गया और उसका जन्म ही अभिशाप तथा पराधीनता का द्योतक बन गया. जिस मानव-जीव को संपूर्ण पृथ्वी पर केवल इसलिए दंडित किया जाता है कि उसका जन्म स्त्री के रूप में हुआ है, वह शारीरिक और मानसिक स्तर पर अशक्तता का शिकार नहीं होगा तो और क्या होगा? इसी से घर-बाहर सर्वत्र पुरुषों को अबाध स्वतंत्रता और निर्णय क्षमता प्राप्त हुईं तथा स्त्रियों को अबला कहकर इनसे वंचित कर दिया गया. स्त्रीत्व की गरिमा की प्रतिष्ठा का अर्थ है स्त्रियों को उनकी हरण की गई अबाध स्वतंत्रता और निर्णय क्षमता लौटाना. जब तक ऐसा नहीं किया जाता तब तक अथर्वसंहिता के हवाले से अपने घर में पुत्र और शत्रु के घर में कन्या के जन्म की प्रार्थनाएँ की जाती रहेंगी अथवा ऐतरेय ब्राह्मण के हवाले से कन्या के जन्म को शोक का विषय माना जाता रहेगा.

भारत में तो फिर भी वेदकाल से आज तक सशक्त और स्वतंत्र स्त्रियों के सम्मान के अनेक उदाहरण प्राप्त हैं, दुनिया के अन्य अनेक देशों ने दार्शनिक चिंतन और बौद्धिक विमर्श से स्त्रियों को सदा दूर रखने के प्रयास किए तथा उन्हें गुलाम और वहशी कहकर पुरुष के अधीन रहने को विवश किया है. स्त्रीत्व की गरिमा के लिए यह अधीनता टूटनी आवश्यक है ताकि मताधिकार, शिक्षा और रोजगार के अवसरों से किसी मानव-जीव को मात्र स्त्री होने के कारण वंचित न किया जाए. इस स्वतंत्रता का अर्थ सौंदर्य प्रतियोगिताओं और विज्ञापनों की उपभोक्तावादी दुनिया की अंधी दौड में शामिल होना मात्र नहीं समझा जाना चाहिए. सशक्त स्त्री अपनी गुलामी के इस नए रूप को पहचानेगी और पुरुषत्व को आधिपत्य तथा स्त्रीत्व को उपभोग का पर्याय बनाने के उत्तरआधुनिक षड्यंत्र को निष्क्रिय बना सकेगी, ऐसी आशा रखी जानी चाहिए.

यह चिता का विषय है कि विविध माध्यम आज भी स्त्री की स्वतंत्रता पर आक्रमण कर रहे हैं. उसके शरीर और सौंदर्य को विभिन्न सभ्यताओं ने विविध रूपों में अलग-अलग संस्थाओं के नाम पर पुरुष के, कभी एकांत और कभी सार्वजनिक, उपभोग की वस्तु बनाने में कभी कोई कोताही नहीं की है. आज भी बाजार की शक्तियां अधिक सुनियोजित ढंग से वही सब कर रही हैं. सशक्त स्त्री पालतू होने से इनकार करेगी, मनोरंजन का साधन नहीं बनेगी और इस प्रकार समाज को उन्नत और सुसंस्कृत बना सकेगी. याद रहे कि बाजार की शक्तियों द्वारा चलाई जा रही देह की राजनीति का शिकार होने वाली स्त्रियाँ सशक्त नहीं हैं इसलिए स्त्रीविरोधी जाल में इतनी आसानी से फँस जाती हैं. वस्तुतः अपनी अस्मिता और व्यक्तित्व की गरिमा के प्रति जागरूक हुए बिना हर सशक्तीकरण अपूर्ण है.

