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शुक्रवार, 29 मई 2009

नई सदी की हिंदी कहानी*



नई सदी की हिंदी कहानी*

हिंदी कहानी की जो युवतम कलम 21 वीं शताब्दी के पहले दशक में कालपृष्ठ पर अपने हस्ताक्षर अंकित कर रही है, पाठकों और आलोचकों ने लक्ष्य किया है कि उसकी अपनी अलग पहचान है, अपना खास अंदाज है और अपनी विशिष्ट सोच भी। इस पहचान, अंदाज और सोच के वैशिष्ट्य को वैश्विकता और स्थानीयता के सामंजस्य की तलाश के रूप में रेखांकित किया जा सकता है। हिंदी कहानीकारों की यह नई पीढ़ी उत्तर आधुनिक जीवन के अनुभवों और व्यापक सूचना तंत्र की जानकारियों से लैस है। 

आज का कहानीकार अनुभव और अध्ययन के मामले में देशकाल का कैदी नहीं रह गया है। तकनीक ने नगरीय परिवेश में जी रहे इन रचनाकारों को देश-दुनिया के कोने-कोने से जुड़ने की सुविधा मुहैया करा दी है। इसका अर्थ यह हुआ कि यह पीढ़ी जानकारी के स्तर पर अपने से पहली पीढ़ियों से आगे है। इस पीढ़ी को यह समझ है कि भले ही सरकारें अपनी नाकामी छिपाने के लिए आर्थिक मंदी का रोना रोएँ, भारत के आम आदमी का उससे लेना-देना नहीं है क्योंकि उसकी आजीविका तो कृषि पर आधारित है। अर्थतंत्र की समझ ने इस पीढ़ी को इस निष्पत्ति पर पहुँचाया है कि ‘‘भारतीय अर्थव्यवस्था की जड़ें पंचसितारा होटलों, महानगरों और कल कारखानों से ज्यादा खेत-खलिहानों और गाँवों में निहित है। इस देश की संरचना ऐसी है कि हम हर साल किसी-न-किसी क्षेत्र में भीषण बाढ़ और दूसरे क्षेत्र में भीषण अकाल एक साथ झेल लेते हैं। हमारी अर्थव्यवस्था ऐसे झटके प्रायः झेलती रही है।’’ (जयनंदन)। अपने समय की इस समझ को इन कहानीकारों ने अलग-अलग तरह से अभिव्यक्त किया है। 

उत्तर आधुनिक विमर्शों का यह प्रभाव अवश्य है कि आज का कहानीकार किसी निष्कर्ष या समाधान की ओर नहीं जाता क्योंकि वह सब विचारधाराओं के मोह से परे हो गया है। यह समय समाधान का नहीं, समस्याओं के चित्रण और विश्लेषण का है, अर्थात् विमर्श का है। गरीबी हो या बेरोजगारी, भ्रष्टाचार हो या अत्याचार, शोषण हो या बलात्कार - सब समाचार हैं, घटनाएँ हैं। लेखक इनकी परत-दर-परत सीवनों को खोलते हैं, बखिया उधेड़ते हैं। इसीलिए विवरण आज की कथा टेकनीक का केंद्रीय सूत्र है।

आज की कहानी का कैनवास बहुत विस्तृत है। उपभोक्ता संस्कृति के तमाम पहलू उसमें अभिव्यक्ति पा रहे हैं। उपभोक्ता संस्कृति ही जैसे आज के समाज की चित्तवृत्ति है जो शिक्षा-दीक्षा, रोजगार-कैरियर, रिश्ते-नाते, परिवार और परिवेश सबको नई व्याख्या दे रही है। कहानीकार इस चित्तवृत्ति के विविध पक्षों को विविध संदर्भों में रूपायित कर रहे हैं। बनता-बिगड़ता मध्यवर्ग हो, गाँव-शहर की औरतें हों, दलित और आदिवासी हों, सबकी गतिशील छवियों और मनोदशाओं को ये कहानीकार जिस रूप में व्यक्त कर रहे हैं वह पुरानी पीढ़ियों से एकदम अलग है। इस भिन्नता या विशिष्टता का आधार है उत्तरआधुनिक या तथाकथित उदारीकरण की कोख से जन्म ले रहा वह समाज जिसके बीच रहने-जीने को आज का रचनाकार अभिशप्त है। ‘‘लोग अनुभव करते हैं कि इस समय में मानवीय संबंधों की दीर्घकालिक समर्पणशीलता टूट रही है। परंपरागत संबंधों में सबसे टिकाऊ होता था - प्रेम संबंध/स्त्री-पुरुष प्रेम और उसके बाद परिवार के अन्य सदस्यों का परस्पर प्रेम । गाँव-शहर से लेकर दुनिया के बीच बिखरा मानवीय प्रेम | वसुधा को परिवार मानता प्रेम। इस समय में संबंधों को जोड़नेवाले गहरे, सदियों से चले आए, रसायन सूखते जा रहे हैं। xxx संप्रति प्रेमी-प्रेमिकाओं के बीच सौदेबाजी होती है। यौन शुचिता आड़े नहीं आती। युवा पीढ़ी की परस्पर निकटता और फिर जासूसी, अपनी-अपनी चालों की कूटनीतिक गोपनीयता, सब कुछ जायज है। xxx भूमंडलीकरण के कर्ता-धर्ता इसी तरह यंग-नेशन बनाने वाले हैं। xxx कहानियों में ऐसे ही ढलते समाज के ब्यौरे हैं, गवाहियाँ हैं। लेखक पाठकों को सूचनाओं, जानकारियों के सहारे दूर तक ले जाता है। स्थितियों के आस-पास मंडराते हुए लेखक पाठक को स्थितियों के भीतर धँसने के लिए छोड़ता है।’’ (कमला प्रसाद)। विमर्श प्रधान ये कहानियाँ पाठक की आँख में उँगली डालकर सब कुछ दिखाती हैं। सब कुछ को दृश्य के रूप में उपस्थित करना इस समय के ज्यादातर कहानीकारों का लक्ष्य प्रतीत होता है।

