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शुक्रवार, 31 दिसंबर 2010

बहुशास्त्रविद शमशेर


२०१०-११ हिंदी-उर्दू के कई महान कवियों का शताब्दी वर्ष है. देश भर में आयोजन चल रहे हैं. अपना हैदराबाद भी कुछ पीछे नहीं है. छोटी-बड़ी चर्चाएँ, संगोष्ठियाँ शहर के अलग-अलग कोनों में चल रही हैं. अज्ञेय पर पिछले दिनों अच्छी चर्चा हुई - जब विश्वविद्यालय विशेष के पूर्व और वर्त्तमान अध्यक्ष सरस्वती वंदना और दीप प्रज्वलन को ब्राह्मणवादी कह कर ऐसे भिड़े कि .... खैर... जाने दीजेये. 

फिलहाल तो बात ३० दिसंबर को आन्ध्र प्रदेश हिंदी अकादमी में शमशेर बहादुर सिंह  पर आयोजित विशेष व्याख्यान की चल रही है. व्याख्यान किया अपने डॉ.बालकृष्ण शर्मा रोहिताश्व जी ने उन्होंने काफी विस्तार से अज्ञेय, नागार्जुन और शमशेर की अलग-अलग विशेषताएं बताते हुए तीनों को पिछली शताब्दी के मौलिक साहित्यकार साबित किया. रोहिताश्व का ख़ास जोर इस बात पर था कि शमशेर ऐसे विरले कवि हैं जिनकी कविताओं में देशी-विदेशी काव्य शास्त्र, काव्यान्दोलन, कलाआन्दोलन, स्थापत्य, नृत्य शास्त्र और विचारधाराएँ एक साथ प्रतिफलित होती दिखाई देती हैं. 

गुरुवार, 23 दिसंबर 2010

किसी के दर्द से जन्मी वैदिक ऋचाएं.

हैदराबाद के कादम्बिनी क्लब की गोष्ठी हर महीने तीसरे रविवार को होती है. कई माह से डॉ.अहिल्या मिश्र बुला रही थीं. इस बार पकड़ में आ ही गया मैं - अन्यथा यात्राओं के कारण मित्रों से बुराइयां मिल रही थी. नगर की वरिष्ठ कवयित्री श्रीमती विनीता शर्मा जी का एकल काव्य-पाठ रहा. छह गीत पढ़े उन्होंने. 

- तुम नहीं मिले कहीं हम तलाशते रहे. 
- जिसे हम गीत कहते हैं : किसी के दर्द से जन्मी हुई वैदिक ऋचाएं हैं. 
- गंध में डूबी नहाई रात रानी रात भर महकी.
- जिस घड़ी आप हम वर्ग में बदल गए. 
- किन्तु मेरा सा तुम्हारा मन नहीं है.
- तब तक आ ही जाना प्रिय तुम जब मैं ओढूं लाल चुनरिया. 

विनीता जी के गीत अनेक अर्थ स्तरों से युक्त होते हैं. उनके विशिष्ट शब्द चयन और औदात्य सृष्टि पर लम्बा व्याख्यान हो गया - घंटे भर का. 


रविवार, 5 दिसंबर 2010

मुंबई दर्शन


साठये महाविद्यालय, मुंबई में तीन दिन की अंतरराष्ट्रीय  संगोष्ठी में जाना हुआ तो ख़ास तौर से प्रो.गोपेश्वर सिंह के आग्रहवश तीसरे दिन संक्षिप्त सा मुंबई-दर्शन भी हो गया. फिलहाल पाँच-दिनी दिल्ली यात्रा की हबड़-दबड़ में हूँ, सो, संगोष्ठी और दर्शन पर बाद में ही कुछ लिखा जा सकेगा.


इस वक्त तो बस इतना कि चार दिसंबर को जब होटल ताज के सामने कुछ मिनट चहलकदमी की तो चिलकती धूप में पसीने-पसीने हो गए. प्रो.दिलीप सिंह तो तरबतर थे. अपनी खोपड़ी से पसीना पोंछते हुए प्रो.गोपेश्वर सिंह ने मेरी तोंद को लक्ष्य किया था - ये! गणेश  जी को पसीना नहीं आता क्या? मैं सदा की तरह बिना जवाब दिए मुस्करा दिया था.. डॉ. महात्मा पांडेय  ज़रूर ज़ोर से हँसे थे.

सोमवार, 15 नवंबर 2010

भाषा, साहित्य एवं संस्कृति की समग्र शोध पत्रिका 'समुच्चय'


हिंदी में शोध पत्रिकाएँ गिनी चुनी ही हैं और उनकी भी सामग्री को लेकर प्रायः असंतोष जताया जाता रहता है। ऎसी स्थिति में हैदराबाद स्थित अंग्रेजी एवं विदेशी भाषा विश्‍वविद्यालय के हिंदी एवं भारत अध्ययन विभाग ने 'समुच्चय' के रूप में एक न‍ई शोध पत्रिका आरंभ करने का स्तुत्य कार्य किया है और उसे ’एक और पत्रिका’ बनाने की अपेक्षा विशिष्‍ट पहचान देने की दृष्‍टि से ऎसी ’मूल्यांकित शोध पत्रिका’ के रूप में प्रस्तुत किया है जिसकी सामग्री विशेषज्ञ समिति द्वारा अनुमोदित होने पर ही प्रकाशित की जाती है। 


भाषा, साहित्य एवं संस्कृति विषयक चिंतन और शोध को समर्पित इस पत्रिका के प्रवेशाकं (नवंबर 2010) में संपादक प्रो. एम.वेंकटेश्‍वर (अध्यक्ष हिंदी एवं भारत अध्ययन विभाग ,इफ्लू ) ने "हिंदी तथा विदेशी भाषाओं एवं उनके साहित्यक रूपों के मध्य एक सुदृढ अकादमिक संबंध स्थापित कर अनुवाद एवं तुलनात्मक अध्ययन के माध्यम से इस भाषा 'समुच्चय' को समृद्ध करने " को हिंदी एवं भारत अध्ययन विभाग का उद्देश्य बताया है। 'समुच्चय' इस उद्देश्य की प्राप्ति की दिशा में एक सुविचारित पहल है। इस पत्रिका का लक्ष्य "अखिल भारतीय स्तर पर भाषा,साहित्य और संस्कृति की बहुआयामी विकासशील चिंतन परंपरा को शोध दृष्‍टि प्रदान करना" है। यह भी स्पष्‍ट किया गया है कि पत्रिका केवल प्रतिष्‍ठित और बहुचर्चित हस्ताक्षरों तक ही सीमित नहीं रहेगी बल्कि प्रमुख रूप से "भावी चिंतकों की पीढ़ी को" लक्षित करेगी। इसमें संदेह नहीं कि प्रवेशांक के माध्यम से ही ’समुच्च्य ’ ने विभिन्न भाषा साहित्यों पर अभिनव दृष्‍टिकोण से विमर्श की शुरूआत कर दी है। यह अंक अपनी शोधदृष्‍टि और वैचारिकता के आधार पर आश्‍वस्त करता है कि ’समुच्च्य ’ का प्रकाशन विश्‍वविद्यालयी शोध पत्रकारिता के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण घटना है। संबंधित विभाग इस उपलब्धि के लिए अभिनंदनीय है। 


प्रवेशांक की सामग्री में सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं ’नए विमर्शों पर केंद्रित’ आलेख। उदाहरण के लिए प्रो. दिलीप सिंह का "फिल्म भाषा की आर्थी संरचना " शीर्षक आलेख इस अंक की महती उपलब्धि है जिसमें ’फिल्म भाषाविज्ञान’ जैसा एक अध्ययन क्षेत्र प्रस्तावित किया गया है और यह प्रतिपादित किया गया है कि सिनेमा जीवन नहीं है,वह एक सृजनात्मक दर्शनीय कला है जिसकी प्रोक्ति एक पूरी प्रक्रिया से बनती है। इस वर्ग का दूसरा आलेख आदिवासी या जनजाति विमर्श से संबंधित है जिसमें रमणिका गुप्ता ने कई महत्वपूर्ण सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक प्रश्‍न उठाए हैं। यदि इस आलेख में दिए गए आँकड़ों को संदर्भों द्वारा पुष्‍ट किया गया होता तो अधिक प्रामाणिक प्रतीत होता। इसी प्रकार विदेशी साहित्य के अनुवाद पर केंद्रित दिविक रमेश के आलेख में अनुवाद विमर्श के क‍ई पहलू छिपे हैं जिनपर आगे कार्य हो सकता है। इसके अतिरिक्त उत्तरआधुनिक स्त्रीविमर्श और उपभोक्‍ता संस्कृति पर केंद्रित आलेख में तर्कपूर्वक उपभोक्‍तावाद और उपभोक्‍ता संस्कृति को अलगाया गया है और बाजार की शक्‍तियों के समक्ष स्त्रीशक्‍ति को खड़ा किया गया है। 


दूसरा वर्ग ’पुनर्पाठ ’ से संबंधित है। प्रो. जगदीश्‍वर चतुर्वेदी ने "तुलसी का बाख्तियन मूल्यांकन" प्रस्तुत किया है जो निश्‍चय ही अत्यंत महत्त्वपूर्ण है और आज के समय में आज की दृष्‍टि से तुलसी और 'मानस' को प्रांसगिक सिद्ध करता है। लेकिन इस आलेख की त्रासदी है इसकी वाकस्फीति, जिसके कारण अनेक स्थलों पर प्रवाहहीनता और शाखाचंक्रमण की स्थितियाँ पैदा हो गई हैं और शोधपत्र के पैनेपन की क्षति हुई है। यदि फिल्म भाषा वाला आलेख 'समुच्च्य' का सर्वाधिक सुगठित आलेख है तो तुलसी पर केंद्रित यह आलेख इस अंक का सर्वाधिक बिखरा हुआ आलेख है, जिसका संपादन कर दिया गया होता तो बेहतर होता। डॉ. चतुर्वेदी ने आंरभ में इस बात पर बल दिया है कि ’मानस ’ को ’महाकाव्य ’ की अपेक्षा ’ रेटोरिक ’के रूप में देखने की ज़रूरत है लेकिन आगे चलकर स्वयं उन्होंने ’जीवनगाथा ’ के रूप में भी इसका ’महाकाव्यत्व ’ ही सिद्ध किया है। कथा, भाषा और मूल्यों की वर्णसंकरता को उन्होंने सही ही ’मानस’ की बड़ी उपलब्धि माना है जो पहले से ही सर्वस्वीकृत है और समन्वय की चेतना के रूप में तुलसी के लोकनायकत्व का आधार है। इस वर्ग में शकुंतला मिश्र के "आचार्य शुक्ल की विचारसरणि में रवींद्र" तथा अमिष वर्मा के "19वीं सदी का नागरी हिंदी आंदोलन'' को भी रखा जा सकता है| अमिष वर्मा ने अनेक उद्धरणों की सहायता से यह प्रतिपादित करने का प्रयास किया है कि उन्नीसवीं शताब्दी का ’हिंदी आंदोलन ’ मूल रूप में ’हिंदू आंदोलन’ था और भारतेंदु हरिश्‍चंद्र तथा उनके समकालीन हिंदी लेखक सांप्रदायिक लेखन कर रहे थे। इतिहास का ऎसा पुनर्पाठ खंडदृष्‍टि का ही परिणाम हो सकता है तथा इस पर अगले अंकों में बहस आमंत्रित की जानी चाहिए क्योंकि इस दृष्टिकोण में कई खतरनाक संकेत छिपे प्रतीत हो रहे हैं। हाँ,अयोध्या प्रसाद खत्री के योगदान को सही रूप में रेखांकित किया गया है जिस पर स्वतंत्र शोध की आवश्‍यकता है। रावण को नायकत्व प्रदान करने वाली एक रचना की समीक्षा भी इस वर्ग में रखी जा सकती है परंतु इसमें भूषणचंद्र पाठक द्वारा जिस प्रकार की अतिरंजनापूर्ण उक्‍तियों का प्रयोग किया गया है उनसे बचा जाना चाहिए था। रामकथा के जाने कितने पाठ कुपाठ होते रहते हैं; नवकांत बरुआ का ’रावण ’भी वैसा ही एक और प्रयास है जिसमें रावण को ’स्वप्नविभोर महानायक ’ बनाया गया है। 


'समुच्च्य ’ के प्रवेशांक की सामग्री का तीसरा वर्ग 'शोध समीक्षा’ का हो सकता है। इस वर्ग में प्रज्ञा के "मुक्तिबोध की कथा संवेदना : आत्मसंघर्ष से जनसंघर्ष तक " तथा शैलजा के "नवें दशक की हिंदी कहानी की संरचना" शीर्षक आलेखों को सम्मिलित किया जा सकता है। पहले शोधपत्र में दर्शाया गया है कि मुक्तिबोध मध्यवर्ग की सहानुभूति पूर्ण आलोचना करते हुए उसे आत्मसंघर्ष और जनपक्षधरता के लिए प्रेरित करते हैं जबकि दूसरे में नवें दशक की कहानियों की पड़ताल वर्णन, किस्सागोई, बयान, मिथक और फैंटेसी के निकष पर की गई है। ये दोनों ही आलेख इन विषयों पर पूर्ण शोधप्रबंध की संभावना दर्शाते हैं।


'पुस्तक चर्चा’ वर्ग में हीरालाल नागर के आलेख को रखा जा सकता है जिसमें प्रदीप सौरभ के उपन्यास ’मुन्नी मोबाइल’ की प्रभाववादी समीक्षा करते हुए यह प्रतिपादित किया गया है कि कथावस्तु और कथाविधि दोनों ही दृष्‍टियों से यह एक अभिनव प्रयोग है।


अंत में विभाग में कुछ समय पूर्व संपन्न "भाषा, साहित्य एवं संस्कृति : समकालीन संदर्भ " विषयक राष्‍ट्रीय संगोष्‍ठी की रिपोर्ट दी गई है जो पर्याप्त जानकारीपूर्ण है। उद्घाटन सत्र की भाँति ही यदि चर्चा सत्रों पर भी विस्तार से लिखा जाता तो यह विवरण और भी उपयोगी हो सकता था। 



कुल मिलाकर 'समुच्च्य’ का प्रवेशांक हिंदी एवं भारत अध्ययन विभाग (इफ्लू) की शोध संबंधी प्राथमिकताओं की ओर संकेत करने में सफल दिखाई देता है। ये प्राथमिकताएँ हैं - समसामयिक दृष्‍टियों से मध्यकालीन साहित्य का पुनर्पाठ, इतिहास की पुनर्व्याख्या, नए विमर्शों पर विशेष बल तथा हिंदी के साथ-साथ विभिन्न भारतीय और विदेशी भाषाओं के साहित्य पर एक मंच पर लोकतांत्रिक विचार विमर्श। 'समुच्च्य’ के रूप में एक स्तरीय शोधपत्रिका का प्रकाशन निश्‍चय ही हैदराबाद के लिए गौरव का विषय है। इस अंक को अलग से स्वतंत्र पुस्तक के रूप में भी प्रकाशित किया जा सकता है क्योंकि संदर्भ सामग्री के रूप में इसकी उपादेयता असंदिग्ध है| विश्वास किया जाना  चाहिए कि इस अर्धवार्षिक शोधपत्रिका के भावी अंकों की प्रस्तुति और अधिक सुगठित होगी तथा पृष्ठसंख्या भी दोगुनी तो होगी ही| 



समुच्च्य (अंक-1)/
[भाषा,साहित्य एवं संस्कृति की मूल्यांकित शोध पत्रिका]/
संपादक - प्रो. एम. वेंकटेश्‍वर/ 
2010/ 
हिंदी एवं भारत अध्ययन विभाग, 
अंग्रेजी एवं विदेशी भाषा विश्‍वविद्यालय, तारनाका, हैदराबाद-500007 / 
पृष्ठ 122/ 
मूल्य 30 रुपए|

मंगलवार, 9 नवंबर 2010

अनुवाद पर विशेष ध्यान की ज़रूरत : अभय मोर्य

स्त्री और उपभोक्ता संस्कृति


बाज़ार और बाजारवाद से जुड़ी चर्चाओं में प्रायः यह मान लिया जाता है कि बाजारवाद और उपभोक्तावाद के वैश्विक प्रसार में उपभोक्ता या तो निष्क्रिय भोक्ता मात्र है या बाज़ार की शक्तियों का निरीह शिकार भर. हो सकता है, कुछ समय पूर्व यह धारणा बड़ी हद तक ठीक रही हो. लेकिन आज स्थिति बदल चुकी है. आज उपभोक्ता केवल प्रभावित पक्ष नहीं रह गया है. वह अब न तो निष्क्रिय है और न केवल निरीह शिकार. वह उपभोक्ता संस्कृति का जागरूक भागीदार है - सक्रिय कार्यकर्ता. यहाँ यह प्रश्न सहज है कि ऐसा क्यों और कैसे हुआ. ऐसा क्या हुआ कि उपभोक्ता कि स्थिति  मूक खरीददार  से उलट गई?