स्त्री सशक्तीकरण की चर्चा चलते ही कुछ लोगों को घर, परिवार और विवाह के टूटने की चिंता सताने लगती है. इस बारे में मेरा मानना है कि यदि किसी संस्था के जीवित रहने के लिए उसके आधे हिस्से का अशक्त रहना जरूरी है, तो उसे टूट ही जाना चाहिए. परंतु सच्चाई यह नहीं है. इन संस्थाओं के लिए स्त्री का सशक्त होना ही श्रेयस्कर है. इन्हीं संस्थाओं के बीच स्त्री ने सभ्यता और संस्कृति का आविष्कार, संरक्षण और संवर्द्धन किया है. रसोई और घर बनाने से लेकर शिल्प और पशुपालन तक के क्षेत्रों में स्त्री ने ही पहल करके विकास का मार्ग प्रशस्त किया है. वह स्त्री आत्मनिर्भर और स्वायत्त थी. कालांतर में उसे भूमि और संपत्ति का पर्याय बना दिया गया, जिससे उसकी सृजनशीलता कुंठित हुई. अपनी सृजनशक्ति को स्त्रियों ने लोकगीतों के माध्यम से भी प्रमाणित किया है. सृजन स्त्री का स्वभाव है, घर उसका अपना आविष्कार. स्त्री की सशक्तता और घर एक-दूसरे के विरोधी नहीं है. लेकिन घर, परिवार और विवाह को बनाए रखने की एकपक्षीय जिम्मेदारी केवल स्त्री पर नहीं डाली जा सकती. झूठी मर्यादा के नाम पर स्त्री से हर तरह के बलिदान की माँग करना और पुरुष को घर फूँकने, परिवार तोड़ने तथा विवाह की पवित्रता को भंग करने की केवल पुरुष होने के नाते छूट देना न्यायसंगत नहीं है. सशक्त स्त्री पुरुष के इस स्वैराचार को बर्दाश्त नहीं करेगी तो यह घर-परिवार के हित में ही होगा. इसलिए सबसे पहले स्त्रीत्व की गरिमा की प्रतिष्ठा परिवार के स्तर पर ज़रूरी है.

स्त्रीत्व-गरिमा की प्रतिष्ठा  का अर्थ स्त्री को समाज से अलग करना नहीं है और न ही पुरुष से प्रतिस्पर्धा या विरोध. इसका आधार तो सहयोग और सहानुभूति है; और उद्देश्य है व्यापक सामाजिक समरसता. इस समरसता की प्राप्ति में जो प्रवृत्तियाँ बाधक हैं पुरुष को उनसे मुक्त होकर सामाजिक दायित्वबोध के साथ इस अभियान का हिस्सा बनना होगा ताकि वह स्वयं पौरुष की झूठी परिभाषाओं से मुक्त होकर बेहतर मनुष्य बन सके और स्त्री-पुरुष-समता पर आधारित एक बेहतर दुनिया के लिए काम कर सके. सृजन के हर क्षेत्र में स्त्री-पुरुष सहयोगी रहे हैं, रह सकते हैं. इस धरती को रूढ़िग्रस्तता, सांप्रदायिकता, कट्टरवाद, भ्रष्टाचार, हिंसा और आतंक से मुक्त करने के लिए सशक्त स्त्री की भी उतनी ही जरूरत है जितनी सशक्त पुरुष की.

दुनिया भर में स्त्री आज भी विविध प्रकार की हिंसा झेल रही है. मारपीट, क्रूरता, अभद्रता, बलात्कार और परिवार तथा समाज में तिरस्कार को शताब्दियों से स्त्री नियति मानकर इस तरह बर्दाश्त करती आई है मानो पुरुष के हाथों दिया गया हर तरह का दुःख ही स्त्री का ‘एकमात्र प्राप्य’ हो! ऐसी दमित-शोषित स्त्री, निश्चय ही, समाज के तो क्या अपने भी उत्थान के लिए कुछ कर सकती है, इसमें संदेह है. समाजोत्थान के विविध कार्यक्रमों में उसकी सक्रिय भागीदारी के लिए इस बहुआयामी हिंसा से उसे मुक्त करना होगा. दुर्भाग्य तो यह है कि स्त्री को अवांछित-जीव समझे जाने के कारण यह हिंसा उसके जन्म से पूर्व ही शुरू हो जाती है. ऊपर से, विविध प्रचार माध्यम स्त्री पर हिंसा को नित्य नए आयाम प्रदान कर रहे हैं और सामंती बर्बरता से भरा समाज उन्हें स्वीकृति भी प्रदान कर रहा है. इन माध्यमों में मनोरंजन से लेकर विज्ञापन तक सर्वत्र पुरुष का स्त्री के प्रति व्यवहार हिंसक, आक्रामक, विद्वेषपूर्ण और मालिकाना ढंग से प्रस्तुत किया जा रहा है. इस षड्यंत्र को भी हमें पहचानना होगा कि कामुकता और विलासिता की अश्लील प्रस्तुति के बीच प्रतिपल स्त्री-पुरुष के सहज प्रेम की हत्या की जा रही है और दर्शक सिर धुनने के बजाय ताली पीट रहे हैं. एक प्रवृत्ति यह भी पनपी है कि स्वावलंबी य स्वतंत्र महिलाओं की छवि क्रूर और दुश्चरित्र के रूप में गढ़ी जा रही है ताकि सशक्त स्त्री को संदेह और घृणा का पात्र बनाया जा सके. इससे एक ओर तो स्त्रीविरोधी अपराध बढ़ रहे हैं तथा  दूसरी ओर विवाह के प्रति वितृष्णा का भाव तेजी से फ़ैल रहा है. ये दोनों ही बातें सामाजिक समरसता के लिए अमंगलकारी हैं. अश्लीलता सदा अमंगलकारी ही होती है. इससे मुक्ति के लिए समाज की मानसिकता में परिवर्तन अपेक्षित है अन्यथा मानव-सभ्यता विकास के नाम पर विनाश को ही प्राप्त होगी.

