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गुरुवार, 24 दिसंबर 2015

हिंदी की महत्ता और इयत्ता की पहचान कराता ग्रंथ 'हिंदी भाषा के बढ़ते कदम' - प्रो. अरुण

भास्वर भारत 
दिसंबर 2015
पृष्ठ 52-53 


हिंदी की महत्ता और इयत्ता की पहचान कराता ग्रंथ ‘हिंदी भाषा के बढ़ते कदम’
- डॉ. योगेंद्र नाथ शर्मा ‘अरुण’ 

दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा में वर्षों तक हिंदी भाषा और साहित्य के अध्ययन और अध्यापन में पूर्णतः मनोयोग से समर्पित रहे, चर्चित अक्षर-साधक एवं विद्वान डॉ. ऋषभदेव शर्मा (1957) द्वारा लिखित छह खंडों में सुनियोजित किए गए निबंधों के संग्रह ‘हिंदी भाषा के बढ़ते कदम’ (2015) को मैंने मनोयोगपूर्वक देखा और पढ़ा है. मैं बेझिझक और हार्दिक विश्वास के साथ कह सकता हूँ कि डॉ ऋषभदेव शर्मा ने अपने इन निबंधों में हिंदी भाषा को लेकर अपना जो सुदीर्घ चिंतन दिया है, वह हिंदी और हिंदी की अस्मिता से जुड़े अनेक प्रश्नों के समाधान तलाशने में जिज्ञासुओं की भरपूर मदद करेगा.

उत्तर भारत के छोटे से कस्बे खतौली, जनपद मुज़फ्फर नगर, उत्तर प्रदेश से लगभग तीन दशक पूर्व, दक्षिण भारत में हिंदी के शिक्षण की अपनी महत्वपूर्ण यात्रा पर निकले, तत्कालीन ‘तेवरी-आंदोलन’ के सूत्रधार, हिंदीसेवी डॉ. ऋषभदेव ने अपने इन निबंधों में उन अनेक भ्रांतियों का तर्कपूर्ण निवारण किया है, जिन्हें उत्तर और दक्षिण भारत में संभवतः ‘राजनैतिक साज़िश’ के तहत निरंतर फैलाया जाता रहा है और हिंदी को फलने-फूलने से रोक जाता रहा है.

‘हिंदी भाषा के बढ़ते कदम’ शीर्षक से लिखे गए इस निबंध संग्रह के कुल 43 निबंधों को लेखक ने छह खंडों में रखा है – (1) 'हिंदी का हिंडोला' खंड में 12 निबंध, (2) 'दखिन पवन बहु धीरे' में 07 निबंध, (3).. 'संप्रेषण की शक्ति' में 10 निबंध, (4) 'भाषा प्रौद्योगिकी' में 06 निबंध, (5) 'संरक्षण के निमित्त' में 04 निबंध, (6) 'भाषा चिंतन' में कुल 04 निबंध. 

इस प्रकार विद्वान लेखक डॉ. ऋषभदेव शर्मा ने अपने सुदीर्घ अनुभवों और भाषागत-चिंतन को अपने इस ग्रंथ में बड़े ही करीने से संजोया है और उनका यह मूल्यवान ग्रंथ समग्र भारत के उन जिज्ञासुओं की चिंताओं और जिज्ञासाओं का समाधान कर सकेगा, जो राजनैतिक कारणों से फैले भ्रमों के कारण उनके हृदयों में घर कर चुकी हैं. 

इस ग्रंथ के प्रथम खंड ‘हिंदी का हिंडोला’ के सभी बारह निबंधों में डॉ. ऋषभदेव शर्मा ने 'हिंदी' के ऐतिहासिक और भाषागत महत्व को अपने चिंतन का आधार बनाया है. 'हिंदी भाषा का महत्व: समसामयिक परिप्रेक्ष्य' में लेखक ने अत्यंत कुशलता से सप्रमाण यह सिद्ध किया है कि 'हिंदी' समग्र भारत राष्ट्र में सहज स्वीकार्य भाषा है. वे लिखते हैं “कोई भी भाषा तभी महत्वपूर्ण और सर्वस्वीकार्य होती है, जब वह अपने आपको निरंतर संस्कृति से जोड़ कर नए-नए प्रयोजनों (फंक्शन्स) के अनुरूप अपनी क्षमता प्रमाणित करे. इसमें संदेह नहीं कि हिंदी ने अपना यह सामर्थ्य पिछले दशकों में सिद्ध कर दिखाया है कि वह विश्व मानव के जीवन व्यवहार के समस्त पक्षों को अभिव्यक्त करने वाली सर्वप्रयोजनवाहिनी भाषा है!" (पृष्ठ 20)

अपने ग्रंथ के इसी महत्वपूर्ण खंड के एक अन्य सुंदर और विचारोत्तेजक निबंध ‘जनभाषा की अखिल भारतीयता’ भी मेरी इस धारणा को संपुष्ट करता है और पाठकगण भी इसे पढ़ कर यह अनुभव करेंगे कि विद्वान लेखक हिंदी के 'अखिल भारतीय' महत्व को किस तार्किक दृष्टि से रखते हैं कि सारी की सारी भ्रांतियों का निराकरण स्वतः ही हो जाता है तथा हिंदी के अखिल भारतीय स्वरूप को स्वीकार करने में सहज ही कोई बाधा शेष नहीं बचती. 

इस ग्रंथ का ऐसा ही विचारोत्तेजक और प्रेरक एक निबंध है ‘इंग्लिश हैज़ नो प्लेस’, जिसमे डॉ ऋषभदेव शर्मा ने व्याकरणिक आधार के साथ-साथ अन्य दृष्टियों से भी ‘अंग्रेज़ी’ की असमर्थता और अधूरेपन को उजागर किया है. यह निबंध तो निश्चय ही सबके लिए 'आँखें खोलने वाला' और अनिवार्यतः पढ़ा जाने वाला निबंध है.

डॉ. ऋषभदेव के इस मूल्यवान ग्रंथ का दूसरा खंड ‘दखिन पवन बहु धीरे’ तो निस्संदेह बेहद प्रासंगिक और अर्थवान है, जिसमें उन्होंने जहाँ 'दक्षिण' भारत में हिंदी की स्वीकार्यता और बढ़ते कदमों का प्रामाणिक विवेचन और विश्लेषण किया है, वहीं ऐतिहासिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और भाषा-वैज्ञानिक आधारों पर हिंदी तथा दक्षिण भारतीय भाषाओं के अंतर-संबंधों को भी बखूबी परखने का प्रयास किया है. दक्खिनी हिंदी की भाषिक और साहित्यिक उपलब्धि की विवेचना करने वाले निबंध इस खंड को दस्तावेजी महत्व प्रदान करते हैं.

इस निबंध संग्रह के तीसरे खंड ‘संप्रेषण की शक्ति’ में संकलित निबंधों में जहाँ हिंदी की ‘प्राण-शक्ति’ अर्थात "सम्प्रेषण-शक्ति" की विवेचना हुई है, वहीं आधुनिक दृष्टि और वैश्विक परिदृश्य के अनुसार हिंदी की उपयोगिता को रेखांकित करने का सजग प्रयास देखा जा सकता है. इस खंड के सभी निबंधों में हिंदी को वर्तमान "बाज़ारवाद" के सन्दर्भ में देखने का जो प्रयास किया गया है, उसके आधार पर डॉ ऋषभ देव शर्मा का यह कार्य स्तुत्य ही माना जाएगा, क्योंकि इन निबंधों से हिंदी को 'कंप्यूटर' के साथ-साथ, आधुनिकतम संचार माध्यमों के लिए 'सक्षम' सिद्ध करने में वे नितांत सफल रहे हैं. मैं तो दावे से कह सकता हूँ कि इस खंड के निबंधों को पढ़ कर आज के तथाकथित 'कम्प्यूटरविद' भी हिंदी के मुरीद हो जाएंगे. ‘बाज़ार-दोस्त भाषा हिंदी’ शीर्षक से लिखा गया निबंध विशेष उल्लेखनीय है, चूंकि इस में अनेक भ्रांतियों का सप्रमाण समाधान लेखक ने किया है - "हिंदी भी नए व्यावसायिक प्रयोजन के रूप में उपस्थित विज्ञापन की चुनौती के अनुरूप नए रूप में निखर कर ऊपर उठ आई है और इस तरह उसने स्वयं को बाज़ार-दोस्त भाषा सिद्ध कर दिया है!"(पृष्ठ 184). इस संदर्भ में डॉ. ऋषभदेव ने पृष्ठ. 186 से 189 तक कई प्रकार के लोकप्रिय विज्ञापनों की भाषा का विश्लेषण करके अपनी बात को प्रमाणित भी किया है.

‘हिंदी भाषा के बढ़ते कदम’ ग्रंथ के चौथे खंड ‘भाषा प्रौद्योगिकी’ के सभी छह निबंधों को मैं लेखक की सारगर्भित सोच के साथ-साथ चुनौती भरा प्रयास भी मानता हूँ, क्योंकि इन निबंधों में लेखक सर्वथा कई नई और विलक्षण स्थापनाएं देता है. 'हिंदी में वैज्ञानिक लेखन की परंपरा' के बाद ‘प्रौद्योगिकी और हिंदी’ शीर्षक से लिखे निबंध में डॉ ऋषभ देव वर्मान युग की प्रबलतम चुनौती को स्वीकार करते हैं. उनका निष्कर्ष आज सबको स्वीकार्य है- "इसमें संदेह नहीं कि यूनिकोड की सुविधा प्राप्त होने के बाद अब इंटरनेट और उस से जुड़े विविध कार्यक्षेत्रों में पूर्ण क्षमतापूर्वक हिंदी भाषा और देवनागरी लिपि का प्रयोग विस्तार पा रहा है. इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, फिल्म उद्योग, विज्ञापन उद्योग, मोबाइल, लैपटॉप, आई-पॉड, टेबलेट और सोशल मीडिया तक हिंदी की बहार आ रही है!" (पृष्ठ 129 -130)

डॉ ऋषभदेव के इस ग्रन्थ का पांचवां खंड ‘संरक्षण के निमित्त’ निस्संदेह आज के संदर्भों में बेहद प्रासंगिक हो गया है. जिस प्रकार राजनेता और शासन-प्रशासन में हिंदी की उपेक्षा हम ने निरंतर देखी है, तब तो ये निबंध और भी आवश्यक लगते हैं. "भाषा की मर्यादा की रक्षा के लिए" निबंध सचमुच आज पूरे समाज के लिए चुनौती ही प्रस्तुत करता है- "हिंदी भाषा के उज्ज्वल स्वरूप का भान कराने के लिए यह आवश्यक है कि उसकी गुणवत्ता, क्षमता, शिल्प-कौशल और सौंदर्य का सही-सही आकलन किया जाए." (पृष्ठ 259)

‘हिंदी भाषा के बढ़ते कदम’ के अंतिम छठे खंड के चार निबंध ‘भाषा चिंतन’ के रूप में डॉ. ऋषभदेव शर्मा के सुदीर्घ अध्यापन और अध्ययन के विस्तृत अनुभवों का निचोड़ ही है. इन निबंधों में कृष्णा सोबती, आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी और डॉ. कैलाश चंद्र भाटिया के भाषा चिंतन को आधार बना कर उन्होंने हिंदी भाषा की समृद्धि के साथ-साथ व्यापक संप्रेषण-शक्ति को भी सप्रमाण सिद्ध कर दिया है!

