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शुक्रवार, 29 जून 2012

दर्द से जन्मी हुई वैदिक ऋचाएँ


विनीता शर्मा के गीत 

श्रीमती विनीता शर्मा [ज. 27 जून 1938] हैदराबाद की वरिष्ठतम और श्रेष्ठ कवयित्री हैं. उन्होंने गीतों के माध्यम से मानव मन की कोमल संवेदनाओं को सुरुचिपूर्ण कलात्मक अभिव्यक्ति प्रदान करने में महारत हासिल की है. उनके गीतों में आरंभ से अंत तक दर्द की एक सूक्ष्म रेखा सी कौंधती रहती है. और इस कौंध में जीवनानुभूति के विविध पक्ष रह रह कर चमकते दिखाई देते हैं. प्रतीक्षा, स्मृति, उपालंभ, प्रवंचना, मिलन, बिछोह और आत्मदान से लेकर आत्मविस्तार तक के विभिन्न रंगों को कवयित्री ने अत्यंत कुशलता से विविध छंदों, रूपकों, प्रतीकों और बिंबों की रेखाओं के सहारे सजाया है.

कवयित्री ने गीत को ऐसी सहज संवेदना का पर्याय माना है जो दर्द से जन्म लेती है और वेद की ऋचा बन जाती है. अर्थात गीत की यह यात्रा पीडा की अनुभूति से अध्यात्म के औदात्य तक की यात्रा है. स्मृति इस यात्रा का पाथेय है और लोक सहयात्री – “’किसी कवि ने कहा करुणा कलित हो चंद छंदों में/ बनी सत् प्रेरणा सद्भावना समवेत ग्रंथों में/ वनों में रम रहे ऋषि ने कहा जो वेद वाणी में/ वो बचपन में सुनी हमने कभी माँ से कहानी में/ विगत में ताड़ पत्रों पर लिखी जातक कथाएँ हैं/ समय की मान्यताएँ है.’''

स्मृति विनीता जी के गीतों में बार बार अलग अलग रूप में आती है. कभी जब कोई बीती सी याद मेघ बन बरसती है तो पोर पोर डूब जाता है और मन सराबोर हो जाता है. इन यादों में चाँद सितारों से भरा वह खुला खुला आँगन है जिसमें रात किरण की डोर थामकर धीरे से उतरती है और सपनों के फूल सिरहाने छोड़ जाती है. याद जब आती है तो आँखों में शब्दों के साए डूब जाते हैं. इस प्रेम व्यापार में संपूर्ण प्रकृति बिंब प्रतिबिंब भाव से कवयित्री के साथ शामिल है. नीले आकाश में बिखरी श्वेत आकृतियाँ श्याम वर्ण होने लगती हैं, चातक की दर्द भरी प्यासी पुकार सुनकर बादल की आँखों में आँसू भर आते हैं. ये आँसू रिमझिम बौछार बनकर बरसते हैं तो मोर मस्ती में पंख फैला देते हैं. आकाश और पृथ्वी का यह शाश्वत प्रणय इन गीतों में कई रूपों में व्यक्त हुआ है. कवयित्री को स्मृति की अपनी धरोहर से बहुत प्यार है. इसीलिए वे चाहती हैं कि कालजयी यादों का दर्पण न टूटे – ‘“कितनी भी गर्द गिरे/ इतनी मिल जाए मुझे/ यादों की छोटी सी/ उम्र ठहरने लगे/ आओ तुम फिर शायद/ मिलने के माध्यम से/ प्यार संवरने लगे.’” दरअसल ये स्मृतियाँ ही गीत की पृष्ठभूमि बनती हैं. भले ही गुजरा हुआ कोई लम्हा लौटकर न आता हो तब भी एक एक लम्हे की उंगली पकड़कर उम्र के सोपान चढ़ना क्या कभी भूलने की चीज है? ये लम्हे ही तो हमारी संवेदना के साक्षी होते हैं और जब कभी कोई विषम अनुभूति हमें रुलाती है तो ये ही सांत्वना के शब्द कहते हैं, गोद में लेकर सुलाते हैं. याद कभी तीली की तरह जलती है तो अतीत किसी भूले गीत सा करवट लेता दिखाई देता है. मधुर स्मृतियाँ किसी शुभकामना संदेश की तरह आकर शांत सोए मन को जगाती हैं – “’तुम्हारी याद की अनुगूंज से/ मेरे हृदय में हरकतें होती रहें/ भले परछाइयाँ ही हों/ किसी के साथ का अहसास तो देती रहें.”’ प्रणय की ये सुधियाँ गूँगी संवेदनाओं को गीतों के स्वर प्रदान करती हैं और आँखों में सपने उगाती हैं – “’आओ इस यात्रा के नए शिला लेख लिखें / सदियों तक आएँ जो इन्हें पढ़ें देख सकें.”’

