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मंगलवार, 29 मार्च 2011

शमशेर हिंदी और उर्दू दोनों के हैं - नामवर सिंह


शमशेर शताब्दी समारोह का उद्घाटन 30 मार्च को
प्रो.नामवर सिंह हैदराबाद पहुँचे
शमशेर हिंदी और उर्दू दोनों के हैं - नामवर सिंह

हैदराबाद, 29 मार्च, 2011। 

दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा और मौलाना आज़ाद राष्ट्रीय उर्दू विश्वविद्यालय के संयुक्त तत्वावधान में 30 और 31 मार्च को मौलाना आज़ाद राष्ट्रीय उर्दू विश्वविद्यालय के गच्ची बावली स्थित आडिटोरियम में आयोजित द्विदिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी 'शमशेर शताब्दी समारोह' में शिरकत  करने और बीज व्याख्यान देने के सिलसिले में प्रसिद्ध समालोचक डॉ. नामवर सिंह आज दोपहर बाद हैदराबाद पहुँचे। समारोह का उद्घाटन 30 मार्च बुधवार को सबेरे 10 बजे 'मानू' के सी.पी.डी.यू.एम.टी. आडिटोरियम में होगा। इस संदर्भ में प्रो. नामवर सिंह ने एक भेंट के दौरान इस बात पर प्रसन्नता जाहिर की कि हिंदी और उर्दू की दो बड़ी संस्थाएँ मिलकर शमशेर  जैसे एक ऐसे बड़े लेखक की जन्मशती मना रही हैं जिन्हें हिंदी और उर्दू दोनों में एक जैसी महारत हासिल थी। उन्होंने इस बात को बहुत महत्वपूर्ण माना कि यह आयोजन हैदराबाद शहर में हो रहा है जो गंगा जमुनी तहजीब का गढ़ है।  प्रो. नामवर सिंह ने एक बात यह कही कि शमशेर  को हिंदी और उर्दू दोनों भाषाओं का साझा लेखक मानना चाहिए। प्रस्तुत हैं  प्रो. नामवर सिंह से इस संगोष्ठी के संबंध में हुई बातचीत के कुछ अंश : 
     


डॉ. नामवर सिंह - शमशेर  के बारे में हमारी जो जानकारी है उसके अनुसार वे मुजफ्फरनगर के रहने वाले थे। उन्होंने अपनी एक गज़ल में इसका उल्लेख भी किया है -


 'जी को लगती है, तेरी बात खरी है शायद/
वही शमशेर मुज़फ्फरनगरी है शायद'।

दरअसल शमशेर के पिता खुद उर्दू के आदमी थे। उनके मामा भी उर्दू में शेर कहते थे। इनका असर शमशेर  पर पड़ना स्वाभाविक था। अगर कहा जाए कि शमशेर की मादरी जबान उर्दू थी, तो कुछ ज्यादती न होगी। बाद में वे देहरादून चले गए। इसके बाद बच्चन उन्हें जब इलाहाबाद ले आए तो वहाँ नरेंद्र शर्मा, बच्चन और शमशेर साथ साथ हिंद होस्टल में रहा करते थे। नरेंद्र शर्मा और बच्चन के प्रभाव में शमशेर  भी हिंदी में कहने लगे, साहित्य सृजन करने लगे। पर उर्दू उनसे छूटी नहीं। सच तो यह है कि शमशेर आखिरी दम तक हिंदी और उर्दू दोनों जबानों में लिखते रहे।
            
यह बात भी कम महत्वपूर्ण नहीं है कि शमशेर  को हिंदी की अपेक्षा उर्दू लिपि में लिखने का अधिक अभ्यास था। यहाँ तक कि उनकी कई सारी हिंदी कविताएँ भी मूलतः उर्दू लिपि में लिखी गई हैं, क्योंकि शमशेर बहादुर सिंह ने नागरी लिपि बहुत देर से सीखी। बाद में जब उन्होंने अंग्रेजी में एम.ए. करना शुरू किया जो अधूरा ही छूट गया तब उनका संपर्क अंग्रेजी साहित्य से भी हुआ। बच्चन और नरेंद्र शर्मा के साथ रहते समय ही शमशेर का परिचय प्रसिद्ध साम्यवादी विचारक पी.सी. जोशी से हुआ। उनके संपर्क का भी शमशेर  के चिंतन और लेखन पर असर दिखाई देता है।
            