इस वांछित मनोवैज्ञानिक और सामाजिक परिवर्तन का नेतृत्व स्त्री को करना होगा  – भाषा और साहित्य के स्तर से लेकर आर्थिक और राजनैतिक स्तर तक. सभ्यता और संस्कृति का विकास अकेले पिताओं ने नहीं किया है, उसमें माताओं का भी बराबर का योगदान है. भविष्य निर्माण में माताओं के इस योगदान को सुनिश्चित करने के लिए स्त्री को अपने ऊपर थोपे गए अबलापन से निकलना ही होगा. इसके लिए आर्थिक आत्मनिर्भरता ही काफी नहीं है, शिक्षा और सामाजिक चेतना का व्यापक प्रसार भी आवश्यक है. भारतीय परिप्रेक्ष्य में यह भी ध्यान में रखना होगा कि स्त्रीत्व-गरिमा का लक्ष्य शहरी और सुविधासंपन्न स्त्री तक सीमित नहीं है वरन ग्रामीण और आदिवासी क्षेत्र तक की स्त्री का इसमें सम्मिलित होना अनिवार्य है. साहित्य, शिक्षा, आर्थिक विकास और राजनैतिक चेतना सभी स्तरों पर ग्रामीण स्त्री की सक्रिय और सार्थक भागीदारी को सुनिश्चित करना होगा, तभी यह अभियान पूर्णता प्राप्त कर सकता है. इसके लिए स्त्र्री-बहनापा बेहद ज़रूरी है वरना सारे प्रयास व्यर्थ हो जाएँगे. धर्म, जाति और संप्रदाय की सीमाओं से परे यह भी सुनिश्चित करना होगा कि स्त्री संतान को केवल ससुराल जाने के लिए तैयार न किया जाए बल्कि जीवन और जगत के हर मोर्चे के लिए प्रशिक्षित किया जाए. इससे व्यवस्था में विभिन्न स्तरों पर और विभिन्न क्षेत्रों में स्त्री की भागीदारी को बढ़ाया जा सकता है और उसे एक पूर्ण मानव के रूप में प्रतिष्ठित किया जा सकता है.

अंत में यहाँ यह भी स्पष्ट कर दूँ कि पूर्ण मानव/मानवी  होने का अर्थ स्त्रीत्व से निवृत्त या विमुख होना कदापि नहीं है. बल्कि इससे तो स्त्री और पुरुष के बीच के रिश्ते को प्रेमपूर्ण होने में और सहायता ही मिलेगी क्योंकि प्रेम के लिए समानता आवश्यक है. मालिक और गुलाम के बीच प्रेम नहीं हो सकता (यदि हो सकता है तो वे मालिक और गुलाम नहीं रहते). प्रेम की अभिव्यक्ति के नाम पर होने वाले अमर्यादित आचरण पर भी इससे अंकुश लगेगा. जयदेव, कालिदास और मीराँ की काव्यकृतियाँ अथवा खजुराहो की कलाकृतियों में जो उदात्त प्रेम दीखता है, उसका स्रोत स्त्री-पुरुष की उस समानता में निहित है जिसका आधार परस्पर सहचरी-सहचर होने का उन्मुक्त भाव है. समता के स्तर पर प्रेमपात्र के व्यक्तित्व में अपने व्यक्तित्व के विसर्जन में ही यदि प्रेमियों का मोक्ष निहित है तो इसके लिए अधिकार नहीं समर्पण चाहिए – सहज समर्पण. अशक्त के पास तो समर्पित करने को कुछ अपना होता ही नहीं. इसलिए सशक्त स्त्री से किसी को भयभीत होने की आवश्यकता नहीं है. स्त्रीत्व की गरिमा से अभिमंडित यह नई स्त्री विविध सामाजिक संबंधों को अधिक प्रेम और अधिक गरिमा प्रदान करेगी, इस पर संदेह नहीं किया जाना चाहिए!  O  

ऋषभ देव शर्मा की स्त्रीपक्षीय कविताएँ
हे अग्नि!