विनीता शर्मा के गीतों में लोकानुभव से उत्पन्न सूक्तियाँ मोतियों की तरह जड़ी हुई हैं. स्त्री और पुरुष जब परस्पर आत्मीयता में बंधी पारिवारिक इकाई के स्थान पर वर्ग बन जाते हैं तो वैचारिक छलना का जन्म होता है (जिस घड़ी आप हम वर्ग में बदल गए/ व्यक्ति को विचार के मानदंड छल गए). ज़मीन पर चाँद की चाह हादसों को जन्म देती है (किंतु जब जमीन पर चाँद चाहने लगे/ हसरतों की गोद में हादसे मचल गए). प्रार्थना मन की अंतर्मुखी अनुभूति और आत्मा का अर्थवाची आचमन होती है (प्रार्थना अंतर्मुखी अनुभूति मन की, आत्मा का अर्थवाची आचमन है). प्रेम की प्रथम अभिव्यक्ति लज्जा के माध्यम से होती है (लाज के उस एक झीने आवरण से/ बिन कहे सब कुछ बताना/ प्यार का पहला चरण है), हरियाली इस बात का प्रमाण है कि पत्थर के भीतर भी नमी हो सकती है. (कुछ तो नमी होगी पत्थर के सीने में/ देखो तो हरे-हरे पौधे उग आए हैं). यह अनुभव अनेक स्थलों पर उद्बोधन में भी ढलता है – ‘पीछे जो छूट गया वह अतीत मत खोजो / खुशबू जो बिखर गई सिमट जाय मत सोचो.’

इन गीतों में पीड़ा अनेक रूपों में व्यक्त हुई है. लोक से चुने गए उपमानों और प्रतीकों के सहारे कवयित्री ने पीड़ा का जो पाठ बुना है वह विप्रलंभ से लेकर करुणा और ममता तक व्याप्त है. इस पाठ में व्यक्ति के साथ साथ समाज, लोक और लोकतंत्र की पीड़ा भी सिमट आई है. यह भी पीड़ा का एक रूप है कि कभी स्वयं को अपनी पीड़ा समझ में नहीं आती तो कभी दूसरे हमारी पीड़ा को पहचान नहीं पाते – ‘हम समझ पाए नहीं कौन सा वह दर्द था / जो हमें तड़पा गया और तर्पण मौन था.’ कवयित्री के लिए गीत मानो पीड़ा की ही सहज अभिव्यक्ति है. ‘शोकः श्लोकत्वमागतः’ को वे अपने ढंग से कुछ इस तरह पुनः रचती हैं – ‘मन में कुछ हुक हुई वाणी फिर मूक हुई/ आँखों में पीड़ा के छंद तिरने लगे/ क्षण भर में आँसू बन बूँद बूँद गिरने लगे.’ पीड़ा का यह साम्राज्य मन से लेकर प्रकृति पर्यंत फैला है. हवाओं में पानी का अहसास होते ही कवयित्री समझ जाती है कि बदलियाँ ज़रूर रोई होंगी या फिर कहीं किसी का दिल टूटा होगा अथवा कोई वसुधा खो गई होगी. प्रेम की पीर और मिलन की स्मृतियाँ सोने भी तो नहीं देतीं – ‘दर्द की सिलवट हटे तो नींद आ जाए मुझे/ याद फिर करवट न ले तो नींद आ जाए मुझे.’ पर यहाँ इस पीर से मुक्त होना ही कौन चाहता है. विनीता शर्मा की पीड़ा इतनी सकारात्मक है कि वह अवसाद और मृत्यु की ओर कभी नहीं जाती बल्कि आशा और जिजीविषा का वरण करने नई जीवन ऊर्जा में पर्यवसित होती है. नींद नहीं आती तो न आए, रतजगा कर लेंगे, दीपावली हो जाएगी – ‘उस अमावस की अंधेरी रात को रोशन बनाने/ आज फिर जलते दियों का रतजगा है./ कह रहे हैं अग्नि को साक्षी बनाकर/ सूर्य सा संकल्प लेकर हम जलेंगे/ साथ रहता एक दूजे के निरंतर/ हम तिमिर से भोर होने तक लड़ेंगे/ आज की इस रात आता है कोई आशीष देने/ उस प्रतीक्षा पर्व को पावन बनाने/ आज फिर जलते दियों का रतजगा है.’

