फ़ॉलोअर

गुरुवार, 17 सितंबर 2009

समीक्षाओं का कोलाज़: 'अनमिल आखर’



समीक्षाओं का कोलाज़ :

'अनमिल आखर’


डा. रविरंजन (1962) के आलोचनात्मक निबंध संग्रह ‘अनमिल आखर‘ (2005) की भूमिका में बताया गया है कि ये निबंध अलग-अलग अवसरों पर दिए गए व्याख्यानों के पुनर्लिखित रूप हैं और विषयों की भिन्नताओं के कारण ‘अनमिल आखर अरथ न जापू’ प्रतीत हो सकते हैं। लेखक ने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि समस्याधर्मिता इन अनमिल आखरों को एक सूत्र में बाँधने वाला तत्व है। इन्हें एक सूत्र में बाँधने वाला अदृश्य तत्व है समीक्षक की सामाजिक दृष्टि जो ‘व्यापक सर्वत्र समाना’ है। इसीसे यह संग्रह शोधपूर्ण समीक्षाओं के कोलाज की तरह स्मृति में संजोकर रखने लायक बन गया है।


‘अनमिल आखर’ में कुल दस आखर हैं - रामभक्ति-काव्य और वर्तमान समय, सुभद्रा जी के लोकप्रिय राष्ट्रीय काव्य का समाजशास्त्र , ‘झूठा-सच’: ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य और वर्तमान परिदृश्य , समकालीन हिंदी कहानी के प्रस्थान बिंदु, लिखा हुआ बोलता-सा गद्य (नामवर सिंह के गद्य का सौंदर्यशास्त्र ), सौंदर्यात्मक संवेदनशीलता की कविता, जनसंचार माध्यम, बाजारवाद और साहित्य, समकालीन कविता: काव्यानुभूति की संस्कृति के बदलते आयाम, प्रेमचंद के कथा-साहित्य का समाजषास्त्र और आचार्य रामचंद्र शुक्ल की आलोचना-दृष्टि।


इसमें दो राय नहीं है कि अपने अन्य लेखन की भ्रांति डा. रविरंजन यहाँ भी बहस की मुद्रा में उपस्थित हैं और जमकर खंडन-मंडन करते हैं। उनकी अध्ययन शीलता और तर्क प्रवणता पाठक को सहज ही प्रभावित करती है - कई बार बहसने को उत्तेजित भी। परंतु अधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि इन निबंधों में लेखक ने अनेक सटीक स्थापनाएँ की हैं। ऐसी कुछ उक्तियों को यहाँ देख लेना समीचीन होगा। जैसे रविरंजन की यह मान्यता ध्यातव्य है कि गोस्वामी तुलसीदास के राम भी वर्णाश्रम व्यवस्था को कायम रखने के पक्षधर हैं पर रामचरित मानस में शंबूक और सीता-निर्वासन वाला प्रसंग अनुपस्थित है। गौरतलब है कि यह केवल किसी प्रकरण व प्रसंग की अनुपस्थिति का मामला नहीं है, बल्कि भक्ति आंदोलन के जनोन्मुख मानवीय मूल्य का रचनात्मक प्रतिफलन है (पृ.9)। इसी प्रकार सुभद्राकुमारी चौहान के संदर्भ में यह कथन विचारणीय है कि राष्ट्रीय स्वाधीनता संग्राम के दो पहलुओं-साम्राज्यवाद विरोध एवं सामंतवाद-विरोध में ज़्यादातर प्रथम ही उनकी राष्ट्रीय कविताओं की मुख्य धुरी रहा है। ‘झाँसी की रानी’ कविता की पंक्ति ‘सिंहासन डोल (हिल) उठे राजवंशों ने भृकुटी तानी थी’ - से गुज़रते हुए सुभद्रा जी की इतिहास चेतना की उस सीमा का पता चलता है, जिसके तहत वे सामंतों को ही भारतीय राष्ट्रीयता का वाहक घोषित करती प्रतीत होती हैं (पृ.सं. 22)।


लेखक की कुछ अन्य निष्पत्तियां इस प्रकार हैं- भूमंडलीकरण एवं बाजारवाद के कारण सांप्रदायिक एवं जातिवादी ताकतें हाल के दशक में और अधिक ताकतवर हुई हैं और बुद्धिजीवी वर्ग हाशिये पर आ गया है (पृ.सं. 32)। समकालीन कहानियों में सामाजिक परिप्रेक्ष्य व सामाजिक संघर्ष शीलता स्पष्ट दिखाई पड़ती है और वह कहीं से भी कहानी पर थोपी हुई नहीं, बल्कि जीवन-प्रसंगों व संदर्भों के चित्रण के माध्यम से स्वाभाविक रूप से विकसित मालूम पड़ती है (पृ.सं. 34)। जो लोग प्रिंटिग प्रेस की शुरुआत से गद्य को जोड़कर देखते हैं, वे जाने-अनजाने औपनिवेशिक जेहनियत के शिकार हैं (पृ.सं. 43)। जब कविता पर अनुभूति के बजाय कोरी कल्पना शीलता हावी होने लगती है, तो यथार्थ अपने आप बरतरफ हो जाता है (पृ.सं. 55)। समकालीन कविता में काव्यानुभूति की संस्कृति के बदलते आयाम पर कोई भी सार्थक विमर्श सौंदर्य-बोध को दरकिनार करके असंभव है (पृ.सं. 75)। प्रेमचंद के कथा साहित्य में आए ज्यादातर किसान सवर्ण संस्कार से आक्रांत हैं (पृ.सं.93)। रामचंद्र शुक्ल जहाँ एक हद तक भौतिकवादी थे और साहित्य को समाज का वस्तुगत उत्पाद मानते थे, वहीं दूसरे ओर वे संस्कार की दृष्टि से सच्चे अर्थों में वैष्णव थे (पृ.सं. 103)। इन वाक्यों को यहाँ इस दृष्टि से उद्धृत किया गया है कि इनसे लेखक की समीक्षा दृष्टि और वैचारिक प्रतिबद्धता का सहज अनुमान किया जा सकता है। इसमें संदेह नहीं कि रविरंजन पुराने से पुराने और नए से नए साहित्य पर खुले मन से विचार करते हैं और उनकी यही विशेषता मेरे जैसे पाठक को आकृष्ट करती है।


अंततः ‘सौंदर्यात्मक संवेदनशीलता की कविता’ शीर्षक निबंध में उद्धृत केदारनाथ सिंह की इस कविता के साथ आज की बात को पूरा करना चाहूँगा कि -


इस शहर में
हर आदमी छिपा रहा है
अपनी प्रेमिका का नाम
सिवा उस हाकर के
जो सड़क पर चिल्ला रहा है
वियतनाम! वियतनाम!
उसका हाथ
अपने हाथ में लेते हुए मैंने सोचा
दुनिया को
हाथ की तरह गर्म और सुंदर होना चाहिए।

पृ.सं. 55)



’अनमिल आखर'/डा..रविरंजन/मिलिंद प्रकान, हैदराबाद/2005/125 रु./ पृष्ठ 112 (सजिल्द)।


कोई टिप्पणी नहीं: