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शुक्रवार, 4 सितंबर 2009

भाषा, साहित्य और संस्कृति अध्ययन की गीता




हिंदी के प्रमुख समकालीन भाषावैज्ञानिक प्रो. दिलीप सिंह (1951) हिंदी भाषाविज्ञान को अपने अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान विषयक लेखन और चिंतन द्वारा निरंतर समृद्ध कर रहे हैं। समाज भाषाविज्ञान और शैलीविज्ञान में विशेष रुचि रखने वाले डॉ. दिलीप सिंह की एक दुर्लभ योग्यता यह है कि वे ऐसे सव्यसाची अध्येता और अध्यापक हैं जो भाषाविज्ञान और साहित्य दोनों का एक साथ लक्ष्यवेध करने में समर्थ हैं .यही कारण है कि उनका लेखन न तो निरा भाषिक अध्ययन है और न मात्र भावयात्रा। इसका परिणाम यह हुआ है कि उनकी पुस्तकें भाषा केंद्रित होने के साथ-साथ अपनी परिधि में साहित्य को भली प्रकार समेटती हैं। यह विशेषता उनकी पुस्तक ‘भाषा, साहित्य और संस्कृति शिक्षण’ (2007) के अवलोकन से भी प्रमाणित होती है।


‘भाषा, साहित्य और संस्कृति शिक्षण’ के लक्ष्य पाठक के रूप में लेखक के समक्ष अन्य भाषा और विदेशी भाषा के रूप में हिंदी शिक्षण करने वाले अध्यापक रहे हैं। ऐसे अध्यापकों के निमित्त एक संपूर्ण पुस्तक का अभाव लंबे समय से खटकता रहा है क्योंकि अन्य भाषा के रूप में हिंदी शिक्षण पर हिंदी में पुस्तकों का कतई टोटा है। ‘‘इस तरह की जो किताबें हिंदी में प्रकाशित हैं उनमें से अधिकतर व्याकरण-शिक्षण की परिधि का तक सीमित हैं। इसका एक कारण तो यह है कि इन पुस्तकों के लेखक या तो शुद्ध भाषावैज्ञानिक हैं या हिंदी के वैयाकरण, अतः वे सिद्धांत चर्चा से बाहर नहीं निकल पाते और संरचना केंद्रित भाषा शिक्षण को ही भाषा अधिगम का प्रथम और अंतिम सोपान मानते हैं। दूसरा कारण यह है कि भाषावैज्ञानिक पृष्ठभूमि के इन लेखकों की साहित्य-भाषा में तनिक भी रुचि नहीं है जबकि अन्य भाषा के शिक्षण का बहुत बड़ा हिस्सा पाठ केंद्रित होता है। भारत के भाषाविद् और साहित्यवेत्ता दो खेमों में बँटे हुए हैं। भाषाविज्ञान साहित्य से और साहित्यकार-आलोचक भाषाविज्ञान से अपने को कोसों दूर रखते हैं। अन्य देशों में ऐसा नहीं है, क्योंकि वे जानते हैं कि साहित्यिक कृति में भाषा अध्ययन की तथा भाषा में सर्जनात्मकता की अनंत संभावनाएँ निहित हैं। कारण कुछ भी हों, अन्य भाषा शिक्षक को संबोधित सामग्री का हिंदी में नितांत अभाव है, इसमें दो राय नहीं। हिंदीतर क्षेत्रों तथा विश्व के अन्य देशों में हिंदी पढ़ानेवालों को यह पुस्तक ध्यान में रखकर तैयार की गई है।’’



पुस्तक के आवरण पृष्ठ पर दिए गए इस प्रचारक वक्तव्य में मैं यह भी जोड़ना चाहूँगा कि अगर इसे केवल अन्य भाषा शिक्षण की पुस्तक माना जाए तो यह लेखक और पुस्तक दोनों के प्रति अन्याय होगा। मेरी राय में तो प्रथम भाषा के रूप में हिंदी पढ़ने-पढ़ाने वालों के लिए भी यह पुस्तक समान रूप से उपयोगी और आवश्यक है। इतना ही नहीं , साहित्य समीक्षा के लिए भी इस पुस्तक से नई दृष्टि प्राप्त की जा सकती है। इस नई दृष्टि का संबंध है साहित्य अध्ययन के लिए भाषा, साहित्य और संस्कृति के त्रिक को साधने से।



