फ़ॉलोअर

शनिवार, 29 दिसंबर 2018

(भूमिका) किन्नर विमर्श : समाज और साहित्य


सं. बिश्नोई, मिलन (2018), किन्नर विमर्श : साहित्य और समाज, कानपुर : विद्या 

भूमिका 

उत्तर आधुनिक विमर्श का दौर आने पर हिंदी साहित्य सृजन और समीक्षा के क्षेत्र में परिधि का केंद्र की ओर सरकने का जो क्रम शुरू हुआ था, उसके काफी अच्छे परिणाम निकले हैं। कल तक जो समुदाय और मुद्दे साहित्य-चिंतन के हाशिए पर थे तथा जिनकी निरंतर उपेक्षा हुई थी, वे नए-नए कई केंद्रों के रूप में उभर कर सामने आए। इससे हिंदी साहित्य की एककेंद्रीयता टूटी और समाज की बहुलता के अनुरूप साहित्य में लोकतंत्र संभव हुआ। स्त्री,दलित, अल्पसंख्यक और आदिवासी विमर्श इसी नई प्रवृत्ति के परिणामस्वरूप प्रकट और विकसित हुए। साथ ही, हाशिया कृत विमर्श के भी हाशिए पर इधर क्रमशः जो अन्य विमर्श उभरे हैं या उभर रहे हैं, उनमें तृतीयलिंगी विमर्श और समलैंगिक विमर्श खास तौर पर ध्यान खींचने वाले हैं। 

तृतीयलिंगी विमर्श को प्रायः ‘किन्नर विमर्श’ के रूप में संबोधित किया जाता है। स्मरणीय है कि ‘किन्नर’ शब्द से यहाँ ऐसे हाशियकृत समुदाय का बोध होता है जो स्त्री और पुरुष से इतर अथवा तृतीय जेंडर के अंतर्गत परिगणित है। ‘किन्नर’ शब्द का इस पारिभाषिक अर्थ में प्रयोग नया और आधुनिक है। इसे संस्कृत आदि स्रोत के साथ जोड़कर प्राचीन अर्थ में ग्रहण नहीं किया जा सकता। संस्कृत में ‘किन्नर’ शब्द का प्रयोग यक्ष, गंधर्व, राक्षस और अप्सरा आदि स्वर्ग वर्ग की योनियों अथवा जातियों के लिए किया जाता था। हिंदी साहित्य में भी यह इसी रूप में गृहीत रहा है। इसके अलावा किन्नौर के निवासियों को भी किन्नर कहे जाने की परंपरा रही है। परंतु जब ‘थर्ड जेंडर’ के लिए हिंदी में किसी तत्सम/ संस्कृतनिष्ठ शब्द की आवश्यकता पड़ी तो इसे ‘हिजड़ा’ शब्द के पर्याय के रूप में ग्रहण कर लिया गया क्योंकि हिंदी भाषासमाज में वह एक टैबू/ वर्जित शब्द है। ‘किन्नर विमर्श’ इस प्रकार उस समुदाय की अपनी अस्मिता को रेखांकित करने के लिए प्रयत्नशील विमर्श है जिसे जेंडर संबंधी किसी विकृति के कारण ‘हिजड़ा’कहे जाने का अभिशाप भोगना पड़ता है। इसमें संदेह नहीं कि पुरुष और स्त्री जितने पुराने हैं, मानव सभ्यता में शायद तृतीयलिंगी अथवा इतरलिंगी मनुष्यों की उपस्थिति भी उतनी ही पुरानी हो। लेकिन इसका यह भी अर्थ नहीं है कि प्राचीनता की दुहाई देते हुए कोई ‘अर्धनारीश्वर’ के मिथक को भी ‘हिजड़ा’ में बदल दे। ‘किन्नर’ का वर्तमान अर्थ आधुनिक युग की देन है जिसे आज की परिस्थितियों में ग्रहण किया गया है। इसलिए इस शब्द की प्राचीन साहित्य में उपलब्धता के आधार पर उस समय की किन्नर जाति को अति उत्साह वश तृतीयलिंगी समुदाय घोषित करना उचित नहीं माना जा सकता। 

तृतीयलिंगी समुदाय की उपस्थिति के प्राचीन प्रमाण ‘किन्नर’ शब्द से इतर भी बहुत सारे उपलब्ध होते हैं और वही तर्कसंगत भी है। शरीरविज्ञान और मनोविज्ञान की दृष्टि से ‘सुश्रुत संहिता’ में एक संपूर्ण प्रकरण ही इस समुदाय पर केंद्रित है।वहाँ इसके लिए ‘षंढ’ शब्द का प्रयोग किया गया है। इससे पता चलता है कि सुश्रुत के समय ‘षंढत्व’ के विविध कारणों, प्रकारों, संभावनाओं,औषधि और शल्यक्रिया द्वारा चिकित्सा की ठोस परंपरा विद्यमान थी। 

किसी व्यक्ति के षंढ या किन्नर या हिजड़ा होने के मूल में किसी न किसी प्रकार की जेनेटिक विकृति जिम्मेदार होती है। इसके लिए वह व्यक्ति या समुदाय स्वयं किसी भी प्रकार उत्तरदायी नहीं है। लेकिन ‘लिंगकेंद्रित (फैलोसेंट्रिक)’ व्यवस्था ने ऐसे व्यक्ति अथवा समुदाय के लिए अपने बीच कोई गुंजाइश नहीं छोड़ कर रखी है। हमारे समाज का यह दोगलापन भी विचित्र ही है कि एक ओर तो ऐसे व्यक्ति और समुदाय को समाज से बहिष्कृत, तिरस्कृत, अपमानित, अस्पर्शित और समाज की मूलकथा से पूरी तरह अनुपस्थित रखा जाता है तथा दूसरी ओर उसे देवत्व के मिथक के साथ जोड़कर रहस्यमय भी बना दिया जाता है। ‘किन्नर विमर्श’ इस लिंगभेदजनित अमानुषिकता का विरोध करता है और किन्नर समुदाय के मानवाधिकार को बहाल करने की माँग करता है। हिंदी के आधुनिक काल के साहित्य में ‘निराला’ के ‘कुल्ली भाट’ का चरित्र यदि समलैंगिक व्यक्ति का चरित्र है तो शिवप्रसाद सिंह की ‘बहाव वृत्ति’ तथा ‘बिंदा महाराज’ जैसी कहानियों के केंद्रीय चरित्र तृतीयलिंगी विमर्श की आरंभिक आहट देने वाले किन्नर चरित्र हैं जो समाज की मूलकथा में पुनर्वास के लिए जूझ रहे हैं। वृंदावन लाल वर्मा के एकांकी ‘नीलकंठ’का भी इस श्रेणी में उल्लेख किया जा सकता है। 

‘किन्नर विमर्श’ के हाशियाकृत समुदाय विमर्श के भी हाशिए पर रहने का एक बड़ा कारण यह है कि इन तमाम विमर्शों की प्रारंभिक स्थापना यह रही है कि जो कल तक अनुपस्थित रहा, वह आज उपस्थित होकर स्वयं अपने अस्तित्व की पहचान कराए। इसे स्वानुभूति अथवा इनसाइडर द्वारा दिया गया साक्ष्य माना जाता है। अभी तक हमारे समाज में किन्नर समुदाय अपने दैनिक जीवन के संघर्ष में ही इस बुरी तरह फँसा हुआ है कि उसके पास न तो वैसी शिक्षा है और नही अभिव्यक्ति की वैसी परंपरा कि वह अपनी व्यथा को अपनी ज़बानी बयान कर सके। इस विडंबना के बावजूद साहित्य में यदि इक्का-दुक्का किन्नर आत्मकथाएँ आ रही हैं तो इसे अत्यंत क्रांतिकारी पहल माना जाना चाहिए। इसके अलावा, स्वानुभूति के अतिरिक्त सहानुभूति का बहुत सा साहित्य किन्नर विमर्श के खाने में विविध विधाओं में रचा जा रहा है। इस नए रचे गए साहित्य में रचनाकारों ने काफी हद तक किन्नर समुदाय को निकट से देख कर उनकी जीवन गाथा, वेदना, प्रथाओं, सामुदायिकता और आकांक्षाओं को प्रकट करने का सफल प्रयास किया है। भिक्षाटन और नाचने-गाने से लेकर तरह-तरह के वेश्या वृत्ति और माफिया अपराधों तक में लिप्त होने के अलावा भी आधुनिक समाज में किन्नर अपनी उपस्थिति विभिन्न व्यवसायों, सामाजिक कार्यों और राजनीति में दर्ज करा रहे हैं। यह साहित्य इस सब को भी सामने लाने का काम कर रहा है। अतः स्वागत योग्य है। स्वागत हो भी रहा है। लेकिन विमर्श-साहित्य के अन्य प्रकारों की तरह इस साहित्य की भी एक बड़ी सीमा इसका सनसनीखेज हो जाना है जिसके कारण काफी हद तक ये रचनाएँ एक खास तरह के फार्मूले में बंधती दिखाई देने लगी हैं जिससे इनकी प्रामाणिकता संदिग्ध हो सकती है। किन्नर विमर्श को इस प्रकार रीतिबद्ध होने से बचना होगा,अन्यथा उसकी संभावनाएँ धूमिल हो जाएँगी। 

“किन्नर विमर्श : समाज और साहित्य”शीर्षक इस ग्रंथ में किन्नर विमर्श के तमाम पहलुओं समेटने का बहुत सफल प्रयास किया गया है। संपादक मिलन बिश्नोई स्वयं अत्यंत संभावनापूर्ण युवा कवयित्री हैं। उन्होंने एमफिल और पीएचडी के स्तर पर अपने शोध कार्य के लिए ‘किन्नर विमर्श’ को चुनकर हाशिए के इस समुदाय के प्रति अपनी संवेदनशीलता को क्रियात्मक रूप प्रदान किया है।इसमें संदेह नहीं कि यह ग्रंथ अपने शोध कार्य के प्रति मिलन बिश्नोई की गहन निष्ठा का परिणाम है। देश भर के विविध विश्वविद्यालयों/ महाविद्यालयों से जुड़े बहुत से शिक्षकों, शोधार्थियों और साहित्य-अध्येताओं ने इस ग्रंथ के लिए अपने आलेख उपलब्ध कराए; इस हेतु सभी सम्मिलित लेखकों सहित संपादक और प्रकाशक को पुनः पुनः साधुवाद और बधाई। मुझे पूरा विश्वास है कि सर्वथा नई ज़मीन तोड़ने वाले इस विचारोत्तेजक ग्रंथ का हिंदी जगत में यथोचित स्वागत और सम्मान होगा। 

शुभकामनाओं सहित 

 - ऋषभदेव शर्मा 

बुधवार, 10 अक्तूबर 2018

भक्तिकाल की काव्य प्रवृत्तियाँ : राम भक्ति काव्य परंपरा

भक्तिकाल में सगुणमार्गीय कवियों का एक वर्ग रामभक्ति काव्यधारा के रूप में माना जाता है। इसमें सगुण भक्ति के आलंबन के रूप में विष्णु के अवतार राम की प्रतिष्ठा है। यहाँ ‘राम’ का अर्थ परब्रह्म या ऐसी परम शक्ति है जिसमें सभी देवता रमण करें। बाद में यह ‘दशरथपुत्र राम’ का वाचक बन गया। राम उत्तरवैदिक काल के दिव्य महापुरुष माने जाते हैं। राम कथा विषयक गाथाएँ कब से रची जाती रही हैं, यह कहना कठिन है। फिर भी पश्चिमी विद्वानों का अनुमान है कि वाल्मीकि ने आदिकाव्य ‘रामायण’ की रचना ग्यारहवीं शती ईसा पूर्व से तीसरी शती ईसा पूर्व के बीच कभी की होगी, जिसमें मौखिक रूप में प्रचलन के कारण बहुत सा परिवर्तन और परिवर्धन हुआ। वाल्मीकि ने रामकथा को ऐसा मार्मिक रूप प्रदान किया कि वह जनता और कवियों दोनों में समान रूप से आकर्षक और लोकप्रिय बन गई। विविध देशी-विदेशी भाषाओं में रामकाव्य की लंबी परंपरा है। ईस्वी सन के प्रारंभ से राम को विष्णु के अवतार के रूप में स्वीकृति मिलनी शुरू हुई, परंतु भक्ति के क्षेत्र में राम की प्रतिष्ठा विशेष रूप से ग्यारहवीं शताब्दी ईस्वी के आसपास मानी जाती है। तमिल आलवारों की भक्ति रचनाओं में राम का निरंतर उल्लेख प्राप्त होता है। नौवीं शताब्दी के कुलशेखर आलवार के पदों में प्रौढ़ रामभक्ति अंकित है। ग्यारहवीं शताब्दी से लेकर रामभक्ति संबंधी काव्य रचनाओं की संख्या बढ्ने लगी। पंद्रहवीं शताब्दी से लेकर राष्ट्रीय, सामाजिक और राजनैतिक परिस्थितियों में राम का लोकरक्षक रूप इतना अधिक प्रासंगिक सिद्ध हुआ कि तब से समस्त राम काव्य भक्तिभाव से ओतप्रोत होने लगा। यहाँ तक कि रामकथा की लोकप्रियता के कारण निर्गुण संत कवियों को भी ‘राम-नाम’ का सहारा लेना पड़ा। फादर कामिल बुल्के का मत है कि “हिंदी साहित्य के आदिकाल में रामानंद ने उत्तर भारत में जनसाधारण की भाषा में रामभक्ति का प्रचार किया था। इसके फलस्वरूप हिंदी राम साहित्य, आधुनिक काल को छोडकर प्रायः भक्ति भावना से ओतप्रोत है। इस साहित्य की चार प्रमुखताएँ प्रतीत होती हैं – (1) तुलसीदास का एकाधिपत्य, (2) लोकसंग्रही दास्य भक्ति का प्राधान्य, (3) कृष्ण काव्य का प्रभाव और (4) विविध रचना शैलियों, छंदों और साहित्यिक भाषाओं का प्रयोग। 

तुलसीदास से पहले रामकाव्य के अंतर्गत रामानंद के कुछ पदों के अतिरिक्त ‘पृथ्वीराज रासो’ के रामकथा विषयक 48 छंदों, ‘सूरसागर’ के रामकथा संबंधी 150 पदों और ईश्वरदास रचित ‘रामजन्म’, ‘अंगद पैज’ तथा ‘भरत मिलाप’ का उल्लेख करना आवश्यक है। तुलसी के समकालीन कवियों में अग्रदास (पदावली, ध्यान मंजरी) और नाभादास (रामचरित के पद) का महत्वपूर्ण स्थान है। इसी प्रकार मुनिलाल (रामप्रकाश), केशवदास (रामचंद्रिका), सोठी महरबान (आदि रामायण), प्राणचंद, हृदयराम (हनुमन्नाटक), रामानंद (लक्ष्मणायन) और माधवदास (रामरासो) भी तुलसी के समकालीन अन्य राम साहित्य के उन्नायक है। तुलसी के बाद प्राणचंद चौहान (रामायण महानाटक), लालदास (अवध विलास), सेनापति (कवित्त रत्नाकर) और नरहरिदास (अवतार चरित) का इस परंपरा में उल्लेख किया जा सकता है। 

गोस्वामी तुलसीदास (1532-1623) सही अर्थों में मध्यकाल में भारतवर्ष के ‘लोकनायक’ हैं। इनके द्वारा रचित अनेक ग्रंथ उपलब्ध हैं, जिनमें रामचरित मानस, कवितावली, विनयपत्रिका, दोहावली आदि सम्मिलित हैं। इनका ‘रामचरितमानस’ साहित्य, भक्ति और लोकसंग्रह की अनुपम कृति है। इसकी रचना को उत्तर भारत के सांस्कृतिक और धार्मिक इतिहास में मध्यकाल की सर्वाधिक महत्वपूर्ण घटना माना गया है। 

‘रामचरित मानस’ में शास्त्रीयता को लोकग्राही बनाने की प्रक्रिया द्रष्टव्य है। तुलसी ने ‘स्वांतः सुखाय’ काव्य रचना करते हुए ‘सब कहँ हित’ को भी साधा। वे राजनैतिक-सामाजिक संदर्भों में विदेशी आक्रमण और सांस्कृतिक संक्रमण के दौर में मर्यादा पुरुषोत्तम राम के रूप में एक सक्रिय प्रतिरोध की रचना करते हैं और उसे लोकरक्षण से जोड़ते हैं। साथ ही एक साधक के रूप में अपने अहं के विस्फोट से बचने के लिए राम के भरोसे अपने आत्मसंघर्ष से पार पाते हैं। उनका काव्य ‘विरुद्धों का सामंजस्य” का सर्वोत्तम उदाहरण है। समन्वय भावना के कारण ही उन्हें ‘लोकनायकत्व’ प्राप्त हैं। वे भारतीय लोक के कवि हैं तथा गृहस्थ-जीवन और आत्म-निवेदन जैसे दो अनुभव-क्षेत्रों के सिरमौर हैं, इसलिए भारतीय मानस के सर्वाधिक निकट हैं। सामाजिकता और वैयक्तिकता का अद्भुत संतुलन उनके काव्य के लोकपक्ष और साधनापक्ष को पुष्ट करता है। इस संदर्भ में कुछ उदाहरण द्रष्टव्य हैं – 
राम की सर्वव्यापकता : 