शमशेर हमेशा  जिंदगी की जद्दोजहद में मशगूल रहे। उनकी पत्नी की काफी जल्दी मृत्यु हो गई थी। नौकरी भी कहीं उन्होंने  पूरी नहीं की। दिल्ली विश्वविद्यालय के ख्वाज़ा अहमद फारूखी ने उन्हें उर्दू-हिंदी डिक्शनरी  बनाने का काम सौंपा। इससे भी उनकी उर्दू पृष्ठभूमि की ही पुष्टि होती है। इस कार्य में शमशेर  चीफ थे और त्रिलोचन उनका सहयोग करते थे - खासकर हिंदी पर्याय मुहैया कराने में।
            
शमशेर बहादुर सिंह ने उर्दू से हिंदी में काफी अनुवाद कार्य भी किया। उनका किया सरशार का अनुवाद काफी लोकप्रिय हुआ। मुंबई में जब वे कम्युनिस्ट पार्टी में थे तो सज्जाद जहीर के साथ पार्टी के अखबार के उर्दू संस्करण के संपादन का भार उन पर था। कायदे से तो वे उर्दू के ही आदमी थे। मेरा खयाल है कि उनकी समग्र रचनावली छपेगी तो उसमें हिंदी और उर्दू दोनों की सामग्री बराबर रहेगी। उन्होंने आलोचना भी लिखी। खासतौर से 'दोआब' में हाली के मुसद्दस और मैथिलीशरण गुप्त के 'भारत भारती' की तुलना करते हुए उन्होंने जो तन्कीद की वह बेहद बेबाक है। इसमें दो राय नहीं कि जो हालत प्रेमचंद की है वही शमशेर  की भी है। ये दोनों ही साहित्यकार उर्दू से हिंदी में आए और दोनों ने ही अपने साहित्य द्वारा हिंदी को संपन्नतर बनाया। प्रेमचंद की तरह शमशेर  भी हिंदी और उर्दू दोनों के हैं, दोनों का उन पर हक है, जैसाकि अपनी एक कविता में वे कहते भी हैं -

''मैं उर्दू और हिंदी का दोआब हूँ/
मैं वह आईना हूँ जिसमें आप हैं।'' 

ऐसे साहित्यकार को हैदराबाद जैसे गंगा-जमुनी तहजीब वाले शहर में हिंदी और उर्दू की दो बड़ी संस्थाओं के तत्वावधान में उनकी शताब्दी के अवसर पर समारोहपूर्वक याद किया जाना सर्वथा उचित और प्रासंगिक है। मैं इस दोदिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी की सफलता के लिए दोनों संस्थाओं को शुभकामना देता हूँ और आंध्र प्रदेश के हिंदी-उर्दू साहित्य प्रेमियों को इस आयोजन पर बधाई भी।


त्रिवेणी में तांडव की आनंद वृष्टि

अभी पिछले शुक्रवार की ही तो बात है. शरद पित्ती जी के आवास पर 'त्रिवेणी' का आयोजन था. दरअसल साहित्य,संगीत और कला की त्रिवेणी के आयोजन की प्रथा बद्री विशाल पित्ती जी ने शुरू की थी - छह ऋतुओं के छह आयोजन.

यह आयोजन वसंत ऋतु का था. पहले अजित गुप्ता जी  ने वसंत पर कुछ ललित गद्य सा सुनाया. फिर के. ओ. करनी जी ने एलोरा की गुफाओं पर  प्रस्तुतीकरण दिखाया - समझाया. अच्छा था; रोचक भी. लेकिन कार्यक्रम के तीसरे चरण में डॉ. अनुपमा कैलाश, डॉ. यशोदा ठाकुर, पूर्वाधनश्री, उषाकिरण, पूजिता कृष्ण ज्योति और गिरिजा किशोर ने विलासिनी-नाट्यम प्रस्तुत किया तो 'एक अनाहत दिव्य नाद में श्रद्धायुत मनु बस तन्मय थे' जैसी दुर्लभ अनुभूति हुई. नृत्य-प्रस्तुति का विषय ही ऐसा था - शिव तांडव.

पहले आनंद तांडव - शिव और विष्णु ब्रह्मचारी और मोहिनी के वेश में ऋषियों के आश्रम में पहुँचते हैं. ऋषि पत्नियाँ  मुग्ध होती हैं और ऋषिगण  क्रुद्ध. वे आहुतियों से सिंह , सर्प और अग्नि आदि को प्रकट  करके शिव पर आक्रमण करते हैं और शिव इन सबको वश में कर लेते हैं; अपस्मार को गिराकर उसके ऊपर आनंद तांडव करते हैं और अग्निपुंजों  को पकड़ते रहते हैं. यही तो नटराज की मूर्ति है!

फिर उग्र तांडव - पहला प्रसंग काम दहन का और दूसरा यमराज से मार्कंडेय की रक्षा का.

और फिर ऊर्ध्व  तांडव - पहला प्रसंग इंद्रसभा में शिव और काली की स्पर्द्धा का. जब काली की चुनौती बढ़ती ही जाती है तो शिव अपने एक पाँव को सर तक उठा कर नृत्य करते हैं और काली शीलवश ऐसा करने में संकोच करती हैं तथा पार्वती के रूप में आ जाती हैं. दूसरा प्रसंग अर्धनारीश्वर तांडव का.

पूरा परिवेश  ही मानो ''प्रणमत पशुपति मखिल पतिं '' की ताल पर तांडव के आनंद में भींज गया था!

रविवार, 27 मार्च 2011

ब्रिटिश फ़ौज में क्यों रहे अज्ञेय?



आंध्र प्रदेश हिंदी अकादमी की मासिक व्याख्यानमाला के सिलसिले में कल अंग्रेजी और विदेशी भाषा विश्वविद्यालय के हिंदी विभागाध्यक्ष प्रो. एम. वेंकटेश्वर जी का अज्ञेय की जन्मशती के संदर्भ में व्याख्यान था. वे ''नवप्रयोगवादी सर्जक अज्ञेय'' पर लगभग ६५  मिनट जमकर बोले. खास तौर पर ये बिंदु उभारे -

१.अज्ञेय अपने समय के बेहद लोकप्रिय साहित्यकार रहे - खासकर बतौर उपन्यासकार .
२. वे प्रयोगवादी नहीं, नवप्रयोगधर्मी युगप्रवर्तक लेखक थे.
३. 'असाध्य वीणा' सत्य  के विविध कोणों का प्रतिपादन करने वाली कविता है जो  देरिदा के बहुपाठीयता   के सिद्धांत के अनुरूप है.
४. अज्ञेय का सारा साहित्य बौद्धिक है जो अतिशय भावुकता के छायावादी मुहावरे का प्रतिवाद है.
५. अज्ञेय को समझना कठिन है. उनके पास जाने में खतरा है.
६. उनका साहित्य व्यक्तित्व और स्वतंत्रता की खोज का साहित्य है.
७. मछली, द्वीप और पानी उनके प्रिय प्रतीक हैं.
८. 'रोज़' उनकी कथानकशून्य कहानी है जो ऊब और एकरसता का दस्तावेज़ है.
९. उन्होंने प्रकृति को बौद्धिक के नज़रिए से देखा है.
१०. कविता हो या उपन्यास वे समर्पण के क्षण को जीने पर जोर देते हैं.
११.'शेखर' का सारा जीवन स्वातंत्र्य की खोज है. वह मातृरति नहीं,मातृघृणा ग्रंथि से संचालित है.
१२. शेखर-शशि और भुवन-रेखा  परस्पर पूरक हैं.
१३. हर विधा में नई ज़मीन तोड़ने के कारण अज्ञेय नवप्रयोगधर्मी सर्जक हैं.

अपुन को प्रो. सत्यनारायण जी ने अध्यक्षता सौंपी थी;सो कुछ तो टिप्पणी करना लाजमी हो गया. अथ ऋषभ उवाच- 

१.अज्ञेय की नव्यप्रयोगधर्मिता इस अर्थ में ग्राह्य है कि उन्होंने प्रगतिशील आंदोलन से अलग राहें खोजीं.
२. वे प्रयोग की अपेक्षा व्याख्यावादी अधिक प्रतीत होते हैं.
३. गैर रोमानी भावबोध और विचारतत्व के आग्रह ने उनकी साहित्य-लय को इस तरह 'प्रशमित' कर दिया है कि विद्रोही कलाकार होने के बावजूद उनका साहित्य किसी प्रकार के सामाजिक परिवर्तन में सहायक बनता प्रतीत नहीं होता.
 ४. सामाजिक परिवर्तन उस अर्थ में उनका सरोकार भी नहीं है.
५. उनके लेखन पर मुग्ध हुआ जा सकता है, उसे सराहा जा सकता है और  एन्जॉय किया जा सकता है -  वे  आनंद की स्रष्टि करते हैं.
६.अपने बहुविध अनुभवों और बहुपठ होने के कारण वे विलक्षण रूप से वैविध्यपूर्ण रच सके.
७. वे विलक्षण शब्दचिन्तक और साहित्य-भाषा के जादूगर हैं.
८.उनके पास क्लासिक भाषा भी है  जिसे वे गद्य में आजमाते हैं  और लोकजीवन से गृहीत भाषा भी है जिसके सहारे वे अपनी काव्यभाषा को लोकाभिमुख बनाते हैं.