अंत में इस ग्रंथ की भूमिका के लेखक, दक्षिण भारत में हिंदी की ध्वजा को निरंतर ऊँचा रखने वाले विद्वान डॉ एम. वेंकटेश्वर के शब्दों से मैं अपनी सहमति व्यक्त करना चाहूँगा- "लेखक की प्रस्तुत रचना भाषा, साहित्य एवं संस्कृति के गंभीर अध्येताओं के लिए एक महत्वपूर्ण संदर्भ ग्रंथ सिद्ध होगी, ऐसा मेरा दृढ़ विश्वास है!" 

मुझे पूर्ण आशा और विश्वास है कि डॉ ऋषभ देव शर्मा के इन सुचिंतित निबंधों का हिंदी-जगत में भरपूर स्वागत होगा और इनसे हिंदी की अभिवृद्धि भी निश्चित रूप से होगी. मैं अपनी हार्दिक मंगल कामनाओं के साथ डॉ. ऋषभदेव शर्मा का अभिनंदन करता हूँ!

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हिंदी भाषा के बढ़ते कदम/ लेखक : डॉ. ऋषभदेव शर्मा/ प्रकाशक : तेज प्रकाशन, दरियागंज, नई दिल्ली/ 2015/ पृष्ठ. 304/ मूल्य 650 रु. 

डॉ. योगेंद्र नाथ शर्मा ‘अरुण’ 
पूर्व प्राचार्य एवं हिंदी विभागाध्यक्ष
74/3, न्यू नेहरू नगर
रूड़की-247667 
मोबाइल : 09412070351
ईमेल : ynarun@gmail.com

[भास्वर भारत] अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान की व्यावहारिक परख


भास्वर भारत / दिसंबर 2015 / पृष्ठ 52-53

पुस्तक समीक्षा : ऋषभदेव शर्मा

अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान की व्यावहारिक परख

मनुष्यों द्वारा विचारों और मनोभावों की अभिव्यक्ति के लिए व्यवहार में लाई जाने वाली भाषा के वैज्ञानिक अध्ययन के शास्त्र को भाषाविज्ञान कहा जाता है. सामान्य भाषाविज्ञान के अंतर्गत भाषा के उद्भव और विकास पर विचार किया जाता है. सैद्धांतिक भाषाविज्ञान भाषा अध्ययन और विश्लेषण के लिए सिद्धांत प्रदान करता है. वह मूलतः इस प्रश्न पर विचार करता है कि भाषा क्या है और किन तत्वों से बनी हुई है. इसके चार क्षेत्र हैं – ध्वनि विज्ञान, रूप विज्ञान, वाक्य विज्ञान और अर्थ विज्ञान. आधुनिक परिप्रेक्ष्य में भाषाविज्ञान सैद्धांतिकी से आगे बढ़कर विभिन्न क्षेत्रों में अनुप्रयुक्त हो रहा है और भाषा-उपभोक्ता की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान विकसित हुआ है. अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान के अंतर्गत भाषा शिक्षण, शैलीविज्ञान, कोशविज्ञान, भाषा नियोजन, वाक् चिकित्सा विज्ञान, समाजभाषाविज्ञान, मनोभाषाविज्ञान, अनुवादविज्ञान आदि अनुप्रयोग के क्षेत्र शामिल हैं. हिंदी में अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान की संक्रियात्मक भूमिका पर केंद्रित गंभीर पुस्तकों का लगभग अभाव-सा है. डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा (1975) की पुस्तक ‘अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान की व्यावहारिक परख’ (2015) इस अभाव की पूर्ति का सार्थक प्रयास प्रतीत होती है.



‘अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान की व्यावहारिक परख’ में कुल 29 अध्याय हैं जो इन 7 खंडों में विधिवत संजोए गए हैं – अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान, भाषा शिक्षण, अनुवाद विमर्श, साहित्य पाठ विमर्श (शैलिवैज्ञानिक विश्लेषण), प्रयोजनमूलक भाषा, समाजभाषिकी और भाषा विमर्श में अनुप्रयोग. अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान के अग्रणी विद्वान प्रो. दिलीप सिंह का निम्नलिखित कथन इस पुस्तक की प्रामाणिकता का सबसे अधिक विश्वसनीय प्रमाणपत्र है – 
“पुस्तक का प्रत्येक खंड एवं संबद्ध आलेख बड़ी ही तन्मयता के साथ लिखे गए हैं. इस तन्मयता का ही परिणाम है कि हिंदी भाषा के साहित्यिक और साहित्येतर पाठों के विश्लेषण में यह सफल हो सकी है और इस तथ्य को उजागर कर सकी है कि कोई भी भाषा (इस अध्ययन में हिंदी भाषा) अलग-अलग सामाजिक परिस्थितियों और प्रयोजनों में अलग-अलग ढंग से बरती ही नहीं जाती, बल्कि भिन्न प्रयोजनों में प्रयुक्त होते समय अपनी अकूत अभिव्यंजनात्मक क्षमता को भी अलग-अलग संरचनाओं में ढाल कर अलग-अलग तरीकों से सिद्ध करती है.”

लेखिका ने पहले खंड में अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान के स्वरूप और क्षेत्र पर सैद्धांतिक चर्चा की है. इसके बाद दूसरे खंड में मातृभाषा, द्वितीय भाषा और अन्य भाषा के रूप में हिंदी शिक्षण के लिए भाषाविज्ञान के सिद्धांतों के अनुप्रयोग पर चर्चा की है. तीसरे खंड में अनुवाद सिद्धांत, अनुवाद समीक्षा और अनुवाद मूल्यांकन पर सोदाहरण प्रकाश डाला गया है. पुस्तक का चौथा खंड साहित्यिक पाठ विमर्श के लिए शैलीविज्ञान के व्यावहारिक पक्ष को सामने लाता है. यहाँ एक निबंधकार (प्रताप नारायण मिश्र), एक उपन्यासकार (प्रेमचंद) और दो कवियों (शमशेर तथा अज्ञेय) के साहित्यिक पाठ निर्माण, बनावट और बुनावट का विश्लेषण किया गया है. यह खंड पाठ विश्लेषण के क्षेत्र में शोध करने वालों के लिए विशेष उपयोगी है. पाँचवे खंड में अखबारों से लेकर टीवी तक विविध संचार माध्यमों द्वारा समाचार से लेकर प्रचार तक के लिए व्यवहार में लाई जाने वाली हिंदी भाषा के लोच भरे गंभीर और आकर्षक रूप की सोदाहरण मीमांसा की गई है. इसके पश्चात छठा खंड समाजभाषाविज्ञान पर केंद्रित है. जहाँ एक ओर तो सर्वनाम, नाते-रिश्ते की शब्दावली, शिष्टाचार, अभिवादन और संबोधन शब्दावली पर हिंदी भाषासमाज के संदर्भ में तथ्यपूर्ण विमर्श शामिल है तथा दूसरी ओर दलित आत्मकथाओं और स्त्री विमर्शीय लेखन की भी गहन पड़ताल की गई है. यह खंड साहित्य पाठ विमर्श वाले खंड के साथ मिलकर पाठ विश्लेषण के विविध प्रारूप सामने रखता है. पुस्तक का अंतिम खंड है – ‘भाषाविमर्श में अनुप्रयोग’. यहाँ विदुषी लेखिका ने महात्मा गांधी, प्रेमचंद, अज्ञेय, रवींद्रनाथ श्रीवास्तव, विद्यानिवास मिश्र और दिलीप सिंह जैसे अलग-अलग क्षेत्रों से जुड़े विद्वानों के भाषाविमर्श पर सूक्ष्म विचार-विमर्श किया है. इतना ही नहीं यह खंड इन भाषाचिंतकों के भाषाविमर्श की केंद्रीय प्रवृत्तियों को भी रेखांकित करता है. लेखिका ने प्रमाणित किया है कि महात्मा गांधी के भाषाविमर्श के केंद्र में संपर्कभाषा या राष्ट्रभाषा का विचार है, प्रेमचंद के भाषाविमर्श में सर्वाधिक बल हिंदी, उर्दू और हिंदुस्तानी जैसी साहित्यिक शैलियों के रचनात्मक समन्वय पर है तो अज्ञेय का भाषाविमर्श उनकी साहित्यिक शैली के प्रति जागरूकता के इर्दगिर्द निर्मित होता है. प्रो. रवींद्रनाथ श्रीवास्तव को डॉ. जी. नीरजा ने अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान के सजग प्रहरी सिद्ध किया है तो विद्यानिवास मिश्र को आधुनिक भाषाशास्त्रीय चिंतन की पीठिका का भारतीय संदर्भ खड़ा करने का श्रेय दिया है. उनके अनुसार दिलीप सिंह का भाषाविमर्श अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान की संपूर्ण पड़ताल के लिए कटिबद्ध और प्रतिबद्ध है. उल्लेखनीय है कि यह पुस्तक प्रो. दिलीप सिंह को ही समर्पित भी है. 

अंत में, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के अनुवाद अध्ययन विभाग के आचार्य डॉ. देवराज के शब्दों में यह कहना समीचीन होगा कि “डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा को इस बात का श्रेय देना होगा कि उन्होंने एक ऐसे विषय पर भरपूर सामग्री तैयार की है जो अन्य लोगों के लिए रचनात्मक स्तर पर चुनौती बना हुआ है. उनकी अध्ययनशीलता और संकल्पशीलता के लिए मेरी शुभकामनाएँ!”

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अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान की व्यावहारिक परख/ गुर्रमकोंडा नीरजा/ 2015/ वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली/ पृष्ठ - 304/ मूल्य – रु. 495/- 

- प्रो. ऋषभदेव शर्मा 
(पूर्व आचार्य एवं अध्यक्ष
उच्च शिक्षा और शोध संस्थान 
दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा)

208 ए, सिद्धार्थ अपार्टमेंट्स
गणेश नगर, रामंतापुर 
हैदराबाद – 500013
मोबाइल – 08121435033
ईमेल – rishabhadeosharma@yahoo.com

मंगलवार, 22 दिसंबर 2015

[समीक्षा] आदिवासी और दलित विमर्श : दो शोधपूर्ण कृतियाँ


धरती के असली मालिक वे नहीं हैं जो इसका दोहन और उपभोग करने को सबसे बड़ा पराक्रम मानते हुए स्वयं को अहंकारपूर्वक वीर घोषित करते हैं बल्कि वे आदिवासी हैं जो धरती को अपनी माँ मानते हैं और अपने पूरे जीवन को धरती माता के प्रसाद की तरह ग्रहण करते हैं. तथाकथित आधुनिक सभ्य समाजों और आदिवासी समुदायों के बीच धरती से संबंध मानने का यह अंतर ही दो अलग-अलग जीवन दृष्टियों को जन्म देता है. सभ्यता के उच्च शिखरों का स्पर्श करता हुआ मनुष्य प्रकृति से दूर होता जाता है और इस तरह केवल भूमंडल ही नहीं समग्र पर्यावरण तथा स्वयं मनुष्य के अस्तित्व को खतरे में डालता चला जाता है. दूसरी ओर वे समुदाय हैं जिन्हें हम जनजाति कहते हैं वे अबाध उपभोग की दौड़ लगाने वाली सभ्यता की दृष्टि से भले ही हाशिए पर रह गए हों लेकिन उन्होंने धरती सहित संपूर्ण प्रकृति के साथ अपना रागात्मक संबंध टूटने नहीं दिया है. जल, जंगल और जमीन के साथ बंधे अपने अदृश्य स्नेहसूत्र की रक्षा की खातिर वे आज भी अपनी जान पर खेल जाने को तत्पर रहते हैं. इन निसर्गजीवी सीधे सच्चे आनंदमय प्राणियों को सही अर्थों में संस्कृति के जन्मदाता माना जाना चाहिए इन्होंने ही लोक की सारी सांस्कृतिक संपदा को आज भी सहेज-संभाल कर रखा हुआ है. इनके मौखिक साहित्य में वे तमाम जीवन मूल्य संरक्षित हैं जो सही अर्थ में मनुष्य की आत्मा के उन्नयन के लिए आवश्यक होते हैं. तथाकथित सभ्य समाज इन जनजातियों और आदिवासियों को या तो रहस्य रोमांच की दृष्टि से देखने का आदी रहा है या इनके श्रम और प्रेम का शोषण करने का अभ्यस्त रहा है या फिर इन्हें अपराधी और गुलाम बनाकर इनका नाश करने पर उतारू रहा है. इसमें इतिहास और संस्कृति पर शोध करने वालों का भी कम हाथ नहीं रहा है. कभी कभी तो ऐसा लगता है कि उन्होंने ही सहज मानवों के इन समूहों की बर्बर और जंगली छवि गढ़ने में मुख्य भूमिका निभाई है और इन्हें हाशिए पर पड़ा रहने को विवश किया है. राजनीति का भी इस षड्यंत्र में बराबर का हाथ रहा है, इससे इनकार नहीं किया जा सकता है. आदिवासी विमर्श मानव सभ्यता और संस्कृति के विकास में जबरदस्ती अनुपस्थित दर्ज किए गए आदिवासियों और जनजातीय समूहों की उपस्थिति को रेखांकित करने वाला विमर्श है भले ही इसके लिए आपको अपने अब तक के पढ़े-लिखे इतिहास को सिर के बल खड़ा करना पड़े. 