हे अग्नि!
तुम्हें प्रणाम करते हैं हम।

बहुत क्षमता है तुममें बड़ा ताप है -
बड़ी जीवंतता।
तुम जल में भी सुलगती हो और वायु में भी,
भूगर्भ में भी तुम्हीं विराजमान हो
और व्यापती हो आकाश में भी तुम।
हमारे अस्तित्व में अवस्थित हो तुम
प्राण बनकर।

परमपावनी!
तुममें अनंत संभावनाएँ हैं
तुम्हीं से पवित्रता है इस जगत में।
फूँकती हो तुम सारे कलुष को,
शोधती हो फिर-फिर
हिरण्यगर्भ ज्ञान की शिखा को।
तुम ही तो जगती हो हमारे अग्निहोत्र में
और आवाहन करते हैं तुम्हारा ही तो
संध्या के दीप की लौ में हम।

जगो, आज फिर,
खांडवप्रस्थ फैला है दूर-दूर
डँसता है प्रकाश की किरणों को,
फैलाता है अँधेरे का जाल
उगलता है भ्रम की छायाओं को।

उठो,
तुम्हें करना है
छायाओं में छिपे सत्य का शोध।
तुम चिर शोधक हो,
हे अग्नि! तुम्हें प्रणाम करते हैं हम।


गर्भभार

सँभलकर, बहुरिया,
त्रिशला देवी के सोलहों सपनों का सच
तेरे गर्भ में है.

नहीं,
दिव्यता का आलोक
केवल तीर्थंकरों की माताओं के ही
आनन पर नहीं विराजता ;
हर बेटी, हर बहू
जब गर्भ भार वहन करती है
उतनी ही आलोकित होती है.

हिरण्यगर्भ है
हर स्त्री.
उसके भीतर प्रकाश उतरता है,
प्रभा उभरती है,
प्रभामंडल जगमगाते हैं.
प्रकाश फूटता है
उसी के भीतर से.

प्रकाश सोया रहता है
हर लड़की के घट में,
और जब वह माँ बनती है
नहा उठती है
अपने ही प्रकाश में,
अपनी प्रभा में.
अपने प्रभामंडल में.

सँभलकर, बहुरिया,
तेरे अंग अंग से किरणें छलक रही हैं!

मुझे पंख दोगे ?


मैंने किताबें माँगी
मुझे चूल्हा मिला ,
मैंने दोस्त माँगा
मुझे दूल्हा मिला.

मैंने सपने माँगे
मुझे प्रतिबंध मिले ,
मैंने संबंध माँगे
मुझे अनुबंध मिले.

कल मैंने धरती माँगी थी
मुझे समाधि मिली थी,
आज मैं आकाश माँगती हूँ
मुझे पंख दोगे ?  

स्वेच्छाचार

हाँ, मैं स्वेच्छाचारी हूँ.
उन्होंने मुझे हल में जोतना चाहा
मैंने जुआ गिरा दिया ,
उन्होंने मुझपर सवारी गाँठनी चाही
मैंने हौदा ही उलट दिया,
उन्होंने मेरा मस्तक रौंदना चाहा
मैंने उन्हें कुंडली लपेटकर पटक दिया,
उन्होंने मुझे जंजीरों में बाँधना चाहा
मैं पग घुँघरू बाँध सड़क पर आ गई!

अब वे मुझसे घृणा करते हैं
माया महाठगनी कहते हैं
मेरी छाया से भी दूर रहते हैं.
बेचारे परछाई से ही अंधे हो गए
हिरण्मय आलोक कैसे झेल पाते!

हाँ,मैं हूँ स्वेच्छाचारी!
मैंने अपने गिरिधर को चाहा
उसी का वरण किया
गली गली घोषणा की-
जाके सिर मोर मुकुट मेरो पति सोई!

मेरे पति की सेज सूली के ऊपर है,री!
मुझे बहुत भाती है,
मैंने खुद जो चुनी है!!

द्रष्टव्य- http://streevimarsh.blogspot.in/2013/03/Women-hood-and-Family.html