थोड़ा पीछे जाना होगा. विश्व युद्धों के बाद के समय में. यह वह समय था जब उपभोक्तावाद विश्व भर में उभर रहा था. समाज चिंतकों ने उपभोक्तावाद को हिकारत की नज़र से देखा. उसके प्रतिरोध की आवश्यकता भी तभी से महसूस की जाने लगी. परिणामस्वरुप ऐसे आंदोलन  सामने आए  जो मूलतः उपभोक्तावादविरोधी थे. इन्हीं की कोख  से उपभोक्ता संस्कृति उत्पन्न हुई. अभिप्राय यह है कि 'उपभोक्तावाद' और 'उपभोक्ता संस्कृति' दो अलग-अलग अवधारणाएं हैं. इन्हें एक समझने की भ्रांति  के कारण प्रायः लोग उपभोक्ता संस्कृति को गरियाते देखे जाते हैं, जो उचित नहीं है. यहाँ समझने वाली बात यह है कि उपभोक्तावाद मूलतः 'उत्पादक' के हित में है, और वह उपभोक्ता को ललचाता है - अनावश्यक को खरीदने के लिए. इसके विपरीत उपभोक्ता संस्कृति 'उपभोक्ता' द्वारा विकसित है, और उपभोक्ता के ही हित में है. उपभोक्ता संस्कृति उपभोक्ता को 'एक' समाज बनाती है जो बाज़ार को प्रभावित करने की क्षमता रखता है. इस प्रकार उपभोक्ता संस्कृति वस्तुतः उपभोक्तावाद को नियंत्रित करने वाली शक्ति है, न कि उसका पर्याय.

उपभोक्तावाद ने जब आम उपभोक्ता को लुभाना, ललचाना, फुसलाना शुरू किया तो आम लोगों की जेब पर इसका भारी असर हुआ. १९५० के बाद के समय में पैसों की तंगी के काल में घर चलाने  वाली महिलाओं के ऊपर ज़िम्मेदारी आई कि सुरसा  के समान लगातार मुँह फाड़ते जा रहे इस संकट का सामना कैसे किया जाए. महंगाई और अर्थसंकोच रूपी संकट की समानता   उन औरतों को एक दूसरे  के नजदीक लाने का कारण बनी जो बाजारों के आधुनिक संस्करण अर्थात शॉपिंग सेंटर और मॉल में खरीददारी के लिए जाती थीं. इस निकटता से उन साधारण घरेलू  महिलाओं को मिलने जुलने का अवसर मिला, समाजीकरण का अवकाश मिला; और सोचने-समझने का मौका भी. इस अवसर, अवकाश और मौके का परिणाम यह हुआ कि उपभोक्ता स्त्रियों  ने उपभोक्तावाद का एक समाधान खोज निकाला जिसमें  इन गृहिणियों की अपनी सक्रियता की बड़ी भूमिका थी. अर्थात इस तरह उपभोक्ता स्त्रियों ने निष्क्रियता का अतिक्रमण करके 'डू इट योरसेल्फ'(डी.आई.वाई.) का आंदोलन  खड़ा किया. यों भी कहा जा सकता है कि उपभोक्ता संस्कृति ने उपभोक्ता स्त्री की जागरूकता के माध्यम से उपभोक्तावाद का सामना करना शुरू किया. दरअसल डी.आई.वाई. मूलतः ऐसा आंदोलन  था जिसने घरेलू  महिलाओं को होम इम्प्रूवमेंट के लिए अपने हाथ से काम करने को उकसाया ताकि कम पैसों में काम चलाया जा सके. इसका एक पक्ष यह भी है कि होलसेल में चीज़ें खरीद कर उनसे मुनाफा कमाया जा सके. पश्चिम में यह आंदोलन १९५०-६० में उभरा; लेकिन भारत में उदारीकरण का दौर १९९० के बाद शुरू हुआ है इसलिए आज का एक उदाहरण  देखा जा सकता है. आज बिग बाज़ार या रिलायंस जैसे मॉल सब कुछ बेच रहे हैं - सब्जी तरकारी और नोन तेल तक. आरंभ  में ऐसा लगा कि इससे छोटे दूकानदार नष्ट हो जाएँगे . लेकिन एक रास्ता निकाला उन्होंने कि बिग बाज़ार/रिलायंस से खरीदो और दर-दर जाकर बेचो. इस कार्य में महिलाएँ बड़ी संख्या में सम्मिलित हैं. परंतु  उनका संगठित होना शेष है - तभी वे उपभोक्ता संस्कृति का गठन कर सकेंगी.

डी.आई.वाई. का विस्तार दुनिया में कई रूपों में सामने आया. उपभोक्ता संस्कृति के इस आंदोलन ने दिग्गज प्रतिष्ठानों को  चुनौती दी. इसी के तहत लघु-पत्रकारिता सामने आई. आज की वेब पत्रकारिता के रूप में इसके विस्तार को देखा जा सकता है.  कहना न होगा कि इस क्षेत्र में बड़ी तादाद में स्त्रियाँ  सक्रिय हैं. १९७० में कई ऐसे म्यूजिक बैंड सामने आए  जिन्होंने संगीत की एक समानांतर धारा  प्रवाहित की. समानांतर सिनेमा और नुक्कड़ नाटक भी डी.आई.वाई. की ही निष्पत्तियां हैं. इन सभी क्षेत्रों में स्त्रियों  ने भी परिवर्तनकारी भूमिका अदा की. विशेष बात यह रही कि  इस सबसे मध्यवर्गीय स्त्री को अपने हितों को पहचानने और उनके अनुरूप कार्य करने की प्रेरणा मिली. बावजूद इसके कि हमारा फिल्म-उद्योग और मीडिया जगत स्त्री के संबंध में अभी तक घोर जड़तावादी शोषक दृष्टिकोण से ग्रस्त है, इसमें संदेह नहीं कि कई दूरदर्शन शृंखलाएं और विज्ञापन इस परिवर्तित उपभोक्ता स्त्री की छवि से संबंधित हैं.

अभिप्राय यह कि जैसे जैसे बाज़ार बढ़ा, प्रतिष्ठान बढे, उपभोग बढ़ा, उपभोक्ता बढे, वैसे-वैसे उपभोक्ता की सक्रियता भी बढ़ी. स्मरण रहे कि  स्त्री आधी दुनिया है. सारा बाज़ार उसी पर आक्रमण करता है. उसकी भी जागरूकता और सक्रियता बढ़ी. पिछली शताब्दी के अंतिम दशक से भारत में उपभोक्ता की जागरूकता (कंजूमर अवेयरनेस) में विशेष वृद्धि हुई. सामाँजिक-आर्थिक बदलाव के परिणामस्वरुप युवा स्त्रियाँ  बाज़ार में उतरीं. उपभोक्ता के रूप में भी. उत्पादक के रूप में भी. प्रबंधक के रूप में भी. बात साफ़ है कि आज की स्त्री मात्र उपभोग्य वस्तु नहीं है, वह उपभोक्ता भर नहीं है; वह बाज़ार को उत्पादक और प्रबंधक  के रूप में भी व्यापक तौर पर प्रभावित कर रही है. यहाँ वह पुरुषवर्चस्ववादी व्यवस्था के हाथ की गुड़िया नहीं, नियंता है, निर्णायक है. धीरे-धीरे वह ज़माना बीत रहा है जब राजनीति में स्त्रियों  को कठपुतली समझा जाता था. आज राजनीति में जहाँ स्त्री है - अपने बूते से है. ऐसे भी उदाहरण हैं जहाँ पुरुष नेता कठपुतली बने हुए हैं और स्त्री नेता सूत्रधार.