निगम अगम, साहब सुगम, राम साचिली चाह। 
अंबु असन अवलोकियत सुलभ सबहिं जग माँह।। 

समन्वय भावना : 

"भारत का लोकनायक वही हो सकता है जो समन्वय करने का अपार धैर्य लेकर आया हो। भारतीय जनता में नाना प्रकार की परस्पर विरोधिनी संस्कृतियाँ, साधनाएँ, जातियाँ, आचार-विचार और पद्धतियाँ प्रचलित हैं। तुलसीदास स्वयं नाना प्रकार के सामाजिक स्तरों में रह चुके थे। उनका सारा काव्य समन्वय की विराट चेष्टा है। उसमें केवल लोक और शास्त्र का ही समन्वय नहीं है – गार्हस्थ और वैराग्य का, भक्ति और ज्ञान का, भाषा और संस्कृति का, निर्गुण और सगुण का, पुराण और काव्य का, भावावेश और अनासक्त चिंतन का समन्वय ‘रामचरितमानस’ के आदि से अंत तक दो छोरों तक जाने वाली पराकोटियों को मिलाने का प्रयत्न है।" (डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी)। 

सामाजिकता : 

सब नर करहिं परस्पर प्रीती। 
चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीति।। 

राजनैतिक चेतना : 

जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी। 
तो नृप अवसि नरक अधिकारी।। 

काव्य भाषा की मौलिकता : 

"उनकी भाषा में भी एक समन्वय की चेष्टा है। तुलसीदास की भाषा जितनी ही लौकिक है, उतनी ही शास्त्रीय। तुलसीदास के पहले किसी ने इतनी परिमार्जित भाषा का उपयोग नहीं किया था। काव्योपयोगी भाषा लिखने में तुलसीदास कमाल करते हैं। उनकी ‘विनय पत्रिका’ में भाषा का जैसा जोरदार प्रवाह है वैसा अन्यत्र दुर्लभ है। जहाँ भाषा साधारण और लौकिक होती है वहाँ तुलसीदास की उक्तियाँ तीर की तरह चुभ जाती है और जहाँ शास्त्रीय और गंभीर होती हैं वहाँ पाठक का मन चील की तरह मंडरा कर प्रतिपाद्य सिद्धांत को ग्रहण कर उड़ जाता है।" (डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी)। 

संत कवियों की साखियों और पदों, जायसी के ‘पद्मावत’, सूरदास के सरस पदों के संग्रह ‘सूरसागर’ और गोस्वामी तुलसीदास की अन्यतम कृति ‘रामचरितमानस’ हिंदी साहित्य को भक्ति काल की महान देन हैं। इस काव्य ने ज्ञान और भक्ति के संदेश द्वारा मध्यकाल में सामाजिक मनोबल का निर्माण करके भारतीय अस्मिता को नवीन परिभाषा से महिमा मंडित किया। मनुष्य और मनुष्य की समानता, ईश्वर की सर्वापरिता, पाखंड के खंडन, आध्यात्मिक प्रेम में संपूर्ण समर्पण भाव, मानवतावाद, पारिवारिक और सामाजिक आदर्शों की स्थापना, लोक मर्यादा की स्थापना, मनुष्य की रागात्मक वृत्ति के परिष्कार और विभिन्न काव्यविधाओं और काव्यभाषा के निरंतर विकास की दृष्टि से भक्ति काल की उपलब्धियाँ अनेकविध और बहुआयामी हैं। इसे उचित ही ‘हिंदी साहित्य का स्वर्ण युग’ माना गया है।

भक्तिकाल की काव्य प्रवृत्तियाँ : कृष्ण भक्ति काव्य परंपरा

सगुणमार्गीय भक्तिकाव्य में कृष्ण को आराध्य मानने वाले कवियों ने कृष्ण भक्ति काव्य परंपरा का विकास किया। भारतीय संस्कृति में कृष्ण का व्यक्तित्व अत्यंत विलक्षण माना जाता है। ऋग्वेद, उपनिषद, महाभारत तथा हरिवंश, विष्णु, भागवत, ब्रह्मवैवर्त आदि पुराणों में उपलब्धता के साथ-साथ यह विश्वास किया जाता है कि कृष्ण की कथा मौखिक रूप में लोक प्रचलित रही है, जिसमें समय-समय पर अनेक काल्पनिक प्रसंग और रूपक जुड़ते चले गए। एक ओर कृष्ण योगी और परमपुरुष हैं तो दूसरी ओर ललित और मधुर गोपाल हैं तथा तीसरी ओर वे एक वीर राजनयिक हैं। उनके ये तीनों रूप उसे परमदैवत रूप के अधीन विकसित हुए हैं जो प्राचीन समय से वासुदेव के रूप में लोकप्रिय था। इसकी चरम परिणति अंततः साक्षात परब्रह्म में हुई। लोक साहित्य में कृष्ण के विषय में असंख्य आख्यान उपलब्ध होते हैं जिनसे प्रेरित होकर 12वीं शताब्दी में जयदेव ने संस्कृत में ‘गीत गोविंद’ की रचना की जिसे राधा-कृष्ण संबंधी प्रथम काव्य रचना माना जाता है। इसे ‘भक्ति और शृंगार का अनुपम माधुर्य मंडित गीतिकाव्य’ कहा गया है। 

इस परंपरा में हिंदी में सबसे पहली साहित्यिक अभिव्यक्ति चौदहवीं-पंद्रहवीं शताब्दी में विद्यापति की ‘पदावली’ के रूप में हुई। विद्यापति की ‘पदावली’ को हिंदी कृष्ण काव्य की पहली रचना होने का गौरव प्राप्त है, जिसमें राधाकृष्ण के प्रेम का वर्णन लौकिक शृंगार के स्तर पर लोक परंपरा के अनुसार भी किया गया है; और साथ ही भक्ति के माधुर्य भाव से संपन्न ‘उज्ज्वल शृंगार’ का भी निरूपण किया गया है। यही कारण है कि विद्यापति की ‘पदावली’ रसिकों और भक्तों दोनों ही में समान लोकप्रिय रही है। यहाँ तक कि चैतन्य महाप्रभु तक को उसने अपने अपरूप सौंदर्य वर्णन और प्रेम प्रवणता से रसमग्न किया है। वास्तव में भक्ति और शृंगार की विभाजक रेखा कितनी सूक्ष्म हो सकती है, इसे विद्यापति के काव्य में ही देखा जा सकता है। 

महाप्रभु वल्लभाचार्य द्वारा प्रवर्तित पुष्टिमार्ग में सूरदास सहित आठ कृष्ण भक्त कवियों का महत्वपूर्ण स्थान है जिन्हें ‘अष्टछाप’ के नाम से जाना जाता है। ये हैं सूरदास, कुंभनदास, परमानंद दास, कृष्णदास, नंददास, गोविंद स्वामी, छीतस्वामी और चतुर्भुजदास। इसी प्रकार निंबार्क संप्रदाय में श्रीभट्ट और परशुराम देव हुए। राधावल्लभ संप्रदाय में हित हरिवंश, दामोदर दास, हरिराम व्यास, चतुर्भुज दास, ध्रुवदास और नेही नागरी दास के नाम उल्लेखनीय हैं। हरिदासी (सखी) संप्रदाय में स्वामी हरिदास, गोस्वामी और विहारीदास जैसे कवि हुए जबकि चैतन्य (गौड़ीय) संप्रदाय में रामराय, सूरदास मदन मोहन, गदाधर भट्ट, चंद्रगोपाल, भगवान दास, माधवदास माधुरी और भगवत मुदित उल्लेखनीय हैं। 

कृष्ण भक्ति के इन विविध संप्रदायों से स्वतंत्र कृष्ण भक्ति कवियों के रूप में मीराबाई और रसखान प्रमुख हैं। इन समस्त कृष्ण भक्त कवियों में सूरदास का स्थान निःसंदेह सर्वोपरि है। उन्होंने श्रीमद् भागवत को आधार बनाकर पुष्टि मार्ग को मान्यताओं के अनुरूप कृष्ण के गोकुल, वृंदावन और मथुरा के जीवन से संबंधित संपूर्ण कथा को ‘सूरसागर’ नामक गीति प्रबंध के रूप में प्रस्तुत किया तथा ब्रजभाषा को चित्रात्मकता, आलंकारिकता, भावात्मकता, सजीवता, प्रतीकात्मकता और बिंबात्मकता से युक्त करके जनभाषा से आगे अपने युग की काव्यभाषा के राजसिंहासन पर प्रतिष्ठित किया। 

सूरदास का काव्यक्षेत्र गृहस्थ जीवन और परिवार तक सीमित है। उसमें बाह्य जीवन के संघर्ष की अपेक्षा गृहस्थ जीवन की तन्मयता और परिवार की सुरक्षा कामना इस प्रकार व्यक्त हुई है कि उनका कथावृत्त जीवन के प्रति राग जगाता है। संपूर्ण भागवत को आधार बनाने के बावजूद उनका कवि मन कृष्ण की बाल लीलाओं और किशोरावस्था के भावपूर्ण चित्रण में अधिक रमा है। उनका भाव चित्रण कृष्ण भक्ति काव्य की एक बड़ी उपलब्धि है। बालभाव और वात्सल्य से सने मातृहृदय के प्रेमपूर्ण भावों के चित्रण में प्रज्ञाचक्षु सूरदास अद्वितीय हैं। इसी प्रकार शृंगार और भक्ति को जोड़कर माधुर्य भक्ति के संयोग और वियोग पक्षों का जैसा मार्मिक वर्णन सूर ने किया है, वैसा अन्यत्र दुर्लभ है। प्रवास जनित वियोग के संदर्भ में भ्रमरगीत प्रसंग में दार्शनिकता और आध्यात्मिकता का भावात्मकता के साथ संयोग शास्त्रीय विषय को अभिव्यक्तिपरक संस्कृति में सफलतापूर्वक ढालने की प्रक्रिया का सुंदर उदाहरण है। सूरदास ने कृष्ण की लीलाओं के प्रसंग में प्रकृति सौंदर्य, जीवन के विविध पक्षों, बाल क्रीड़ाओं, गोचारण, रासलीला, उपालंभ, दानलीला, चीरहरणलीला आदि का वर्णन प्रचुर मात्रा में किया है क्योंकि परब्रह्म श्रीकृष्ण की इन लीलाओं का निरंतर वर्णन और कीर्तन ही उनके सान्निध्य को प्राप्त करने का मार्ग है। परंतु यह सब वर्णन करते हुए वे उपदेशक या सुधारक की मुद्रा धारण नहीं करते बल्कि सरल हृदय का भावपूर्ण उद्घाटन करते हैं। उनकी भक्ति में दास्य, सख्य और मधुर भाव की त्रिवेणी का प्रवाह है। उनके विभिन्न भावों और मनोदशाओं के कुछ उदाहरण द्रष्टव्य हैं – 

(1) वात्सल्य (संयोग) : मैया मोरी मैं नहीं माखन खायो....... ।

(2) वात्सल्य (वियोग) : संदेसों देवकी सों कहियो......... । 

(3) प्रथम दर्शन : बूझत श्याम कौन तू गोरी....... । 

(4) तन्मयता : उर में माखन चोर गड़े....... । ऊधो, मन न भए दस बीस...... । 

(5) व्यग्रता : अँखियाँ हरि दर्शन की भूखी..... 

(6) विदग्धता : निर्गुण कौन देस को वासी..... । 

(7) नित्यविहार : बिहँसि कह्यौ हम तुम नहिं अंतर, यह कहिकैउन ब्रज पठई।/ 

सूरदास प्रभु राधा-माधव, ब्रज-विहार नित नई-नई॥

(8) अनुग्रह : जा पर दीनानाथ ढरैं....... ।

सूरदास की भक्ति पद्धति का मेरुदंड पुष्टिमार्गीय दर्शन है जिसमें भगवद्कृपा या अनुग्रह को पुष्टि (पोषण) माना गया है। इस अनुग्रह को प्राप्ति करने के लिए भक्त स्वयं को परब्रह्म कृष्ण की शरण में समर्पित कर देता है। वात्सल्य, दांपत्य और सख्य भाव के अनुरूप पुष्टि के तीन रूप हैं – मर्यादा, प्रवाह और पुष्टि। ब्रजांगनाएँ, गोपियाँ और गोपकुमारियाँ क्रमशः इन तीनों का आश्रय है। सूरकाव्य में पुष्टि के तीनों ही रूप उपलब्ध होते हैं। श्रीकृष्ण के प्रति भक्त का गोपीभाव से आत्मीयतापूर्ण संबंध पुष्टिमार्ग का आधार है। विभिन्न लीलाओं के वर्णन से भक्त को श्रीकृष्ण की कृपा या अनुग्रह की अनुभूति होती है और इसीलिए कवि ने माधुर्य भाव को स्पष्ट करने वाले मनोरम प्रसंगों का पुनः पुनः रसपूर्ण वर्णन किया है। इस वर्णन का आलंबन श्रीकृष्ण हैं जो साक्षात परब्रह्म, अद्वैत और परमेश्वर हैं तथा भक्त के उदात्तीकृत लौकिक जीवन का अभिन्न अंग है। डॉ. ब्रजेश्वर वर्मा के अनुसार, "भक्त कवियों के हाथ में कृष्ण काव्य उन मानवीय भावों के सहज परिष्करण और उदात्तीकरण का व्यावहारिक और प्रत्यक्ष द्रष्टांत बनकर प्रयुक्त हुआ था, जो मनुष्य को संसार के विषयों में लिप्त किए रहते हैं तथा पतन की ओर ले जाते हैं। परिवार के जो नाते मनुष्य के आध्यात्मिक विकास में उसके सबसे बड़े वैरी है, श्रीकृष्ण उन्हीं के रूप में भक्तों को प्राप्त होकर उनके तत्संबंधी रागद्वेष को अपने में समर्पित करा लेते हैं। गीता में श्रीकृष्ण ने जिस निःसंगता का उपदेश दिया था, उसी को भक्त कवियों ने चित्रित किया है, तथा उन्होंने आत्म समर्पण युक्त भक्ति योग का जो रूप अर्जुन को समझाया था, वही काव्य में उदाहृत किया गया है।" 

भक्तिकाल की काव्य प्रवुत्तियाँ : निर्गुण भक्तिकाव्य : प्रेमाख्यानक

निर्गुण काव्यधारा के “जिन कवियों ने प्रेम द्वारा ईश्वर की प्राप्ति पर बल दिया, वे प्रेममार्गी अथवा सूफी कवि कहलाए। जायसी, मंझन, कुतुबन, उस्मान आदि इस धारा के प्रतिनिधि कवि हैं। इन कवियों की सभी रचनाएँ (पद्मावत, मृगावती, मधुमालती, चित्रावली) भारतीय प्रेम गाथाओं की कथावस्तु के आधार पर प्रबंध काव्यों के रूप में लिखी गई हैं।“ (डॉ. नगेंद्र, भारतीय साहित्य रत्नमाला)। 

इस काव्यधारा का केंद्रबिंदु लोकाश्रित काव्य के अंतर्गत रोमानी कथावर्णन है। मुख्य रूप से यह कथावर्णन प्रबंधात्मक शैली में रचित महाकाव्य है या फिर स्वच्छंद मुक्तक काव्य। इस काव्य परंपरा को विभिन्न नामों से पुकारा जाता रहा है जैसे, प्रेममार्गी, सूफी शाखा, प्रेमकाव्य, प्रेमगाथा, प्रेमकथानक काव्य, प्रेमाख्यानक, प्रेमाख्यान आदि। इस काव्यधारा के अंतर्गत प्रेम का चित्रण आम प्रेम कथाओं में वर्णित सामान्य प्रेम न होकर साहसिक प्रेम या स्वच्छंद प्रेम के रूप में हुआ है जिसे रोमान (रोमांस) कहा जाता है। विश्वभर के साहित्य में स्वच्छंदतावादी प्रेम काव्य की एक लंबी परंपरा है। संस्कृत तथा अन्य भारतीय भाषाओं में भी यह परंपरा विद्यमान रही है। प्रस्तुत काव्यधारा हिंदी में उसी परंपरा का पूर्वमध्यकालीन विकास है, जिसमें प्रेम को अध्यात्म और भक्ति की कोटि तक पहुँचाया गया है तथा सूफी रहस्यभावना और अद्वैतवादी पद्धति का संगम किया गया है। 