लेकिन एक जागरूक श्रोता की इस जिज्ञासा का किसी के पास उत्तर नहीं था कि ''जो अज्ञेय क्रांतिकारी दल के सक्रिय कार्यकर्ता रहे थे उन्होंने अंग्रेज़ सरकार की फ़ौज में नौकरी करना कैसे गवारा किया?'' !

शनिवार, 26 मार्च 2011

शमशेर शताब्दी समारोह 30-31 मार्च को

हैदराबाद, 26 मार्च, 2011।
उच्च शिक्षा और शोध संस्थान, दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा तथा मौलाना आज़ाद राष्ट्रीय उर्दू विश्व विद्यालय  के संयुक्त तत्वावधान में हिंदी के प्रसिद्ध साहित्यकार शमशेर बहादुर सिंह का शताब्दी समारोह 30 और 31 मार्च को उर्दू विश्वविद्यालय के गच्ची बावली स्थित सी.पी.डी.यू.एम.टी. ऑडिटोरियम में आयोजित किया जाएगा।
13 जनवरी, 1911 को उत्तर प्रदेश के जिला मुज़फ्फरनगर के गाँव एलम में जन्मे 'कवियों के कवि' शमशेर बहादुर सिंह की शताब्दी के अवसर पर आयोजित इस समारोह में उनके स्मरण और मूल्यांकन की दृष्टि से द्विदिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी की जा रही है। इस समारोह का उदघाटन  30 मार्च, बुधवार, को प्रातः 10 बजे प्रख्यात साहित्यकार डॉ. गंगा प्रसाद विमल करेंगे तथा प्रख्यात आलोचक डॉ. नामवर सिंह बीज व्याख्यान देंगे।नामवर जी यहाँ 29 को आ रहे हैं तथा 31 तक रहेंगे. 

उल्लेखनीय है कि डॉ. नामवर सिंह ने शमशेर की प्रतिनिधि कविताओं का संपादन करते हुए उनकी विलक्षणता को 'शमशेर  की शमशेरियत' के रूप में रेखांकित किया है। प्रो. नामवर सिंह इस समारोह में दोनों दिन उपस्थित रहेंगे और 'दक्खिनी भाषा और साहित्य' तथा 'भूख, धान और चिड़िया' शीर्षक दो नवप्रकाशित पुस्तकों का लोकार्पण भी करेंगे। 

इस समारोह का विशेष आकर्षण वरिष्ठ साहित्यकारों द्वारा शमशेर के संस्मरणों को साझा करने और उनकी कृतियों पर वादमुक्त दृष्टि से विचार करने का रहेगा। उदघाटन सत्र की अध्यक्षता मानू के कुलपति प्रो. मोहम्मद मियाँ करेंगे तथा आंध्र प्रदेश हिंदी अकादमी के अध्यक्ष प्रो. यार्लगड्डा लक्ष्मी प्रसाद विशिष्ट अतिथि के तौर पर शिरकत करेंगे। 
पहले दिन 'शमशेर की स्मृति' विषयक सत्र में डॉ. नामवर सिंह, डॉ. गंगा प्रसाद विमल, डॉ. दिलीप सिंह और डॉ. टी.वी.कट्टीमनी शमशेर के सान्निध्य से संबंधित अपने अनुभव सुनाएँगे तथा डॉ. अब्दुल सत्तार दलवी अध्यक्षता करेंगे। 'शमेशेर की कविता' विषयक सत्र की अध्यक्षता डॉ. अर्जुन चव्हाण करेंगे और शमशेर बहादुर सिंह की काव्यानुभूति, काव्य भाषा, रंग शब्दावली, गज़लों और शोकगीतों की विवेचना डॉ. अब्दुल अलीम, डॉ.दिलीप सिंह, डॉ. ऋषभदेव शर्मा, डॉ. श्रवण कुमार मीणा और डॉ. हीरालाल बाछोतिया करेंगे।
'शमशेर के गद्य लेखन' के विविध पक्षों पर समारोह के दूसरे दिन वैचारिक मंथन होगा जिसकी अध्यक्षता डॉ. हेमराज मीणा और डॉ. राधेश्याम शुक्ल करेंगे तथा डॉ. सुनीता मंजनबैल, डॉ. अर्जुन चव्हाण, डॉ. रोहिताश्व, डॉ. रतन कुमार पांडेय, डॉ. निर्मला एस.मौर्य, डॉ. अमर ज्योति, डॉ. गजेंद्र तथा डॉ. राजीव लोचन शुक्ल शोधपत्र प्रस्तुत करेंगे। समापन सत्र में प्रो. टी.वी. कट्टीमनी समाकलन वक्तव्य देंगे। डॉ. आई.एन. चंद्रशेखर रेड्डी, डॉ.गोपाल शर्मा तथा अन्य विद्वान टिप्पणी करेंगे। डॉ. गंगा प्रसाद 'विमल' समापन सत्र की अध्यक्षता करेंगे।