प्रो. दिलीप सिंह की यह मान्यता इस पुस्तक में व्यावहारिक रूप में प्रतिफलित हुई है कि भाषा शिक्षण द्वारा व्यक्ति के भाषा व्यवहार ही नहीं उसके संपूर्ण व्यक्तित्व को धार दी जा सकती है। व्यक्तित्व विकास की इस प्रक्रिया में साहित्य शिक्षण की महत्वपूर्ण भूमिका है क्योंकि उससे व्यक्ति के संज्ञानात्मक और सोचने को कौशल को निखारा जा सकता है। सबसे अधिक महत्वपूर्ण यह मान्यता है कि किसी भी कथन/अभिव्यक्ति/पाठ में साहित्य और भाषा के बहाने सामाजिक-सांस्कृतिक घटक पिरोए गए होते हैं जिनके उद्घाटन के बिना उसका पढ़ना-पढ़ाना अधूरा रह जाता है। अतः भाषा अध्ययन के रास्ते किसी समाज की संस्कृति तक पहुँचना कैसे संभव होता है यह सीखना-सिखाना बेहद महत्वपूर्ण है। इसमें संदेह नहीं यह पुस्तक इन लक्ष्यों की प्राप्ति को संभव बनाने में समर्थ है।



- मेरे विचार से प्रो. दिलीप सिंह की दूसरी किताबों की तरह ‘भाषा, साहित्य और संस्कृति शिक्षण’ की भी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि लेखक ने भाषाविज्ञान के सिद्धांतों को अनुप्रयोगात्मक और व्यावहारिक बनाकर प्रस्तुत किया है।


- दूसरी ध्यान खींचने वाली बात यह है कि इसमें भाषा शिक्षण के सिद्धांतों को हिंदी के पाठों के जरिए सामने लाया गया है।


- तीसरी बात यह कि लेखक के समक्ष अपना लक्ष्य पाठक सदा उपस्थित रहा है और इसीलिए पुस्तक में अनेक स्थलों पर शिक्षण बिंदु निर्धारित किए गए हैं। ऐसा इसलिए भी हो सका है कि मूल रूप में यह पुस्तक इसी विषय पर शिक्षकों और प्रशिक्षणार्थियों के समक्ष तीन दिन में दिए गए नौ व्याख्यानों का लिखित रूप है। इसलिए इसमें जीवंत संवाद लगातार चलता दिखाई देता है - कक्षा की तरह।

- चौथी बात यह कि द्वितीय भाषा हिंदी के शिक्षक को इस पुस्तक के रूप में इस तरह की व्यावहारिक हिंदी शिक्षण की कृति से पहली बार परिचित होने का अवसर मिल रहा है।


- पाँचवीं विशेषता इस पुस्तक की यह है कि इसमें हिंदी शिक्षण के इतिहास का क्रमिक परिचय भी दिया गया है और उसे व्यापक संदर्भ में विवेचित किया गया है। पुस्तक को समझने के लिए यह विवेचन सुदृढ़ पीठिका का काम करता है।

- छठी विशेषता जो इस पुस्तक को बार-बार पढ़ने और सहेजकर रखने की चीज़ बनाती है वह यह है कि भाषा और साहित्य के माध्यम से संस्कृति शिक्षण पर इस किताब में पहली बार व्यावहारिक चर्चा की गई है जो अध्यापक और समीक्षक से लेकर सामान्य पाठक तक के लिए मार्गदर्शक हो सकती है।


- सातवीं विशेषता यह है कि प्रो. दिलीप सिंह की यह पुस्तक उनके अपने व्यक्तित्व के अनुरूप यह प्रतिपादित करती है कि भाषा और साहित्य दोनों एक दूसरे के माध्यम से पुष्ट होते हैं, एक दूसरे को पुष्ट करते हैं और संस्कृति के वाहक होते हैं।


- विशेषताएँ चाहे जितनी गिनाई जा सकती है लेकिन इस पुस्तक की आठवीं विशेषता के रूप में मैं यह कहना चाहूँगा कि यह कृति अपने पाठक को विविध उदाहरणों के माध्यम से यह समझाने में सर्वथा समर्थ है कि विविध प्रकार के आचरण, शिष्टाचार, विनम्रता आदि को कोई संस्कृति किस प्रकार अपनाती है तथा उनकी अभिव्यक्ति भाषा और साहित्य में किस प्रकार अंतःसलिला बनकर विद्यमान रहती है।




कुल मिलाकर भाषा, साहित्य और संस्कृति के त्रिक की साधना के लिए प्रो. दिलीप सिंह की यह कृति गीता की भाँति अध्ययन, मनन और चिंतन के योग्य है।


भाषा, साहित्य और संस्कृति शिक्षण /
प्रो. दिलीप सिंह /
वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली /
2007 / 295 रुपये / 224 पृष्ठ (सजिल्द) |

1 टिप्पणी:

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद ने कहा…

इस समीक्षा का सबसे विशेष पक्ष इसकी अंतिम ‘सम्मिंग-अप’ है जिसमें पुस्तक की विशेषताएं गिनाई गई हैं। प्रो. दिलीप सिंह तो भाषा-विज्ञान के मर्मज्ञ हैं और इस पुस्तक से भाषा का विद्यार्थी लाभान्वित होगा ही। पुस्तक-परिचय के लिए आभार।