डॉ. इसपाक अली (1963) ने हिंदी में आदिवासी साहित्य(2014) शीर्षक अपने शोधपूर्ण ग्रंथ के माध्यम से एक तरफ तो यह दर्शाया है कि हिंदी के साहित्यकार हाशियाकृत आदिवासी समाजों के प्रति असंवेदनशील नहीं रहे तथा दूसरी ओर यह प्रतिपादित किया है कि मौखिक साहित्य या लोक साहित्य के रूप में प्रस्फुटित होने वाली आदिवासी जन की सहज अभिव्यक्तियाँ अब लिखित साहित्य के रूप में भी प्रकट होकर आ रही हैं, पाठक जगत को विस्मित कर रही हैं और आदिवासी अस्मिता का नया चेहरा निर्मित कर रही हैं. सहज भाषा-बानी में ढली हुई आदिवासी अभिव्यक्तियाँ आदिवासी समाजों की रीति-नीति और मूल्यबोध की प्रामाणिक जानकारी देने में समर्थ हैं. स्वयं जिए हुए जीवन की यह प्रामाणिकता आदिवासी साहित्य को परम विश्वसनीयता तो प्रदान करती ही है, उसकी पीड़ा और यातना का प्रभावी पाठ भी रचती है. यह पाठ उस साहित्य के पाठ के पुनर्पाठ का भी निकष बनता है जिसकी रचना आदिवासी रचनाकारों से पहले के हमारे संवेदनशील साहित्यकार करते रहे हैं. अभिप्राय यह है कि आदिवासी विमर्श किसी भी प्रकार उन साहित्यकारों को खारिज नहीं करता जिन्होंने स्वयं आदिवासी समूह का सदस्य न होते हुए भी आदिवासी समाज और जनजातियों के जीवन यथार्थ को साहित्य का विषय बनाया. कहना ही होगा कि ये दोनों गोलार्ध मिलकर ही आदिवासी विमर्श के पूरे मंडल का निर्माण करते हैं. 

‘हिंदी में आदिवासी साहित्य’ में विद्वान लेखक ने अत्यंत परिश्रमपूर्वक भारतीय आदिवासी समुदायों के जीवन की विशेषताओं को सामने रखते हुए उनकी समस्याओं की ओर ध्यान आकृष्ट किया है. यह ग्रंथ इस दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है कि भारतीय सभ्यता और संस्कृति के विकास में आदिवासी साहित्य के विविध संदर्भों को खोजकर यहाँ विवेचित किया गया है. लेखक ने आदिवासी और दलित साहित्यों के अंतर को भी तर्कपूर्वक समझाया है और आदिवासी साहित्य के नवोन्मेष के संदर्भ में उसके मूल्यों और सरोकारों को सोदाहरण स्थापित किया है. 

संभवतः यह ग्रंथ विस्तार से आदिवासी जीवन केंद्रित हिंदी उपन्यासों और कहानियों का विवेचन-विश्लेषण करने वाला अपनी प्रकृति का पहला ग्रंथ है जिसमें आज तक प्रकाशित कृतियों की खोजखबर शामिल है. इसमें संदेह नहीं कि आदिवासी विमर्श का यह खजाना डॉ. इसपाक अली ने गहरे पानी पैठकर खोजा है. आदिवासी जीवन केंद्रित हिंदी कविताओं विषयक सामग्री इस दृष्टि से सर्वाधिक महत्वपूर्ण बन पड़ी है. इसीलिए निस्संदेह यह ग्रंथ हिंदी साहित्य के विमर्शकारों, अध्येताओं, शोधकर्ताओं, अध्यापकों और पाठकों, सभी के लिए बहुआयामी उपयोगिता वाला ग्रंथ सिद्ध होगा. 

इसी क्रम में डॉ. इसपाक अली का एक और ग्रंथ प्रकाशित हुआ है – ‘दलित आत्मकथाएँ और उपन्यास : शोषण और संघर्ष’ (2015). काफी समय तक यह भ्रम बना रहा कि आदिवासी विमर्श और दलित विमर्श अलग नहीं है. लेकिन जैसा कि हमने अभी कहा है, डॉ. इसपाक अली इन दोनों की पृथकता के तर्क से सहमत है. दरअसल आदिवासी समूह आधुनिकता, औद्योगीकरण और प्रौद्योगिकी के कंधों पर चढ़कर आई सभ्यता की दौड़ में पीछे रह गए समूह अवश्य है परंतु इस अर्थ में वे दलित समूहों से एकदम भिन्न है कि भारतीय संदर्भ में दलित हमारे समाज के उस दबे कुचले अंश का नाम है जो वर्णव्यवस्था और जातिप्रथा की रूढ़ियों के कारण दमन, शोषण और तिरस्कार ही नहीं झेलता आया है बल्कि अस्पृश्य मानी जाने वाली जाति विशेष में जन्म लेने के कारण सहज मानवाधिकारों से भी वंचित रहा है. डॉ. इसपाक अली ने दलित विमर्श के अवलोकन बिंदु से हिंदी के दलित लेखकों की आत्मकथाओं और औपन्यासिक कृतियों का गहन विशलेषण किया है तथा उनके शोषण और संघर्ष की प्रामाणिक पहचान की है. उन्होंने यह सब पहचान पड़ताल इस साहित्य मं अभिव्यंजित ‘दालित्य’ के आधार पर की है क्योंकि यही वह मूल्य है जो दलित साहित्य को अब तक के ललित साहित्य के सौंदर्यशास्त्र की परिधि के बाहर स्वतंत्र पहचान देता है. दलितों ने शताब्दियों तक जो अमानवीय जीवन जिया और यंत्रणाएँ झेली, उनके बावजूद यदि 20वीं–21वीं शताब्दी में वे शिक्षा, सम्मान और सत्ता प्राप्त कर रहे हैं तथा अपनी पीड़ा और क्रोध को सीधी चोट करने वाली अभिव्यक्ति प्रदान कर रहे हैं, तो इसे लंबे समय तक हाशिए पर रहने को विवश किए गए दलित समुदाय की बड़ी उपलब्धि माना जाना चाहिए.
इसमें संदेह नहीं कि आदिवासी विमर्श और दलित विमर्श ने साहित्य को नया लोकतांत्रिक विस्तार प्रदान किया है. साहित्य में अपना अपना स्पेस ढूँढ़ती हुई आदिवासियों और दलितों की आवाजों का सही समय पर सही नोटिस लेने के लिए डॉ. इसपाक अली साधुवाद के पात्र हैं.     
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Ø  हिंदी में आदिवासी साहित्य/ डॉ. इसपाक अली/ साहित्य संस्थान, ई-10/660, उत्तरांचल कॉलोनी (निकट संगम सिनेमा), लोनी बॉर्डर, गाजियाबाद/ 2014/ पुष्ठ 272/ मूल्य – रु. 154
Ø  दलित आत्मकथाएँ और उपन्यास : शोषण तथा संघर्ष/ डॉ. इसपाक अली/ साहित्य संस्थान, ई-10/660, उत्तरांचल कॉलोनी (निकट संगम सिनेमा), लोनी बॉर्डर, गाजियाबाद/ 2015/ पृष्ठ – 240/ मूल्य – रु. 600   
-    ऋषभदेव शर्मा
      

[समीक्षा] बादल की चिट्ठी में 'पीड़ा से संवाद'

पीड़ा से संवाद/ (दोहा संग्रह)/
डॉ. श्याम मनोहर सिरोठिया / 2015/
 नवदीप प्रकाशन, दिल्ली-110092/
 88 पृष्ठ/ 225 रुपये. 


‘पीड़ा से संवाद’ छंदोबद्ध कविता और गीति परंपरा के सिद्ध-सुजान हस्ताक्षर डॉ. श्याम मनोहर सीरोठिया का नवीनतम दोहा-संग्रह है. कवि श्याम मनोहर के ये दोहे मनुष्य के अंतर्बाह्य जीवन के समस्त आयामों को अपने परिवृत्त में समेटते हैं और जगत के स्वभाव तथा व्यवहार पर मार्मिक टिप्पणियाँ करते हुए सहज सांकेतिक संदेश भी देते चलते हैं. इन दोहों के भीतर से कवि का जो व्यक्तित्व झांकता दिखाई देता है वह मूलतः एक संवेदनशील मनुष्य का व्यक्तित्व है जिसकी संवेदना विश्वव्यापिनी है. इसीलिए इन दोहों में कवि जिस पीड़ा से रूबरू और संवादरत है तथा जिस पीड़ा से ये दोहे अपने पाठक का साक्षात्कार कराते हैं, वह निजी और एकाकी पीड़ा नहीं है बल्कि ‘जन की पीर’ है. पीड़ा से संवाद तभी संभव है जब भोक्ता द्रष्टा बन जाए और निज तथा पर के भेद से परे लोक की पीड़ा का निदान लोक के मंगल के उद्देश्य से करना चाहे. युगों से जन के कवि इसीलिए पीड़ा से संवाद करते जागते आए हैं कि पीड़ा से मुक्ति का कोई मार्ग मिल सके जिसे वे अपने समय के मनुष्यों को दे सकें ताकि इस धरती पर जीवन को बेहतर और सुखकर बनाया जा सके.  डॉ. श्याम मनोहर सीरोठिया की काव्य साधना भी इसी महत सदुद्देश्य को समर्पित है. ‘पीड़ा से संवाद’ के दोहों के फलक की व्यापकता इसका प्रमाण है.

दोहा मूलतः हिंदी का जातीय छंद है जिसे लोक परंपरा द्वारा स्वीकृति के बाद क्लासिक परंपरा में शिखर स्थान प्राप्त है. दोहा रचना सरल प्रतीत होते हुए भी अत्यंत चुनौतीपूर्ण कर्म है. मात्राओं की गणना और तुकों का निर्वाह तो यांत्रिक क्रिया हो सकती है लेकिन एक मनोदशा, भाव, संवेदना, विचार, तर्क, संदेश को  इस छोटे से शिल्प में इस प्रकार समाहित करना कि अभिव्यक्ति में अर्थगांभीर्य, संक्षिप्तता, संपूर्णता, चमत्कार, व्यंजना और प्रेषणीयता जैसे वे गुण सन्निहित हों जो किसी उक्ति को सूक्ति बना देते हैं. मेरा मानना है कि इस रूप में दोहे की सिद्धि के लिए किसी भी शब्दकर्मी को लंबी साधना करनी पड़ती है. ‘पीड़ा से संवाद’ से गुज़रते हुए आपको लगेगा कि कवि श्याम मनोहर सीरोठिया ने वह साधना की है और तब सिरजा गया है यह बहुआयामी संवाद.