दोनों आयोजक संस्थाओं की ओर से नगर के समस्त हिंदी प्रेमियों से इस द्विदिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी में पधारने का अनुरोध किया गया है।


शनिवार, 19 मार्च 2011

रंगपर्व मंगलमय हो!


रंगपर्व मंगलमय हो!
चौवन बार होली आई-गई है अब तक मेरे आंगन,गली-मुहल्ले में.
रंग - तरह तरह के रंग बहुत अच्छे लगते हैं मुझे.
भींजना बचपन से पसंद है मुझे - मीन लग्न है न.
गुझिया और पकौड़े - दोनों मेरी कमजोरी हैं.
ढोल मुझे सुहावने लगते हैं - दूर ही नहीं नज़दीक के भी. 

पर मैंने कभी होली खुलकर नहीं खेली - बचपन से घरघुस्सू रहा.
आभिजात्य ओढ़कर दूर से देखा किया इस लोकोत्सव को.

पर भीतर से कभी बेरंगा और अनभींजा  भी नहीं रहा.

इक्का-दुक्का ही सही, मेरे पास भी हैं होली की कुछ यादें.
उन्हीं यादों का  वास्ता देकर आज अपने हर दोस्त को आवाज़ लगा रहा हूँ :

आओ गले मिलें! 
आओ नाचें गाएँ!!
आओ मनचीता करें!!!
आओ जीने की खातिर मरें!!!! 

पर सब अपने अपने रंग में डूबे हैं. 
जानते हैं, मैं किनारे खड़ा रहूँगा- तैरना नहीं आता न.

पर डूब तो सकता हूँ.
लो, मैं तुम्हारे रंग के सागर में छलाँग लगा रहा हूँ - डूबने की खातिर.

आइए, हम सब एक साथ होली के रंगों में सराबोर हो जाएँ.
सतरंगी शुभकामनाओं सहित 
ऋषभ आपका    

रविवार, 6 मार्च 2011

'स्रवंति' का उत्तरआधुनिकता विशेषांक लोकार्पित 2






'स्रवंति' का उत्तर-आधुनिकता विशेषांक लोकार्पित

हैदराबाद,5 मार्च 2011 .

''उत्तर-आधुनिकता बेहद उलझी हुई अवधारणा है. इसकी सैद्धांतिकी और हिन्दी साहित्य में उसके प्रतिफलन की पड़ताल करने वाला 'स्रवंति' का विशेषांक विषय की यथासंभव सीधी पहचान के कारण पठनीय और संग्रहणीय है.स्त्री, दलित, आदिवासी और जनजातीय हाशियाकृत समुदायों की अभिव्यक्ति का उत्तर-आधुनिक विमर्श के पहलुओं के रूप में विवेचन इसमें सभी विधाओं के सन्दर्भ में किया गया है जो इसे शोधार्थियों के लिए विशेष उपयोगी बनाने वाला है.''

