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बुधवार, 18 मार्च 2020

डॉ. निशंक की उदात्त मूल्यदृष्टि और ‘कृतघ्न’


डॉ निशंक के उपन्यासों में जीवन-दर्शन, संपादक- डॉ. योगेंद्र नाथ शर्मा 'अरुण', प्रकाशक- हिंदी साहित्य निकेतन, 16, साहित्य विहार, बिजनौर, उत्तर प्रदेश. आईएसबीएन-
978 93 8681 2612 

डॉ. निशंक की उदात्त मूल्यदृष्टि और ‘कृतघ्न’
  • प्रो. ऋषभ देव शर्मा 
डॉ. रमेश पोखरियाल निशंक (ज. 15 अगस्त, 1959) राजनीति और साहित्य को एक साथ साधने वाले सव्यसाची हैं। राजनीति और साहित्य दोनों ही उनके लिए समाज के उत्थान और आदर्श की प्रतिष्ठा के उपकरण हैं। उनकी अधिकांश कृतियाँ राष्ट्रीय चेतना, सामाजिक सरोकार और मानवतावाद की भावना से ओतप्रोत हैं। राजनेता और सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में भी उन्हें एक ऐसे जमीन से जुड़े नायक के रूप में जाना जाता है जो लोक की मिट्टी में समाई अपनी जड़ों को कभी भी भूलता नहीं है। 30 (या शायद इससे भी अधिक) काव्य संकलनों, कथा संग्रहों और उपन्यासों के रचनाकार डॉ. रमेश पोखरियाल निशंक उत्तराखंड के मुख्यमंत्री रह चुके हैं तथा लोकसभा सांसद के रूप में भी अपने क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करने का उन्हें गौरव प्राप्त है। राजनेता और साहित्यकार दोनों ही रूपों में उन्होंने प्रभूत यश अर्जित किया है। लेकिन अपनी जमीन से जुड़े रहने के कारण इन तमाम उपलब्धियों के बावजूद वे अपने निरभिमान सहज स्वभावी पारदर्शी व्यक्तित्व को बचाकर रख सके हैं। उनके इस व्यक्तित्व में एक विशेष प्रकार की उदारता और उदात्तता दिखाई देती है। 
प्रमुख पाश्चात्य काव्यशास्त्री लोंजाइनस की मान्यता है कि किसी साहित्यिक कृति में उदात्त तत्व का अवतरण तभी संभव है जबकि उसके रचनाकार के अपने जीवन और व्यक्तित्व में औदात्य विद्यमान हो। यह उक्ति डॉ. निशंक के व्यक्तित्व और कृतित्व पर पूरी तरह लागू होती है। अर्थात उनके व्यक्तित्व में विद्यमान औदार्य और औदात्य ही उनके कृतित्व में उदात्त तत्व के रूप में प्रतिबिंबित होता है। उनका उपन्यास कृतघ्न (2015. नई दिल्ली : प्रभात प्रकाशन) भी इस कथन को प्रमाणित करता है। 
कृतघ्न का केंद्रीय चरित्र अंबुज वास्तव में उपन्यासकार की आदर्श और उदात्त चरित्रसृष्टि का पर्याय है। लोंजाइनस ने किसी रचना में औदात्य के साधक तत्व के रूप में उदात्त चरित्र के चयन और तदनुरूप उदात्त घटनाक्रम के संयोजन को अत्यंत आवश्यक माना है क्योंकि हीन चरित्र और क्षुद्र घटनाक्रम के सहारे उदात्त जीवन मूल्यों की स्थापना नहीं की जा सकती। अंबुज के माध्यम से लेखक ने जहाँ एक ओर व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन के उच्च मूल्यों की प्रतिष्ठा की है, वहीं यह भी दर्शाया है कि आदर्श और मूल्यनिष्ठ जीवन जीना अपने आप में कोई सरल कार्य नहीं है। समाज में परमार्थ का टकराव सदा स्वार्थ से होता रहता है। क्षुद्रताएँ येन केन प्रकारेण उच्चता को पराजित करने के लिए घात लगाए बैठी रहती हैं। अंबुज के जीवन में भी एक ऐसा समय आता है जब उसकी तमाम सदाशयता और उदारता असफल होती दिखाई देती है। पूनम की महत्वाकांक्षा और ईर्ष्या जैसी क्षुद्र मनोवृत्तियाँ चरमोत्कर्ष पर इतनी विकराल हो उठती हैं कि अंबुज की तमाम प्रतिष्ठा मिट्टी में मिलती हुई प्रतीत होने लगती है। वह (मी टू अभियान की तर्ज पर) अंबुज पर अपने शोषण का शर्मनाक लांछन लगाती है। एक बार को तो ऐसा प्रतीत होता है कि क्षुद्रता ने उदारता को पराजित कर दिया है। यदि ऐसा हो जाता तो एक ओर तो आदर्शवादी जीवन मूल्यों की पराजय घटित होती तथा दूसरी ओर पूनम जैसे हीन चरित्र की सृष्टि करने के कारण रचनाकार पर यह आक्षेप किया जा सकता था कि उसने जानबूझकर अपने स्त्री पात्र को कपट, विश्वासघात और कृतघ्नता की प्रतिमूर्ति के रूप में रचा है। यदि ऐसा होता तो यह निष्कर्ष