इस बहुआयामी संवाद में सबसे पहले कवि ने मन से मन की बात कराई है क्योंकि बाहरी संवादों से पहले भीतरी संवाद ज़रूरी है. मन से मन की बात आत्मसाक्षात्कार का प्रयास और स्व को सर्व से जोड़ने की काव्यात्मक प्रक्रिया है, नाभि में छिपी कस्तूरी की खोज है. यह कस्तूरी जब तक नहीं मिलती तब तक मन का हिरन बेचैन रहता है. कस्तूरी जब मिल जाती है, बेचैनी तब भी रहती है क्योंकि कस्तूरी की मुक्ति उसके होने या मिलने में नहीं, उसकी सुगंध के दिशाओं में व्यापने में है. कवि इसीलिए  प्रेम को कंजूस के धन की तरह सहेज रखने और उसकी पहरेदारी को नहीं कहता बल्कि प्रेम की पीड़ा से अनजाने आधुनिक विश्व को प्रेम बांटने का संदेश देता है. एक संवेदनशील सामाजिक प्राणी होने के नाते कवि को चारों ओर ऐसे लोगों की भीड़ देखकर बहुत पीड़ा होती है जिनके चेहरे मुखौटों से इस तरह ढंके हैं कि उनका वास्तविक चरित्र सदा पर्दे में रहता है. ऐसे लोग न तो रिश्ते-नातों की मर्यादा मानते हैं, न कथनी-करनी की एकता निभाते हैं और न ही कभी अपनी ओर मुड़कर देखते हैं. ऐसे लोगों की संबंधहीन और अपनी स्वार्थसिद्धि के लिए गलाकाट स्पर्द्धा में लिप्त भीड़ कवि को विचलित करती है और वह ऐसे एक अदद साधारण आदमी को खोजने लगता है जिसकी सूरत और सीरत में कोई फाँक न हो. वह कहीं दीखता है तो कवि प्रफुल्लित हो उठता है. ऐसा ही व्यक्ति टी दोस्ती के काबिल है न! वरना वह दोस्ती भी क्या दोस्ती जिसमें दोस्तों के बीच पारदर्शिता न हो, पर्देदारी हो! समता के धरातल पर सुख-दुःख का उन्मुक्त आदान-प्रदान करने वाले समशील दोस्तों को कवी आवाज़ देता है कि आएं और सपनों को साकार करें. कवि की ऐसी उक्तियों में व्यक्तित्व निर्माण और जीवन संघर्ष में सफलता के लिए निरंतर प्रयत्नशील रहने की प्रेरणा निहित है. जीवन संघर्ष में सफलता के लिए निरंतर प्रयत्नशीलता का संदेश देने के साथ ही दोहाकार यह भी स्मरण कराता चलता है कि समय बड़ा अनमोल है. समय के मूल्य की पहचान इसलिए भी ज़रूरी है कि इससे प्रत्यक्ष जगत की परिवर्तनशीलता और क्षणिकता का बोध होता है. यह बोध यदि सकारात्मक को तो व्यक्ति स्वार्थ से ऊपर उठकर उपकार में संलग्न होता है. कवि ऐसे समाज का सपना देखता है जिसमें सब परस्पर उपकार के स्नेह्सूत्र में आबद्ध हैं तथा कलमकार समाज को उद्बोधित करने की जिम्मेदारी निभाता है – विदूषक बनकर मनोरंजन करता नहीं घूमता. कवि को आलोचकों और निंदकों की भी पहचान है लेकिन सृजन को वह इससे प्रभावित नहीं होने देना चाहता. अपने समय और समाज से जुडाव का जीवंत प्रमाण देते हुए कवि डॉ. सीरोठिया जल-जंगल-ज़मीन के पीड़ापूर्ण प्रश्नों से भी सार्थक संवाद करते हैं और व्यक्ति व व्यवस्था से भी ऐसा करने की मांग करते हैं. इतने व्यापक सामाजिक सरोकारों वाले कवि को जब कभी ऐकांतिकता की आवश्यकता प्रतीत होती है तो वह मन की अबूझ तरंगों पर अजानी दिशाओं की ओर भी निकल जाता है और वहां से भी दोहों के अमोल मोती खोज लाता है. इन सब तथ्यों के प्रमाणस्वरूप इस संग्रह के हर पृष्ठ से उदाहरण दिए जा सकते हैं. लेकिन मैं ऐसा नहीं करूंगा. बल्कि कवि डॉ. श्याम मनोहर सीरोठिया के केवल एक दोहे के माध्यम से आपको इन दोहों के आस्वादन हेतु आमंत्रित करता हूँ –
बादल की चिठियाँ पढ़ें, बूँदें आँगन बीच.
खुशियाँ आईं पाहुनी, भेंटो हृदय उलीच..

आज बस इतना ही. शेष फिर कभी.

शुभकामनाओं सहित
-    ऋषभदेव शर्मा
पूर्व प्रोफ़ेसर-अध्यक्ष, उच्च शिक्षा और शोध संस्थान,
दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, हैदराबाद.
आवास : 208 – ए, सिद्धार्थ अपार्टमेंट्स, गणेश नगर,
रामंतापुर, हैदराबाद -500013.

मोबाइल : 08121435033

गुरुवार, 17 दिसंबर 2015

प्रवीण प्रणव के कविता संग्रह 'खलिश' की भूमिका

ख़लिश / प्रवीण प्रणव / 2016 / गीता प्रकाशन, हैदराबाद / 149 रु. / 144 पृष्ठ 

सूखी आँखों में लरजती पानी की बूँदें

‘ख़लिश’ युवा कवि प्रवीण प्रणव का यूँ तो पहला कविता संग्रह है लेकिन साहित्य सृजन के क्षेत्र में वे लंबे समय से सक्रिय हैं.  साहित्य और संगीत में प्रवीण प्रवीण उत्तर आधुनिक तकनीकी युग के कवि हैं लेकिन उनकी संवेदना की जड़ें परंपरा में गहरी जुडी हुई हैं. यह भी कहा जा सकता है कि प्रवीण प्रणव की कविताएँ ग्लोबल जमाने में संवेदना के क्षरण के प्रतिवाद के रूप में लोकल को प्रस्तुत करने वाली कविताएँ हैं. यह स्थानीयता कवि ने यादों के सहारे आयत्त की है. यदि यह कहा जाए कि उनके इस संग्रह की अनेक कविताओं का बीज-शब्द ‘याद’ है तो अतिशयोक्ति न होगी. यह याद प्रेम सहित विभिन्न संबंधों की याद है जो कंप्यूटर के पंखों पर बैठकर उड़े जा रहे मनुष्य के दामन से छूट रहे हैं. यह याद उस गाँव और लोक की है जो नगर और महानगर में लाकर रोप दिए गए कवि-मन में निरंतर बजता रहता है. यह याद उस साहित्यिक संस्कार की है जिसका निर्माण पौराणिक मिथकों से लेकर ग़ालिब और गुलज़ार तक ने किया है. इन कविताओं में समकालीन, सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक यथार्थ अपनी पूरी तल्खी के साथ दृष्टिगोचर होता है. साथ ही, कवि का अभिप्रेत ‘यूटोपिया’ भी आकार लेता दिखाई देता है.
‘खलिश’ कई तरह की है. उसके कई स्रोत हैं. रूमानी भावबोध और उसका टूटना युवा मन की पहली और व्यापक खलिश हो सकती है. आलोचक भले ही कवियों को अतीतजीवी कहते रहें, लेकिन अतीत की यादें ही जीवन को रसमय बनाए रखने के लिए काफी हुआ करती हैं. इसीलिए कवि चाहकर भी खंडित प्रणय-अनुभूति की स्मृति से बाहर नहीं आना चाहता. इन स्मृतियों में कवि ने बहुत कुछ समेटकर रखा है – ख़त में लिखी इबारत के अलावा मोरपंख, गुलाब और पीपल का पत्ता. ये स्मृतियाँ ही मानो काव्य-प्रेरणा हैं. पीपल का पत्ता भले ही पीला पड़ चुका  हो, गुलाब भले ही दब-कुचल गया हो, मोरपंख भी भले ही सूख गया हो, पर इनके साथ जुडी यादें कवि के मानस में रिश्तों की ताजगी को सहेजकर रखे हुए हैं. रिश्तों के प्रति कवि का यह आग्रह इस संग्रह की कविताओं में बार-बार दिखाई देता है. काव्य-नायक शाम हुए दिल की झिर्री को जरा सा खोलता ही है कि तेज हवा का झोंका बेला की भीनी खुशबू के साथ प्रियतमा की याद लिए चला आता है. प्रिय को मालूम है, जो चले गए हैं वे आएँगे नहीं; फिर भी आत्मदया उपजाने को सिगरेट और शराब के सहारे वह देवदास बनता है - “इस उम्मीद में कि/ कभी लौट आओगी तुम/ रोकोगी मुझे, टोकोगी मुझे/ समझाओगी/ ताने दोगी”. पारो नहीं आती पर उसके प्यार की निशानी कचनार बनकर फूलती है. प्रेमपात्र का नाम अपने हाथों की लकीरों में लिखने की चाह लिए प्रेमी बार-बार मिलन के दृश्यों को याद करता है और चिरागों की लौ दिल को जलाती रहती है. नायिका का भीगे बालों को झटकना और धानी ओढनी को मुंडेर पर टँगी छोड़ जाना नायक की प्रिय स्मृतियाँ हैं. साथ गुजारी शामें भी इस स्मृतिकोश में हैं. आकर्षण, दर्शन, मिलन, प्रणय-निवेदन, संयोग और फिर वियोग, प्रेम की यह पूरी गाथा बार-बार दोहराई जाने पर भी नई-नई सी लगती है. ये तमाम यादें ही कविता के बीज हैं – “सूखी आँखों में लरजती हैं पानी की बूँदें, कुछ याद आते ही,/ कुछ जल के दिल में भाप बना है, आज आँखों से होगी बरसात |”
इस संग्रह में बहुत सी रचनाएं ग़ज़ल के शिल्प में हैं और कुछ रचनाएं गीत के शिल्प में भी हैं. लेकिन कवि प्रणव इन दोनों ही विधाओं के चौखटे में बंधे हुए नहीं हैं. उनकी गजलें बड़ी सीमा तक रीतिमुक्त गजलें प्रतीत होती हैं. गीत पर भी यह बात लागू है. इसके बावजूद इन गीतों और गजलों की आकर्षण शक्ति इनमें विद्यमान सहज प्रवाह और लयात्मकता में निहित है. काव्य और संगीत के संस्कार का पता प्रवीण की रचनाओं में पारंपरिक ग़ज़ल-भाषा की उपलब्धता से भी चलता है. रक़ीब, खता, गिरेबान, गुनाहगार, गुलिस्तां, आशिक़, पैमाना, बुलबुल, सय्याद, दामन, मसीहा, सितमगर, ख्व़ाब, दफ़न, वफ़ा, आँखें, उल्फ़त, आरज़ू, कश्ती, भँवर, इश्क, जुगनू, चाँद, कँवल, जुल्फ़, रूह – जैसी शब्दावली इसका प्रमाण है.
सामाजिक-राजनैतिक यथार्थ के अंकन के प्रति कवि प्रवीण प्रणव की प्रतिबद्धता इस संग्रह के घोष वाक्य से ही उजागर होनी शुरू हो जाती  है - “सियासत में जो नेक होता दिल सियासतदानों का/ न जाने कितनी उजड़ी बस्तियां, आज भी आबाद होतीँ.” भारतीय लोकतंत्र की यह त्रासदी है कि सरकारें बदलती हैं लेकिन गरीब जनता के हालात नहीं बदलते. आम आदमी की इस नादानी पर कवि विस्मय करंता है कि वह लोककथाओं की तरह ‘दिन फिरने’ की आस रखता है. जब कवि यह कहता है कि प्रतिदिन अनचाहे ही अखबार में केवल अशुभसूचक समाचार पढ़ने पड़ते हैं तो वह हमारे समय के चेहरे के बदनुमा दाग दिखा रहा होता है. विकास के सारे सपने और आश्वासन इसलिए अधूरे हैं कि भ्रष्टाचार को जीवन-मूल्य के रूप में स्वीकृति मिल गई है – ‘मुफ्त में खुलता नहीं दरवाजा किसी खजाने का’. झूठ मानो हमारा राष्ट्रीय चत्रित बन गया है. हम अपने बच्चों के समक्ष भी पाखंडपूर्ण आचरण करने से बाज़ नहीं आते. बच्चे हालाँकि हमारे हर झूठ को अपने भोलेपन के साथ जी लेते हैं, लेकिन हमारे पास उन्हें देने के लिए थोड़ा सा समय तक नहीं होता. ऐसे में यदि रिश्ते-नाते मशीनी होते जा रहे हैं तो क्या किया जाय. अपराधबोध स्वाभाविक है – ‘मेरे समय को तरस जाएँ मेरे बच्चे / ऐसी ज़िंदगी का बोझ अब सर पे नहीं लिया जाता’. इस सामाजिक यथार्थ का आर्थिक पहलू और भी विसंगतिपूर्ण है. एक तरफ वे करोड़ों ऑंखें हैं जिनमें केवल दो जून की रोटी के सपने हैं तो दूसरी ओर वे गिने-चुने महामहिम हैं जो लक्ष्मी-पति हैं. अर्थात इस आर्थिक विषमता का एक सिरा राजनैतिक व्यवस्था के साथ जुड़ा है. पूरा का पूरा व्यवस्था-तंत्र जनता को लूटने का तंत्र बन गया है. नेता लुटेरे बन गए हैं और सियासत के घोड़े सदियों से ढाई घर चलते आ रहे हैं – ‘माना लुटेरे सीख लेते हैं हुनर, राजनेता बन जाने का/ ख़ामोशी से हम मान भी लेते हैं सरपरस्ती उनकी,/ बस यही बात दिल को खलती है/ सियासत सदियों से ढाई कदम की चाल चलती है’.
अभिप्राय यह है कि प्रवीण प्रणव हमारे समय के तमाम युवा रचनाकारों की तरह वर्तमान से असंतुष्ट और रुष्ट कवि हैं. उनका असंतोष और रोष उनकी पूरी पीढ़ी का असंतोष और रोष है. लेकिन प्रणव की अभिव्यक्ति प्रणाली की विशेषता इस बात में हैं कि वे इस असंतोष और रोष को नारा नहीं बनने देते, बल्कि पूरी संजीदगी के साथ वर्तमान की शल्यक्रिया करते हुए अपनी अभिप्रेत व्यवस्था का सपना  देखते हैं. इसके लिए वे प्रतीक और मिथक का कवि-सुलभ मार्ग खोजते हैं. प्रतीक और मिथक के सहारे वे ऐसी काव्य-भाषा गढ़ते हैं जो उनकी अभिव्यक्तियों को राजनैतिक बयान होने से बचा लेती है. गिद्ध और बुलबुल, अमृत, यक्ष-प्रश्न, सफ़ेद गुलाब, लाजवंती, सफ़ेद कपड़ों वाला फ़रिश्ता, कचनार, अभिमन्यु, रेल की पटरियाँ, मरीचिका, अहिल्या, चकोर और चाँद, ज़न्नत आदि ऐसे ही प्रतीक और मिथक हैं जिन्होंने इन कविताओं को अभिधात्मक होने से बचाया है और लाक्षणिकता से युक्त ध्वनि-काव्य बनाने में सहयोग किया है. कविताओं की कथात्मकता और व्यंगात्मकता भी अनेक स्थानों पर ध्यान खींचती है.     
अंत में यह कहना जरूरी है कि भले ही आज का कवि अभिव्यक्ति पर अंकुश और व्यापक असहिष्णुता के दौर में जीने को अभिशप्त है, तथापि प्रवीण प्रणव जैसे नए रचनाकार को यह घोषणा करते हुए संतोष है कि – ‘हर जुल्म पे आँखें मूंदी हमने शाह के दरबार में, / कलम था खुद्दार मेरा, दरबारी नहीं हुआ’. यह शुभ संकेत है कि इस पीढ़ी का रचनाकार न तो अतिरिक्त आवेश में है और न ही अतिरिक्त अवसाद में.  अपने समय की विरूप सच्चाइयों को पहचानने वाला कवि आशान्वित है कि अमावस के बावजूद पूर्णिमा अवश्य आयेगी और आतंक के साए को चीर देगी –