ये विचार यहाँ उच्च  शिक्षा  और शोध संस्थान के 'साहित्य संस्कृति मंच' के तत्वावधान में आयोजित दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा की साहित्यिक पत्रिका 'स्रवंति' के विशेषांक के लोकार्पण समारोह में अंग्रेज़ी एवं विदेशी भाषा विश्वविद्यालय [इफ्लू]के हिन्दी विभागाध्यक्ष प्रो. एम.वेंकटेश्वर ने व्यक्त किए. उन्होंने मुख्य अतिथि के रूप में पत्रिका के ''उत्तर-आधुनिक विमर्श और समकालीन साहित्य '' विशेषांक का लोकार्पण करते हुए कहा कि लघु पत्रिका के रूप में 'स्रवंति' ने दक्षिण भारत में अनेक नए लेखकों को प्रोत्साहित किया है तथा इस तरह हिंदी आंदोलन को प्रसारित करने में अग्रणी भूमिका निभाई है. 
समारोह की अध्यक्षता गैर-यूनिस विश्वविद्यालय , बेनगाज़ी [लीबिया] के अंग्रेज़ी विभागाध्यक्ष प्रो.गोपाल शर्मा ने की. उन्होंने 'स्रवंति' के एक वर्ष के मुखचित्रों की प्रदर्शनी का उद्घाटन भी किया. इन चित्रों के लिए शौकिया-फोटोग्राफर लिपि भारद्वाज की रचनात्मकता की प्रशंसा करते हुए प्रो. गोपाल शर्मा ने याद दिलाया कि आज दुनिया तेज़ी से उत्तर - उत्तर आधुनिकता की ओर बढ़ रही है. उन्होंने ट्यूनीशिया,मिस्र और लीबिया की जन क्रान्त्यों और साथ ही मज़हबी कट्टरवाद के उभार को उत्तर आधुनिकता की समाप्ति  और उत्तर-उत्तर आधुनिकता के आरम्भ का लक्षण माना. प्रो. शर्मा ने नव -मीडिया के व्यापक प्रभाव की चर्चा करते हुए कहा कि आने वाले समय में हर पाठक को लेखक बनना होगा.  

समारोह के द्वितीय चरण में 'स्रवंति' की सह-संपादक डॉ. गुर्रमकोंडा  नीरजा  को  मोतियों की माला, शाल, श्रीफल,लेखन सामग्री,स्मृति चिह्न  और पुष्प गुच्छ प्रदान कर उनका सारस्वत सम्मान किया गया. साथ ही कोसनम नागेश्वर राव को भी उत्तम कार्य के लिए शाल और स्मृति चिह्न प्रदान किया गया. 
इसके पूर्व दीप-प्रज्वलन एवं सरस्वती वंदना के बाद संस्थान के अध्यक्ष प्रो. ऋषभदेव शर्मा ने अतिथियों का परिचय कराते हुए स्वागत -सत्कार किया तथा आंध्र-सभा के सचिव डॉ. पी. राधाकृष्णन ने सभा की गतिविधियों की जानकारी दी. डॉ. जी. नीरजा ने लोकार्पित विशेषांक का परिचय दिया.

समारोह के तीसरे चरण में  कवयित्री ज्योति नारायण ने विशेष अतिथि के रूप में काव्य पाठ करते हुए अपनी चुनींदा हिन्दी-ग़ज़लों  और होली के गीतों का सस्वर वाचन किया. साथ ही डॉ. बी. बालाजी, चंद्रमौलेश्वर प्रसाद, भगवान दास जोपट, गुरु दयाल अग्रवाल और विनीता शर्मा ने भी अलग-अलग विषयों और विधाओं की रचनाएँ प्रस्तुत कर वाहवाही लूटी.
कार्यक्रम को सफल बनाने में डॉ. करन सिंह ऊटवाल, डॉ. साहिरा बानू, डॉ.मृत्युंजय सिंह, डॉ.गोरख नाथ तिवारी, डॉ.देवेंद्र शर्मा, डॉ.सुरेंद्र शर्मा, डॉ.पेरीसेट्टी श्रीनिवास राव, डॉ. सुनीला सूद, ए.जी.श्रीराम, भगवंत गौडर, अर्पणा दीप्ति, मंजु शर्मा, पी. के. कल्याणकर, उमारानी , रमा देवी, कादर अली खान, जुबेर अहमद, सुभाषिनी, अंजू,पी. पावनी, स्मिता हर्डीकर, मल्लिकार्जुन,शिव कांत, राजेश कुमार गौड़, एस.कौडू, हेमंता बिष्ट, संध्या रानी, दर्वेश्वरी, जी. नागमणि, सुशीला मीणा,  सिसना, मोनिका देवी, सुशीला शर्मा, निशा सोनी, एम. राधा कृष्ण तथा छात्र-छात्राओं ने सक्रिय सहयोग प्रदान किया. 
संपूर्ण समारोह का संचालन डॉ. बलविंदर कौर ने  अत्यंत सफलता  और रोचकता पूर्वक किया.  

(उत्तर-गोष्ठी की रिपोर्ट यहाँ देखें.)