प्रेमाख्यानक : काव्य प्रेरणा एवं प्रयोजन 

यह धारणा प्रचलित है कि हिंदी प्रेमाख्यानक परंपरा के कवि सूफी थे और उनका लक्ष्य सूफी मत का प्रतिपादन और प्रचार करना था। आरंभ में इस परंपरा के केवल छह या सात काव्य प्राप्त थे लेकिन अब हिंदी में तरेपन (53) प्रेमाख्यान काव्य प्राप्त हो चुके हैं जिनमें से छत्तीस (36) हिंदू कवियों द्वारा रचित हैं। यहाँ तक कि आरंभिक ग्यारह में से भी आठ के रचनाकार हिंदू हैं। इस कारण इन काव्यों का विवेचन सांप्रदायिक आधार पर करना उचित प्रतीत नहीं होता। निःसंदेह कुछ प्रेमाख्यानक कवि सूफी मतानुयायी हैं किंतु उनके काव्य का मुख्य प्रयोजन सूफी मत का प्रचार करना मात्र नहीं था। इनमें सर्वप्रथम मलिक मुहम्मद जायसी ने ‘पद्मावत’ (1540) में स्वयं अपना काव्य प्रयोजन बताते हुए कहा है – 
औ मन जानि कबित अस कीन्हा। 
मकु यह रहै जगत महँ चीन्हा। 

अंतःसाक्ष्यों के आधार पर तो यश प्राप्ति, काव्य कला का प्रदर्शन, युवकों का मनोरंजन और जीवन की दुखपूर्ण घटनाओं को भुलाना ही इन कवियों का काव्य-प्रयोजन सिद्ध होता है, सूफी मत का प्रचार नहीं। 

प्रेमाख्यानक : कथावस्तु का स्थापत्य 

हिंदी प्रेमाख्यानक काव्य परंपरा में सर्वाधिक महत्वपूर्ण काव्य इस प्रकार हैं– (1) हंसावली (1370) – असाइत, (2) चांदायन (1379) – मुल्ला दाऊद, (3) मृगावती (1503) – कुतुबन, (4) पद्मावत (1540) – मलिक मुहम्मद जायसी, (5) मधुमालती (1545) – मंझन, (6) प्रेमविलास (1556) – जैनश्रावक जटमल, (7) रूपमंजरी (1568) – नंददास, (8) माधवानल कामकंदला (1584) – आलम कवि, (9) चित्रावली (1613) – उस्मान, (10) रसरतन (1618) – पुहकर कवि। 

इनके कथास्रोत मुख्यतः चार हैं – 1. महाभारत, हरिवंशपुराण, विष्णुपुराण आदि पौराणिक ग्रंथ, 2. संस्कृत और प्राकृत की परंपरागत कथानक रूढ़ियाँ, 3. उदयन, विक्रम, रत्नसेन आदि ऐतिहासिक, अर्ध ऐतिहासिक पात्रों की गाथाएँ, 4. विभिन्न प्रेमी-प्रेमिकाओं की लोक प्रचलित कथाएँ। इन चारों स्रोतों के साथ रचनाकार की कल्पना शक्ति का सुंदर समन्वय हुआ है। निम्नलिखित भारतीय कथानक रूढ़ियाँ इनमें प्रचुरता से इस्तेमाल की गई हैं – 

1. नायक या नायिका का जन्म देवी-देवता की आराधना से होना। 2. नायक-नायिका का परस्पर परिचय स्वप्न दर्शन, चित्र दर्शन या तोते आदि द्वारा गुण कथन से अप्रत्यक्ष रूप से होना। 3. शिवमंदिर या फुलवारी में नायक-नायिका की गुप्त भेंट होना। 4. नायक का किसी अन्य सुंदरी को राक्षस से बचाकर विवाह कर लेना आदि। ये कथानक रूढ़ियाँ फारसी प्रेमाख्यानक में उपलब्ध नहीं होतीं, अतः इनका आधार भारतीय साहित्य को ही मानना चाहिए। 

जायसी के महाकाव्य ‘पद्मावत’ में ऐसी अनेक कथानक रूढ़ियों का प्रयोग हुआ है। इसमें चित्तौड़ के राजा रत्नसेन और सिंहल की राजकुमारी पद्मिनी के मध्य तोते के माध्यम से प्रेम होता है। इसमें उनके विवाह एवं विवाह के बाद के जीवन का चित्रण है। इसकी कथावस्तु को दो खंडों में बाँटा गया है – रत्नसेन और पद्मिनी के विवाह तक पूर्वार्ध और विवाह के पश्चात उत्तरार्ध। पूर्वार्ध को काल्पनिक और उत्तरार्ध को ऐतिहासिक माना गया है। डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी के अनुसार “जायसी ने अपने कथानक का विधान इस तरह किया है कि पूर्वार्ध लोककथा के रूप में काल्पनिक वृत्त है और उत्तरार्ध ऐतिहासिक बनावट लिए हुए हैं। ये दोनों अलग अलग संसार हैं और इनकी विश्वसनीयता की अलग शर्तें हैं। लोककथा की रंगत लिए पूर्वार्ध में अनेक अतिप्राकृत चरित्र और घटनाएँ हैं। ××× उत्तरार्ध में ये अतिप्राकृत तत्व एकदम अनुपस्थित हैं। ××× लोकवृत्त और ऐतिहासिक वृत्त का इस तरह आमना सामना जायसी के अपने रचना विधान की निजी उपज है। संसार के महाकाव्यों में शायद ही कहीं यथार्थ के ऐसे द्विखंडी रूप का चित्रण हुआ हो। ××× पूर्वार्ध पूर्णतः सुखांत है जबकि उत्तरार्ध चरम दुखांत।“ इसे विजयदेव नारायण साही ने ‘हिंदी में अपने ढंग की अकेली ट्रेजिक कृति’ माना है। 

प्रेमाख्यानक : चरित्र-चित्रण 

महाकाव्य के आदर्श को सामने रखकर ‘पद्मावत’ जैसे रोमानी कथाकाव्य की परीक्षा करने वाले आलोचकों को एकपत्नीव्रत को स्वीकार न करने के कारण इसकी प्रेम-पद्धति अभारतीय या विदेशी प्रतीत हुई और इसे सूफी घोषित कर दिया गया। आश्चर्य की बात है कि जिस काव्य का नायक हिंदू है और नाथपंथी साधु के वेश में घर से निकलता है तथा शिव-पार्वती की सहायता से अपने मनोरथ में सफल होता है, वह काव्य सूफीमत का प्रचार कैसे कर सकता है! 

हिंदी प्रेमाख्यानों की तुलना फारसी सूफी काव्यों से करते हुए यह भी कहा जा सकता है कि इनमें नायिकाओं को नायकों की अपेक्षा अधिक धैर्यशाली दिखाया गया है, उनकी स्थिति भी नायकों से उच्च है। भारतीय समाज में पुरुष के लिए बहुविवाह की अनुमति थी, अतः इनके नायक भी प्रायः एक से अधिक विवाह करते हैं – जबकि नायिकाएँ पातिव्रत्य का पालन करते हुए अंत में सती तक हो जाती हैं। दूसरी ओर फारसी आख्यानों में नायक एक पत्नीव्रतधारी तथा नायिका के पति को स्वीकार करने वाला दिखाया जाता है। हिंदी में नायक के प्रतिद्वंद्वी के रूप में प्रतिनायक की अपेक्षा विरोधी के रूप में नायिका का पति या संरक्षक होता है और फारसी जैसा प्रेम त्रिकोण नहीं बनता। नायक-नायिका के अलावा विभिन्न मानवीय और मानवेतर पात्रों का चरित्र-चित्रण भी इन काव्यों में रूढ़िसंगत हुआ है। कथा के ऐतिहासिक पक्ष को यथासंभव यथार्थ रूप में प्रस्तुत किया गया है और वहाँ किसी भी प्रकार के अतिमानवीय लोकाभिप्राय या कवि समय का प्रयोग नहीं किया गया है। 

प्रेमाख्यानक : वस्तुवर्णन 

भारतीय साहित्य में चौथी-पाँचवी शताब्दी में स्वाभावोक्ति की अपेक्षा अतिशयोक्तिपूर्ण वस्तु वर्णन की प्रवृत्ति का उदय हुआ। ‘पद्मावत’ सहित हिंदी के प्रेमाख्यानक काव्यों में पनघट, सरोवर, वाटिका, बारहमासा, बरात, युद्ध आदि के वर्णन में इस पद्धति को देखा जा सकता है। कुछ स्थलों पर ऐसे वर्णन को काव्य के प्रवाह में गतिरोध उत्पन्न करने वाला माना गया है। शिष्ट काव्य की दृष्टि से यह आक्षेप सही प्रतीत हो सकता है, परंतु लोक परंपरा की दृष्टि से यह स्वाभाविक है। ऐसे वर्णनों के द्वारा कवि एक ओर तो विविध प्रकार के ज्ञान को प्रसारित करता है जिससे वह वर्णन छोटे-से ज्ञान-कोश का रूप ले लेता है तथा दूसरी ओर कथा प्रवाह को रोककर उत्सुकता को बढ़ाता है। ये विवरण अर्धालियों के रूप में दिए गए हैं और प्रायः इनका समाहार एक ऐसे बिंबपूर्ण दोहे की सर्जना में किया गया है जहाँ लोक परंपरा शिष्ट साहित्य में ढल जाती है।

प्रेमाख्यानक : भाव एवं रस व्यंजना 

रोमानी साहित्य का मूल भाव प्रणय या रतिभाव है जिसे सौंदर्य, साहस और संघर्ष के तत्वों द्वारा पुष्ट किया जाता है तथा इसमें गृहस्थ मर्यादाओं और परंपराओं की अपेक्षा प्रेम की तीव्रता को महत्व दिया जाता है। जायसी और अन्य प्रेमाख्यानक कवियों ने शृंगार और प्रेम को जीवन में सर्वोपरि मानते हुए उसके प्रति उच्च दृष्टि का परिचय दिया है। प्रणय का आरंभ अपरूप सौंदर्य के आकर्षण से होने के कारण वह अलौकिक और आध्यात्मिक कोटि को प्राप्त करता है। नायिका हो या वेश्या, युद्धस्थल हो या तोप – सभी का सौंदर्य चित्रण जायसी विस्तार और गंभीरता के साथ करते हैं। नायक का संघर्ष प्रणय को उदात्त बनाता है और वह क्रमशः वासना, स्वार्थ और अहंकार से ऊपर उठता है। कुछ स्थलों पर प्रेम और काम को एक ही मान लिया गया है। जायसी का नायक रत्नसेन जहाँ आरंभ में शुद्ध प्रेम से भरा दिखाई देता है, वहीं नायिका पद्मावती (पद्मिनी) यौन और कामुकता के भावों से भरी दिखाई देती है और अपने अंतरंग मित्र तोते से उपयुक्त वर खोजने के लिए कहती है जो उसके तन-मन की प्यास को बुझा सके। ‘पद्मावत’ की मार्मिकता का रहस्य उसकी विरह व्यंजना में निहित है। विरह के क्षेत्र में कवि ने भावात्मकता और अनुभूति का सहारा लिया है। कहीं कहीं विरह वर्णन भी अत्युक्तिपूर्ण हो गया है; रक्त के आँसुओं का गिरना, मांस का गलगल कर गिरना या प्राणांत हो जाना ऐसे ही प्रसंग है। 

प्रेमाख्यानक : रूप तत्व 

सूफी साधक परमात्मा को परमप्रियतम और परम सौंदर्य से संपन्न मानते हैं जिसे पाने के लिए आत्मा व्याकुल रहती है। अपने काव्य के माध्यम से कवि उस परम प्रियतम के प्रति प्रणय निवेदन करता है। वैचारिकता की दृष्टि से मध्यकालीन प्रेमाख्यानक काव्यों को सूफी मत के प्रचारक होने का कोई प्रमाण नहीं हैं। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने ‘पद्मावत’ की प्रेम पद्धति को अभारतीय मानते हुए पद्मावती को परमात्मा और रत्नसेन को आत्मा का प्रतीक सिद्ध किया है और इस काव्य के पूर्वार्ध को सूफी रहस्यवाद से अनुप्राणित बताया है। साथ ही, यह भी माना है कि जायसी वेदांत के अद्वैतवाद तक पहुँचते हैं। दूसरी ओर आत्मा-परमात्मा का रूपक उत्तरार्ध पर लागू न होने के कारण उसे अप्रामाणिक मान लिया गया है। अधिक उचित यह प्रतीत होता है कि जायसी द्वारा स्वयं सुझाई गई निम्नलिखित व्याख्या को स्वीकार कर लिया जाए – 
मैं ऐहि अरथ पंडितन्ह बूझा। कहा कि हम्ह किछू और न सूझा॥ 
तन चितउर, मन राजा कीन्हा। हिय सिंहल, बुद्धि पद्मिनी चीन्हा॥ 
गुरु सुवा जेहि पंथ दिखावा। बिन गुरु जगत को निरगुण पावा। 
नागमती यह दुनिया धंधा। बाँचा सोई न एहि चित बंधा॥ 

इससे स्पष्ट होता है कि ‘पद्मावत’ एक रूपक काव्य है जिसमें चित्तौड़ तन, राजा रत्नसेन मन, सिंहल द्वीप हृदय, पद्मावती बुद्धि, तोता गुरु, नागमती सांसारिक आकर्षण तथा राघव चेतन और अलाउद्दीन आसुरी शक्तियों के प्रतीक हैं। साधक का मन शरीर-सुख का त्याग कर गुरु के निर्देश से उपलब्ध सात्विक ज्ञान की सहायता से अंत में मोक्ष को प्राप्त करता है। यह रूपक काव्य के उत्तरार्ध पर भी समान रूप से लागू होता है और भारतीय साधना पद्धति के अनुरूप है। 

हिंदी साहित्य में ‘पद्मावत’ का स्थान एक महाकाव्य के रूप में ‘पृथ्वीराज रासो’ और ‘रामचरित मानस’ को जोड़ने वाली कड़ी जैसा है। ‘रासो’ और ‘मानस’ क्रमशः लोकशैली और शिष्ट शैली के मानक महाकाव्य हैं जबकि ‘पद्मावत’ ‘लोक से शिष्ट में संक्रमण’ की पूरी प्रक्रिया को समेटने वाला महाकाव्य है। 

भक्तिकाल की काव्य प्रवृत्तियाँ : निर्गुण भक्तिकाव्य : संतमत


भक्तिकाल को ‘हिंदी साहित्य का स्वर्णयुग’ कहा जाता है। इस काव्य की दो मुख्य धाराएँ हैं – एक निर्गुण काव्य धारा, दो – सगुण काव्य धारा। इनके भी प्रवृत्तिगत दो-दो भेद हैं। निर्गुण धारा के अंतर्गत (1) निर्गुण संत काव्य (ज्ञानाश्रयी शाखा) तथा (2) प्रेमाख्यानक काव्य (प्रेमाश्रयी शाखा या सूफी शाखा) एवं सगुण धारा के अंतर्गत (1) कृष्ण भक्ति काव्य और (2) राम भक्ति काव्य शामिल हैं। गुणवत्ता और परिमाण की दृष्टि से अत्यंत समृद्ध भक्तिकाल में काव्य की विधाओं, शैलियों और भाषा की दृष्टि से भी वैविध्य, प्रौढ़ता तथा परिपक्वता प्राप्त होती है। कथ्य, कथन और प्रभाव की दृष्टि से भी भक्तिकाल का साहित्य अत्यंत उच्चकोटि का है, इसमें संदेह नहीं। 