‘मुझे उम्मीद है अगली पूरनमासी तक
मेरा फिर से एक आशियाँ होगा
और तुम्हारा दामन पाक-साफ़
उसके बाद दहशतगर्द कभी लौट के नहीं आएँगे
जलाने को मेरा आशियाँ, तुम्हारा दामन
आमीन’

‘ख़लिश’ के प्रकाशन के अवसर पर कवि को अनंत शुभकामनाएं !


     3 नवम्बर, 2015                                                 -ऋषभदेव शर्मा

शुभाशंसा : आशा मिश्र 'मुक्ता' की पुस्तक 'साहित्यिक पत्रकारिता'

साहित्यिक पत्रकारिता
आशा मिश्र 'मुक्ता'
2016
गीता प्रकाशन, हैदराबाद
मूल्य : 595/-
पृष्ठ : 176  

शुभाशंसा

हिंदी पत्रकारिता का चरित्र आरंभ से ही साहित्यिकता प्रधान रहा है. इसे यों भी कहा जा सकता है कि पत्रकारिता के उदय के साथ ही हिंदी साहित्य में यह विशिष्ट चारित्रिक परिवर्तन घटित हुआ कि उसने पत्रकारिता के सरोकारों को अपने सरोकार बना लिया. इस तरह साहित्य और पत्रकारिता ने एक दूसरे को व्यापक जन-गण-मन से जोड़ने में परस्पर सहयोग किया. इस सहयोग की चित्ताकर्षक परिणति है हिंदी की साहित्यिक पत्रकारिता. साहित्य और पत्रकारिता की इस जुगलबंदी का परिणाम यह हुआ कि साहित्य को व्यापक पाठक समुदाय मिला और पत्रकारिता बड़ी सीमा तक सौंदर्यबोध और लोकमंगल को भी सूचना और सनसनी को साथ साथ साधती रही. यह तो सर्वविदित है ही कि पत्रकारिता ने हिंदी साहित्य को कविता की प्रधानता से मुक्त करके गद्य की प्रधानता में दीक्षित किया जिसके फलस्वरूप पिछले डेढ़ सौ साल में अनेक नई गद्य विधाओं का प्रवर्तन हुआ. 

यह भी उल्लेखनीय है कि साहित्यिक पत्रकारिता के विकास में केवल हिंदी की मुख्य भूमि का ही योगदान नहीं रहा बल्कि गौण भूमि अर्थात हिंदीतर भाषी क्षेत्रों ने भी अपनी उर्वरता प्रमाणित की है. इस दृष्टि से बंगाल, महाराष्ट्र, गुजरात आदि ‘ख’-वर्ग ही नहीं दक्षिण भारत अर्थात ‘ग’-वर्ग की देन भी कम महत्वपूर्ण नहीं है. स्वातंत्र्योत्तर काल में हिंदी साहित्य की परिवर्तनशीलता की अगुवाई करने वाली पत्रिका ‘कल्पना’ को कौन नहीं जानता जो हैदराबाद से निकलती थी. दक्षिण भारत और उसमें भी विशेष रूप से हैदराबाद (या कहें कि आंध्र प्रदेश और तेलंगाना) की साहित्यिक पत्रकारिता ने स्वतंत्रता आंदोलन और हैदराबाद मुक्ति संघर्ष से लेकर तेलंगाना आंदोलन तक को एक सीमा तक बौद्धिक नेतृत्व प्रदान किया. 

श्रीमती आशा मिश्रा ‘मुक्ता’ ने साहित्यिक पत्रकारिता पर केंद्रित अपनी प्रस्तुत पुस्तक में दक्षिण भारत, उसमें भी विशेष रूप से आंध्र प्रदेश और तेलंगाना, की साहित्यिक पत्रकारिता का सुसंबद्ध और संगठित ब्यौरा और लेखा-जोखा प्रस्तुत किया है. साथ ही हैदराबाद से प्रकाशित ‘पुष्पक’ का गहन अध्ययन और उसमें प्रकाशित सामग्री का विवेचन-विश्लेषण करके हिंदी जगत को साहित्यिक पत्रकारिता की देन पर प्रकाश डाला है. इसमें संदेह नहीं कि यह पुस्तक पत्रकारिता के जिज्ञासु पाठकों से लेकर विद्यार्थियों, शोधार्थियों और अध्यापकों तक के लिए उपादेय सामग्री से परिपूर्ण है. 

इस प्रामाणिक और शोधपूर्ण सामग्री के प्रकाशन के अवसर पर लेखिका को हार्दिक बधाई और शुभकामनाएँ. 

2 अक्टूबर, 2015 
 - ऋषभदेव शर्मा 

रविवार, 1 नवंबर 2015

अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान की व्यावहारिक परख


अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान की व्यावहारिक परख
 गुर्रमकोंडा नीरजा
2015
वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली
 पृष्ठ - 304
मूल्य – रु. 495/-
मनुष्यों द्वारा विचारों और मनोभावों की अभिव्यक्ति के लिए व्यवहार में लाई जाने वाली भाषा के वैज्ञानिक अध्ययन के शास्त्र को भाषाविज्ञान कहा जाता है. सामान्य भाषाविज्ञान के अंतर्गत भाषा के उद्भव और विकास पर विचार किया जाता है. सैद्धांतिक भाषाविज्ञान भाषा अध्ययन और विश्लेषण के लिए सिद्धांत प्रदान करता है. वह मूलतः इस प्रश्न पर विचार करता है कि भाषा क्या है और किन तत्वों से बनी हुई है. इसके चार क्षेत्र हैं – ध्वनि विज्ञान, रूप विज्ञान, वाक्य विज्ञान और अर्थ विज्ञान. आधुनिक परिप्रेक्ष्य में भाषाविज्ञान सैद्धांतिकी से आगे बढ़कर विभिन्न क्षेत्रों में अनुप्रयुक्त हो रहा है और भाषा-उपभोक्ता की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान विकसित हुआ है. अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान के अंतर्गत भाषा शिक्षण, शैलीविज्ञान, कोशविज्ञान, भाषा नियोजन, वाक् चिकित्सा विज्ञान, समाजभाषाविज्ञान, मनोभाषाविज्ञान, अनुवादविज्ञान आदि अनुप्रयोग के क्षेत्र शामिल हैं. हिंदी में अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान की संक्रियात्मक भूमिका पर केंद्रित गंभीर पुस्तकों का लगभग अभाव-सा है. डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा (1975) की पुस्तक ‘अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान की व्यावहारिक परख’ (2015) इस अभाव की पूर्ति का सार्थक प्रयास प्रतीत होती है.