यहाँ इस तथ्य का उल्लेख आवश्यक है कि भारत में २००० के बाद इन्टरनेट का प्रसार बढ़ा तो भूमंडलीकरण , बाजारवाद और उपभोक्तावाद के प्रसार में और सुविधा हो गई. उत्पादकों को तो इससे लाभ हुआ ही लेकिन इससे उपभोक्ता जगत को भी भारी लाभ हुआ. इन्टरनेट आया तो उपभोक्ता की भावनाएं खुल कर सामने आईं . ये भावनाएं बाज़ार को प्रभावित करने लगीं. मोबिलाइज  करने लगीं - तेज़ी से. एक उदाहरण लें.  कंप्यूटर की एक बड़ी कंपनी 'डेल' ने अपना एक ऐसा विज्ञापन अभियान प्रस्तुत किया जिसमें  यह दर्शाया गया था कि स्त्रियाँ बौद्धिक कार्य करने में पीछे होती हैं और कि यह कंप्यूटर उन्हें  आगे ले आएगा. अर्थात स्त्री की एक गढ़ी-गढ़ाई छवि है कि वह टेक्नोलॉजी नहीं जानती और उसका कार्यक्षेत्र भोजन बनाने, डाइटिंग करने तथा सुंदर दिखने तक सीमित है. इस अभियान पर भारी प्रतिक्रिया हुई और उपभोक्ता के दबाव को स्वीकार कर कंपनी को यह विज्ञापन वापस लेना पड़ा. उपभोक्ता संस्कृति के गठन में स्त्री-शक्ति की भूमिका का यह दृष्टांत भारतीय संदर्भ  में भी अनुकरणीय हो सकता है क्योंकि हमारे यहाँ उपभोक्तावाद की सवारी बना हुआ मीडिया स्त्री की कामिनी और अबला छवियों को बनाने में कुछ ज्यादा ही रुचि  रखता है. यदि स्त्री उपभोक्ता संगठित होकर ऐसे प्रचार का बहिष्कार  कर सके तो बाज़ार के इस बिगडैल घोड़े की लगाम कसी जा सकती है. सवाल यह है कि हम जो बार बार ऐसे तमाम विज्ञापनों से आहत होते रहते हैं जिनमें  स्त्री का वस्तूकरण  किया जाता है, उसे उपभोग के माल की तरह पेश किया जाता है - यदि वास्तव में वे हमें  आहत करते हैं तो हम उनका विरोध क्यों नहीं करते? उपभोक्ता संस्कृति को अपने इस प्रतिरोधी चरित्र को पहचानना होगा वरना उपभोक्तावाद उसे निगल जाएगा. यह प्रतिरोधी चरित्र ही उसे वह शक्ति देता है जिसके आगे झुककर उत्पादक को अपने स्त्री-विरोधी प्रचार अभियान वापस लेने पड़ते हैं. यहाँ उस विज्ञापन को भी याद किया जा सकता है जिसमें  यह दर्शाया गया था कि कामकाजी महिलाएँ अच्छी मांएं नहीं बन सकतीं. उल्लेखनीय है कि महिला-उपभोक्ताओं के विरोध के कारण यह अभियान भी वापस करना पड़ा था. कहने का अर्थ यह है कि बाज़ार का नियंत्रण प्रत्यक्षतः  भले ही उत्पादक के हाथ में हो, अप्रत्यक्ष रूप से [लेकिन वास्तव में] उसकी डोर उपभोक्ता के हाथ में है . यह बड़े उपभोक्ता वर्ग के शाकाहारी होने का दबाव ही था कि फ्राइड चिकन के लिए मशहूर केएफसी  को कनाडा में शाकाहारी बकेट आरंभ करनी पड़ी. घुमा कर कान पकड़ने वाले कहेंगे कि यह उत्पादक की उपभोक्ता को ललचाने की चाल है लेकिन हमारी राय में यह उत्पादक पर उपभोक्ता के दबाव का परिणाम है.

वैसे इतनी दूर जाने की ज़रूरत  नहीं. हमारे यहाँ अनेक टीवी शृंखलाओं में पात्रों का आना-जाना, जीना-मरना तक आज उपभोक्ता तय कर रहे हैं. उल्लेखनीय है कि टीवी के तमाम पारिवारिक नाटक भारतीय स्त्री को संबोधित हैं. वही इनका मुख्य  दर्शक समाज है - लक्ष्य उपभोक्ता समूह है. अनजाने ही ये सीरियल स्त्रियों को परस्पर चर्चा और गपशप के लिए नित्य नई  कहानियाँ  परोसते हैं. सवाल उठता है कि क्या ये स्त्रियाँ - ये उपभोक्ता स्त्रियाँ - जड़ बनी रहती हैं. नहीं, वे जड़ नहीं हैं, सक्रिय हैं. उनकी सक्रियता कभी कभी तो सीरियल को बंद तक करा  देती है. 'बालिका वधू' में फरीदा जलाल आईं  भी और गईं  भी - स्त्री दर्शकों ने उनके भाग्य का फैसला किया. 'क्योंकि सास भी कभी बहू थी' में दादी हर बार मरते-मरते अमर हो गई  - उपभोक्ता ने मरने नहीं दिया. अभिप्राय यह कि असंगठित स्त्री समाज टीवी और इन्टरनेट के जरिये आज संगठित उपभोक्ता समाज के रूप में उभर रहा है और आने वाले समय में बाज़ार की कोई भी ताकत उसकी इच्छा की उपेक्षा नहीं कर सकेगी. ढेर सारी टीवी प्रतियोगिताओं के परिणामों को प्रभावित करने वाली ताकत के रूप में हम रोज़ ही दर्शक (उपभोक्ता) समाज को देख रहे हैं. यही समाज उपभोक्ता संस्कृति का गठन कर सकता है.

यह तो बात हुई उपभोक्ता संस्कृति की. अब कुछ चर्चा सीधे-सीधे स्त्री के बारे में.  उपभोक्तावाद का लक्ष्य बाज़ार है. उसे हर वह वस्तु बेचने में कोई संकोच नहीं जिसके खरीददार  मौजूद हों. उसे मालूम है कि सदा से सेक्स बिकता है. उसे मालूम है कि सदा से देह बिकती है. उसे मालूम  है कि सदा से कामुकता बिकती है. स्त्रीवाद के प्रभाव में हम सदा यही कहते हैं कि यह बाज़ार पुरुषों द्वारा नियंत्रित है और स्त्री केवल बिकाऊ माल है. परंतु, इस प्रकार की धारणा को आज पूर्ण सत्य नहीं माना जा सकता. स्त्री अब इतनी भी बेचारी नहीं है. देह बेचने वाली स्त्री निश्चय ही पुरुष व्यवस्था की शिकार है. लेकिन देह की छवि बेचने वाली स्त्री वैसी लाचार नहीं है. आज वह वस्तु या माल नहीं है, अपनी छवि की उत्पादक विक्रेता है. उसकी हर अदा की कीमत है. और यह कीमत वह स्वयं तय करती है. मनोरंजन उद्योग हो, या विज्ञापन व्यवसाय  - यह समझना कि  वहाँ  स्त्री का केवल शोषण हो रहा है, उचित नहीं होगा. उस तंत्र में स्त्री स्वयं उत्पादक और नियंता की तरह शामिल है - अपने स्वयं के निर्णय से. इसे उपभोक्ता संस्कृति नहीं, उपभोक्तावाद के रूप में देखना होगा.