'स्रवंति' का 'उत्तरआधुनिक विमर्श विशेषांक' लोकार्पित

बुधवार, 2 मार्च 2011

यात्रा का कथारस



भूमिका  


यात्रावृत्त साहित्य की एक ऐसी लोकप्रिय विधा है जो हिंदी में आधुनिक गद्य के विकास के साथ ही आरम्भ हो गयी थी. इसका मूल रूप व्यापारिक, धार्मिक या रोमांचक अनुभवों को दूसरों से बांटने के लिए रोचक ढंग से सुनाने का रहा होगा.इसमें भी संदेह नहीं कि आत्मकथा का तत्त्व यात्रावृत्त को जहां एक ओर वृत्तकार के जीवन को समझने का आधार प्रदान करता है वहीँ इसका संस्मरण पक्ष देस-परदेस के भौगौलिक और प्राकृतिक परिवेश तथा वहाँ के मनुष्यों और जीव जंतुओं के सम्बन्ध में जिज्ञासाओं का शमन भी करता है. इस प्रकार यात्रावृत्त रचनाकार की आत्मप्रकाशन की वृत्ति और पाठक की उत्सुकता की वृत्ति को तुष्ट करने वाला साहित्य रूप है. इसमें आत्मकथा और कथात्मकता परस्पर गुँथ जाते हैं.एक सीमा तक यह विधा व्यक्तियों और स्थानों के वर्णन से जुडी होने के कारण रेखाचित्र के भी निकट है. कहने का आशय यह है कि यात्रावृत्त लिखना सहज पृवत्ति की तरह स्वाभाविक है तो एक मिश्रित साहित्यिक विधा के रूप में इसे साध पाना अपेक्षाकृत कठिन भी है. यात्राएँ सब करते हैं पर सब उन्हें लिख नहीं पाते.बहुत से लोग यात्रावृत्त लिखते हैं पर सफल यात्रावृत्त हर किसी के बूते की बात नहीं. 

संपत देवी मुरारका (1943) ने भी सहज वृत्ति से प्रेरित होकर अपने यात्रा संस्मरणों को लेखबद्ध किया है. अपने यात्रावृत्तों की प्रथम पुस्तक के स्वागत से उत्प्रेरित होकर अब वे दूसरी पुस्तक ''यात्रा-क्रम : द्वितीय भाग'' भी हिंदी जगत को समर्पित कर रही हैं. संपत देवी मुरारका नितांत घरेलू किस्म की परन्तु उद्यमी महिला हैं. पर्यटन और तीर्थाटन में उनकी इतनी रुचि है कि वे अपने जीवन को सतत यात्रा के नाम समर्पित कर चुकी हैं. यात्राएँ किसी भी उद्देश्य से की जाएँ, संपत देवी यह ध्यान रखती हैं कि वे एकांत देशाटन न हों. बल्कि पारिवारिक या सामाजिक मित्रों के साथ ऐसी सहयात्रा बनें जो सामूहिक स्मृति का विषय बन सकें.

इस यात्रावृत्त संग्रह में संपत जी ने जिन विविध स्थलों के संस्मरण शब्दों के माध्यम से पुनः जिए हैं उनमें घ्रिश्नेश्वर मंदिर, त्र्यम्बकेश्वर मंदिर, रणछोड़ मंदिर,सोमनाथ मंदिर, द्वारिकधीश मंदिर, देलवाडा मंदिर, पुष्कर, महाकालेश्वर मंदिर,पशुपतिनाथ, चित्रकूट, बैद्यनाथ, कुल्लू-मनाली, जम्मू-कश्मीर, उत्कल, प्रयाग, गोवा,पंचगनी से लेकर कैलाश मानसरोवर तक सम्मिलित हैं. लेखिका ने अपने इन यात्रा वृत्तों में विस्तारपूर्वक हैदराबाद से लेकर इन सब स्थानों तक की यात्रा के मार्ग,कष्ट, सुखद अनुभव और महत्व आदि का पठनीय विवरण दिया है. अनेक स्थलों पर उन्होंने अपनी पारखी नज़र का भी परिचय दिया है तथा बातों ही बातों में दृश्यों को मूर्तिमान कर दिया है. इसी प्रकार उनके विवरणों में स्थान स्थान पर उनका कवि हृदय भी प्रकट हो गया है. जैसे घाटी के पार जब कहीं वे गिरिश्रृंगों का अवलोकन करती हैं तो उन्हें ऐसा लगता है कि आकाश झुक कर इन चोटियों का अभिषेक कर रहा है. काव्यात्मक भाषा के अनेक सन्दर्भ ऐसे भी हैं कि सहज ही विस्मय और असमंजस जगता है कि संपत देवी मुरारका अपने साधारण घरेलू महिला के विरुद के साथ इस भाषा शैली को कैसे साध पाती हैं!