‘अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान की व्यावहारिक परख’ में कुल 29 अध्याय हैं जो इन 7 खंडों में विधिवत संजोए गए हैं – अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान, भाषा शिक्षण, अनुवाद विमर्श, साहित्य पाठ विमर्श (शैलिवैज्ञानिक विश्लेषण), प्रयोजनमूलक भाषा, समाजभाषिकी और भाषा विमर्श में अनुप्रयोग. अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान के अग्रणी विद्वान प्रो. दिलीप सिंह का निम्नलिखित कथन इस पुस्तक की प्रामाणिकता का सबसे अधिक विश्वसनीय प्रमाणपत्र है – 

“पुस्तक का प्रत्येक खंड एवं संबद्ध आलेख बड़ी ही तन्मयता के साथ लिखे गए हैं. इस तन्मयता का ही परिणाम है कि हिंदी भाषा के साहित्यिक और साहित्येतर पाठों के विश्लेषण में यह सफल हो सकी है और इस तथ्य को उजागर कर सकी है कि कोई भी भाषा (इस अध्ययन में हिंदी भाषा) अलग-अलग सामाजिक परिस्थितियों और प्रयोजनों में अलग-अलग ढंग से बरती ही नहीं जाती, बल्कि भिन्न प्रयोजनों में प्रयुक्त होते समय अपनी अकूत अभिव्यंजनात्मक क्षमता को भी अलग-अलग संरचनाओं में ढाल कर अलग-अलग तरीकों से सिद्ध करती है.”

लेखिका ने पहले खंड में अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान के स्वरूप और क्षेत्र पर सैद्धांतिक चर्चा की है. इसके बाद दूसरे खंड में मातृभाषा, द्वितीय भाषा और अन्य भाषा के रूप में हिंदी शिक्षण के लिए भाषाविज्ञान के सिद्धांतों के अनुप्रयोग पर चर्चा की है. तीसरे खंड में अनुवाद सिद्धांत, अनुवाद समीक्षा और अनुवाद मूल्यांकन पर सोदाहरण प्रकाश डाला गया है. पुस्तक का चौथा खंड साहित्यिक पाठ विमर्श के लिए शैलीविज्ञान के व्यावहारिक पक्ष को सामने लाता है. यहाँ एक निबंधकार (प्रताप नारायण मिश्र), एक उपन्यासकार (प्रेमचंद) और दो कवियों (शमशेर तथा अज्ञेय) के साहित्यिक पाठ निर्माण, बनावट और बुनावट का विश्लेषण किया गया है. यह खंड पाठ विश्लेषण के क्षेत्र में शोध करने वालों के लिए विशेष उपयोगी है. पाँचवे खंड में अखबारों से लेकर टीवी तक विविध संचार माध्यमों द्वारा समाचार से लेकर प्रचार तक के लिए व्यवहार में लाई जाने वाली हिंदी भाषा के लोच भरे गंभीर और आकर्षक रूप की सोदाहरण मीमांसा की गई है. इसके पश्चात छठा खंड समाजभाषाविज्ञान पर केंद्रित है. जहाँ एक ओर तो सर्वनाम, नाते-रिश्ते की शब्दावली, शिष्टाचार, अभिवादन और संबोधन शब्दावली पर हिंदी भाषासमाज के संदर्भ में तथ्यपूर्ण विमर्श शामिल है तथा दूसरी ओर दलित आत्मकथाओं और स्त्री विमर्शीय लेखन की भी गहन पड़ताल की गई है. यह खंड साहित्य पाठ विमर्श वाले खंड के साथ मिलकर पाठ विश्लेषण के विविध प्रारूप सामने रखता है. पुस्तक का अंतिम खंड है – ‘भाषाविमर्श में अनुप्रयोग’. यहाँ विदुषी लेखिका ने महात्मा गांधी, प्रेमचंद, अज्ञेय, रवींद्रनाथ श्रीवास्तव, विद्यानिवास मिश्र और दिलीप सिंह जैसे अलग-अलग क्षेत्रों से जुड़े विद्वानों के भाषाविमर्श पर सूक्ष्म विचार-विमर्श किया है. इतना ही नहीं यह खंड इन भाषाचिंतकों के भाषाविमर्श की केंद्रीय प्रवृत्तियों को भी रेखांकित करता है. लेखिका ने प्रमाणित किया है कि महात्मा गांधी के भाषाविमर्श के केंद्र में संपर्कभाषा या राष्ट्रभाषा का विचार है, प्रेमचंद के भाषाविमर्श में सर्वाधिक बल हिंदी, उर्दू और हिंदुस्तानी जैसी साहित्यिक शैलियों के रचनात्मक समन्वय पर है तो अज्ञेय का भाषाविमर्श उनकी साहित्यिक शैली के प्रति जागरूकता के इर्दगिर्द निर्मित होता है. प्रो. रवींद्रनाथ श्रीवास्तव को डॉ. जी. नीरजा ने अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान के सजग प्रहरी सिद्ध किया है तो विद्यानिवास मिश्र को आधुनिक भाषाशास्त्रीय चिंतन की पीठिका का भारतीय संदर्भ खड़ा करने का श्रेय दिया है. उनके अनुसार दिलीप सिंह का भाषाविमर्श अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान की संपूर्ण पड़ताल के लिए कटिबद्ध और प्रतिबद्ध है. उल्लेखनीय है कि यह पुस्तक प्रो. दिलीप सिंह को ही समर्पित भी है. 

अंत में, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के अनुवाद अध्ययन विभाग के आचार्य डॉ. देवराज के शब्दों में यह कहना समीचीन होगा कि “डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा को इस बात का श्रेय देना होगा कि उन्होंने एक ऐसे विषय पर भरपूर सामग्री तैयार की है जो अन्य लोगों के लिए रचनात्मक स्तर पर चुनौती बना हुआ है. उनकी अध्ययनशीलता और संकल्पशीलता के लिए मेरी शुभकामनाएँ!”

बुधवार, 30 सितंबर 2015

[भूमिका] कविता लिखती हूँ मैं, जैसे फूल उगाती हूँ मैं

भूमिका 

क्षणिकाओं अथवा मुक्तकों के अपने इस नए संकलन 'धड़क रहा सागर बूँद में' [2015] के साथ कवयित्री शशि कोठारी [1962] एक बार फिर अपने पाठकों के सामने हैं. वैसे इनमें से अधिकतर रचनाओं को वे फेसबुक पर भी प्रस्तुत कर चुकी हैं और वहाँ इन्हें पर्याप्त प्रशंसा मिली है. लघु आकार की इन रचनाओं से उनका जो कवि व्यक्तित्व उभरता है वह जागतिक चिंताओं से मुक्त ऐसे प्रेमी का व्यक्तित्व है जो अपने प्रेमपात्र को आराध्य, या आराध्य को प्रेमपात्र, मानता है. यह प्रेमपात्र या आराध्य बुद्धों, सूफियों और भक्तों का वह परमात्मा है जो आत्मा में ही रहता है पर अलग दीखता है; और जब दिख जाता है तो अलगाव नहीं रहता – अद्वैत घटित हो जाता है. शशि कोठारी की ये कविताएँ ‘प्रिय के साथ अद्वैत’ (चाहत प्रिय अद्वैतता : बिहारी) साधने की विविध दशाओं – प्रेम, समर्पण, पात्रता, भक्ति, आत्मविसर्जन, तल्लीनता, सायुज्य आदि - की ही सहज अभिव्यक्तियाँ हैं. शिल्प की दृष्टि से कहीं ये अनगढ़ भी प्रतीत हो सकती हैं लेकिन इनका सौंदर्य इस सहजता में ही निहित है – अकृत्रिम आत्मस्वीकृतियों में!

अपनी प्रेमाभक्ति की गोपन-अगोपन अनुभूतियों को शशि ने सहज संप्रेषणीय प्रतीकों और बिंबों में बाँध कर प्रकट किया है. इसके लिए बहुत बार वे समान उपादानों का सहारा लेती हैं और सूक्तियां गढती हैं – स्व रस से बढ़कर कोई रस नहीं/ मौन से कर्णप्रिय कोई शब्द नहीं/ साक्षीभाव से बढ़कर कोई भाव नहीं/ स्थितप्रज्ञ से बढ़कर कोई स्थिति नहीं. इसी तरह जब वे कमल और कीचड के बहाने अस्तित्व और माया के संबंध की बात करती है तो समानता को ही उभारती हैं. इसके विपरीत वे अभिव्यक्तियाँ हैं जहाँ द्वंद्व या विरोध का सहारा लिया गया है. ऐसे स्थलों पर भीतर-बाहर, स्व-पर, तृष्णा-तृप्ति, रत्न-कांच, दुःख-सुख, उजाला-अँधेरा, सूर्य-छाया, बिखरना-सिमटना, धरती-आकाश, स्थूल-सूक्ष्म, असीम-क्षुद्र और अनंत-क्षणभंगुर के बीच का तनाव पाठक को वैचारिक सामग्री प्रदान करता है.

कथन को विश्वसनीय और प्रभावी बनाने के लिए कवयित्री ने द्रष्टांत, प्रश्न और उद्बोधन की भाषिक युक्तियों का भरपूर इस्तेमाल किया है. स्व से अनजान होने के कारण पर से बंधे रहने को वे भीतर से अनजान होने के कारण बाहर भटकने के द्रष्टांत द्वारा समझाती हैं तो तिल में तेल और कुंडली में कस्तूरी होने के संदर्भ याद आने लगते हैं. प्रश्न उन्होंने स्वयं से भी किए हैं, पाठक से भी और प्रिय से भी – मन भीतर जाए कैसे?/ आँखों में जब फूल ही फूल हैं, फिर बहार क्या और पतझड़ क्या?/ बंध कर किसी घट से, यह दरिया रहे कैसे?/ हमें भला किस तरह छुओगे तुम?/ ऊपर उठ गए अब, कीचड में फिर धंसें क्यों?/ आत्मा हूँ मैं, फिर नारी बन क्यों सह गई? इसी प्रकार उद्बोधन भी अपने और पाठक दोनों के लिए हैं – प्यार का रस बड़ा मीठा, पर स्व का रस पियो तो जानो./ माया में उलझो नहीं, ऊपर उठ जाओ./ पुकारो, पूरी शिद्दत से पुकारो. संबोध्य जब प्रिय हो तो बात कुछ ऐसे बनती है – मैं खो जाऊँ तो तुम मिल जाओ / मैं मर जाऊँ तो तुम जन्म लो. बेशक, ‘मैं’ का खोना ‘तुम’ के मिलने की शर्त है. पर स्त्री मन इससे आगे जाता है, वह अपने गर्भ से ‘तुम’ को जनना चाहता है. 