ज्ञान साधना द्वारा निर्गुण ब्रह्म की प्राप्ति का समर्थन करने वाले ज्ञानाश्रयी शाखा के कवियों अथवा संत कवियों में कबीरदास, रैदास, नानकदेव, जंभनाथ, हरिदास निरंजनी, सींगा, लालदास, दादूदयाल, मलूकदास, बाबालाल और सुंदरदास मुख्य हैं। इनमें अधिकांश संत अद्वैतवादी हैं। कबीर के पूर्व भी हिंदी क्षेत्र में सरहपाद, तिल्लोपाद और गोरखनाथ की बानियों के माध्यम से अद्वैत का प्रचार था। ‘हिंदी साहित्य कोश’ के अनुसार "योग, बौद्ध और वेदांत तीनों के मिलने से शंकर के समय में ही उत्तरी भारत में अद्वैतवाद का प्रचार था। बौद्धों और औपनिषदों के बाहर जाने से अद्वैत ईरान, मिस्र में गया था। वह मुसलमानों के आने पर सूफीमत का रूप रखकर भारत में वापस आया। इसका भी अद्वैत में योगदान है। सब धाराओं के मिल जाने से कबीर का अद्वैतवाद 15 वीं शताब्दी में संभव हुआ।"

संत कवियों में कबीर, दादू और मलूक अद्वैतवादी तथा नानक भेदाभेदवादी हैं। कबीर के अनुसार परमात्मा और जीवात्मा पूर्णतः एक हैं, जबकि नानक इनमें बड़े-छोटे का अंतर मानते हैं। साधना प्रणाली की दृष्टि से कबीर, सुंदरदास और हरिदास योगसाधना से प्रभावित हैं जबकि दादू, नानक, रैदास, जंभनाथ, रज्जब, मलूकदास और बाबालाल योग साधना से अप्रभावित संत हैं। इन्होंने कहीं-कहीं ‘सुरत’ और ‘शब्द योग’ आदि का उल्लेख तो किया है लेकिन उसमें कबीर जैसी गहराई और प्रामाणिकता नहीं हैं। 

संत काव्य में गुरु को अनेक स्थलों पर ब्रह्म से भी अधिक महत्व दिया गया है। वही साधक को परमेश्वर या आत्मस्वरूप या ब्रह्म का साक्षात्कार करा सकता है। वही परंपरा और गतानुगतिकता का अतिक्रमण कर सकता है। वह शब्द, दृष्टि या स्पर्श द्वारा शक्तिपात से शिष्य को ब्रह्म का अनुभव भी करा सकता है। इसी कारण आगे चलकर संत काव्य के प्रत्येक संप्रदाय में सद्गुरु को अवतार मानने और उसके चित्र की उपासना करने की रूढ़ि विकसित हो गई। गुरु महिमा के संबंध में कबीर कहते हैं – 
सतगुरु साँचा सूरीबाँ, सबद जु बाह्या एक। 
लागत ही भैं मिट गया, पड़ा कलेजे छेक॥ 

सतगुरु की महिमा अनँत, अनँत किया उपकार। 
लोचन अनँत उघारिया, अनँत दिखावणहार।। 

गुरु गोबिंद दोऊ खड़े, काके लागूँ पाँय। 
बलिहारी गुरु आपने, जिन गोबिंद दियो बताय॥

संत काव्य में नामस्मरण का भी निरूपण किया गया है और इस प्रकार तादात्म्य वांछित माना गया है कि जप के रूप में नामस्मरण निरंतर साँस के आने-जाने के साथ चलता रहे। कबीर ने ‘राम’ के नामस्मरण की विस्तार से चर्चा की है और यह भी स्पष्ट किया है कि राम का अर्थ विष्णु का अवतार या दशरथ का पुत्र नहीं वरन ब्रह्म है। नाम रूपी रस का पान करने से आनंद रूपी खुमारी का अनुभव होता है। साधक इसमें इस प्रकार तल्लीन हो जाता है कि 'जभड़ियाँ छाला पड्या पीव पुकारि-पुकारि।'

सभी संत कवि मूर्तिपूजा के विरोधी थे, अवतारवाद को अस्वीकार करते थे। उन्होंने हिंदू और मुसलमान समाजों में व्याप्त बाह्याचार और पाखंड का दृढ़ शब्दों में खंडन करते हुए आत्मसाक्षात्कार पर बल दिया। मूर्तिपूजा, तीर्थयात्रा, व्रत, उपवास, रोजा, अज़ान, हज आदि को कबीर तब तक निरर्थक मानते हैं, जब तक साधक के भीतर मनुष्यता, अपरिग्रह, संयम, बंधुत्व, समभाव और अहिंसा जैसे गुण विकसित नहीं होते। इन गुणों से युक्त साधक तो पलभर की तलाश में ही उस परमेश्वर को स्वयं अपने भीतर पा सकता है –
पाहन पूजे हरि मिले, तो मैं पूजूँ पहार। 
ताते तो चाकी भली, पीस खाय संसार॥

मूँड मुँडाए हरि मिले, सब कोई लेय मुँडाय।
बार-बार के मूँडते, भेड न बैकुंठ जाय ॥ 

दिन भर रोजा रखत हैं, राति हनत हैं गाय।
यह तो खून वह बंदगी, कैसी खुशी खुदाय॥ 

काँकर-पाथर जोरि के, मस्जिद लई बनाय।
ता चढ़ि मुल्ला बाँग दे, क्या बहिरा हुआ खुदाय॥

हिंदू कहे मोहि राम पियारा, तुरक कहे रहमाना। 
आपस में दोऊ लरि-लरि मुए, मरम न काहू जाना॥

मोको कहा ढूँढ़े रे बंदे, मैं तो तेरे पास में।
ना मैं मंदिर, ना मैं मस्जिद, ना काबे-कैलास में॥ 

वास्तव में कबीर जैसे संत कवियों ने ‘आँखिन देखी’ स्वानुभूति को ही काव्य का विषय बनाया। कबीर जन्म से विद्रोही प्रवृत्ति के थे। वे समाज सुधारक, धर्म सुधारक, प्रगतिशील दार्शनिक और सहज कवि के रूप में प्रसिद्ध हैं। सामान्य अशिक्षित जनता के बीच सत्य का निरूपण, कथनी-करनी की एकता और नाम के माधुर्य का अनुभूतिप्रवण प्रचार उनका लक्ष्य था। आत्मा, परमात्मा, जीव, जगत जैसे बौद्धिक विवेचन में भी कबीर ने निर्गुण भक्ति में माधुर्य भावना (ब्रह्म के साथ मधुर संबंध की भावना) का समावेश करके रहस्यानुभूतिपरक उदात्त काव्य की रचना की। सबकी आलोचना करने वाले तथा हर समय अक्खड़पन को ओढ़े रखने वाले कबीर एक समग्र प्रेमी जीवात्मा के रूप में भी अद्वितीय रचनाकार है। उनकी रहस्यानुभूति स्पृहणीय हैं – 
नैनों की कर कोठरी, पुतरी पलंग बिछाय। 
पलकों की चिक डारि के, पिय को लियो रिझाय॥ 

दुलहिन गावहु मंगलचार। 
हम घर आए, हो, राजाराम भरतार॥ 

सुपने में साईं मिले, सोवत लिया जगाय। 
आँख न खोलूँ डरपता, मत सुपुना हो जाय॥ 

संतों की अभिव्यंजना शैली भी बड़ी शक्तिशाली है। कबीर ने निरक्षर होने के बावजूद साधना के एक-एक अंग को लेकर सैंकड़ों ‘साखियाँ’ रची हैं। उनके काव्य में केवल नीति-उपदेश, खंडन-मंडन और समाज-सुधार ही नहीं, शृंगार के संयोग और वियोग पक्ष तथा अद्भुत रस का सुंदर परिपाक भी मिलता है। दांपत्य और वात्सल्य के द्योतक और रहस्य भावना के अकथनीय अनुभव को व्यक्त करने वाले अनेक प्रतीकों (जैसे दुलहिन, भरतार, पीव, दिया, बाण, सर्पिणी, चदरिया, कमलिनी, घट, कुम्हार, बाजार) का सटीक प्रयोग उन्हें एक समर्थ कवि सिद्ध करता है। सहज रूप से प्रयुक्त रूपकों और उपमाओं के अतिरिक्त उनकी उलटबाँसियाँ उनकी काव्य प्रतिभा के चमत्कार की द्योतक हैं। 

काव्यभाषा की दृष्टि से संतों की भाषा को कभी खिचड़ी, कभी सधुक्कड़ी और कभी संध्या भाषा कहा गया है। संध्या भाषा तो उलटबाँसियों के लिए रूढ़ है जबकि सधुक्कड़ी और खिचड़ी से यह तथ्य स्पष्ट होता है कि इनकी भाषा में अनेक भाषाओं का मिश्रण हुआ है। वस्तुतः तत्कालीन परिवेश के अनुरूप संतवाणी की रचना जनता के अशिक्षित, उपेक्षित और पिछड़े वगों के लिए हुई थी, इसलिए संतों की भाषा सरल, कृत्रिमताहीन और सहज है। संत भ्रमणशील थे इसलिए विभिन्न क्षेत्रों की बोलियों का प्रभाव उनके काव्य में पाया जाना स्वाभाविक है। भोजपुरी, अवधी, ब्रजभाषा, पंजाबी और राजस्थानी के भाषिक प्रयोग उनके काव्य में स्वाभाविक रूप में मिलते हैं। भाषा-संरचना और क्रिया-रूपों की दृष्टि से कबीर की काव्यभाषा खड़ी बोली के काफी निकट प्रतीत होती है। विभिन्न बोलियों के शब्दों का पाया जाना ‘कोड परिवर्तन’ और ‘कोड मिश्रण’ की समाजभाषिक प्रवृत्ति का सूचक है जिसमें कबीर ने भोजपुरी ‘कोड’ का सर्वाधिक प्रयोग किया है। इस दृष्टि से उनकी काव्य-भाषा का पुनर्मूल्यांकन होना अभी शेष है। 

रविवार, 7 अक्तूबर 2018

हिंदी साहित्य का भक्तिकाल : सांस्कृतिक-दार्शनिक परिस्थिति


भक्तिकाल : पृष्ठभूमि : सांस्कृतिक परिस्थिति 

सांस्कृतिक दृष्टि से भक्तिकालीन वातावरण में हिंदू और मुस्लिम संस्कृतियों का आमना-सामना, विरोध और समन्वय घटित हुआ। मध्यकालीन हिंदू संस्कृति में लोक और शास्त्र सम्मत अलग-अलग जीवनधाराएँ विद्यमान थीं, जिनके द्वारा साहिष्णुतामूलक धार्मिक भावना का विकास हुआ। उपनिषद और वेदांत की व्याख्याओं ने अद्वैतवाद, विशिष्टाद्वैतवाद, केवलाद्वैतवाद, द्वैताद्वैतवाद और शुद्धाद्वैतवाद जैसे मतों को विकसित किया जिनमें ईश्वर को निरपेक्ष मानकर उसकी भक्ति का प्रतिपादन किया गया है। 

भक्तिकाल को विरासत में मध्यकालीन बोध से ग्रस्त एक ऐसी संस्कृति मिली थी जिसमें मानवीय पक्ष को पुनः प्रतिष्ठित करने के लिए परिवर्तन की आवश्यकता थी। आचार्य परशुराम चतुर्वेदी के अनुसार, “इस काल में धर्म साधना की बाढ़ सी आ गई और गुह्य साधनाओं के अंतर्गत कृच्छ्र साधनाएँ भी प्रवेश पा गईं। धर्माचार और ज्ञान-चर्चा की आड़ में पाखंड को प्रश्रय मिलने लगा और समाज में एक प्रकार की अराजकता फैल गई। बाह्याडंबर तथा कर्मकांडीय बाह्य विधान के प्रति व्यंग्य किए जाने लगे।“ 

भक्तिकाल : पृष्ठभूमि : दार्शनिक परिस्थिति : भक्ति आंदोलन 

मध्यकालीन भक्ति आंदोलन भारतीय इतिहास की अन्यतम घटना है जिसने पूरे भारतीय जनमानस को कई शताब्दियों तक प्रभावित किया। इसकी दार्शनिक पृष्ठभूमि के रूप में भारतीय चिंताधारा की पूरी परंपरा विद्यमान है। 8वीं शताब्दी में वेदमत और लोकमत का जो समन्वय हो रहा था उसके कारण संपूर्ण धार्मिक आंदोलन लोकाभिमुख हुआ। एक ओर विहार संस्कृति में पल्लवित बौद्धधर्म का क्रमशः पतन हुआ तथा दूसरी ओर शंकराचार्य ने ज्ञानप्रधान आध्यात्मिक और औपनिषदिक परंपरा का पुनरुत्थान किया। ब्रह्म के साक्षात्कार के इस ज्ञानप्रधान मार्ग के अतिरिक्त आलवार भक्तों द्वारा समर्पणप्रधान भक्ति मार्ग का प्रचार किया गया। दक्षिण के कई आचार्यों ने गीता, उपनिषद और ब्रह्मसूत्र के आधार पर भक्ति के सिद्धांत की स्थापना की। आलवार भक्तों की रचनाओं को 9 वीं शताब्दी के अंत में पुंडरीकाक्ष, पुलकनाथ, लक्ष्मीनाथ और यामुनाचार्य ने आलवार भक्तों की वाणी का प्रचार प्रसार किया। 

उपनिषद, ब्रह्मसूत्र और गीता पर शंकराचार्य के भाष्य के आधार पर प्रतिष्ठित अद्वैतवाद ज्ञानमार्ग का मुख्य सिद्धांत बना। ब्रह्मसूत्र की अलग-अलग व्याख्याओं ने भक्ति मार्ग की अलग-अलग धाराओं को जन्म दिया। रामानुजाचार्य ने ब्रह्मसूत्र का भाष्य करते हुए विशिष्टाद्वैतवाद का प्रतिपादन किया। उन्होंने जीव और जगत को स्वतंत्र होते हुए भी ईश्वर के अधीन माना और दास्य भाव की भक्ति का प्रचार किया। इन्हीं की शिष्य परंपरा में रामानंद हुए। इन्होंने जातिपांति से निरपेक्ष भक्ति का मार्ग सबके लिए खोल दिया तथा राम (ब्रह्म) के निर्गुण और सगुण दोनों रूपों को स्वीकार किया। 

रामानुजाचार्य के अतिरिक्त मध्वाचार्य ने द्वैतवाद और माधुर्यभाव की उपासना का प्रतिपादन किया, जबकि निंबार्काचार्य ने द्वैताद्वैत या भेदाभेदवाद का प्रतिपादन किया। निंबार्काचार्य के मत से जीव, जगत और ब्रह्म एक दूसरे से अलग होते हुए भी तात्विक रूप से अभिन्न हैं, जीव और जगत का अस्तित्व ईश्वर की इच्छा के अधीन है, तथा जीव और ईश्वर का संबंध अंश और अंशी का है। उनके अनुसार कृष्ण परात्पर ब्रह्म हैं। उन्होंने राधा की उपासना पर विशेष बल दिया। राधावल्लभ संप्रदाय और हरिदासी (सखी) संप्रदाय इसी से प्रेरित हैं। 

भक्तिकाल की दार्शनिक पृष्ठभूमि में विष्णु स्वामी के रुद्र संप्रदाय में हुए वल्लभाचार्य के शुद्धाद्वैतवाद का महत्वपूर्ण स्थान है। इसे ब्रह्मवाद भी कहते हैं। वल्लभाचार्य ने शंकराचार्य के मायावाद का खंडन करते हुए ब्रह्म की सर्वव्यापकता स्वीकार की और पुष्टिमार्गीय भक्ति का विकास किया। इसमें भगवत्-अनुग्रह को महत्व प्रदान किया गया तथा श्रीमद् भागवत की नवधाभक्ति (श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पादसेवन, अर्चन, वंदन, दास्य, सख्य और आत्मनिवेदन) में माधुर्य भाव को जोड़कर दशधा भक्ति का प्रचार किया। 

इन सबके साथ-साथ भक्तिकाल की दार्शनिक पृष्ठभूमि के निर्माण में इस्लाम के एकेश्वरवाद और सूफियों के ‘अनलहक’ का भी प्रभाव द्रष्टव्य है। इस प्रकार हिंदी के संत काव्य, प्रेमाख्यानक काव्य, रामभक्ति काव्य और कृष्णभक्ति काव्य पर अद्वैतवाद, विशिष्टाद्वैतवाद, द्वैताद्वैतवाद, शुद्धाद्वैतवाद तथा एक सीमा तक इस्लाम का प्रभाव पड़ा।