यहाँ थोड़ा  हटकर उन पत्रिकाओं और साइटों की बात करें जो नग्नता परोसती हैं. क्या उनके उपभोक्ता केवल पुरुष हैं? नहीं, सर्वेक्षण बताते हैं कि समलैंगिक संबंधों के बारे में लोकप्रिय फैन फिक्शन  'स्लैश फैनडम' की उपभोक्ता मुख्यतः स्त्रियाँ हैं. इसी प्रकार जापानी एनीमेशन 'मेन्गा' को स्त्रियाँ  बेहद पसंद करती हैं - खूब नग्नता है उसमें. इतना ही  नहीं,  महिलाओं की  पत्रिकाओं में छपने वाले तमाम विज्ञापन पुरुष उपभोक्ता को संबोधित  नहीं हैं  - लेकिन नग्नता उनमें भी है. अभिप्राय यह है कि नग्नता और कामुकता का उपभोक्ता आज केवल पुरुष समाज ही नहीं है. साथ ही यह भी कहना ज़रूरी है कि विज्ञापन हो या कलाकृति - यह अनिवार्य नहीं है कि देह दर्शन अश्लील ही हो. मनुष्यों की दुनिया में देह उत्सव है - इस सच्चाई को नकारा नहीं जा सकता. उपभोक्ता संस्कृति को उपभोक्तावाद के उत्पादकों पर यह दबाव बनाना चाहिए कि  वे इस देह को, इस उत्सव को,  उत्सव की तरह प्रस्तुत करें - सौंदर्यबोध को उद्बुद्ध करें, विकृत न करें. इसी संदर्भ में यह भी जोड़ना होगा कि देह और काम के व्यावसायिक उपयोग के बावजूद 'देह व्यापार', 'बाल शोषण' और 'अप्राकृतिक संबंध' व्यभिचार तथा अपराध हैं. यदि बाज़ार इनका पोषण करता है तो उपभोक्ता संस्कृति को उसके खिलाफ उठ खड़े होना चाहिए. ऐसे मामलों में स्त्रियों की जागरूकता कई बार देखने में आई है,जो प्रशंसनीय है.

यह भी प्रश्न किया जा सकता है कि क्या विज्ञापन में स्त्री का वस्तूकरण उचित है. पहली बात तो यह कि औचित्य यहाँ बाज़ार से तय होगा, या उपभोक्ता से,  या फिर स्त्री से? ये अलग अलग अवलोकन बिंदु हो सकते हैं. बाज़ार की दृष्टि से देखें तो विज्ञापन की मजबूरी है कि वह वस्तूकरण  का इस्तेमाल टेकनीक  की तरह करे. दरअसल विज्ञापन ऐसा तीव्र माध्यम है जिसे मिनट भर से भी कम समय में अपनी कहानी, स्टोरी, कहनी होती है. इतने कम समय में वह कोई चरित्र खड़ा नहीं कर सकता. इसलिए प्रायः प्रभावी संप्रेषण  के लिए वह स्टीरियोटाइप का निर्माण करता है - ब्रांड रचता है. पात्रों का वस्तूकरण  करता है. इस वस्तूकरण  का शिकार केवल स्त्री ही है, आज ऐसा नहीं रह गया है. 'एक्स' या अन्य डिओडरेंट उत्पादों के विज्ञापन देखें तो समझ में आता है कि किस प्रकार स्त्री का नहीं, पुरुष का वस्तूकरण  हो रहा है. साबुन से लेकर अंतर्वस्त्र तक के प्रचार अभियानों में अब स्त्री के साथ-साथ पुरुष मॉडल भी वस्तूकरण  के 'शिकार' हैं. दरअसल यह शिकार होना नहीं है - अपनी छवि बनाना और बेचना है. किसी साक्षात्कार में राखी सावंत ने गलत नहीं कहा कि आज दो ही चीज़ें  बिकती हैं - सेक्स और शाहरुख. उपभोक्ता छवि से प्रभावित होता है इसलिए उत्पादक छविनिर्माण करते हैं - यह छवि किसी एंग्री यंग  मैन की हो सकती है और किसी ड्रीम गर्ल की भी. शाहरुख खान और मल्लिका शेरावत हो की सकती है. बिपाशा बासु और जान अब्राहम    की हो सकती है. छवि कभी ओबामा की भी बनाई  जाती है और कभी सोनिया गांधी की भी.  नरेन्द्र मोदी हों  या मायावती - सब छवियाँ है. बाबा रामदेव एक छवि हैं  तो वृंदा करात दूसरी. अभिप्राय यह कि विज्ञापन में वस्तूकरण पुरुष और स्त्री दोनों का हो रहा है और इसके लिए किसी एक को दोषी मानना सर्वथा अलोकतांत्रिक है.

उपभोक्ता संस्कृति इस मामले में उपभोक्ता से चयन और त्याग के विवेक की अपेक्षा रखती है. उपभोक्ता को चाहिए कि वह बाज़ार और विज्ञापन को अथवा  फिल्मों तथा उनमें देह प्रदशन करने वाले स्त्री पुरुष मॉडलों को कोसने के बजाय अपने इस नैसर्गिक अधिकार का उपयोग करना सीखे. ग्रहण और त्याग के इस अधिकार के उपयोग की पूरी सुविधा आज का बाज़ार हमें  दे रहा है. अनेक सोशल नेटवर्क की साइटें हैं, जहां हमें अपनी कठोर से कठोर प्रतिक्रिया व्यक्त करने की आज़ादी है. यूट्यूब पर अनेक दर्शक जो प्रतिक्रियां व्यक्त करते हैं वे निरर्थक नहीं जातीं. उनका प्रभाव पड़ता है. अगर शशि तरूर साहब की  कैटल-क्लास विषयक टिपण्णी को जनमत द्वारा ध्वस्त किया जा सकता है तो बाज़ार की  उस नग्नता को क्यों नहीं जो आपको असांस्कृतिक लगती है - शर्मसार करती है? लेकिन उसका ऐसा विरोध न होना इस बात का द्योतक है कि कहीं न कहीं वह उपभोक्ता की मांग के अनुरूप है, उसकी आपूर्ति है.साथ ही यह कहना भी ज़रूरी है कि बाज़ार भले ही सेक्स और शरीर  का इस्तेमाल करता हो लेकिन स्त्री केवल सेक्स या देह नहीं है. इसी प्रकार सेक्स या शरीर  केवल स्त्री नहीं है - यदि बिकता है तो पुरुष भी उतना ही या उससे भी महँगा  सेक्स और शरीर है. 

यहाँ फिर स्त्री की भूमिका आती है. आज इन्टरनेट पर सक्रिय  अनेक सोशल नेटवर्कों के अवलोकन से पता चलता है कि उनमें स्त्रियाँ अपेक्षाकृत अधिक संख्या में सम्मिलित हैं और विचारविमर्श तथा बहसमुबाहसों में बढ़चढ़कर भाग ले रही हैं. अनेक ऑनलाइन डिस्कशन फोरम भी इस बात के गवाह हैं. छवि निर्माण वाली उपभोक्ता संस्कृति का एक ही रूप है फैन-कल्चर. आपके चाहने वाले आपको क्या से क्या बना देते हैं - फैन क्लब इसके प्रमाण हैं. देशविदेश के अनेक चैनेल दर्शकों को शामिल करके जो कार्यक्रम चला रहे हैं, उनमें इन चाहने वालों के रूप में बड़ी संख्या में स्त्री उपभोक्ता भी  सक्रिय है. स्पष्ट है कि  आज स्त्री उत्पादक और उपभोक्ता दोनों रूपों में बाज़ार को प्रभावित कर रही है. जैसा कि पहले कहा गया है, एक समय यह समझा जाता था कि स्त्री मूक-बधिर है लेकिन आज ऐसा नहीं है. आज वह विश्लेषण करके अपनी बात सार्वजनिक रूप से प्रस्तुत कर रही है और सारे समाज को प्रभावित कर रही है. आज के बाज़ार के 'पाठ' का निर्माण निश्चय ही 'प्रशंसकों' द्वारा प्रभावित हो रहा है जिसमें स्त्रियाँ भी पूरी शिद्दत से सक्रिय हैं. फैन कल्चर के प्रभाव का एक प्रबल उदाहरण  हैरी-पॉटर  उपन्यास शृंखला है जो स्त्री-पुरुषों में समान रूप से लोकप्रिय है. इसमें एल्फ नाम की  एक काल्पनिक जाति का संदर्भ मिलता है. यह एक दास जाति है जिसमें  अत्यंत छोटे कद के  तथा घरेलू  काम करने वाले दास शामिल हैं. इसके विवरण से प्रभावित होकर हैरी पॉटर  के प्रशंसक समूहों (हैरी पॉटर  एलायंस) द्वारा अफ्रीका, अमेरिका और भारत सहित अनेक देशों में समाजसेवा के कार्य किए  जा रहे हैं. इस प्रकार की गतिविधियाँ उपभोक्ता संस्कृति की पहचान बन सकती हैं.