निकलता कि लेखक स्त्री-विरोधी पुरुषवादी सामंती सोच से ग्रसित है। लेकिन डॉ. रमेश पोखरियाल निशंक यह किसी भी प्रकार प्रतिपादित नहीं करना चाहते कि स्त्री कपटी, विश्वासघाती और कृतघ्न होती है। इसीलिए उन्होंने पूनम के समानांतर सुकन्या का चरित्र गढ़ा है जो अंबुज की खोई हुई प्रतिष्ठा को पुनः प्राप्त करने का माध्यम बनती है और पूनम द्वारा लगाया गया लांछन पूरी तरह निराधार और असत्य सिद्ध होता है। मिथ्या पर सत्य की विजय द्वारा इस प्रकार लेखक ने उस मूलभूत भारतीय जीवन मूल्य को प्रतिष्ठित किया है जिसके अनुसार अंधकार और मृत्यु नहीं, प्रकाश और जीवन ही शाश्वत हैं। इस सारी सकारात्मकता को पुंजीभूत करने के लिए केवल अंबुज और सुकन्या ही सक्रिय हों, ऐसा नहीं है। बल्कि पूनम के अतिरिक्त उपन्यास के शेष तमाम पात्र इसी के लिए सचेष्ट दिखाई देते हैं। इससे यह भी निष्कर्ष प्राप्त होता है कि यदि व्यक्ति का प्रयोजन सकारात्मक और सामाजिक हित में हो तो विपरीत परिस्थितियाँ होने पर भी उसे अपने कार्य में साथ देने वाली शक्तियों का संबल अवश्य मिलता है। आदर्श का मार्ग कठिन और दुर्गम अवश्य है लेकिन उस पर चलकर महान उद्देश्य की पूर्ति अगम और असंभव नहीं है – यह संदेश देने के कारण कृतघ्न सकारात्मक जीवन मूल्यों की प्रेरक कृति बन गई है। 
कृतघ्न के स्थापत्य में भी पर्याप्त औदात्य निहित है। होना भी चाहिए; क्योंकि उदात्त विषयवस्तु, उदात्त चरित्र और उदात्त विचार को व्यक्त करने के लिए स्थापत्य और भाषा का भी उदात्त होना आवश्यक है। अन्यथा रचना में औदात्य के स्थान पर व्यंग्य की सृष्टि हो जाएगी। डॉ. निशंक ने यद्यपि इस उपन्यास में संयोग, दुर्घटना, मृत्यु और दुर्भाग्य चक्र का सहारा लेकर बार-बार त्रासदी रची है लेकिन इन तमाम त्रासद परिस्थितियों के समांतर एक विश्वसनीय संभाव्यता भी सक्रिय दिखाई देती है। इस विश्वसनीय संभाव्यता का स्रोत उस मनोवैज्ञानिकता में निहित है जिसके सहारे रचनाकार ने अंबुज, वर्षा, सुकन्या, गुंजन और पूनम जैसे पात्र रचे हैं। उपन्यास के शीर्षक के अनुरूप जिस नारी पात्र में तमाम तरह की नकारात्मकता को साकार किया गया है उसकी मनोविज्ञान से संगति इतनी स्वाभाविक बन पड़ी है कि उसकी गतिविधि और भावनाएँ न तो कहीं असंभव लगती हैं और न रंच भर अविश्वसनीय। अभावों में पली मातृ-पितृ विहीन एक लड़की दादी से सुनी लोक कथाओं की राजकुमारी की तरह अपने आपको देखना शुरू कर देती है। राजमहल और राजकुमार का सपना उसके अवचेतन में इतने गहरे पैठ जाता है कि उसका समूचा व्यक्तित्व उसी के अंधेरे में कैद हो जाता है। हठ और जिद से भरी हुई वह लड़की जब देखती है कि उसका राजकुमारी की तरह राजमहल में बसने का सपना टूट रहा है तो हताशा में वह चरम नकारात्मक कदम उठाती है। लेकिन उसके भीतर एक सच्ची औरत भी विद्यमान है जो उसकी डायरी के पन्नों पर अपने अस्तित्व को अंकित करती रहती है। इससे यह भी प्रकट होता है कि लेखक अपने इस खल पात्र को मूलतः खल नहीं मानता। विपरीत परिस्थितियों ने उसे खलनायिका बना दिया, अन्यथा वह तो सेवा सुश्रूषा की प्रतिमूर्ति एक नर्स मात्र थी। यहाँ पुनः यह संदेश निहित है कि कोई व्यक्ति मूलतः क्षुद्र और तुच्छ नहीं होता, उसकी ऐसी मनोवैज्ञानिक विकृति के लिए वह परिवेश और परिस्थितियाँ जिम्मेदार होती हैं जो उसे मिली। 
अंबुज हो या सुकन्या हो, या फिर पूनम हो – इन सबके माध्यम से डॉ. रमेश पोखरियाल निशंक यह भी दर्शाते हैं कि उच्च और यथार्थवादी लक्ष्य रखने वाला व्यक्ति सकारात्मक मूल्यों का विकास करता है जबकि अयथार्थवादी काल्पनिक लक्ष्य नकारात्मकता की ओर प्रवृत्त करते हैं। सकारात्मकता और नकारात्मकता के इस संघर्ष में लेखक ने मनुष्यता की अंतिम विजय में विश्वास व्यक्त किया है जो उसकी मानवतावादी आदर्श मूल्य दृष्टि के सर्वथा अनुरूप है।        

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