हिंदी साहित्य का इतिहास : सामाजिक परिस्थिति

भक्तिकालीन साहित्य की पृष्ठभूमि में विद्यमान समाज संक्रमण काल से गुजरने वाला समाज है। यों तो भारतीय समाज में अलग-अलग स्रोतों से आई हुई जातियाँ सम्मिलित थीं, जो इस काल से पूर्व ही सामंजस्य की प्रक्रिया को पूर्ण कर चुकी थीं; परंतु इस काल में एक ऐसी जाति का आगमन विजेता के रूप में भारतीय समाज में हुआ जिसके साथ सामंजस्य सरल नहीं था। यह जाति थी मुसलमान, जिसके धार्मिक-सामाजिक विश्वास और आचरण भारतीयों के लिए विजातीय थे। इसलिए समंजन की गति धीमी रही तथा हिंदुओं और मुसलमानों के बीच लंबे समय तक परस्पर विश्वास पैदा नहीं हो सका, बल्कि दोनों के एक दूसरे को शंका और घृणा की दृष्टि से देखने के कारण छुआछूत और आपसी भेदभाव ही बढ़ा। हिंदू धर्म जहाँ वर्णाश्रम व्यवस्था पर टिका हुआ था जिसकी जकड़बंदी के कारण समाज का विकास अवरुद्ध हो रहा था, वहीं इस्लाम धर्म भाईचारे का संदेश लेकर चला जिसमें धर्म परिवर्तन द्वारा कोई भी शामिल हो सकता था। यह धर्म परिवर्तन धार्मिकता के आधार पर होता तो शायद अच्छा रहता, परंतु स्वार्थ, बलात्कार और भय के कारण इस काल में जो धर्म परिवर्तन की घटनाएँ हुई उनसे हिंदू समाज में भीषण आशंका और आतंक का प्रसार हुआ, इसलिए हिंदुओं के समक्ष अपनी कुलीनता को बचाने की चुनौती पैदा हो गई, जिसने कट्टरता को बढ़ावा दिया। दूसरी ओर कुछ मुस्लिम शासकों का हिंदू जनता के साथ क्रूरता और भेदभाव का व्यवहार होने के कारण भी जनता को इस्लाम का संदेश बंधुता की अपेक्षा क्रूरता से भरा ही लगा। अनेक मुस्लिम शासकों की स्वेच्छाचारिता, कट्टरता और पाखंडप्रियता ने भी हिंदू-मुस्लिम सामंजस्य स्थापित होने में बाधा उत्पन्न की। 

इस काल में हिंदू समाज अनेक जातियों और उपजातियों में बंट चुका था, जिसके कारण आपसी सद्भाव में कमी आ गई थी। दास प्रथा भी प्रचलित थी। स्त्रियों का सम्मान नहीं रह गया था। अमीरों और मुस्लिम शासकों के यहाँ अपहरण करके लाई गई कुलीन स्त्रियाँ भोग की वस्तु समझी जाती थीं और दासियों के रूप में उन्हें उपहार में दिया-लिया जा सकता था। हिंदू राजा भी विलासिता में पीछे न थे। वे सैयद मुस्लिम महिलाओं को नर्तकी और दासी के रूप में रखते थे। बहुविवाह, स्त्रियाँ के पुनर्विवाह पर प्रतिबंध और सती जैसी प्रथाओं के कारण स्त्रियों का जीवन नारकीय हो गया था। हिंदुओं में बढ़ते असुरक्षा भाव के कारण इस काल में पर्दा प्रथा का भी प्रचलन बढ़ा। 

भक्तिकालीन भारतीय समाज में मुसलमान भी अनेक वर्गों में बंट चुके थे। ये वर्ग सत्ता में स्थान, मूल निवास स्थान, सांस्कृतिक पृष्ठभूमि और जातिगत प्रभाव के आधार पर उत्पन्न हुए थे। आक्रमण की वृत्ति के साथ साथ सहनशीलता का भाव भी धीरे धीरे पनपा जिसका विकास सूफी साधकों के माध्यम से हुआ। तलवार से आतंक पैदा करके प्रेम की पट्टी बाँधना इस काल में इस्लाम प्रचार की नीति बन गया। हिंदुओं की भाँति ही मुस्लिम समाज में भी निम्न वर्ग और महिलाओं की स्थिति शोचनीय थी। हरम प्रथा के कारण मुस्लिम औरतें नारकीय जीवन जी रही थीं।

हिंदी साहित्य का भक्तिकाल : राजनैतिक परिस्थिति

राजनैतिक दृष्टि से भक्तिकाल के एक छोर पर मुहम्मद तुगलक और दूसरे छोर पर शाहजहाँ की सत्ता विद्यमान है अर्थात यह काल भारतीय इतिहास का वह महत्वपूर्ण समय है जिसमें दिल्ली सल्तनत में तुगलक वंश से लेकर मुगलवंश तक का आधिपत्य रहा। 

मुहम्मद तुगलक एक सनकी परंतु निष्पक्ष शासक था। उसने राजधानी को दिल्ली से देवगिरि (दौलताबाद) ले जाने के चक्कर में दिल्ली क्षेत्र को उजाड़ दिया, ताँबे के सिक्के चलाए, चीन पर हमले का प्रयास किया और मिस्र के खलीफा से अपने शासन के लिए धार्मिक स्वीकृति ली। इसके बावजूद हिंदुओं के प्रति उदारता के कारण उसके सरदार भी उससे नाराज हो गए। आगे चलकर उसके उत्तराधिकारी फिरोज़शाह ने कट्टरवादी सरदारों के समक्ष समर्पण कर दिया और इस तरह सत्ता पर उसकी पकड़ कमजोर हो गई।

1398 में तुर्क सरदार तैमूर लंग ने विशाल सेना लेकर भारत पर आक्रमण किया। दिल्ली में तो उसने घर घर घुसकर भयानक लूटपाट की और समरकंद में वापस जाकर लूट के धन से शानदार इमारतें, राजमहल और मस्जिदें बनाईं। भारत की दशा दीन-हीन हो चुकी थी। 1414 से 1451 तक सैयद वंशीय स्थानीय शासकों ने दिल्ली पर अधिकार रखा। इसके बाद लोदीवंश के अफगान सरदार ने दिल्ली के राज्य पर जबरदस्ती कब्जा कर लिया। इस वंश का अंतिम सुल्तान इब्राहीम लोदी हुआ जिसे मुगलों का सामना करना पड़ा और लोदी वंश का शासन समाप्त हो गया। इस काल में उत्तर भारत के मालवा, ग्वालियर, कन्नौज, बिहार, बंगाल और गुजरात जैसे राज्यों से दिल्ली की केंद्रीय सत्ता को अनेक बार युद्ध करना पड़ा। लोदी वंश के शासन काल में प्रांतों पर दिल्ली की पकड़ ढीली हो चुकी थी और मालवा आदि आजाद होने लगे थे। 1526 में इब्राहिम लोदी और सूबेदारों के मध्य गृहयुद्ध की स्थिति का लाभ उठाकर पानीपत के युद्ध में बाबर ने इब्राहीम लोदी को पराजित कर दिया। बाबर ने अफगान सरदार दिलावर खान का आमंत्रण पाकर यह आक्रमण किया था। बाबर के आगमन के साथ दिल्ली में मुगल शासन की स्थापना हुई। राणा सांगा सहित कई हिंदू-मुस्लिम शासकों-सूबेदारों को जीतकर वह शीघ्र ही उत्तर भारत का सर्वसमावेशी शासक बन गया। उसके बाद हुमायूँ की असामयिक मृत्यु के कारण उसके पुत्र अकबर को 13 वर्ष की उम्र में ही दिल्ली की सत्ता मिल गई। अकबर ने अनेक चुनौतियों का सामना करते हुए अपनी शक्ति, दूरदर्शिता, बुद्धिमत्ता और दृढ़ता से शासन को सुदृढ़ बनाया। युद्ध और विवाह की दुहरी राजनीति द्वारा अनेक प्रांतीय शासकों को पराजित भी किया और अपने अनुकूल भी बनाया। महाराणा प्रताप जैसे कुछ स्वाभिमानी राजपूतों को छोड़कर अधिकतर शासकों ने मुगल साम्राज्य की सर्वोपरिता को स्वीकार लिया और बदले में मान-मर्यादा तथा ऊँचे पद प्राप्त किए। अकबर के बाद जहाँगीर और उसके बाद कूटनैतिक चालों से शाहजहाँ गद्दीनशीन हुए। शाहजहाँ के पुत्र औरंगजेब ने अपने भाई दाराशिकोह के युवराज बनने का खुलकर विरोध किया, हिंसा और कूटनीति के बल पर अपने सब प्रतिद्वंद्वियों को रास्ते से हटाकर और शाहजहाँ को बंदी बनाकर औरंगजेब ने 1658 में सत्ता हासिल कर ली। यही समय भक्तिकाल की अंतिम सीमा (1650 के आसपास) को भी व्यक्त करता है।

इस प्रकार कहा जा सकता है कि राजनैतिक दृष्टि से समस्त उत्तर भारत इस काल में विदेशी आक्रांताओं के द्वारा स्थापित सत्ता के अधीन आ चुका था तथा परंपरागत भारतीय राजनैतिक शक्तियाँ और संस्थाएँ अंततः मुगलसत्ता के समक्ष आत्म समर्पण कर चुकी थीं; परंतु साथ ही प्रतिशोध, विरोध और विद्रोह की चिंगारियाँ भी ठंडी राख के भीतर से समय समय पर अपने अस्तित्व का संकेत देती रहती थीं। निश्चय ही जनता इन तमाम युद्धों और कूटनैतिक चालों में सर्वाधिक हानि उठाती थी और इन सबसे ऊब चुकी थी।

हिंदी साहित्य का भक्तिकाल : पृष्ठभूमि

14 वीं शताब्दी के मध्य से 17 वीं शताब्दी के मध्य तक के काल को हिंदी साहित्य के इतिहास में पूर्वमध्यकाल और भक्तिकाल कहा जाता है। इस काल का समग्र साहित्य मध्यकालीन भक्ति आंदोलन की काव्यात्मक परिणति है और उस व्यापक जनजागरण के प्रेरणा सूत्र इसमें छिपे हैं, जिसने मध्यकालीन राष्ट्रीय और सांस्कृतिक संक्रमण को झेलने की शक्ति भारतीय समाज को प्रदान की। भक्ति की इस प्रधानता के कारणों के रूप में इतिहासकारों ने तीन विचार प्रस्तुत किए हैं। 

आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने यह माना है कि इस युग में मुस्लिम शासकों का आधिपत्य हो जाने के कारण हिंदू जाति अवसाद का अनुभव करने लगी थी। इस्लाम से आक्रांत और पददलित भारतीय जनता के निराश हृदयों में भक्ति और शांति का संचार करने के लिए तत्कालीन कवियों ने भक्तिपरक काव्य की रचना की। वे यह मानते हैं कि भक्ति का मूल स्रोत दक्षिण भारत था जिसे राजनैतिक परिवर्तन के कारण शून्य पड़ते हुए उत्तर भारत की जनता के हृदय क्षेत्र में फैलने के लिए पूरा स्थान मिला। लुटी पिटी जनता की चित्तवृत्ति का झुकाव स्वाभाविक रूप से ईश्वर भक्ति की ओर हुआ और उसी के अनुरूप साहित्य के स्वरूप में भी परिवर्तन हुआ। 

दूसरी मान्यता के अनुसार भक्ति आंदोलन हिंदी साहित्य में केवल तात्कालिक प्रतिक्रिया के रूप में नहीं उभरा, बल्कि आदिकाल के बाद भक्ति भावना का उदय कोई आकस्मिक घटना न होकर उस चिंताधारा का सहज विकास है जो भारतीय लोकमानस में पिछली कई शताब्दियों से प्रवाहित होती हुई अपने पूर्ण विकास के लिए अनुकूल भूमि की तलाश कर रही थी। जयशंकर प्रसाद ने इसके लिए दार्शनिक संदर्भ को रेखांकित करते हुए कहा है कि “दुखवाद जिस मनन शैली का फल था वह बुद्धि या विवेक के आधार पर तर्कों के आश्रय में बढ़ती रही। अनात्मवाद की प्रतिक्रिया होनी ही चाहिए। फलतः पिछले काल में भारत के दार्शनिक अनात्मवादी ही भक्तिवादी बने और बुद्धिवाद का विकास भक्ति के रूप में हुआ।“ इस आधार पर सिद्धों और नाथों की परंपरा में भक्ति आंदोलन के सूत्र खोजे जा सकते हैं। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने इसी प्रकार भक्ति आंदोलन को भारतीय परंपरा का अपना स्वतःस्फूर्त विकास माना है। वे हिंदी के भक्ति साहित्य के मूल में बौद्ध तत्ववाद को निहित मानते हैं और ज़ोर देकर कहते हैं कि लोक के स्तर पर पहुँचकर बौद्ध धर्म लोक धर्म बना और धीरे-धीरे निर्गुण तथा सगुण भक्ति धाराओं का प्रेरक तत्व बन गया। वे मानते हैं कि यदि भारत में इस्लाम न भी आता तो भी भक्ति साहित्य का 75 प्रतिशत वैसा ही होता जैसा आज है; अर्थात वे मुस्लिम आक्रमण की तत्कालीन परिस्थिति को भक्ति आंदोलन का केवल एक गौण कारण मानते हैं। साथ ही, उनकी यह भी मान्यता है कि मध्यकाल में प्राकृत और अपभ्रंश की शृंगारिकता की प्रतिक्रिया ने भी लोक चिंता के साथ जुड़ी हिंदी कविता में भक्तिपरक रचनाओं को बढ़ावा दिया। 

भक्ति साहित्य के उदय के संबंध में शुक्ल जी के मुस्लिम आक्रमण को प्रधानता देने तथा द्विवेदी जी के परंपरा तत्व को महत्ता देने के सिद्धांतों के समन्वय पर आधारित तीसरी मान्यता यह है कि यदि इस्लाम के प्रचार और प्रतिक्रिया की व्याख्या सहज भाव और कुंठाहीन मन से की जाए, तो भक्ति साहित्य के उदय की मूल प्रेरणा के रूप में उक्त दोनों ही सिद्धांतों को स्वीकार किया जा सकता है। डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी के अनुसार “भक्ति काव्य के विकास के पीछे (1) बौद्ध धर्म का लोकमूलक रूप है और (2) प्राकृतों के शृंगार काव्य की प्रतिक्रिया है तो (3) इस्लाम के सांस्कृतिक आतंक से बचाव की सजग चेष्टा भी है।“ इसकी पुष्टि तत्कालीन राजनैतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और दार्शनिक परिस्थितियों के अवलोकन से सरलता से हो सकती हैं।

शनिवार, 22 सितंबर 2018

[रामायण संदर्शन] !! रीझत राम सनेह निसोतें !!