उल्लेखनीय है कि फैन कल्चर के तहत स्त्रियों का समूहबद्ध होना उपभोक्ता जगत में बदलाव का द्योतक है. उपभोक्ता संस्कृति बाज़ार का अपना 'पाठ' गठित करती है. तथ्यों को पुनः व्याख्यायित करना, 'पुनर्पाठ' निर्मित करना इसका एक रूप है. इसे रीमिक्स मीडिया के रूप में भी देखा जा सकता है - उपभोक्ता का उत्पादक बन जाना. प्राचीन साहित्य का पुनर्पाठ भी उपभोक्ता संस्कृति का एक अंग  है. शेक्सपीयर के आधुनिक संस्करण के रूप में 'अंगूर', 'मकबूल' और 'ओंकारा' जैसी फिल्मों का आना हो, या रामायण और महाभारत के टीवी संस्करण हों - सब ऐसे ही पुनर्पाठ के उदाहरण  हैं. कहना होगा कि  इस तरह उपभोक्ता संस्कृति समाज को अधिक भागीदारी पूर्ण लोकतंत्र की दिशा में जाने की प्रेरणा देती है.

उपभोक्ता संस्कृति और स्त्री के संदर्भ में अगर भारतीय लोकतंत्र को देखें तो पता चलता है कि स्त्री वोट की सारी  राजनीति का आधार 'लोकतंत्र के उपभोक्ता' समाज का दबाव है. भारत के वार्षिक बजट में रसोई की  चर्चा अनिवार्य रूप से होती है. यहाँ प्याज और गैस की कीमतों का सरकारों के बनने बिगड़ने पर गहरा असर कई बार देखा जा चुका है. इसके आधार पर यह कहा जा सकता है कि अगर स्त्री उपभोक्ता समाज संगठित होकर अपेक्षाकृत अधिक उत्तरदायित्व पूर्ण सामाजिक  समूह का निर्माण कर सके तो इसे  उपभोक्ता संस्कृति के स्थान पर 'भागीदारी' की  संस्कृति के विकास का लक्षण माना जा सकता है जिसका अगला चरण होगा 'सहभागिता पूर्ण लोकतंत्र'.  इससे स्त्रियों का और सशक्तीकरण  हो सकेगा.

मेरा मानना तो यही है कि आज की स्त्री निरीह और अबला नहीं हैं, वह शक्तिमान है, बुद्धिमान है, पर्याप्त विवेकी  है - वह बाज़ार को नचाने का सामर्थ्य रखती है, भले ही यह लगता हो कि बाज़ार उसे नचा रहा है. रही बात उस स्त्री की जो अभी तक सामाजिक  विकास के हाशिये पर है तो उसका शोषण आज भी जारी है. वह आज भी भोग्य वस्तु है - पण्य सामग्री है. पर इसके लिए उपभोक्ता संस्कृति नहीं, बल्कि वे सामंती अवशेष जिम्मेदार हैं जो इस उत्तरआधुनिक समय में भी भारत को मध्यकाल में जीने के लिए विवश करते हैं. यहाँ हम उस स्त्री की चर्चा कर रहे हैं जो बाज़ार की शक्तियों को प्रभावित करती है  इसलिए जानबूझ कर इस शोषित दमित स्त्री का संदर्भ यहाँ उतना प्रासंगिक नहीं है. तथापि  बाज़ार के नियंत्रण की कुछ तो ताकत इस कम क्रयशक्ति वाली स्त्री के पास भी है. उत्पादक कंपनियों की  समझ में यह बात आ गई  है कि भारत अमेरिका नहीं है. अर्थात यहाँ हर कोई एक साथ बड़ी मात्र में वस्तु नहीं खरीद सकता. जनसंख्या रूपी पिरामिड के ऊपरी  भाग में संतृप्ति आने के कारण उन्हें उसके निचले भाग को लक्ष्य करना पड़ रहा है. इसी का परिणाम है कि अब भारत के बाज़ार में कपडे धोने से लेकर सिर धोने तक की सामग्री छोटे और सस्ते सैशे में उपलब्ध है जिनके मुख्य उपभोक्ता समूह का निर्माण निम्नमध्य और निम्न वर्ग की स्त्रियों द्वारा होता है.

आरंभ में कहा जा चुका है कि स्त्री आज उपभोक्ता भर नहीं, उत्पादक और प्रबंधक  भी है. वास्तव में राजनीति और प्रशासन से लेकर औद्योगिक घरानों तक का संचालन  आज अनेक स्त्रियाँ कर रही हैं. मीडिया के क्षेत्र में भारत में अनेक महिलाएँ  समाचार संकलन से लेकर कार्यक्रम निर्माण तक का काम संभाल रही हैं. राधिका रॉय एनडीटीवी की प्रबंध निदेशक रह चुकी हैं. एकता कपूर तो घर घर में अपने धारावाहिकों से घर कर चुकी हैं. इसी प्रकार एनडीटीवी की ही समूह संपादक  बरखा दत्त जनमत की अभिव्यक्ति का पर्याय बन चुकी हैं. आंकडे बताते हैं कि भारत में बैंकिंग और फाइनेंस  सेक्टर में ५४ प्रतिशित मुख्य कार्यकारी अधिकारी(सीईओ) स्त्रियाँ हैं. मीडिया में इनका प्रतिशत ११ है, तो तीव्रगामी उपभोक्ता वस्तूओं (ऍफ़.एम्.सी.जी) - सौंदर्य सामग्री और बिस्कुट आदि -  के क्षेत्र में आठ प्रतिशत है. फिल्म उत्पादन के क्षेत्र में आज कौन तनूजा चंद्रा, पूजा भट्ट और एकता कपूर से परिचित नहीं है? इतना ही नहीं, अखिला  श्रीनिवासन (एम.ड़ी, श्रीराम इन्वेस्टमेंट), चंदा कोचर(एम.ड़ी. और सीईओ, आइसीआईसीआई), इंदिरा नूई(अध्यक्ष और सीईओ, पेप्सी), ऋतू कुमार(फैशन डिजाइनर ) तथा भारत की सबसे अमीर महिला किरण मजुमदार शा (बायोकोन) जैसी स्त्रियों ने बाज़ार को नियंत्रित करने की भारतीय स्त्री की  शक्ति का बखूबी प्रमाण दिया है.

यहाँ यह भी कहना प्रासंगिक होगा कि दुनिया के बाज़ार में स्त्री शक्ति का यह हस्तक्षेप उपभोक्ता संस्कृति के गठन और विकास में और भी  प्रभावी भूमिका निभा सकता है बशर्ते कि इसका उपयोग समाज के वंचित वर्गों के कल्याण के लिए किया जाए. इस संबंध में 'वीमेन काइंड' का उदाहरण देखा जा सकता है. यह एक विज्ञापन एजेंसी है जिसे स्त्रियाँ ही संचालित करती हैं. देखा यह गया था कि ब्रांड खरीददारी करने वालों में ८५ प्रतिशत स्त्रियाँ  होने के बावजूद ज़्यादातर  ब्रांड मेसेज स्त्री दर्शक को आकर्षित करने में असमर्थ रहते थे . इसलिए इस एजेंसी ने प्रतिभाशाली फ्रीलांसर स्त्रियों को जोड़ा और मुख्यतः स्त्रियों को सम्बोधित  व्यापार मॉडल प्रस्तुत किया. उल्लेखनीय बात यह है कि यह एजेंसी अपने लाभ का ५ प्रतिशत अंश वंचित वर्ग की  स्त्रियों को दान में देती है. 

अंततः यह कहा जा सकता है कि उपभोक्ता संस्कृति के निर्माण में स्त्री समूह अत्यंत रचनात्मक भूमिका निभा सकते हैं तथा स्त्रियाँ आज के बाज़ार में केवल बिकाऊ माल की तरह निष्क्रिय रूप में उपस्थित नहीं हैं, बल्कि प्रबंधन और उत्पादन के क्षेत्र में भी उनका हस्तक्षेप और सक्रिय भागीदारी दृष्टिगोचर हो रही है. विशेष रूप से भारतीय संदर्भ में यह शुभ संकेत है कि भारतीय स्त्री अपनी मध्यकालीन छवि (भोग्या) से बाहर आ रही है और नारी से नागरिक बनने की उसकी चाह फलीभूत हो रही है.

मूल्यांकित शोधपत्रिका 'समुच्चय' का प्रवेशांक लोकार्पित

हैदराबाद, ८ नवम्बर २०१०.