ऐसा नहीं कि प्रवंचना, पराजय, व्यर्थता और मृत्युबोध इन गीतों में नहीं है. अवश्य है लेकिन अनुभवों में तपा और पका हुआ मन अब इन सबसे विचलित नहीं होता बल्कि एक संन्यस्त साक्षी भाव से जीवन और जगत को देखता है. प्रेम और विरह, विश्वास और छलना, स्वप्न और मरीचिका, आस्था और भ्रम, संबंध और अनुबंध के द्वंद्वों को भरपूर जी चुका मन अब जीवन के चरम क्षण का स्वागत करने को भी सहज भाव से प्रस्तुत है – ‘दिन बीता साँझ ढली/ धुंधलाए गाँव-गली/ तारों संग रात चली/ लगने ही वाला अब/ सपनों का मेला है/ आओ हम लौट चलें/ जाने की बेला है.’ पीड़ा कितनी ही गहरी हो और अंधेरा कितना ही सघन क्यों न हो, अदम्य जिजीविषा उससे मुक्ति के प्रति आश्वस्त है. उसे प्रतीक्षा है नई सुबह की – ‘है प्रतीक्षा जब सुबह की धूप छनकर आयगी/ रात सी गहरी व्यथा कंधों उठा ले जाएगी/ फिर नयन में स्वप्न के झूले पड़ेंगे/ दूरगामी प्रिय रंगीले हो गए हैं/ आज मेरे गीत गीले हो गए हैं.’ और जब यह प्रतीक्षा पुरेगी तो पुरवाई मेघ की गगरी उठाए चली आएगी. प्रेम का बादल इस तरह बरसेगा कि अंतर-बाहर सब तरबतर हो जाएगा. ऐसा आनंद बरसेगा कि तृप्ति और मुक्ति एक साथ घटित होंगी. यह परिघटना प्रेम की पीर को अध्यात्म के अनुभव में बदल देगी – ‘आज ठंडक है हवाओं में/ हवाएं मेघ की गगरी/ उठाकर चल पडी हैं/ अब न हम प्यासे रहेंगे/ इस धरा पर -/ तृप्ति की संभावना के घर/ कोई खिड़की खुली है.’ तृप्ति की यह संभावना उस चिर सामीप्य और सायुज्य की भूमिका का निर्माण करती है जब सारी पीड़ा अपनेपन की गर्मी से पिघल जाएगी – ‘जब अंतरतम अकुलाता हो/ मन पीड़ा से भर जाता हो/ बिन बोले तुम्हें बुलाता हो/ तुम अपनेपन की गर्मी से मेरी पीड़ा को पिघलाना.’

कहने का अभिप्राय यह है कि विनीता शर्मा के गीतों में जीवन के विविध अनुभव, संवेदनाओं के विविध रंग और अभिव्यंजना के विविध रूप इतनी सूक्ष्मता से चुन चुन कर बुने गए हैं कि इनके कई कई पाठ और उपपाठ हो सकते हैं – समर्पण और आत्मदान का पाठ, औदात्य और आत्मविस्तार का पाठ, उपालंभ और मान का पाठ. इन पाठों की बुनावट में मिथक और लोकतत्व अपनी उपस्थिति सर्वत्र दर्ज कराते हैं. देहरी पर सुहागिन का मंगलदीप जलाना, तुलसीदल का प्रसाद मिलना, पाहुन के पाँव पखारना, दान दक्षिणा देना, गुड़ियों के ब्याह रचाना, काजल आंजना, मंगलगीत गाना, ढोल और शहनाई बजना, घूंघट में शर्माना, कंगन, बिंदिया और बाजूबंद पहनना, बाबुल और भैया की प्रतीक्षा करना, आँख फडकना, देवी देवता पुजाना और ऐसे ही न जाने कितने लोकजीवन के मार्मिक दृश्य इन गीतों की पंक्ति पंक्ति में पिरोए हुए हैं जो पढ़ने-सुनने वाले के मन को बाँध लेते हैं.