लेखिका ने अपनी सभी मुख्यतः धार्मिक यात्राओं के साथ जुड़ी हुई लोक आस्था और सांस्कृतिक चेतना का भी रोचक उल्लेख किया है. आवश्यकता पड़ने पर कहीं-कहीं शास्त्रों के उदाहरण भी दिए हैं. उन्होंने दर्शाया है कि इस देश की सांस्कृतिक चेतना ने लोक जीवन को जिन धार्मिक आस्थाओं से सम्बद्ध किया है उनमें अनगिनत पर्वों और तीर्थों के विन्यास रचे गए हैं. विभिन्न तीर्थ स्थानों से जुड़ी हुई लोक कथाओं को भी अत्यंत रोचक रूप में समाहित किया गया है.यात्रावृत्तों को कथारस से युक्त करने के लिए लेखिका ने सह-यात्रियों के साथ के अनुभवों को भी भली प्रकार पिरोया है. इसमें संदेह नहीं कि सामूहिक यात्राएँ हमारे चित्त को विशद  करती हैं. संपत देवी मुरारका ने भी अनेकानेक यात्राओं में चित्त की विशदता का आनंद उठाया है. ऐसे अनेक अवसर आए हैं जब उन्होंने अनुभव किया कि मन करुणा और ममता की तरंगों पर लगातार हिचकोले खा रहा है. ये यात्राएँ उन्हें यह बोध करने में सफल रहीं कि प्रेम की धारा रिश्ते नातों की मर्यादा के बाहर ऐसे लोगों को भी ऐसे लोगों को भी अपने अंकपाश में बाँध लेती है जो आपके लिए नितांत अपरिचित होते हैं.

प्राकृतिक परिवेश के प्रति लेखिका ने अपनी जागरूकता सभी संस्मरणों में प्रमाणित की है. महाबलेश्वर की यात्रा में वर्षा का वर्णन करते हुए जब वे यह बताती हैं कि पहाड़ की शोभा धुली धुली लगने के साथ ही आकाश में छाये हुए बादलों के कारण धुँधली भी लगती थी तथा जब सूरज बादलों को चीरकर निकलता था तो वह दृश्य अत्यधिक अभिराम प्रतीत होता था, तब उनकी सौंदर्य दृष्टि का एक और प्रमाण मिलता है. ऐसे प्रसंगों को लेखिका ने ऐतिहासिक और पौराणिक सन्दर्भों से जोड़कर और भी रुचिकर बना दिया है.

धर्मप्राण भारतीय महिला के रूप में की गयी संपत देवी मुरारका की ये सारी यात्राएँ पाठक के मन में भारतीयता के संस्कारों के प्रति आकर्षण और आस्था उत्पन्न करने वाली हैं. वे बताती हैं कि मानसरोवर में स्नान करने के बाद तट पर पूजन करके जब लेखिका ने रुद्राभिषेक तथा हवन कराया तो दाना चुगते सफ़ेद पक्षियों को देख कर उनके मन में राजहंस की मिथकीय कल्पना साकार हो उठी.वस्तुतः ऐसे साहित्यिक और सांस्कृतिक प्रसंगों में लेखिका का मन खूब रमा है जिनकी दार्शनिक एवं प्रतीकात्मक व्याख्याएँ की जाती हैं. ये व्याख्याएँ कहीं न कहीं से उद्धृत की गई हैं, लेकिन संस्मरण के प्रवाह की क्षति नहीं होने दी गई है. कहीं कहीं विवरणों में अधिक इतिवृत्तात्मकता अवश्य आ गई है, जिससे बचा जा सकता था.

संपत देवी मुरारका के ये यात्रावृत्त उन लोगों को सम्बंधित तीर्थ स्थलों के अक्षर-दर्शन कराने में सहयोगी बनेंगे जो इन यात्राओं से वंचित रह जाते हैं, ऐसा विश्वास किया जाना चाहिए!

शुभकामनाओं सहित.

रामनवमी : 4 अप्रैल,2009 .

यात्रा-क्रम (द्वितीय भाग) / संपत देवी मुरारका / 
ज्ञान भारती , 4 /14 रूप नगर,दिल्ली - 110007 / 
प्रथम संस्करण : 2009 / 108 पृष्ठ / 250 रुपए.