आज यहाँ अंग्रेजी एवं विदेशी भाषा विश्वविद्यालय के हिंदी एवं भारत अध्ययन विभाग  (अंतरअनुशासनिक अध्ययन संकाय) की 'भाषा, साहित्य एवं संस्कृति की मूल्यांकित शोधपत्रिका' ''समुच्चय'' के प्रवेशांक का  लोकार्पण विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति प्रो.अभय मौर्य के हाथों संपन्न हुआ. दरअसल यह शोधपत्रिका उन्हीं का मानसशिशु है. उन्होंने कहा भी कि  'समुच्चय' के रूप में विभाग के अध्यक्ष प्रो. एम. वेंकटेश्वर ने उनके एक स्वप्न को साकार किया है. शायद यही कारण रहा हो कि जब समारोह के अंत में प्रो.मौर्य के प्रति आभार व्यक्त किया जा रहा था तो वे भावुक हो आए थे. 

संकाय के अधिष्ठाता प्रो.एम. माधव प्रसाद की अध्यक्षता में संपन्न इस समारोह में 'स्वतंत्र वार्ता' के संपादक डॉ. राधेश्याम शुक्ल ने ''शोध पत्रकारिता'' पर विशेष व्याख्यान दिया. 'समुच्चय' के प्रवेशांक की समीक्षा  प्रो. एम. वेंकटेश्वर ने अपुन को सौंपी थी; सो दी गई भूमिका निभाते हुए अपुन ने लोकार्पित अंक को १० में से ८ अंक दिए - २ अंक एक बेहद महत्वपूर्ण निबंध की अतिशयतापूर्ण वाक् स्फीति के काटने पड़े, अन्यथा सारी सामग्री संपादकीय में निर्धारित उद्देश्यों के पूर्णतः अनुरूप है.

 निश्चय ही इस महत्वाकांक्षी प्रकाशन के लिए विभाग के सभी सदस्य - डॉ . रसाल सिंह, डॉ.टी जे रेखारानी , डॉ. प्रोमिला, डॉ. अभिषेक रौशन, डॉ. प्रियदर्शिनी और डॉ. श्यामराव राठौड़ - भी धन्यवाद के पात्र हैं.

दूसरे सत्र में कवि सम्मलेन जमा - नरेंद्र राय, वेणुगोपाल भट्टड़ , लक्ष्मी नारायण अग्रवाल, भंवरलाल उपाध्याय,ऋषभदेव शर्मा और रामकृष्ण पांडेय के अलावा परिसर के छात्रकवियों ने भी काव्यपाठ किया . ऐसा समां बँधा  कि वेंकटेश्वर जी ने निकट भविष्य में रात भर का कवि सम्मलेन करवाने की घोषणा कर डाली. आमंत्रित कविगण उस क्षण गद्गद हो उठे जब उन सबके सम्मान में भरे सदन ने खड़े होकर तालियाँ बजाईं.

पुनश्च-

'समुच्चय' के प्रवेशांक में जगदीश्वर चतुर्वेदी, रमणिका गुप्ता, दिलीप सिंह, प्रज्ञा, शकुंतला मिश्र, शैलजा, अमिष वर्मा, दिविक रमेश, भूषण चंद्र पाठक और हीरालाल नागर के वैदुष्यपूर्ण और  विचारोत्तेजक निबंधों के साथ सौभाग्यवश अपना भी एक आलेख (स्त्री और उपभोक्ता संस्कृति) प्रकाशित हुआ है. उसे यहाँ सहेजा  जा रहा है - शायद कभी काम आ जाए. 

हाँ, उम्मीद की जानी चाहिए कि 'समुच्चय' शीघ्र ही ब्लॉगपत्रिका के रूप में ऑनलाइन  भी उपलब्ध होगी.            




रविवार, 7 नवंबर 2010

भाषाचिंतक प्रो. दिलीप सिंह अभिनंदन ग्रंथ हेतु लेखकीय सहयोग का अनुरोध



भाषाचिंतक प्रो. दिलीप सिंह अभिनंदन ग्रंथ समिति

२०८ -ए, सिद्धार्थ अपार्टमेंट्स,गणेश नगर, रामंतापुर, हैदराबाद - ५०० ०१३ 


विषय: भाषाचिंतक प्रो. दिलीप सिंह अभिनंदन ग्रंथ हेतु लेखकीय सहयोग का अनुरोध।


महोदय,
सादर नमन।
हर्ष का विषय है कि प्रतिष्ठित हिंदी भाषाविज्ञानी प्रो. दिलीप सिंह (कुलसचिव, उच्च शिक्षा और शोध संस्थान, दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, मद्रास) के शुभचिंतकों, मित्रों, प्रशंसकों  और शिष्यों ने उनके सम्मान में एक अभिनंदन ग्रंथ समर्पित करने का संकल्प लिया है। इस ग्रंथ को हिंदी जगत को  प्रो. दिलीप सिंह के प्रदेय के साथ-साथ मुख्य रूप से अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान के विविध पक्षों पर केंद्रित करने की योजना है। इस योजना को, परामर्शदाता के रूप में, डॉ. नामवर सिंह,  डॉ. सुरेंद्र गंभीर, डॉ. निकोलस बलवीर, डॉ. सूरज भान सिंह, डॉ. वी.रा. जगन्नाथन, डॉ.सुरेश  कुमार, डॉ. परमानंद श्रीवास्तव और  डॉ. कमला प्रसाद जैसे साहित्य और भाषाविज्ञान के मर्मज्ञ विद्वानों का आशीर्वाद प्राप्त है|
  
प्रो. दिलीप सिंह के व्यक्तित्व और कार्यों से व्यक्तिगत रूप से परिचित / मित्र / शुभचिंतक  तथा भाषाविज्ञान/अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान की अधुनातन प्रवृत्तियों के विशेषज्ञ विद्वान के रूप में आपसे अनुरोध है कि इस ग्रंथ के लिए -

१. कृपया प्रो.दिलीप सिंह से संबंधित अपने संस्मरण (अधिकतम 1000 शब्दों में) भेजकर अनुगृहीत करें। 

२. कृपया प्रो. दिलीप सिंह की किसी पुस्तक/पुस्तकों [व्यावसायिक हिंदी / पाठ विश्लेषण / हिंदी भाषा चिंतन / भाषा का संसार / अन्य भाषा शिक्षण के विविध सन्दर्भ /भाषा, साहित्य और संस्कृति शिक्षण] पर समीक्षात्मक आलेखभेजकर अनुगृहीत करें।

३. अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान के अपनी रुचि के विषय (यथा - ‘‘समाज भाषाविज्ञान / अनुवाद चिंतन / भाषा शिक्षण / भाषा नियोजन / प्रयोजनमूलक भाषा / मीडिया की भाषा / मनोभाषाविज्ञान / शैलीविज्ञान / उत्तर आधुनिक भाषाविमर्श / स्त्रीभाषा / पाठ विश्लेषण / कम्प्यूटर और हिंदी / विश्वभाषा हिंदी’’) पर एक सारगर्भित निबंध भेजकर अनुगृहीत करें|

अभिनंदन ग्रंथ में प्रकाशनार्थ  यह सामग्री कृपया 15 दिसंबर, 2010 तक मेरे पते पर उपलब्ध कराने का कष्ट करें।
विश्वास  है कि इस सारस्वत यज्ञ में हमें आपका शुभकामनापूर्ण सहयोग अवश्य  प्राप्त होगा।
धन्यवाद सहित,
    
आपका
ऋषभ देव शर्मा           
http://bit.ly/d98iWc
संयोजक, भाषाचिंतक प्रो.दिलीप सिंह अभिनंदन ग्रंथ

२०८ - ए, सिद्धार्थ अपार्टमेंट्स , 
गणेश नगर, रामंतापुर,
हैदराबाद - ५०० ०१३  
[आंध्र प्रदेश] भारत   

मोबाइल: 09441822661. फोन 040-42102132.
ईमेल - rishabhadeosharma@yahoo.com 

गुरुवार, 4 नवंबर 2010

पहले तीन दीवे

सुनो!
एक दीवा  दरवाज़े पर ज़रूर रख देना.

और हाँ,
एक दीवा  रास्ते के अंधे मोड़ पर भी.

तब तक मैं
आकाशदीप बाल आता हूँ.

!!ज्योतिपर्व मंगलमय हो!!