विनीता शर्मा की रचनाओं के संबंध में जितना भी कहा जाए कम है. इसलिए अस्तित्व की चरितार्थता को व्यक्त करते हुए उनके एक गीत के अंश के साथ इस चर्चा को यहाँ फिलहाल विराम दिया जा सकता है –
‘मैं सीपी में गिरकर वो मोती नहीं बना
प्यासे अधरों की प्यास बुझाई है मैंने
सागर में है निस्वार्थ समर्पण बूँदों का
ऐसे अर्पण की दूर दृष्टि कितनी होगी
अपना वजूद खोये जो औरों की खातिर
उस अंतरतम की आत्म तुष्टि कितनी होगी
मैंने भी किया प्रयास सभी तन-मन दे दूँ
बोकर खुशियों के बीज दर्द की फसल उगाई है मैंने.’

19.6.2012

‘राष्ट्रनायक’ का हिंदी पत्रकारिता दिवस विशेषांक

डॉ.हरिश्चंद्र विद्यार्थी (1936) हैदराबाद के अत्यंत समर्पित वरिष्ठ हिंदी सेवी और पत्रकार के रूप में जाने जाते हैं. उन्होंने कई दशक पूर्व उस समय पत्रकारिता में पीएच.डी. की थी, जब लोगों का इस विषय की ओर अब जैसा रुझान नहीं हुआ करता था. वे निरंतर सामाजिक परिवर्तन के लिए चलनेवाले आंदोलनों से भी संबद्ध रहे हैं और आज के समय में भी पत्रकारिता को व्यवसाय के बजाय जुनून से चलाते हैं. 

‘राष्ट्रनायक’ हरिश्चंद्र विद्यार्थी के इसी जुनून का प्रतीक है. 41 वर्ष पुराने इस राष्ट्रीय विचारधारा के प्रतिनिधि पत्र के कई विशेषांक पत्रकारिता जगत में चर्चित हो चुके हैं. उसी परंपरा में अब हमारे सामने है ‘राष्ट्रनायक’ का ‘हिंदी पत्रकारिता दिवस विशेषांक’. संपादकीय में विद्यार्थी जी ने 21वीं सदी के मीडिया के प्रति असंतोष व्यक्त किया है. इसमें संदेह नहीं कि संचार व्यवस्था में आई क्रांति ने मीडिया के नए युग का सूत्रपात किया है और इसे बाज़ार के साथ नत्थी कर दिया है. यहाँ तक कि मीडिया को राष्ट्रीय एजेंडा निर्धारित करने वाली ताकत समझा जाने लगा है लेकिन हरिश्चंद्र विद्यार्थी जी इन सब बातों से अधिक महत्वपूर्ण इस सवाल को मानते हैं कि मीडिया भारत के आम लोगों की आवाज को बुलंद कर रहा है या नहीं. इस कसौटी पर जब वे आज के मुद्रित और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को देखते हैं तो इस बात से हताश होते हैं कि रेटिंग बढ़ाने की प्रतिस्पर्धा और विज्ञापनों के माध्यम से पैसा जुटाने के कारण गंभीर तथा विश्लेषणात्मक कवरेज की उपेक्षा हो रही है. वे लक्षित करते हैं कि बाज़ार के दबाव के कारण मालिकों और प्रबंधकों की तुलना में संपादकों का महत्त्व नगण्य रह गया है. विद्यार्थी जी याद दिलाते हैं कि मीडिया की मुख्य संपदा विश्वसनीयता है और उसका अंतिम लक्ष्य जनता की सेवा है न कि मुनाफा कमाना. 