आत्मसाक्षात्कार और आत्मबोधन के अवसरों पर रचनाकार का स्त्री मन खुल कर व्यक्त हुआ है. प्रकृति-पुरुष का मिथक ऐसे में बड़े काम का सिद्ध होता है. मैं एक स्पंदन-धडकन-थिरकन-पुलकन हूँ, मैं फूल-पंछी-कंगन-कुंदन बन महक-चहक-खनक-दहक गई हूँ, सागर-मौन होकर भी मैं लहर-शब्द बन क्यों उछल-फिसल गई? मेरा कुछ बह गया है, मेरा कुछ ठहर गया है, ठहरा मैं बहते मैं को देख रहा है, प्यार धीरज और विश्वास से./ मैं नाजुक बेलिया, तुम सुदृढ़ दरख़्त, बेल बलवती होती गई, दरख़्त पिघलने लगा./ चाँद को चाँद की आस है. इस अद्भुत प्रणयलीला का चरम उत्कर्ष यह है - तूने अपना सर्वस्व मेरे नाम किया, मैं भी अपना स्नेह तुम पर बरसाना चाहूँ, और यह कहकर उतर गया सागर बूँद में, अहो! नन्ही बूँद मिटी नहीं, आप सागर बन गई. पर इस फलागम तक पहुँचने के लिए पात्रता हासिल करनी पड़ती है. परंपरित पुरुष-सोच समर्पण से पहले पवित्रता माँगता है – देह पवित्र नहीं, मन पावन नहीं, कैसे करूँ प्रभु, भजन मैं तेरा? अपावनता का कारण भी साफ़ है – तुम्हारी दृष्टि तो सदा मुझ पर थी, मेरी ही नज़र संसार पर टिकी रही. दृष्टि पलटते ही मिलन घटित हो जाता है; आग और पानी का मिलन – तुम आग हम पानी, बड़ा खूबसूरत यह मेल है, खुद में मर कर तुम में जीती हूँ, कितना खूबसूरत यह खेल है. शायद प्रेमियों का मोक्ष इसी तरह होता है कि – धड़क रहा सागर बूँद में, समा गया आकाश घट में, मुझमें वही समाया है, जी रहा वही मुझमें.

हर रचनाकार से उसके सृजन का प्रयोजन पूछा जाता है. कोई और पूछे न पूछे उसका मन तो पूछता ही है. शशि कोठारी ने इस प्रश्न का उत्तर कुछ इस तरह दिया है – कविता लिखती हूँ मैं, जैसे फूल उगाती हूँ मैं, किसी का घर महके न महके, मेरा घर तो महक ही जाता है. कवयित्री ने यह भी स्वीकार किया है कि – आप ही कवयित्री भी मैं, कविता भी मैं ही. रचनाकार और रचना की यह अद्वैतता भी प्रिय-अद्वैतता का ही एक रूप है. यहाँ आकर कवि और कविता, प्रेमी और प्रेम, अस्तित्व और सृजन एक हो जाते हैं – अब तो बस यही चाहूँ, जीवन कविता बन निखर जाए. 

जीवन और कविता के एक होने की यह कवि-कामना चरितार्थ हो; यह शुभकामना करते हुए मैं इस कृति के प्रकाशन पर शशि जी को हार्दिक बधाई देता हूँ.


21 सितंबर 2014                                                                                                        - ऋषभ देव शर्मा 

शनिवार, 15 अगस्त 2015

क्षितिज के पार : चेन्नई के हिंदी लेखक




भूमिका


‘’क्षितिज के पार’’ पुस्तक-समीक्षाओं का महत्वपूर्ण संकलन है. महत्वपूर्ण इसलिए कि इसके माध्यम से विभिन्न विधाओं की 16  कृतियों के विवेचन के बहाने इतनी बड़ी संख्या में युवा समीक्षकों नई पीढी अपने उदय की घोषणा कर रही है. इस पीढी की निगाहें रचना और रचनाकार के एक-दूसरे से मिलने का आभास देने वाले क्षितिज पर तो हैं ही, उसके पार जाने का भी हौसला और सामर्थ्य रखती हैं. यह हौसला और सामर्थ्य ही किसी समीक्षक को ‘पाठ’ के पार देख पाने की शक्ति देता है. चेन्नै के एम ओ पी महिला  महाविद्यालय के हिंदी विभाग के पत्रकारिता  पाठ्यक्रम से सम्बद्ध इन सभी छात्राओं / समीक्षकों तथा इनके इस प्रायोजना कार्य की निर्देशक डॉ. सुधा त्रिवेदी की इस सूझबूझ भरे रचनात्मक कार्य के लिए जितनी प्रशंसा की जाए, कम है. इससे चेन्नै की सजग हिंदी-चेतना का तो पता चलता ही है, वहां के साहित्य और पत्रकारिता जगत की संभावनाओं का भी संकेत मिलता है.

इस पुस्तक में अलग-अलग रचनाकार की रचनाधर्मिता के समीक्षात्मक उद्घाटन के लिए जिस प्रारूप का इस्तेमाल किया गया है, वह सहज ही ध्यान आकृष्ट करता है. यह पुस्तक जहाँ एक ओर समीक्षित रचनाकारों के जीवन और कृतित्व की संक्षिप्त झांकी प्रस्तुत करने के बाद उनकी किसी एक चुनी गई कृति में प्रवेश करती है, वहीं प्रत्येक समीक्षक का भी संक्षेप में पाठक से साहित्यिक परिचय कराती है जो निश्चय ही इन नवांकुरों के लिए उत्साहवर्द्धक और प्रेरक सिद्ध होगा. इन समस्त परिचयों को चित्रों के सहारे दर्शनीयता भी प्रदान की गयी है जो सराहनीय है. 

हिंदी में पुस्तक-समीक्षा की शुरूआत भारतेंदु युग से हुई. तब से अब तक इस विधा ने बहुत विकास कर लिया है. आज के समय में तो प्रकाशन व्यवसाय इतना बढ़ गया है कि उसकी तुलना में बहुत थोड़ी सी पुस्तकों की ही समीक्षा छप पाती है. ऐसे में हिंदी की मुख्यभूमि से दूर रहकर जो रचनाकार हिंदी में सृजनात्मक लेखन कर रहे हैं, प्रायः उनकी ओर तो पत्रिका-संपादकों और समीक्षकों की दृष्टि जाती ही नहीं है; और यदि जाती भी है तो केवल गिने-चुने शिखरों पर ही ठहरी रहती है. अतः इस नई और युवा समीक्षक पीढी से यह अपेक्षा रखना स्वाभाविक है कि इसके माध्यम से अधुनातन संचार साधनों द्वारा तमिलनाडु के हिंदी-स्वर देश भर में चर्चित होंगे. 

यह देखकर प्रसन्नता होना स्वाभाविक है कि इस पुस्तक में चेन्नै के कई पीढ़ियों के रचनाकारों का मूल्यांकन एक साथ प्रस्तुत किया गया है. डॉ. बालशौरि रेड्डी , रमेश गुप्त नीरद, डॉ. निर्मला एस. मौर्य, डॉ. पी. के. बाल सुब्रह्मण्यम , डॉ. मधु धवन, डॉ. प्रदीप के. शर्मा, डॉ. चुन्नीलाल शर्मा, प्रहलाद श्रीमाली, डॉ. एम. शेषन, डॉ. वत्सला किरण, ईश्वर करुण, डॉ. श्रीनिवासन, डॉ. गोविंदराजन , सुमन अग्रवाल, गोविन्द मूंदडा , रेखा अग्रवाल की पुस्तक, महेश नक्श  एवं डॉ. शरद रामदेव सिकची की पुस्तकों के  बहाने इस पुस्तक में चेन्नै के बहुभाषाभाषी हिंदी साहित्यकारों की देन से पूरे हिंदी जगत को इस रूप में संभवतः प्रथम बार एक मंच पर परिचित होने का अवसर प्राप्त हो रहा है. अतः यदि यह कहा जाए कि यह अपने आप में एक अनुकरणीय आयोजन है, तो अतिशयोक्ति न होगी.

हिंदी भाषा और साहित्य के विकास को समर्पित इस दूरदर्शितापूर्ण सकारात्मक प्रयत्न में शामिल सभी रचनाधर्मी मित्रों को बधाई देते हुए इस योजना की निरंतरता के लिए मेरी हार्दिक शुभकामनाएं!

- ऋषभदेव शर्मा 

रविवार, 19 जुलाई 2015

हिंदी में आदिवासी साहित्य : डॉ. इसपाक अली

हिंदी में आदिवासी साहित्य /
डॉ.इसपाक अली 09845432221, 09902964647 /
साहित्य संस्थान, ई-10/ 660, उत्तरांचल कॉलोनी,
निकट - संगम सिनेमा
लोनी बॉर्डर, गाज़ियाबाद - 201102 /
2014 / 272 पृष्ठ /  सजिल्द/ 154 रुपये
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शुभाशंसा

धरती के असली मालिक वे नहीं हैं जो इसका दोहन और उपभोग करने को सबसे बड़ा पराक्रम मानते हुए स्वयं को अहंकारपूर्वक वीर घोषित करते हैं बल्कि वे आदिवासी हैं जो धरती को अपनी माँ मानते हैं और अपने पूरे जीवन को धरती माता के प्रसाद की तरह ग्रहण करते हैं. तथाकथित आधुनिक सभ्य समाजों और आदिवासी समुदायों के बीच धरती से संबंध मानने का यह अंतर ही दो अलग-अलग जीवन दृष्टियों को जन्म देता है. सभ्यता के उच्च शिखरों का स्पर्श करता हुआ मनुष्य प्रकृति से दूर होता जाता है और इस तरह केवल भूमंडल ही नहीं समग्र पर्यावरण तथा स्वयं मनुष्य के अस्तित्व को खतरे में डालता चला जाता है. दूसरी ओर वे समुदाय हैं जिन्हें हम जनजाति कहते हैं – वे अबाध उपभोग की दौड़ लगाने वाली सभ्यता की दृष्टि से भले ही हाशिए पर रह गए हों लेकिन उन्होंने धरती सहित संपूर्ण प्रकृति के साथ अपना रागात्मक संबंध टूटने नहीं दिया है. जल, जंगल और जमीन के साथ बंधे अपने अदृश्य स्नेहसूत्र की रक्षा की खातिर वे आज भी अपनी जान पर खेल जाने को तत्पर रहते हैं. इन निसर्गजीवी सीधे सच्चे आनंदमय प्राणियों को सही अर्थों में संस्कृति के जन्मदाता माना जाना चाहिए – इन्होंने ही लोक की सारी सांस्कृतिक संपदा को आज भी सहेज-संभाल कर रखा हुआ है. इनके मौखिक साहित्य में वे तमाम जीवन मूल्य संरक्षित हैं जो सही अर्थ में मनुष्य की आत्मा के उन्नयन के लिए आवश्यक होते हैं. तथाकथित सभ्य समाज इन जनजातियों और आदिवासियों को या तो रहस्य रोमांच की दृष्टि से देखने का आदी रहा है या इनके श्रम और प्रेम का शोषण करने का अभ्यस्त रहा है या फिर इन्हें अपराधी और गुलाम बनाकर इनका नाश करने पर उतारू रहा है. इसमें इतिहास और संस्कृति पर शोध करने वालों का भी कम हाथ नहीं रहा है. कभी कभी तो ऐसा लगता है कि उन्होंने ही सहज मानवों के इन समूहों की बर्बर और जंगली छवि गढ़ने में मुख्य भूमिका निभाई है और इन्हें हाशिए पर पड़ा रहने को विवश किया है. राजनीति का भी इस षड्यंत्र में बराबर का हाथ रहा है, इससे इनकार नहीं किया जा सकता है. आदिवासी विमर्श मानव सभ्यता और संस्कृति के विकास में जबरदस्ती अनुपस्थित दर्ज किए गए आदिवासियों और जनजातीय समूहों की उपस्थिति को रेखांकित करने वाला विमर्श है – भले ही इसके लिए आपको अपने अब तक के पढ़े-लिखे इतिहास को सिर के बल खड़ा करना पड़े. 