शुक्रवार, 22 अक्तूबर 2010

चेखव की १५० वीं वर्षगाँठ पर दो-दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी संपन्न




अनुवादक का द्वि-सांस्कृतिक होना बेहद ज़रूरी : योगेश भटनागर

हैदराबाद, २१ अक्टूबर २०१०.

"वर्तमान वैश्विक परिदृश्य में अनुवाद का महत्व पहले की अपेक्षा कहीं अधिक है. साहित्य के अनुवाद के माध्यम से हम केवल किसी अन्य भाषा के लेखन से ही परिचित नहीं होते बल्कि उस भाषा समाज की सामजिक-सांस्कृतिक परंपराओं  और विशेषताओं से भी परिचित होते हैं. अनुवादक एक भाषा में रचित साहित्य के अर्थ और रूप  भर को नहीं बल्कि उसके मूल्यों और सरोकारों को भी दूसरी भाषा में प्रकट करने का दायित्व निभाता है. ऐसा करने के लिए उसका द्विभाषिक के साथ साथ द्विसांस्कृतिक होना भी अपरिहार्य शर्त है. इस स्तर पर साहित्य का अनुवादक मात्र अनुसरणकर्ता  नहीं होता बल्कि मौलिक लेखक की भाँति ही सृजनकर्ता होता है."

ये विचार अंग्रेजी और विदेशी भाषा विश्वविद्यालय  के रूसी अध्ययन संकाय के तत्वावधान में संपन्न 'चेखव का अनुवाद' विषयक द्वि-दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी के समापन अवसर पर बोलते हुए प्रमुख चेखवविद लेखक और अनुवादक प्रो.योगेश चन्द्र भटनागर ने व्यक्त किये.

समापन समारोह की अध्यक्षता करते हुए प्रो.जगदीश प्रसाद डिमरी ने बताया कि  इस संगोष्ठी-कार्यशाला में स्वीकृत किए  गए विभिन्न भाषाओं के अनुवादों को शीघ्र ही पुस्तकाकार प्रकाशित किया जाएगा. उन्होंने इसे समारोह की उपलब्धि और सफलता माना कि इसमें जहाँ एक ओर २० वरिष्ठ अनुवादक सम्मिलित हुए वहीं  इसके माध्यम से नए चेहरे के रूप में ११ युवा अनुवादक भी सामने आए जो हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाओं में रूसी भाषा से सीधे अनुवाद की संभावनाओं के विस्तार का सूचक है.

उल्लेखनीय है कि दो दिन के इस समारोह में ६ अलग-अलग समूहों में ३२ अनुवादकों द्वारा विभिन्न भारतीय भाषाओं में किये गए चेखव के १२ छोटे-बड़े नाटकों के अनुवादों का विश्लेषण करके उन्हें अंतिम रूप दिया गया. इस कार्य में द्विभाषिक विद्वानों के साथ साथ लक्ष्य भाषाओं हिंदी, मलयालम, तेलुगु, मराठी, ओडिया और बांग्ला  के मातृभाषा-भाषी विशेषज्ञों का भी सहयोग लिया गया.


चेखव के भारतीय विशेषज्ञ प्रो.शंकर बसु, प्रो.योगेश भटनागर, प्रो.वरयाम सिंह और प्रो.पंकज मालवीय की उपस्थिति सभी प्रतिभागियों के लिए अत्यंत प्रेरणा-दायक रही.

कार्यशाला का निर्देशन प्रो.चारुमति रामदास तथा संयोजन डॉ.सत्यभान सिंह राजपूत ने किया. धन्यवाद ज्ञापन प्रो.मोनिका ने किया.

गुरुवार, 21 अक्तूबर 2010

रूसी साहित्यकार चेखव के १२ नाटकों के ६ भारतीय भाषाओं में अनुवाद हेतु कार्यशाला



अंग्रेज़ी एवं विदेशी भाषा विश्वविद्यालय में द्विदिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी उद्घाटित 
हैदराबाद, २० अक्टूबर.


विश्वप्रसिद्ध रूसी कथालेखक एवं नाटककार चेखव की १५० वीं वर्षगाँठ  के उपलक्ष्य में  आज यहाँ अंग्रेजी एवं विदेशी भाषा विश्वविद्यालय  के  परिसर में  रूसी भाषा विभाग के तत्वावधान में आयोजित ''चेखव का अनुवाद '' विषयक द्विदिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी एवं कार्यशाला का उद्घाटन प्रसिद्ध  भारतीय चेखवविद  तथा जेएनयू के अधिष्ठाता प्रो. शंकर बसु ने   किया. उन्होंने चेखव की रचनागत विशेषताओं का उल्लेख करते हुए उन्हें मानवीय संवेदना के अप्रतिम चितेरे की संज्ञा दी . 

उद्घाटन समारोह की अध्यक्षता रूसी अध्ययन संकाय के डीन प्रो.आर.डी.अकेला ने की और बताया कि इस आयोजन में चेखव के एक पूर्णाकार तथा ११ एकांकी नाटकों के रूसी से सीधे हिंदी ,मराठी ,तेलुगु, बंगला,ओडिया और मलयालम भाषाओं में संपन्न अनुवादों का विश्लेषण करके उन्हें अंतिम रूप दिया जाएगा जो अपने आप में एक कीर्तिमान होगा.

बीज भाषण सुप्रसिद्ध कवि एवं अनुवादक प्रो. वरयाम सिंह , जेएनयू , ने दिया. प्रो. सिंह ने कहा कि चेखव केवल रूसी लेखक ही नहीं थे, वे अपने समय में ही   भौगोलिक सीमाओं को लांघ चुके थे क्योंकि उनकी रचनाओं की विषयवस्तु और उनके पात्र चिरंतन हैं. इस अवसर पर संबोधित करते हुए दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के प्रो. ऋषभ देव शर्मा ने कहा कि हिंदीजगत के भारतेंदु हरिश्चंद्र और जयशंकर प्रसाद जैसे साहित्यकारों की भाँति चेखव भी ऐसे रचनाकार हैं जिन्होंने अकालमृत्यु   के बावजूद कालजयी  सिद्ध हुए हैं.

समारोह की संयोजक डॉ. चारुमति रामदास ने बताया कि इस कार्यक्रम में ३२ अनुवादक भाग ले रहे हैं जिनमें ११ नए चेहरे हैं. विविध भारतीय भाषाओं में इनके द्वारा किए गए अनुवादों का विश्लेषण करने के लिए  द्विभाषाविदों के साथ साथ विशेष रूप लक्ष्य भाषा के विद्वानों को भी आमंत्रित किया गया है ताकि अनूदित पाठों  को लक्ष्य भाषाओं के मुहावरे में ढाला जा सके. 

उद्घाटन सत्र के बाद छः समानांतर समूहों में कार्यशाला आरम्भ हुई. दो दिन में   कार्यशाला के चार सत्र होंगे. 

समापन गुरुवार को प्रो. जे. पी. डिमरी की अध्यक्षता में संपन्न होगा. समाकलन व्याख्यान प्रसिद्ध चेखवविद , लेखक और अनुवादक प्रो. योगेश भटनागर , भूतपूर्व आचार्य - जेएनयू, देंगे. समारोह में हैदराबाद के अतिरिक्त  गुवाहाटी, नागपुर, पुणे ,लखनऊ, कोल्हापुर, आगरा , अमृतसर, चंडीगढ़, भंडारा, कोलकाता बनारस, रीवां, दिल्ली, तिरुवनंत पुरम, इलाहाबाद और  औरंगाबाद आदि स्थानों से आए हुए अनुवादक और विशेषज्ञ विद्वान् सम्मिलित हैं.  

 चित्र परिचय : 
अंग्रेजी एवं विदेशी भाषा विश्वविद्यालय में आयोजित 'चेखव का अनुवाद' विषयक द्वि-दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी एवं कार्यशाला के उद्घाटन के अवसर पर - 
चित्र एक : (बाएं से) प्रो.ऋषभ देव शर्मा, प्रो.वरयाम सिंह, प्रो.शंकर बसु एवं प्रो.आर.डी.अकेला. 
चित्र दो : (बाएं से) प्रो.चारुमति रामदास(माइक पर), प्रो.ऋषभ देव शर्मा, प्रो.वरयाम सिंह, प्रो.शंकर बसु एवं प्रो.आर.डी.अकेला