दक्षिण भारत की हिंदी पत्रकारिता में डॉ.हरिश्चंद्र विद्यार्थी के ‘राष्ट्रनायक’ का स्थान इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि यह पत्र दक्षिण में हिंदी प्रचार-प्रसार के आंदोलन से सक्रिय रूप से जुड़ा रहा है. हिंदी भाषा और देवनागरी लिपि को राष्ट्रभाषा और राष्ट्रलिपि के रूप में प्रतिष्ठित करने का संकल्प डॉ.हरिश्चंद्र विद्यार्थी ने महात्मा गांधी और विनोबा भावे से प्रेरित होकर ग्रहण किया और उसे कार्य रूप देने में अपना जीवन लगा दिया. विद्यार्थी जी मानते हैं कि ऐतिहासिक दृष्टि से हिंदी पत्रकारिता ने दोहरी भूमिका निभाई है. उसने एक ओर तो विभिन्न चेतनागत आंदोलनों को खड़ा किया तथा दूसरी ओर हिंदी भाषा को मानकीकृत और एकरूप बनाया. हिंदी पत्रकारिता ने खड़ीबोली आंदोलन को अखिल भारतीय स्तर पर प्रचारित-प्रसारित किया जिससे पूर्वी और पश्चिमी प्रभाव से मुक्त मानक हिंदी को व्यापक स्वीकृति मिली. इसी प्रकार वे लिपि और वर्तनी के मानकीकरण में भी हिंदी पत्रकारिता की भूमिका को बार बार याद करते हैं. उन्होंने हिंदी पत्रकारिता के इतिहास का सावधानीपूर्वक आकलन करते हुए कहा है कि हिंदी पत्रकारिता का उद्भव किसी धुंधली भावुकता का परिणाम नहीं था बल्कि उसने नवजागरण की ऊर्जा को आत्मसात करके व्यापक जनगण को संप्रेरित किया. वे चाहते हैं कि आज की पत्रकारिता भी तमाम तरह के बाज़ारीकरण के दबावों के बीच जनता के प्रति अपना सामाजिक दायित्व न भूले. 

‘राष्ट्रनायक’ का हिंदी पत्रकारिता दिवस विशेषांक अत्यंत महत्वपूर्ण और संग्रहणीय बन पड़ा है. अपनी मान्यताओं के अनुरूप डॉ.हरिश्चंद्र विद्यार्थी ने जो सामग्री इस विशेषांक में प्रस्तुत की है वह राष्ट्रीय विचारधारा से किसी-न-किसी रूप में जुड़ी हुई है. इस विशेषांक में एक ओर पत्रकारिता के इतिहास का पुनरवलोकन किया गया है तथा दूसरी ओर स्वातंत्र्योत्तर पत्रकारिता के बदलते आयामों के संदर्भ में आज की पत्रकारिता की दायित्वहीनता की खबर ली गई है. यह अंक इस दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है कि इसमें दक्षिण भारत के हिंदी पत्रकारिता आंदोलन पर कई अत्यंत सूचनाप्रद निबंध संजोए गए हैं. इसमें संदेह नहीं कि दक्षिण की हिंदी पत्रकारिता में ‘राष्ट्र नायक’ को उल्लेखनीय स्थान दिलाने में इस विशेषांक का भी योगदान अविस्मरणीय रहेगा. 

दक्षिण के वरिष्ठ हिंदी पत्रकार के रूप में डॉ.हरिश्चंद्र विद्यार्थी का यह सोद्देश्य और उत्तरदायित्वपूर्ण पत्रकार-कर्म अभिनंदनीय है.

शनिवार, 23 जून 2012

प्रेम बना रहे : ऋषभ देव शर्मा की 68 प्रेम कविताएँ


अरसे से मन में था कि एक किताब अपनी सहधर्मिणी डॉ. पूर्णिमा शर्मा जी को समर्पित करूँ , पर यह संकोच भी था कि पता नहीं उन्हें कैसा लगे - प्रेम को प्रदर्शित करने में सदा कंजूसी बरतने की अपनी फिलासफी के अनुरूप इसे भी प्रदर्शन और बडबोलापन न मान लें. फिर भी साहस करके गत चार मई 2012 को विवाह की 28वीं वर्षगाँठ पर  बेटे-बेटी से गुपचुप परामर्श करके ''प्रेम बना रहे'' की टंकित पांडुलिपि श्रीमतीजी के सामने धर दी. और सौभाग्यवश उन्होंने न तो रोष जताया और न ही उपहास किया ('प्रेम बना रहे' मेरा तकियाकलाम है न कुछ वर्षों से!). अर्थात प्रकाशन की स्वीकृति मिल गई. और अब वह कविता-संग्रह छप कर आ गया है, प्रकाशित हो गया है.

''प्रेम बना रहे'' में मेरी 68 प्रेम कविताएँ हैं; या कहें कि प्रेम पर केंद्रित कविताएँ हैं. ये कविताएँ अलग अलग समय पर लिखी गई हैं - अलग अलग काव्यरूपों में. यों तो इनमें से कुछ कविताएँ अंतरंग गोष्ठियों में और मित्रों के बीच पसंद की गई हैं, कुछेक यत्र तत्र छपी भी हैं - परंतु अधिकतर ऐसी हैं जो डायरी के पन्नों से पहली बार बाहर आई हैं. अवलोकनार्थ विवरण के अलावा ऑनलाइन संस्करण का लिंक यहाँ सहेज रहा हूँ.