डॉ. इसपाक अली ने ‘हिंदी में आदिवासी साहित्य’ शीर्षक प्रस्तुत ग्रंथ के माध्यम से एक तरफ तो यह दर्शाया है कि हिंदी के साहित्यकार हाशियाकृत आदिवासी समाजों के प्रति असंवेदनशील नहीं रहे तथा दूसरी ओर यह प्रतिपादित किया है कि मौखिक साहित्य या लोक साहित्य के रूप में प्रस्फुटित होने वाली आदिवासी जन की सहज अभिव्यक्तियाँ अब लिखित साहित्य के रूप में भी प्रकट होकर आ रही हैं, पाठक जगत को विस्मित कर रही हैं और आदिवासी अस्मिता का नया चेहरा निर्मित कर रही हैं. सहज भाषा-बानी में ढली हुई आदिवासी अभिव्यक्तियाँ आदिवासी समाजों की रीति-नीति और मूल्यबोध की प्रामाणिक जानकारी देने में समर्थ हैं. स्वयं जिए हुए जीवन की यह प्रामाणिकता आदिवासी साहित्य को परम विश्वसनीयता तो प्रदान करती ही है, उसकी पीड़ा और यातना का प्रभावी पाठ भी रचती है. यह पाठ उस साहित्य के पाठ के पुनर्पाठ का भी निकष बनता है जिसकी रचना दलित रचनाकारों से पहले के हमारे संवेदनशील साहित्यकार करते रहे हैं. अभिप्राय यह है कि आदिवासी विमर्श किसी भी प्रकार उन साहित्यकारों को खारिज नहीं करता जिन्होंने स्वयं आदिवासी समूह का सदस्य न होते हुए भी आदिवासी समाज और जनजातियों के जीवन यथार्थ को साहित्य का विषय बनाया. कहना ही होगा कि ये दोनों गोलार्ध मिलकर ही आदिवासी विमर्श के पूरे मंडल का निर्माण करते हैं. 

प्रस्तुत ग्रंथ में विद्वान लेखक ने अत्यंत परिश्रमपूर्वक भारतीय आदिवासी समुदायों के जीवन की विशेषताओं को सामने रखते हुए उनकी समस्याओं की ओर ध्यान आकृष्ट किया है. यह ग्रंथ इस दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है कि भारतीय सभ्यता और संस्कृति के विकास में आदिवासी साहित्य के विविध संदर्भों को खोजकर यहाँ विवेचित किया गया है. लेखक ने आदिवासी और दलित साहित्यों के अंतर को भी तर्कपूर्वक समझाया है और आदिवासी साहित्य के नवोन्मेष के संदर्भ में उसके मूल्यों और सरोकारों को सोदाहरण स्थापित किया है. 

संभवतः यह ग्रंथ विस्तार से आदिवासी जीवन केंद्रित हिंदी उपन्यासों और कहानियों का विवेचन-विश्लेषण करने वाला अपनी प्रकृति का पहला ग्रंथ है जिसमें आज तक प्रकाशित कृतियों की खोजखबर शामिल है. इसमें संदेह नहीं कि आदिवासी विमर्श का यह खजाना डॉ. इसपाक अली ने गहरे पानी पैठकर खोजा है. आदिवासी जीवन केंद्रित हिंदी कविताओं विषयक सामग्री इस दृष्टि से सर्वाधिक महत्वपूर्ण बन पड़ी है. इसीलिए निस्संदेह यह ग्रंथ हिंदी साहित्य के विमर्शकारों, अध्येताओं, शोधकर्ताओं, अध्यापकों और पाठकों, सभी के लिए बहुआयामी उपयोगिता वाला ग्रंथ सिद्ध होगा. 

आदिवासी विमर्श पर इस उत्तम ग्रंथ के प्रकाशन के लिए मैं लेखक और प्रकाशक दोनों को हार्दिक बधाई देता हूँ और आशा करता हूँ कि इससे उनके यश में वृद्धि होगी. 

शुभकामनाओं सहित

15 नवंबर 2013                                                                                                            - ऋषभ देव शर्मा

मंगलवार, 2 जून 2015

एक पवित्र स्वच्छ दिशा की ओर

डॉ. हरिश्चंद्र विद्यार्थी के काव्य 'उर्वरा' की भूमिका



डॉ. हरिश्चंद्र विद्यार्थी साहित्य सृजन, पत्रकारिता और समाजसेवा के हलकों में हैदराबाद की चर्चित शख्सियत हैं. उन्होंने अपने जीवन काल की विविध अवस्थाओं में अनेक कविताएँ रची हैं और कलम के माध्यम से मानवीय जीवन की चरितार्थता खोजने का प्रयास किया है. उनकी कविताओं में जहाँ एक ओर निजी संवेदनाओं की अभिव्यक्ति निहित है, वहीं दूसरी ओर वे सामाजिक और राष्ट्रीय मुद्दों तथा समस्याओं पर भी अपनी प्रतिक्रिया दर्ज करके अपने कवि की सार्थकता तलाशते हैं,
कवि विद्यार्थी अपने मन को पहचानने की पहल करते हैं तो सबसे पहले उनका सामना अस्तित्व के प्रश्नों से होता है. अस्तित्व को नकारात्मक परिभाषाओं  के आधार पर चीन्हने की आध्यात्मिकता को अस्वीकार करके वे अहम् और अस्मिता की स्वीकृति चाहते हैं – भले ही उसकी सीमाएँ हों. दूसरी और उन्हें जीवन और मृत्यु का चक्र भी भ्रामक प्रतीत होता है. वे चाहते है कि प्रकृति माँ अब इस अस्तित्व के भार को बार-बार लपेटना छोड़ दे. उन्हें इसकी परवाह नहीं कि जीवन यात्रा भटकाव की दिशा में अग्रसर है या सहारा मिलने की, अथवा अस्तित्व बहाव में है या किनारे पर; वे तो निष्काम कर्मयोगी की तरह मौन के अर्थ स्वयं ढूँढने और अनंत गहराइयों को स्वयं नापने का संकल्प संजोए हुए हैं और फल की इच्छा से निस्पृह रहकर आत्मनिवेदन करते दिखाई देते हैं – ‘’भटकाव में हूँ या सहारे पर/ बहाव में हूँ या किनारे पर/ तुम ही जानो- / बस मेरा समर्पण स्वीकार करो...’’

अपने इस कविता संकलन ‘’उर्वरा’’ में कवि हरिश्चंद्र विद्यार्थी आध्यात्मिक प्रश्नों से भी टकराते दिखाई देते हैं. ‘उस’ रहस्यमय के विषय में कवि की सहज जिज्ञासा द्रष्टव्य है – ‘’शून्य बादलों से मौन गुमसुम/ किस माया के परिवेश में आच्छादित तुम!/ समय की दिशाओं सी बदलती करवटें/ तुम और तुम्हारा व्यक्तित्व, भीतरी आवास/ का रूप बदलता प्रशिक्षण,’’ इस विरत की तुलना में मनुष्य का लघु अस्तित्व घुटन और कुंठाओं से दबा-दबा मौन प्रतीक्षा की घड़ियाँ गिनता है. इस प्रक्रिया में वह कई प्रकार के अनुभवों को  आयत्त करता है. यथा – माटी के काछे घड़े ज्यों फूटते हैं सभी / हम और आप सभी प्यार करने वाले बिन जल के मीन से जलचर हैं. पाप-पुण्य का द्वंद्व भी कवि मन को घेरता है. कवि को यह अहसास है कि प्यार को न समझने वाले विश्व की कसौटी पर सहज समर्पण को भी दोष माँ लिया जाता है. तभी तो ‘’मेरा दोष इतना ही है/ और मैं अपराधी हुआ भी कि नहीं/ कि तुम्हें अपना प्यार बांटता रहा.’’ दुनियावी कसौटियों की निरर्थकता इस प्रेमी को इस आत्मस्वीकृति के लिए प्रेरित करती है ‘’कि और विकृत न हो जाएं/  मेरे विकार – मुझे डँसें / कि – सदा सदा के लिए/ मैं स्वत्व को समर्पण कर दूं/ स्वाह-आहुति में/ मेरे शेष सपने न रहें/ कि दूषित मन से किसी को प्यार करता रहूँ.’’ कवि की दृष्टि में प्यार गंगा के जल सा स्वच्छ है और उसकी परिभाषा केवल आकाश की विराटता के रूप में की जा सकती है.

हमारे समय की बड़ी विडम्बना यह है कि व्यक्तिगत और सामाजिक दोनों ही सन्दर्भों में हम प्रेमहीन और प्रेमविरुद्ध समय में जीने के लिए विवश हैं. आदमी के हाथ से आदमी का हाथ छोतता जा रहा है और हम असहाय से खड़े देख रहे हैं. सिकंदर हों या अशोक, सभी की विस्तार लिप्सा आदमी और आदमीयत का खून पीकर बलवती होती है. आज भी तरह तरह की भोगवादी और साम्राज्यवादी शक्तियां धर्म से लेकर राज्य तक के नाम पर धरती को हिंसा रूपी दैत्य के जबड़ों में पीस रही हैं. काश ये शक्तियां भी सत्ता की भंगुरता के सच को कवि की तरह देख पातीं – ‘’लाशों के ढेर ढहाए/ अपनी पताका लहलहाए/ गीत विजय अगीत गाए/ पर उनका अहम् का स्तूप-दीप/ आज अब मेरे नयनों के सम्मुख/ बुझा हुआ, धूल धूसरित विकृत.’’

ऐसी स्थिति में कवि का अपने प्रभु के समक्ष अपलक प्रार्थना में खड़े होना स्वाभाविक है क्योंकि पीड़ित-कलुषित ब्रह्माण्ड की शांति का यही एक उपाय बचा है. कवि को दुःख है कि विश्व कलह चक्र बन गया है, चर-अचर/ चेतन-अचेतन का भेद किए बिना अणु-अणु में ज्वालामुखी फूट पड़े हैं; मन अमन हो गया है. सृष्टि की सहज शांति के भंग होने के भय सत्य की परछाइयां तक आशंकित और आतंकित हैं. यही कारन है कि गाँव के ताल-किनारे डूबते सूरज के समक्ष कवि समग्र पर्यावरण और मानवता की रक्षा के लिए शांतिपाठ करते हैं – ‘’आओ! हृदय के कलुषित कंकाल को ढहा दो,/ और- / एक पवित्र स्वच्छ दिशा की ओर / भुजाओं को फैला दो, शायद इसी में / शांति, अमरता, मोक्ष – सभी कुछ हमें मिल जाए.’’

अंत में, इतना और कि इस संग्रह की बहुत सी कविताएँ कवि ने वयस के चौथेपन में रची हैं. ऐसी कविताओं में वृद्धावस्था जनित खास तरह की उदासी में लिपटी हुई मृत्यु की प्रतीक्षा की गहरी साँसों को महसूस किया जा सकता है. इसे आस्तिक कवि की सृजनशील जिजीविषा की विजय ही कहा जाएगा कि यहाँ मृत्यु का भय नहीं बल्कि मुक्ति का आवाहन है – ‘’प्राण! मौत के दायरों से घिरा घिरा/ हर दिशा को निहारता है;/ कि मुक्ति के लिए / कोई मर्म मिल जाए!/.....ओ दिशाओ!/ मृत्युंजयी बनकर/ मृत्यु की मधुर कल्पनाओं को संवारो/ लोकतृष्णा और मुमुक्षु / इन क्षणों पर तुषारपात/ अपराध-/ सर्वांग बंधन मुक्त कर दो!’’

इतनी अर्थपूर्ण, मार्मिक और सामयिक कविताओं के लिए इनके रचनाकार डॉ. हरिश्चंद्र विद्यार्थी का अभिनंदन करते हुए मैं इस कविता संग्रह की सफलता की कामना करता हूँ. प्रेम बना रहे!

31 मई, 2015                                                      - ऋषभदेव शर्मा