तुलसी के राम का स्वभाव अत्यंत कोमल है। उन्हें रिझाने के लिए बस एक ही योग्यता चाहिए। भक्त के हृदय में अगर सच्चा प्रेम है तो राम इतने दयालु हैं कि उसके सारे पापों और अपराधों का तुरंत शमन कर देते हैं और पापमुक्त करके अपनी शरण में ले लेते हैं। इसीलिए बाबा कहते हैं कि मेरे राम तो एकमात्र विशुद्ध प्रेम से ही रीझते हैं। यहाँ तक कि वे अपने भक्तों की भूल-चूक को याद तक नहीं रखते; अर्थात यदि कोई व्यक्ति निर्मल हृदय से राम की ओर आता है तो वे उसके सब अपराधों को क्षमा कर देते हैं। अब देखिए न कि जिस अपराध के लिए राम ने बालि को व्याध की तरह मारा था, बाद में वैसी ही कुचाल सुग्रीव ने चली और विभीषण की करतूत भी वैसी ही थी; परंतु राम ने उनके इन कृत्यों पर ध्यान नहीं दिया और उन्हें अपने स्नेह और सम्मान का अधिकारी घोषित किया - राजसभा में भी उनके गुणों का बखान किया। यह बात विचित्र लग सकती है तथा पक्षपातपूर्ण भी। लेकिन राम की तो घोषणा ही यह है कि उनकी ओर उन्मुख होने वाले प्राणी को वे तुरंत पाप-मुक्त कर देते हैं। इसका अर्थ यह नहीं है कि राम पापियों और अपराधियों की शरणस्थली है; बल्कि यह है कि जिसका चित्त निर्मल हो गया है और जो राम के प्रति विशुद्ध प्रेम रखता है; राम उसे अपना लेते हैं, अपने समान कर देते हैं। इसका बड़ा गहरा मनोवैज्ञानिक आशय है। यदि किसी व्यक्ति ने कोई महापाप कर दिया हो तो भी वह राम का कृपापात्र हो सकता है बशर्ते कि उसका प्रेम विशुद्ध हो। परम-प्रेम का ही दूसरा नाम भक्ति है न!000

शुक्रवार, 7 सितंबर 2018

(पुस्तक) प्राचीन भारत में खेल-कूद : स्वरूप एवं महत्व

अवधेश कुमार सिन्हा (ज. 9 सितंबर, 1950) की 68वीं वर्षगाँठ पर उनकी शोधपूर्ण कृति "प्राचीन भारत में खेल-कूद (स्वरूप एवं महत्व)" (2018. हैदराबाद : मिलिंद प्र.) का प्रकाशन/लोकार्पण हैदराबाद के हिंदी जगत के लिए अत्यंत हर्षकारी है।  अवधेश जी बहुज्ञ लेखक हैं। उनका वैज्ञानिक और तर्कपूर्ण दृष्टिकोण उन्हें सतत अनुसंधाता बनाता है। एक स्वतंत्र जिज्ञासु शोधार्थी के रूप में रचित उनकी यह कृति भारतीय इतिहास और संस्कृति विषयक उनकी गहन अंतर्दृष्टि का परिचायक है।

सिंधुघाटी सभ्यता और वैदिक काल से लेकर गुप्त काल तक भारतीय समाज और उसकी संस्कृति को मनोविनोद और खेलकूद के साधनों और प्रकारों के क्रमिक परिवर्तन और विकास के माध्यम से उकेरने वाला यह ग्रंथ हिंदी के साथ ही अन्य भारतीय भाषाओं के पाठकों तक भी पहुँचना चाहिए। आशा है, इसकी राष्ट्रीय उपादेयता को देखते हुए  विभिन्न भाषाओं के अनुवादक इस ओर आकृष्ट होंगे। 


मंगलवार, 31 जुलाई 2018

(रामायण संदर्शन) लोकाभिराम श्रीराम

राम लोक के देवता हैं। लोकप्रिय हैं। लोक रक्षक हैं। लोकाभिराम हैं। इसलिए अयोध्या के राजमहल से बाहर निकलते ही वे स्वयं को लोक में विलीन कर देते हैं। लोक जितनी तीव्रता से अपने राम की ओर उमड़ता है, राम भी उतनी उत्कटता से लोक को अपने में समेटते हैं। तुलसी बाबा बताते हैं कि राम के आने का समाचार मिलते ही कोल-भीलों को ऐसा लगा जैसे वे सब प्रकार की निधियाँ पा गए हों। राम से मिलने के लिए वे इस तरह दौड़ पड़े जैसे भिखारियों की भीड़ सोना लूटने जा रही हो। पर वे भिखारी नहीं थे। लोक की सारी संपदा उनके पास थी। वे तो दोनों में कंद-मूल-फल भर-भर कर अपने राम को भेंट करने को दौड़ रहे थे । राम के दर्शन करते ही अनुराग उमड़ पड़ा। वे सब चित्रलिखे से खड़े के खड़े रह गए। शरीर रोमांचित। आँखें भर आईं। राम ने लोक के इस सहज अनुराग को पहचान लिया और प्रिय वचन कहकर उन सबका यथायोग्य स्वागत किया। हालचाल पूछने पर सहज भाव से कोल-भील जो कुछ कहते हैं वह उनकी अनुभूति का सार है। उन्हें लगता है कि राम ने जहाँ-जहाँ चरण धरे, वे सब स्थान धन्य हो गए। वन में जाने कब से भटक रहे पशु-पक्षी भी राम के दर्शन पाकर धन्य हो गए लगते हैं। सपरिवार राम को आँख भर देखने में ही जीवन की धन्यता है। वे राम की सब प्रकार से सेवा करने के लिए प्रस्तुत हैं। जंगल के एक एक कोने से वे परिचित हैं। अपने राम को सारा जंगल घुमाएंगे। बस आज्ञा की देर है। राम बड़े मन से उनके प्रेमपूर्ण शब्दों को सुनते हैं और प्रमुदित होते हैं। इस सहज प्रेमपूर्ण व्यवहार में ही तो राम का ईश्वर रूप निखरता है। प्रेम ही राम का ऐश्वर्य है – ‘रामहिं केवल प्रेमु पिआरा। जानि लेउ जो जाननिहारा।।' (संपादक)

(रामायण संदर्शन) उघरहिं अंत न होइ निबाहू

आजकल जिसे देखिए वही गठबंधन और समझौते की बातें करता दिखाई देता है। किसी तात्कालिक स्वार्थ की पूर्ति के लिए किए जाने वाले ऐसे गठबंधन बिखर भी बहुत जल्दी जाते हैं। दरअसल किन्हीं दो व्यक्तियों या संस्थाओं का लंबे समय तक या आजीवन साथ-साथ चलना तब तक संभव नहीं जब तक उनके परस्पर जुडने का आधार विवेकसंगत न हो। अविवेक पूर्वक किसी प्रकार के आवेश में बनाए गए संबंध बहुत दूर तक नहीं चलते। इसीलिए तुलसी बाबा सावधान करते हैं कि भली प्रकार पहचान कर ही ‘संग्रह’ और ‘त्याग’ का निर्णय करना चाहिए, अन्यथा परिणाम दुखद होते हैं। यह विश्व गुण-दोषमय है। नीर और क्षीर के विवेक से ही संग्रह और त्याग की तमीज़ आती है। विवेक को बहुत बार भ्रमित करने की भी कोशिश की जाती है – जैसे चुनाव की वेला में नेतागण जनता को भ्रमित किया करते हैं। ऐसे समय किसी तात्कालिक लाभ और लोभ में न पड़कर धैर्यपूर्वक परीक्षा की आवश्यकता होती है, क्योंकि यदि कोई ठग भले आदमी का सा वेश बना ले तो भले ही लोग कुछ समय तक उस वेश के प्रताप से उसे पूजते रहें, लेकिन एक न एक दिन ऐसे कपटी लोगों की पोल खुल ही जाती है। तब पता चलता है कि वे तो रक्षक के वेश में भक्षक थे। कालनेमि, रावण और राहु का भेद अंततः खुल ही जाता है। (संपादक)

शुक्रवार, 6 जुलाई 2018

[दो शब्द] हिंदी की दुनिया : दुनिया में हिंदी



दो शब्द

‘हिंदी है हम विश्व मैत्री मंच’ की स्थापना तथा ‘हिंदी की दुनिया और दुनिया में हिंदी’ का प्रकाशन एक सपने के फलीभूत होने जैसी सुखद घटनाएँ हैं. सपने को फालतू चीज न समझें, वह भी चेतना की अवस्थाओं में से एक है. सपना देखे बिना कुछ हो भी नहीं सकता. यह सृष्टि ईश्वर का और ईश्वर भी मनुष्य का स्वप्न ही तो है. एक सपना तेलंगाना राज्य के कुछ हिंदी प्रेमियों ने देखा और ‘हिंदी हैं हम विश्व मैत्री मंच’ के माध्यम से अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी, देशांतर भ्रमण और ग्रंथ प्रकाशन का श्रीगणेश हो गया. इसके मूल में हमारा हिंदी के प्रति समर्पण छिपा हुआ है.

‘हिंदी हैं हम’! यह ‘हिंदी’ क्या है? क्या यह भाषा का नाम है? नहीं, यह भाषा का नाम नहीं है. इसकी व्याख्या अल्लामा इक़बाल ने पहले ही कर दी है- ‘हिंदी हैं हम, वतन है हिंदोस्तां हमारा’. हिंदी यहाँ ‘भारतीय’ का वाचक है. हिंदी एक भाषा का वाचक नहीं, बल्कि ‘हिंदी’ भारतीय संस्कार, भारतीय संस्कृति, भारतीय सभ्यता, भारतीय इतिहास, भारतीय परंपरा, भारतीय मानस, भारतीय चेतना का वाचक है. यह शब्द ‘हिंदी’ भारतीयता का प्रतीक है. यह शब्द कहाँ से आया है ? इसकी कितनी अर्थछवियाँ हैं ? इसके क्या-क्या इतिहास हैं? ये सारे प्रश्न अपनी जगह हैं. हमारे लिए ‘हिंदी’ भारतीय होने का प्रतीक है. अनेक भारतीयों ने विदेशों में इस बात को महसूस किया है कि भारत के बाहर हमारी पहचान पंजाबी, तेलुगु, तमिल और बंगाली नहीं है. भारत के बाहर हमारी पहचान ‘हिंदी’ है. ‘हिंदी’ अर्थात हिंद का, अर्थात हम हिंद के हैं, हम भारत के हैं. भले ही राजनीतिबाज़ लोग हमारी इस पहचान को धूमिल करने जैसी कितनी ही बदमाशियाँ करते रहें. कभी किसी ने लालकिले से देश को हिंदुस्तान क्या कह दिया कि बस अगले दिन बवाल मच गया कि क्या यह देश सिर्फ हिंदुओं का है! यह बड़ी गड़बड़ है. यह फिर से भाषा को धर्म के साथ जोड़कर फिर से देश को लड़वाने, तोड़ने और अपनी राजनैतिक रोटियाँ सेंकने का षड्यंत्र है. इस ‘हिंदी’ को भारतीयता का प्रतीक बनाए रखने में या फिर इसको ‘लैंग्वेज ऑफ़ पॉवर इंडेक्स’ में ऊपर का स्थान मिलने में जो चीजें बाधक हैं, उन्हें समझना हमारे लिए बेहद जरूरी है. यह ‘लैंग्वेज ऑफ़ पॉवर इंडेक्स’ 2016 में अचानक पैदा हुआ है. इससे पहले भाषाओँ के क्षेत्र में इस तरह के इंडेक्स की चर्चा नहीं थी. सवाल है, यह क्यों पैदा हो गया. क्योंकि जयंती प्रसाद नौटियाल जैसे लोग यह सिद्ध कर रहे थे/हैं कि भारत सहित विदेशों में भी जहाँ-जहाँ हिंदी को समझनेवाले लोग हैं,, अगर उन सबकी संख्या को जोड़ा जाए अर्थात हिंदी की तमाम क्षेत्रीय भाषाओँ/ मातृभाषाओं के प्रयोक्ताओं को जोड़ा जाए, उर्दू के तमाम प्रयोक्ताओं को जोड़ा जाए और बौद्धकाल एवं उपनिवेशवादी काल के दौरान भारत से जो प्रव्रजन/प्रवासन हुआ है, उस काल में विदेशों में गए हुए लोगों ने जिस रूप में भाषा को थोड़ा-बहुत बचा कर रखा हुआ है उन सबको जोड़ा जाए और आज अर्थात आजादी के बाद, विशेष रूप से सन 1990 के बाद जो तमाम लोग विदेशों में जाकर वहाँ की नागरिकता ग्रहण कर रहे हैं, उन तमाम लोगों की संख्या को अगर जोड़ा जाता है तो विश्व भर में ‘हिंदी प्रयोक्ताओं’ की संख्या सर्वाधिक है. 35 साल के गहन अनुसंधान और सर्वेक्षण के बाद इस तथ्य को स्थापित किया जा सका है कि विश्व भर में हिंदी प्रयोक्ताओं की संख्या सर्वाधिक है. अब तक यह बात जैसे अब तक यह बात ‘चीनी भाषा’ के प्रयोक्ताओं के बारे में कही जाती रही थी. इसे शायद ‘चीनी भाषा’ के लिए खतरे की घंटी समझा गया; इसलिए ‘लैंग्वेज ऑफ़ पॉवर इंडेक्स’ की अवधारणा वहीं से निकल कर सामने आई कि ठीक है ‘हिंदी’ प्रथम स्थान पर तो है पर ‘हिंदी’ को आप मातृबोलियों के रूप में बोलते होंगे ‘हिंदी’ के रूप में नहीं और वह सत्ता का प्रतीक नहीं है. इसलिए यह बहुत जरूरी है कि हम अपनी तमाम बोलियों/मातृभाषाओँ को जीवित रखें लेकिन अपनी सहयोजित मातृभाषा अर्थात हिंदी को अपदस्थ किए बिना. चीनवालों से हम कम से कम हम यह तो सीख लें कि उन्हें एक नाम ‘हिंदी’ से पुकारें . हम यह न कहें कि मैं ब्रजभाषा वाला हूँ या मैं मैथिली वाला हूँ, हम कहें, “हम हिंदी हैं”. आज राजनैतिक कारणों से मैथिली, नेपाली भले ही संविधान की अष्टम अनुसूची में आ गई हों, लेकिन ये भाषाएँ भी उसी प्रकार से ‘हिंदी भाषा समुदाय’ के विविध भाषिक आचरण या ‘कोड’ हैं जिस प्रकार अवधी, ब्रज, राजस्थानी, भोजपुरी, छतीसगढ़ी या वे बीसों भाषाएँ हैं जिन्हें पश्चिमी भाषावैज्ञानिकों ने डाइलेक्ट या बोली कहकर छोटा कर दिया है. ये तमाम क्षेत्रीय भाषाएँ मिलकर ही व्यापक ‘हिंदी भाषा समुदाय’ की रचना करती हैं.

मैं अपना एक अनुभव आपको बताता हूँ. मुझे समूचे दक्षिण भारत और कुछ-कुछ पूर्वोत्तर भारत में हिंदी का अध्यापन करने के बाद अतिथि अध्यापक के रूप में भारत के ही एक विश्वविद्यालय में चीन, थाइलैंड, बल्गारिया फ़्रांस और इटली से आए छात्रों को भी हिंदी सिखाने का अवसर मिला. ऐसे ही एक बैच में क्लासरूम में बराबर-बराबर बैठी हुई दो चीनी बालिकाओं (इंदु और निशा - भारतीय उपनाम) से, हिंदी भाषा समाज की प्रकृति पर चर्चा के दौरान मैंने पूछा कि क्या आप घर में भी अपनी भाषा चीनी/मंदारिन में ही बात करती हैं. वार्तालाप कुछ इस प्रकार था : 

- आप परस्पर किस भाषा में बात करती हैं ?
- हम कक्षा में हिंदी में बात करते हैं. सामान्यतः हम परस्पर मंदारिन में बात करते हैं .
- आप अपने-अपने घरों में भी क्या मंदारिन ही बोलती हैं?
- नहीं, घर में हम अपनी-अपनी मातृभाषा में बोलती हैं. हम दोनों की मातृभाषाएँ अलग-अलग हैं और मंदारिन से भी अलग हैं.
- आप एक दूसरे की मातृभाषा समझ सकती हैं?
- बिलकुल नहीं, इसीलिए हम आपस में मंदारिन बोलती हैं. हिंदी पढने के कारण हम अब हिंदी में तो एक-दूसरे के भाव समझ सकती हैं, लेकिन एक-दूसरे की मातृभाषाएँ अब भी परस्पर उतनी ही दूर हैं. मंदारिन ही विभिन्न चीनी भाषियों को परस्पर जोडती हैं.

इस वार्तालाप से स्पष्ट है कि चीनी भाषा के अंतर्गत आनेवाली सारी भाषाएँ भी एक-दूसरे से इतनी दूर हैं जितनी उत्तर भारत की भाषाएँ दक्षिण भारत या पूर्वोत्तर भारत की भाषाओँ से. इसके बावजूद उन सबकी गणना चीनी भाषा के रूप में बतौर एक भाषा की जाती है. इस तर्क से तो हिंद की सारी भाषाएँ हिंदी ही हैं – कम से कम वे सब तो हैं ही जिनकी सहयोजित मातृभाषा हिंदी है. उल्लेखनीय है कि चीनी भाषा की वर्णमाला/ चित्रलिपि दुनिया की सबसे बड़ी वर्णमाला है जिसमें लगभग 5000 से कुछ अधिक लिपिचिह्न हैं. इस भाषा में कुल 254 बोलियाँ हैं. ऐसी भाषा एकजुट होने के कारण अपने आप को दुनिया की ‘प्रथम भाषा’ कहती है. इस द्रष्टांत के यहाँ उल्लेख का प्रयोजन यह आवाहन करने से है कि अष्टम अनुसूची की राजनीति के बावजूद हम ‘हिंदी’ के रूप में एकजुट रहकर अपनी मातृभाषाओं के गौरव और राष्ट्रीय अस्मिता दोनों की रक्षा कर सकते हैं, अतः एकजुट रहें – यही लोकतंत्र का तकाज़ा है. आज ज़रूरत इस बात की है कि एक ऐसा जागरूकता अभियान चलाया जाए जिसके तहत हम जाएँ राजस्थानी के लोगों के बीच, मैथिली के लोगों के बीच, भोजपुरी और छत्तीसगढ़ी के लोगों के बीच; और उन्हें कहें कि आपकी अपनी अस्मिता अपनी जगह है जिसके संघर्ष में हम आपके साथ हैं, लेकिन राष्ट्रीय अस्मिता के रूप में आप अपनी भाषा को ‘हिंदी’ कहें. 