पुस्तक का शीर्षक -   प्रेम बना रहे 
विधा - काव्य [प्रेम कविताएँ]

प्रकाशक -
 अकादमिक प्रतिभा, सरस्वती निवास,
 यू-9, सुभाष पार्क, नज़दीक सोलंकी रोड, उत्तम नगर, 
नई दिल्ली - 100 059.  फोन : +91 9811892244.

प्राप्ति स्थान -
 डॉ. ऋषभ देव शर्मा, 208 - ए, सिद्धार्थ अपार्टमेंट्स, 
गणेश नगर, रामंतापुर, हैदराबाद - 500 013 . 
फोन :  +91 8121435033.

प्रथम संस्करण : 2012.
पृष्ठ संख्या -120 .
मूल्य - :INR  250/=

आई एस बी एन : 978-93-80042-59-6.

रविवार, 10 जून 2012

याद आता रहा सर्वेश्वर का 'सुहागिन का गीत'


सप्ताह भर से अधिक के लिए धारवाड [कर्नाटक] जाना पड़ा. दो दिन तो मन प्रसन्न रहा - हैदराबाद की सिर फोडती गर्मी से राहत जो मिली थी. सुहानी शामें. बूंदाबांदी. पर अपने मन का खाना नहीं मिलता जी वहाँ. ऊपर से विभागीय अप्रिय चीज़ों से पैदा होने वाला तनाव. खैर! 

शाम को चिन्न बसवेश्वर मंदिर के अहाते में बैठना अच्छा लगता था. दिन-दिन भर लंबी बैठकी से स्पोंडिलाइटिस और कमर दर्द का उभरना साधारण बात थी, लेकिन साथी प्राध्यापक डॉ. राजकुमार नाइक [कोप्पल,कर्नाटक] ने सगे भाई की तरह मेरा ख़याल रखा. मेरा रोम-रोम उन्हें आशीष देता है! 

मेरा अनुभव रहा है कि मुझे सदा अच्छे लोग ज्यादा मिले हैं और इसलिए अच्छाई में मेरा अटूट विश्वास है. पर कटु अनुभव भी कम नहीं हैं - लोग अकारण आपके पीछे हाथ धोकर पड़ जाते हैं. लेकिन फिलहाल जाने दीजिए उन्हें. 

मैं तो यह कह रहा था कि जब इस धारवाड-प्रवास में बोर हुआ तो बार-बार सर्वेश्वर का ''सुहागिन का गीत'' याद आता रहा. अभी देखा तो नेट पर मिल गया. लीजिए उद्धृत है-


चले नहीं जाना बालम

सर्वेश्वर दयाल सक्सेना

यह डूबी-डूबी सांझ, उदासी का आलम
मैं बहुत अनमनी, चले नहीं जाना बालम

ड्योढी पर पहले दीप जलाने दो मुझको
तुलसी जी की आरती सजाने दो मुझको
मंदिर के घंटे, शंख और घड़ियाल बजे
पूजा की सांझ-संझौती गाने दो मुझको
उगने तो दो पहले उत्तर में ध्रुवतारा
पथ के पीपल पर कर आने दो उजियारा
पगडंडी पर जल-फूल-दीप धर आने दो
चरणामृत जाकर ठाकुर जी का लाने दो

यह डूबी-डूबी सांझ, उदासी का आलम
मैं बहुत अनमनी, चले नहीं जाना बालम

यह काली-काली रात, बेबसी का आलम
मैं डरी-डरी सी, चले नहीं जाना बालम

बेले की पहले ये कलियाँ खिल जाने दो
कल का उत्तर पहले इन से मिल जाने दो
तुम क्या जानो यह किन प्रश्नों की गाँठ पड़ी
रजनीगंधा से ज्वार-सुरभि को आने दो
इस नीम ओट से ऊपर उठने दो चन्दा
घर के आँगन में तनिक रोशनी आने दो
कर लेने दो तुम मुझको बंद कपाट ज़रा
कमरे के दीपक को पहले सो जाने दो

यह काली-काली रात, बेबसी का आलम
मैं डरी-डरी सी, चले नहीं जाना बालम

यह ठंडी-ठंडी रात, उनींदा सा आलम
मैं नींद भरी सी, चले नहीं जाना बालम

चुप रहो ज़रा सपना पूरा हो जाने दो
घर की मैना को ज़रा प्रभाती गाने दो
खामोश धरा, आकाश, दिशायें सोयीं हैं
तुम क्या जानो क्या सोच रात भर रोयीं हैं
ये फूल सेज के चरणों पर धर देने दो
मुझको आँचल में हरसिंगार भर लेने दो
मिटने दो आँखों के आगे का अंधियारा
पथ पर पूरा-पूरा प्रकाश हो लेने दो

यह ठंडी-ठंडी रात, उनींदा सा आलम
मैं नींद भरी सी, चले नहीं जाना बालम

रविवार, 3 जून 2012

देहरी : ऋषभ देव शर्मा की 35 स्त्रीपक्षीय कविताएँ


देहरी [स्त्रीपक्षीय कविताएँ]
कवि : ऋषभ देव शर्मा
प्रकाशक : लेखनी, सरस्वती निवास, यू - ९, सुभाष पार्क,
नज़दीक सोलंकी रोड, उत्तम नगर, नई दिल्ली - 110059.
[फोन : 011-25333263/64]
संस्करण : 2011
मूल्य : 250 रुपए 

पुस्तक का ऑनलाइन लिंक : ''देहरी''
संवेदना यदि कविता का उत्स है तो ऋषभ देव शर्मा की ये कविताएँ संवेदनापरक अभिव्यक्ति का उत्कृष्ट उदाहरण मानी जाएँगी. कुछ कविताओं में संवेदना की स्मृतिजन्य उपस्थिति में भावुकता भी दिखलाई पड़ती है. यह ख़ास इसलिए है कि भावुकता प्रकट करने वाली भाषिक अभिव्यंजना आज की कविता से क्रमशः दूर होती जा रही है. 

कहने को तो ये कविताएँ स्त्रीवादी कविताएँ हैं; और अपनी विषयवस्तु में हैं भी. लेकिन ये स्त्री के इर्द गिर्द आकर ही ठहर नहीं गई हैं. इनमें पारिवारिक संरचना के बदलते स्वरूप की परख है, सामाजिक ढाँचे और मूल्यों के विघटन की आवाज़ है. पुराकथाओं के जरिये पुरुष-स्त्री संबंधों की, और स्त्री की, यातनागाथा की अभिव्यक्ति जैसे घटक भी इस तरह मिलाए हुए हैं कि इनमें स्त्री एक अलग इकाई की तरह नहीं बल्कि धुरी की तरह चित्रित है गोकि उसकी शोषणक्रिया के अनुष्ठान कम ही बदल पाए हैं. कविताएँ इन्हें बदलना चाहती हैं. जो कविताएँ स्त्री की ओर से प्रथमपुरुष में लिखी गई हैं, उनमें बदलाव की यह तड़प अधिक मुखर है. 

स्त्री की अनेक छवियाँ इन कविताओं में उभरी हैं. आदिवासी से लेकर घर परिवार की, महानगरों की, गाँवों-कस्बों की स्त्रियों की - घुटन, भीतर भीतर पक रही अनपूरी चाहें जब उनकी ललकार और चुनौती में बदलती हैं तो यह अलग-अलग कविताओं का संग्रह प्रबंध काव्य का गठन पाता सा लगता है. 

कवि ने अनुभूत ही लिखा है इसलिए हर कविता सच्ची है. झूठ इनमें इतना ही है जितना आए बिना कोई अच्छी कविता बनती भी नहीं. 

'देहरी' संग्रह की कविताएँ देहरी के भीतर वाली स्त्री के अनेक रूपों का चित्र खींचती हैं और देहरी के बाहर निकल सकने की उसकी इच्छाओं और इसके बावज़ूद नागपाश की तरह जो सामजिक रूढ़ियाँ उसे जकड़े हुए हैं उन्हें तोड़ने की और देहरी के भीतर जाने और फिर बाहर न निकल पाने की एकतरफा आमद को इस संग्रह की कविताएँ दृढ़ता से नकारती हैं. (पुस्तक के फ्लैप पर प्रकाशित वक्तव्य).


                                                                                              
-प्रो. दिलीप सिंह
कुलसचिव, उच्च शिक्षा और शोध संस्थान,
दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा,चेन्नै-600 017

यह पुस्तक पीडीएफ फॉर्मेट में निम्नलिखित लिंक पर  सहेजी गई है -