राष्ट्रीय अस्मिता के हवाले से हमें यह भी याद रखना होगा कि भारत में अंग्रेजी विदेशी भाषा है और इसीलिए भारत के संविधान की अष्टम अनुसूची में नहीं पाई जाती है बावजूद इसके वह भारत की ‘सह राजभाषा’ है . खेद की बात है कि हमने व्यवहार में इस व्यवस्था को उलट दिया है अर्थात हिंदी को ‘सह राजभाषा’ बनाकर हाशिए पर सिमटी रहने को मजबूर कर दिया है. विश्व-व्यवस्था में राजनैतिक और आर्थिक परिदृश्य पर आज जब भारत पुनः उभर रहा है, यही सही समय है कि हम अपनी राष्ट्रभाषा-राजभाषा-संपर्कभाषा हिंदी का संवैधानिक सम्मान व्यावहारिक रूप में बहाल करें. विश्वभाषा के रूप में हिंदी की प्रतिष्ठा का यही वरेण्य मार्ग है. 

इस ग्रंथ के प्रणयन के पीछे यही दृष्टि रही है कि हिंदी आज किसी क्षेत्रविशेष की भाषा नहीं है वह पारंपरिक भौगोलिक सीमाओं का अतिक्रमण करती हुई सार्वदेशिक ही नहीं सार्वभौमिक भाषा बन गई है. दैनंदिन व्यवहार से लेकर साहित्य और नए मीडिया तक, देसी राजनीति और वैदेशिक कूटनीति से लेकर विज्ञान और तकनीक तक तथा कुटीर उद्योग से लेकर फिल्म उद्योग तक हिंदी ने अपने सामर्थ्य को सिद्ध कर दिया है. उसकी इस यात्रा में मातृभाषा के रूप में उसका व्यवहार करने वालों के अलावा हिंदीतरभाषियों, गिरमिटिया देशों के भारतवंशियों, दक्षेश राष्ट्रों तथा खाड़ी देशो के हिंदी-उर्दू जानने-समझने वालों, दुनिया भर में फैले प्रवासी भारतीयों और विदेशी हिंदीसेवियों का समग्र रूप में योगदान ही उसका अक्षुण्ण पाथेय रहा है. इस योगदान के भूत, वर्तमान और भविष्य के आकलन का अत्यंत सीमित सा प्रयास आप इस ग्रंथ में पाएँगे जो वास्तव में इस शृंखला की पहली कड़ी है. हम प्रयास करेंगे कि यह क्रम आगे भी चलता रहे और आप सबका साथ निरंतर मिलता रहे. 

‘हिंदी की दुनिया और दुनिया में हिंदी’ के प्रकाशन के अवसर पर सभी सहयोगी लेखकों और संपादक गण को बधाई देने के साथ ही मैं प्रो. गोपाल शर्मा (इथियोपिया), प्रो. घनश्याम शर्मा (इनाल्को, पेरिस) और प्रो. देवराज (वर्धा) के प्रति आभार व्यक्त करना ज़रूरी समझता हूँ क्योंकि ये तीनों महानुभाव हैदराबाद के हिंदी सेवियों के सपने को अपने स्नेह का संबल न देते तो इसका साकार होना दुष्कर होता. 

शुभकामनाओं सहित

- ऋषभदेव शर्मा 
पूर्व आचार्य एवं अध्यक्ष 
उच्च शिक्षा और शोध संस्थान 
दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा 
खैरताबाद, हैदराबाद – 500004 (भारत)

सोमवार, 28 मई 2018

रहनुमा तो नहीं हो, साँप ही तो हो : पं. गोपाल प्रसाद व्यास

पुण्य तिथि 28 मई पर विशेष

रहनुमा तो नहीं हो, साँप ही तो हो : पं. गोपाल प्रसाद व्यास
- ऋषभ देव शर्मा

उन्होंने कक्षा सात की भी परीक्षा नहीं दी थी, लेकिन वे अलंकारशास्त्र, रससिद्धांत, नायिकाभेद और समस्त ललित कलाओं के विशेषज्ञ थे. उनका जन्म ब्रजमंडल के एक छोटे से गाँव में हुआ था, लेकिन उन्होंने समस्त हिंदी जगत को अपनी वाणी के प्रसाद से प्रमुदित किया. वे स्कूली शिक्षा को बीच में ही छोड़कर स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े थे, लेकिन महात्मा गांधी के निर्देश पर उन्होंने सक्रिय राजनीति से परहेज़ करते हुए रचनात्मक कार्यों और आंदोलन में अपने को झोंक दिया. दुनिया उन्हें लाल किले के कवि सम्मेलन के जनक के रूप में जानती है, लेकिन कम लोग यह जानते हैं कि वे केवल हास्य और व्यंग्य के ही अनन्य हस्ताक्षर नहीं थे, बल्कि वीर रस की ओजस्वी कविताओं के क्षेत्र में भी उन्हें बेजोड़ सफलता मिली थी.

ऐसे कविकुल शिरोमणि पंडित गोपाल प्रसाद व्यास का जन्म 13 फरवरी, 1915 को हुआ था और उन्होंने साहित्य की दीक्षा नवनीत चतुर्वेदी, कन्हैया लाल पोद्दार, वासुदेव शरण अग्रवाल और डॉ. सत्येंद्र जैसे अपने समय के मूर्धन्य विद्वानों से ग्रहण की थी. वे साहित्य संदेश, दैनिक हिंदुस्तान, राजस्थान पत्रिका, सन्मार्ग और विकासशील भारत से संपादक के रूप में तो जुड़े ही थे; पर खास बात यह कि बाईस वर्ष की आयु से जो स्तंभ लेखन का कार्य आरंभ किया, उसे अत्यंत जागरूक पत्रकार के रूप में अपने अंतिम समय तक बखूबी निभाया.

हिंदी भाषा और साहित्य के लिए अपने आप को पूरी तरह समर्पित कर देने वाले कवि गोपाल प्रसाद व्यास ने ब्रज साहित्य मंडल की ही स्थापना नहीं की, दिल्ली हिंदी साहित्य सम्मेलन और  श्री पुरुषोत्तम हिंदी भवन न्यास समिति की भी नींव रखी. इतना ही नहीं, होली के अवसर पर ‘मूर्ख महासम्मेलन’ की परंपरा को भी सरलता, सहजता, सरसता और जीवंतता के साक्षात अवतार गोपाल प्रसाद व्यास  ने ही जन्म दिया. आशय यह कि उन्होंने ही हिंदी में हास्य-व्यंग्य की लगभग सूखी धारा को पुनर्जीवित किया.

इसमें संदेह नहीं कि हास-परिहास से लेकर चुटीले व्यंग्य तक उनका कोई सानी नहीं. हिंदी हास्य कविता को पत्नी का आलंबन पहले पहल उन्होंने ही प्रदान किया. पत्नी ही क्या, ससुराल के अन्य सदस्यों साली सलहज और सास के बहाने भी उन्होंने अपने समय और समाज की अनेक दुखती रगों को कभी सहलाया, तो कभी चटकाया भी. साली क्या है रसगुल्ला है, पत्नी को परमेश्वर मानो, साला ही गरम मसाला है, सास नहीं भारतमाता है, पलकों पर किसे बिठाऊँ मैं, एजी कहूँ कि ओजी कहूँ, समधिन मेरी रसभीनी है और भाभीजी नमस्ते जैसी कविताओं के द्वारा वे हिंदीभाषी जनगण के कंठहार बन गए थे. हिंदी कवि सम्मेलन को उन्होंने शिष्ट हास्य द्वारा आम जनता तक पहुँचाने का बड़ा कार्य संपन्न किया.

इसी प्रकार उनकी व्यंग्य कविताओं में खासतौर से आराम करो, नई क्रांति, बोए गुलाब, साँप ही तो हो, सत्ता, सुकुमार गधे और सरकार कहते हैं तो आज भी उतनी ही प्रासंगिक हैं, जितनी अपने रचनाकाल में रही होंगी. आइए, बानगी देखते चलें.
कुंभकर्णी दोपहरी मंदोदरी साँझ/ रात शूर्पणखा सी बेहया बाँझ/ मेघनाद छाया है/ दसों दिशा क्रुद्ध/ चाह रही बीस भुजा तापस से युद्ध / और तुम कहते हो/ सृजन को सँवारो/ कंटकित करीलों की आरती उतारो! (बोए गुलाब).
साँप,/ दो-दो जीभें होने पर भी/ भाषण नहीं देते?/ आदमी न होकर भी/ पेट के बल चलते हो./यार! हम तुम्हारे फूत्कार से नहीं डरते/ साँप ही तो हो,/भारत के रहनुमा तो नहीं हो! (साँप ही तो हो).
कमर में जो लटकती है उसे सलवार कहते हैं/ जो आपस में खटकती है उसे तलवार कहते हैं/ उजाले में भटकती है उसे हम तारिका कहते/ अँधेरे  में भटकती जो उसे सरकार कहते हैं! (सरकार कहते हैं).
लेकिन आज की पीढ़ी में बहुत कम हिंदीवालों को यह जानकारी होगी कि हास्य रसावतार गोपाल प्रसाद व्यास ने वीर रस से भरी ऐसी कविताएँ भी रची हैं जिन्हें सुनकर आज भी शरीर रोमांचित हो उठता है और मन में ओज भाव का संचार होता है. दरअसल उनका कवि-मन अपने कैशोर्य में सुभाष चंद्र बोस से सर्वाधिक प्रभावित था. उन्होंने सुभाष पर और  स्वतंत्रता संग्राम पर कई ओजस्वी कविताएँ लिखीं जिनमें नेताजी सुभाष चंद्र बोस, नेताजी का तुलादान, खूनी हस्ताक्षर, हिंदुस्तान हमारा है, मुक्ति पर्व, प्रयाण गीत और शहीदों में तू नाम लिखा ले रे! जैसे मर्मस्पर्शी गीत शामिल हैं.

28 मई, 2005 को यह पार्थिव संसार छोड़ गए कवि गोपाल प्रसाद व्यास की कीर्ति-काया अजर-अमर है. उनकी पुण्यतिथि पर उन्हें प्रणाम करते हुए ‘नेताजी सुभाष चंद्र बोस’ का यह अंश श्रद्धापूर्वक निवेदित है :

बाँधे जाते इंसान, कभी तूफ़ान न बाँधे जाते हैं।/
 काया ज़रूर बाँधी जाती, बाँधे न इरादे जाते हैं।।/
 वह दृढ़-प्रतिज्ञ सेनानी था,जो मौका पाकर निकल गया।/
वह पारा था अंग्रेज़ों की मुट्ठी में आकर फिसल गया।।   (नेताजी सुभाष चंद्र बोस).

शुक्रवार, 25 मई 2018

रामकथा आधारित एनिमेशन ‘सीता सिंग्स द ब्ल्यूज़’ : एक अध्ययन


रामकथा आधारित एनिमेशन ‘सीता सिंग्स द ब्ल्यूज़’ : एक अध्ययन

ऋषभदेव शर्मा और कुमार लव


‘रामायण’, ‘महाभारत’ और ‘बृहत्कथा’ भारतीय वाङ्मय के ऐसे आकर-ग्रंथ हैं जिनकी कथाएँ अनेक रूपों में देसी लोकसाहित्य से लेकर विदेशी साहित्य तक में फैली हुई हैं. इनमें भी विशेष रूप से अपनी सरलता, पारदर्शिता, मूल्यनिष्ठता और मानवीय पुरुषार्थ केंद्रिकता के कारण रामकथा संभवतः सर्वाधिक वैविध्य के साथ देश-विदेश के नाना भाषा समुदायों में प्रचलित मिलती है. इस मूलतः पौराणिक- ऐतिहासिक कथा का ढाँचा कुछ इतना लचीला है कि एक जगह से दूसरी जगह जाते-जाते इसका पाठ लगातार बदलता रहता है. एक काल से दूसरे काल तक जाने पर तो और भी बदलाव हो जाते हैं. देश-काल के भेद से उत्पन्न पाठ भेदों के कारण प्रायः इसे मिथक की कोटि में भी गिन लिया जाता है लेकिन विभिन्न प्रकार के पुरातात्विक, भाषिक, साहित्यिक और सांस्कृतिक साक्ष्य यह प्रमाणित करते हैं कि रामकथा मूलतः ऐतिहासिक है लेकिन उसके पात्र इतने अधिक लोकाभिराम हैं कि उसमें पुरावृत्त और लोकसाहित्य जैसी परिवर्तनीयता आ गई है. सहज रूप में लोकचित्त के अत्यंत निकट होने के कारण आज भी यह कथा नए-नए अवतार धारण करके रामत्व अथवा राम संस्कृति के मूल्यों को अधुनातन पीढ़ियों को सौंपने का काम कर रही है. 


अपनी इस विश्वयात्रा में रामकथा ने यदि हजारों हजार वर्ष पहले विभिन्न लोककलाओं और माध्यमों का सहारा लिया तो क्रमशः मौखिक से लिखित साहित्य की ओर भी प्रस्थान किया. उसी समय से लिखित और मौखिक दोनों ही परंपराओं में रामकथा अनेक रूपों में मिलने लगती है. स्वयं संस्कृत में ही रामकथा के विभिन्न पात्रों के अवलोकन बिंदु से संचालित विविध पाठ मिलते हैं. यह इस कथा की लोकतांत्रिक प्रकृति ही है कि देश-दुनिना में राम संस्कृति साहित्य के अलावा बित्तिचित्रों, रेखांकनों, रंगचित्रों, मूर्तियों और स्मारकों के रूप में उपलब्ध होती है. इस लोकतांत्रिक प्रकृति के कारण ही इस कथा के मुख्य पात्रों के क्रियाकलापों पर प्रश्न उठाने की परंपरा भी आरंभ से ही चली आ रही है. कहने का आशय यह है कि रामकथा की विश्वयात्रा का एक आधार यदि इसमें निहित नैतिक मूल्य हैं तो दूसरा बड़ा आधार इसकी वह लोकतांत्रिक प्रकृति है जो इसे विभिन्न देश-काल तथा भाषा-समुदाय के अनुरूप ढल जाने देती है. यही कारण है कि विज्ञान और प्रौद्योगिकी के वैश्विक विस्फोट के वर्तमान युग में भी यह कथा सिनेमा से लेकर सोशल मीडिया तक तथा कार्टून कथाओं से लेकर एनीमेशन फिल्मों तक के लिए सुग्राह्य और लोकप्रिय कथा है. इसके मोटिफ का इस्तेमाल करते हुए तो जाने कितनी कथाएँ विविध माध्यमों से रची जा चुकी हैं और निरंतर रची जा रही हैं, लेकिन एनिमेशन फिल्म जैसा माध्यम भी इससे अछूता नहीं है. एक ओर हनुमान जैसे पात्रों पर आधारित एनिमेशन विभिन्न टीवी चैनलों पर लोकप्रिय है और विभिन्न भाषाओँ में उनकी डबिंग की जा रही ही तो दूसरी ओर सीता के दृष्टिकोण से रचित एनिमेशन फिल्म ‘सीता सिंग्स द ब्ल्यूज़’ (2008) अमेरिका में रची जाकर रामत्व की विश्वयात्रा को नया आयाम देती देखी जा सकती है. 


लोक गायन की परंपरा से यह ज्ञात होता है कि वाल्मीकि द्वारा लेखबद्ध किए जाने से पहले ही राम और सीता की गाथा ऐतिहासिक वृत्ति की सीमाओं को लांघकर लोकगाथा और निजंधरी कथा का रूप धारण कर चुकी थी. तब से अब तक जब जब भी इसे लिखा गया, मंचित किया गया या किसी भी कला माध्यम द्वारा अंगीकृत किया गया तब तब इन नए पाठ रचने वालों ने मौलिक उद्भावनाओं के नाम पर इस कथा को कभी विकसित किया, तो कभी विकृत भी किया. लोकगाथा बन चुके चरित्रों और घटनाओं के साथ ऐसा होणा स्वाभाविक ही है क्योंकि जन-मन ऐसी गाथाओं की अपने मनोनुकूल व्याख्या और पुनर्रचना करने के लिए स्वतंत्र होता है. ‘सीता सिंग्स द ब्ल्यूज़’ पर भी यह बात लागू होती है. निर्देशक के अनुसार यह फिल्म सत्य और न्याय की गाथा के साथ-साथ समानता के अधिकार के लिए स्त्री की चीख भी है. इस कथन में रामकथा की वैश्विक प्रासंगिकता निहित है. 


‘सीता सिंग्स द ब्ल्यूज़’ एक एनिमेटड फिल्म है. इसके बारे में रोचक तथ्य यह है कि निर्माता-निर्देशक ने इसे सर्जनात्मक सामान्य लाइसेंस (क्रिएटिव कॉमन्स लाइसेंस) के अंतर्गत सर्वसुलभ कराया है. अर्थात यह फिल्म इस फिल्म को कोई भी देखने के साथ-साथ संपादित, परिवर्तित और परिवर्धित कर सकता है. हाँ, यह बात उन कुछ गीतों पर लागू नहीं है जिनका मूल कॉपीराइट किसी दूसरे के पास है. निर्देशक नीना पेले ने इस फिल्म को ‘लोक’ को अर्पित करते हुए अपनी वेबसाइट पर लिखा है, “मैं ‘सीता सिंग्स द ब्ल्यूज़’ आपको सौंप रही हूँ. वैसे तो सारी संस्कृति की तरह यह पहले से ही आपकी है, लेकिन मैं इसका विधिवत उल्लेख कर रही हूँ. आप इसे मुक्त रूप से वितरित करें, कॉपी करें, शेयर करें, सहेज कर रखें और प्रदर्शित करें. यह गाथा साझा संस्कृति की विरासत है और उसीको समर्पित है.” वे आगे स्पष्ट करती हैं कि ‘सीता सिंग्स द ब्ल्यूज़’ को कॉपी करने, साझा करने, प्रकाशित करने, सहेजने, प्रदर्शित करने, प्रसारित करने या रीमिक्स करने के लिए किसी प्रकार की अनुमति की आवश्यकता नहीं है. व्यावसायिक बुद्धि भले ही इस सब का मूल्य निर्धारित करने को कहती हो, लेकिन निर्माता की इच्छा यह है कि यह रचना हर उस व्यक्ति तक भी पहुँचे जो किसी भी प्रकार का भुगतान करने में असमर्थ है. उन्होंने अपने दर्शक पर, संस्कृति पर और स्वतंत्रता की भावना पर विशवास जताया है. इसे रामकथा को नए माध्यम द्वारा जन-जन तक पहुँचाने के लिए प्रौद्योगिकी के मुक्त/मुफ्त उपयोग का अच्छा उदहारण मानना चाहिए. 

फिल्मकार को इस बात का अंदाजा है कि जिस कहानी पर यह फिल्म बनाई जा रही है, उससे दर्शक पहले से किसी न किसी रूप में परिचित हैं. इसलिए उन्होंने चरित्रों को स्थापित करने या कथा के किसी एक विशिष्ट पाठ को प्रतिपादित करने के बजाय शुरू से ही इस बात पर ध्यान दिया है कि एन्नेटे हैंशा की आवाज में सीता की निजी अनुभूति की अभिव्यक्ति हो सके.

यह फिल्म चार कथात्मक इकाइयों में बँटी हुई है. पहली इकाई का संबंध आधुनिक कथा से है. यह कथा नीना पाले की है. नीना अपने पति और बिल्ली के साथ सैन फ्रांसिस्को में सुखपूर्वक रह रही है. तभी (2002) पति को भारत में नौकरी मिल जाती है और वह त्रिवेंद्रम चला जाता है. महीने भर में पति का बस एक फोन आता है. इस उपेक्षा से आजिज़ आकर वह भी पति के साथ रहने के लिए भारत आ जाती है. पति किसी प्रकार की प्रसन्नता नहीं दर्शाता और पत्नी के प्रति पूरी तरह उदासीन रहता है. इसी बीच अपनी कॉमिक फिल्म के सिलसिले में पत्नी को न्यूयॉर्क जाना पड़ता है. पीछे-पीछे पति के ईमेल के रूप में संबंध-विच्छेद की घोषणा आ जाती है. अपने खालीपन को भरने के लिए वह ‘रामायण’ पढ़ना शुरू करती है. दरअसल अमेरिका में रहने वाली नीना भारत आने पर ही रामकथा से परिचित हुई थीं. एन्नेटे हैंशा को सुनने के बाद उन्हें लगा कि सीता की और उनकी अपनी कहानी मैं कुछ ऐसी समानांतरता है जिसे किसी संगीत-रूपक का आधार बनाया जा सकता है. उन्होंने इस विषय को लेकर एक संगीत-वीडियो बनाने का निश्चय किया. फलस्वरूप, यह एनिमेशन फिल्म ‘सीता सिंग्स द ब्ल्यूज़’ अस्तित्व में आई.

इस कथावृत्त की दूसरी इकाई का संबंध सीधे-सीधे रामायण से है.यहाँ कथावाचक के रूप में हमारे सामने तीन छाया कठपुतलियाँ आती हैं. आप इन्हें भारतीय भी समझ सकते हैं औरचाहें तो इंडोनेशियन भी मान सकते हैं. इन छायापुतलियों के पास रामकथा की धुंधली-धुंधली यादें हैं जिनका निर्माण रामलीलाओं, टीवी सीरियलों और उन तमाम दूसरे-दूसरे पाठों के आधार पर हुआ है जिन्हें अलग-अलग माध्यमों में रामकथा के रूप में टुकड़े टुकड़े दास्तान की तरह अपनाया और पेश किया जाता है. एक खास बात इन तीनों छायापुतलियों की यह है कि ये पूरी तरह लोकतांत्रिक हैं. इन तीनों का अपना-अपना नजरिया है, मगर कट्टरता नहीं. तीनों को यह भली प्रकार मालूम है कि मेरे अलावा दूसरों का नजरिया भी ठीक हो सकता है. उन्हें कतई जरूरी नहीं लगता कि सबका सच एक जैसा हो. बल्कि वे यह मान कर चलती हैं कि हम तीनों ही सही हो सकती हैं. कहना न होगा कि यह बात शायद हिंदू जनजागृति समिति की समझ में नहीं आ सकी थी इसीलिए उन्होंने राम कथा पर आधारित और परंपरागत माध्यम के साथ-साथ आधुनिक प्रौद्योगिकी के सहारे नव मीडिया का उपयोग करते हुए रचे जा रहे रामचरित के नए पाठ को जन भावनाओं को ठेस पहुँचाने और तिरस्कार करने वाला मानकर इस पर प्रतिबंध की माँग (2009) की थी.

कथावृत्त की तीसरी इकाई के रूप में हमारे सामने सीधे-सीधे रामायण के विविध कांड आते हैं. इसके लिए फिल्मकार ने अठारहवीं शताब्दी की राजपूत पेंटिंग शैली का उपयोग किया है. दरअसल राजपूत पेंटिंग् शैली को महाकाव्य का चित्रांकन करने के लिए बहुत उपयोगी और उपयुक्त माना जाता है. पारंपरिक रूप से रामायण का चित्रांकन इस शैली में होता रहा है. आप जानते ही हैं कि राजपूत एक युद्धक जाति है और इसीलिए इस शैली में रामायण को एक ऐसे युद्ध-महाकाव्य के रूप में चित्रांकित किया जाता है जिसमें काव्यनायक युद्ध करता है और नायिका को पृथ्वी की भांति जीतने-हारने की ‘वस्तु’ माना जाता है; नायिका का हरण हो जाता है और नायक उसे खलनायक के चंगुल से निकालने के लिए भीषण युद्ध करता है, अपना नायकत्व स्थापित करता है.

इस कथावृत्त की चौथी इकाई का निर्माण सीता की आत्माभिव्यक्ति पर आधारित संगीतमय प्रस्तुति से हुआ है. यह सीता पुराणों वाली सीता नहीं है. या कहें कि मध्यकाल की सीता नहीं है. यह तो आज की वह सीता है जो राम की छाया और अनुगामिनी मात्र नहीं बल्कि ऐसी स्वतंत्र चेतना संपन्न स्त्री है जो अपने साथ किए जा रहे तमाम तरह के लैंगिक भेदभाव और वस्तुकरण की परंपरा की आलोचना कर सकती है; उस पर अपना निर्णय सुना सकती है, विरोध दर्ज करा सकती है. यह सीता जहाँ आनंद से परिपूर्ण है, वहाँ अपने आनंद को नृत्य के माध्यम से व्यक्त करती है और जहाँ पीड़ा और क्रोध से तपती है, वहाँ करुणा और उग्रता को भी छिपाती नहीं है. वह अपनी कारुणिक परिस्थितियों के प्रति पूरी तरह सचेत है और इस बात का भी उसे पूरा ख्याल है कि उसे इस विश्व की सर्वाधिक पवित्र स्त्री और सतीत्व के आदर्श के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त है. इस एनिमेशन फिल्म की सीता बड़ी सीमा तक मैक्स फ्लीशर की एनिमेटेड कार्टून पात्र बेट्टी बूप के समान है जो अपनी कहानी खुद बयान करती है. यह कहानी नीना की कहानी के समानांतर चलती है जिन्होंने खुद अपनी कहानी के आधार पर इस एनिमेशन की रचना की है.

आधुनिक मीडिया और प्रौद्योगिकी की सहायता से रचित रामकथा के इस नए पाठ में जो बात सर्वाधिक आकर्षित करती है वह है सीता का सर्वथा नए संदर्भ में प्रतिष्ठापन. पारंपरिक सभी पाठों में सीता की महानता शूर्पणखा, अहल्या, ताड़का, कैकेयी और अन्य स्त्री पात्रों के बरक्स रची जाती रही है. लेकिन इस नए पाठ में सीता को पितृसत्तात्मक व्यवस्था के कारण अन्याय का शिकार होते हुए दिखाया गया है. इस कारुणिक दशा के बावजूद वह विलाप नहीं करती बल्कि अपने सम्मान का प्रश्न उपस्थित होने पर स्वाभिमान पूर्वक स्वयं राम का परित्याग कर देती है. यहाँ सीता महावृतांत का प्रस्तुतीकरण करने वाली छायापुतलियों के साथ एकाकार हो जाती है और दर्शकों को सावधान करती है कि किस तरह महान कथावृत्त रचे जाते रहे हैं और किस तरह उनकी पात्र परिकल्पना हमारे साधारणीकरण की प्रक्रिया को प्रभावित करती रही है. इस नए पाठ में राम-लक्ष्मण के चरित्र का प्रक्षालन किया गया है और शूर्पणखा के अंग-भंग की शर्मनाक घटना को छोड़ दिया गया है. यहाँ रावण बदले के लिए नहीं बल्कि शूर्पणखा के चालाकी भरे उकसावे में आकर सीता-हरण पर आमादा होता है. इसी प्रकार स्वर्ण-मृग पर सीता ही नहीं, स्वयं राम भी मुग्ध होते हैं और अपनी प्रिया को उपहार देने के लिए उसका शिकार करने निकलते हैं.

रामकथा का यह नया पाठ इस मामले में भी नया है कि फिल्मकार ने रावण को समस्त बुराइयों के प्रतीक के रूप में अंकित नहीं किया है. नीना के रावण में एक ही बुराई है और वह है कि उसने शूर्पणखा के उकसाने पर सीता का अपहरण किया वरना तो रावण एक महान विद्वान, तपस्वी और अपनी आँतों से वीणा बजा सकने वाला सिद्धहस्त संगीतकार है. इस फिल्म को देखकर दर्शक को लगता है कि रावण कोई मोगेंबो जैसा अपराधी चरित्र नहीं है बल्कि हमारे अपने पूर्वग्रहों ने उसकी वैसे खलनायक वाली छवि बना रखी है. लेकिन यह भी ध्यान आकर्षित करने वाला तथ्य है कि भले ही रावण ने कभी भी सीता का स्पर्श तक नकिया हो तो भी यहाँ उसकी इस कारण से कोई प्रशंसा नहीं की गई. स्त्री विमर्श की दृष्टि से तो रावण और राम दोनों ही सीता के वस्तुकरण के अपराधी हैं; एक ने उनका अपहरण किया तो दूसरे ने मिथ्या आरोप लगाकर निर्वासित किया.

विश्व भर के दर्शकों के लिए निर्मित किए गए रामकथा के इस पुनर्पाठ की केंद्रीय घटना सीता की अग्नि परीक्षा है. जब सीता को पता चलता है कि राम तो अपने क्षात्रधर्म का पालन करते हुए अपने पुरुष पुरुषत्व को प्रमाणित करने के लिए युद्ध कर रहे थे और उनके समक्ष सीता के लिए अपनी पवित्रता अग्निपरीक्षा द्वारा प्रमाणित करना आवश्यक था, तो वह अपमान की अग्नि से दहकने लगती हैं और अग्निपरीक्षा देकर अपनी पवित्रता प्रमाणित करती हैं. इसके बावजूद उन्हें किसी धोबी के कथन के बहाने धोखे से निर्वासित कर दिया जाता है. बाद में, फिर से पवित्रता का प्रमाण माँगा जाता है. ये दोनों ही अवसर स्त्रीत्व के चरम अपमान के अवसर हैं. इनसे जुडी सीता की मनोदशा को ‘एन्नेटे हैंशा’ की दर्दभरी आवाज में ‘मीन टू मी’ गीत में मर्मस्पर्शी अभिव्यंजना प्राप्त हुई है .यहाँ वेक्टर ग्राफिक एनीमेशन की अद्यतन तकनीक का प्रयोग प्रौद्योगिकी के रचनात्मक संयोजन का सुंदर उदाहरण है. इसके अलावा यह घटना नीना के अपने विवाह-विच्छेद की घटना के साथ बिंब-प्रतिबिंब भाव से इस तरह जोड़ दी गई है कि युगों पूर्व की सीता और आज की नीना एक साथ आकर दर्शक के सामने खड़ी हो जाती हैं. इस हृदय विदारक क्षण को रीना शाह ने अपने उग्र नृत्य द्वारा इस तरह साकार किया है कि तिरस्कृत, निर्वासित और परित्यक्त स्त्री की आंतरिक वेदना की आग दर्शक सहज ही महसूस कर पाता है. आश्चर्य नहीं कि रामकथा का यह स्त्री पाठ सीता द्वारा राम के परित्याग के रूप में अपने चरमोत्कर्ष को प्राप्त करता है. सीता राम को त्याग देती हैं और अपनी माता पृथ्वी की गोद में चली जाती हैं. इसके बाद एक स्वप्न दृश्य है जिसमें लिंगभेद जनित भूमिकाएँ बदल जाती हैं और भगवान विष्णु शेषशय्या पर विराजमान लक्ष्मी के पाँव दबाते नज़र आते हैं. 


निष्कर्ष के रूप में यह कहा जा सकता है कि कंप्यूटर ग्राफिक्स और फ़्लैश एनीमेशन की अधुनातन प्रौद्योगिकी के सहारे निर्मित नीना पाले की यह फिल्म- 

- रामकथा में निहित स्त्री-पुरुष संबंधों के तनाव को सामने लाती है. (शायद ये तनाव ही परंपरागत सीता को छाया-सीता बनने के लिए मजबूर करते रहे हैं.) 
- रामकथा के लोकतांत्रिक चरित्र को उभारती है और ध्यान दिलाती है कि जन-जन द्वारा अंगीकार की गई इस गाथा को किसी एक जड़ फ्रेम में बाँधना इसकी हत्या करने जैसा है. (इस प्रकार यहाँ आधुनिक हठवादियों के आक्षेपों के औचित्य पर सवाल उठाया गया है.) 
- कथा सुनाने वाली तीन छायापुतलियों के बहाने सीता की पवित्रता के संबंध में अलग-अलग मत-वादों को सामने लाती है तथा नीना और सीता के बिंब-प्रतिबिंब भाव से अंकन द्वारा यह विश्वास दिलाने का प्रयास करती है कि एक स्वाभिमानी स्त्री के रूप में सीता ने पातिव्रत्य के प्रमाण की माँग के समय कैसा अनुभव किया होगा. 
- स्त्री-प्रश्नों के अलावा सत्य और न्याय के भी शाश्वत प्रश्नों पर सोचने के लिए अपने ग्लोबल दर्शक समुदाय को प्रेरित करती है और राम संस्कृति की विश्वयात्रा को आगे बढाती है.

``````````````````````````
 http://blog.ninapaley.com/2013/01/18/ahimsa-sita-sings-the-blues-now-cc-0-public-domain/

Director Nina Paley's long synopsis from the press section at SitaSingstheBlues.com, retrieved May 4, 2008

https://openglam.org/2013/01/19/sitas-free-landmark-copyleft-animated-film-is-now-licensed-cc0/

Ekadashi, Chaitra Shuddha. Hindus, Strongly Protest against movie denigrating Devi Sita!Hindu Janajagruti Samiti. April 5, 2009

````````````````````````````````````````````````````

· ऋषभदेव शर्मा, पूर्व प्रोफ़ेसर एवं अध्यक्ष, उच्च शिक्षा और शोध संस्थान, दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, हैदराबाद (तेलंगाना), भारत
 · कुमार लव, हेड, कस्टमर सक्सेस, सविशा, गोरेगाँव-पूर्व, मुंबई-400063 (महाराष्ट्र), भारत.