इन कहानीकारों में बड़ी संख्या में महिला कथाकार भी शामिल हैं। लेकिन प्रसन्नता की बात यह है कि उन्होंने अपने स्त्री विमर्श को देह से मुक्त करने में सफलता प्राप्त कर ली है। अब वे केवल स्त्री-पुरुष संबंधों के गोपन रहस्यों की जुगाली ही नहीं करतीं, अपनी मुक्ति को समाज की मुक्ति के साथ जोड़कर देखती हैं। जीवन के विविध क्षेत्र और समाज के विविध रूप नई सदी की स्त्री कलम द्वारा सटीकता के साथ अन्वेषित किए जा रहे हैं। साथ ही एक बात और इस सारे कहानी परिदृश्य के बारे में कही जा सकती है कि ज्ञानाधारित समाज की उपज होने के कारण इस पीढ़ी की अधिकतर कहानियाँ अंतःप्रेरणाजन्य प्रतीत नहीं होतीं, निर्माण और आविष्कार जैसी लगती हैं।

इन निर्मितियों और आविष्कारों में भाषा और शिल्प की केंद्रीय भूमिका है। यदि यह कहा जाय कि आज की हिंदी कहानी की भाषा समय की माँग से नियंत्रित हो रही है, तो गलत न होगा। इन कहानियों में एक ओर तो लौकिक और देशज भाषारूप आए हैं तथा दूसरी ओर ज्ञान-विज्ञान की पारिभाषिकता से युक्त भाषा ने कथाभाषा में पैठ बनाई है। विवरणों की प्रामाणिकता के लिए ऐसा करना जरूरी भी है। इस सर्जना में वर्जना के लिए कोई स्थान नहीं है। एक रिपोर्टर की तरह कभी-कभी तो नृशंस और आपराधिक प्रतीत होनेवाले साक्षी भाव के साथ ये कहानियाँ अपने वक्त का ब्यौरा पेश करती हैं। भाषा में खिलंदड़ापन इन विवरणों को वक्रता प्रदान करता है। इस वक्रता की खातिर लेखक कभी प्रतीक और फैंटेसी का प्रयोग करते हैं, कभी मिथकों और लोककथाओं का सहारा लेते हैं, कभी अविश्वसनीय प्रतीत होनेवाले जादूलोक की रचना करते हैं तो कभी अतिशयोक्तियों की शरण लेते हैं। कहानी के भीतर कहानी की प्राचीन भारतीय कथाशैली भी आज के कथाकार को आकृष्ट करती है। इन सब तकनीकों का इस्तेमाल करके नाटक और फिल्म की तरह कहानियों में भी भूत, भविष्य और वर्तमान में आवाजाही की सुविधा प्राप्त की जाती है जिससे एकाधिक देशकाल एक साथ पाठक के समक्ष उपस्थित हो जाते हैं। इसे प्रौद्योगिकों से संपन्न औद्योगिक समाज की कथाभाषा कहा जा सकता है। 

सर्वाधिक आश्वस्त करनेवाली बात यह है कि नई पीढ़ी के कहानीकार संकीर्णताओं से मुक्त है। वे ऐसा देश और समाज चाहते हैं जिसमें धर्म, भाषा, जाति, दल, लिंग और रंग जैसे भेद-भाव न हों। इसीलिए इन सबसे जुड़े हर प्रकार के पाखंड पर ये कहानीकार चोट करते हैं।

‘प्रगतिशील वसुधा’ ने अपने 79 और 80 वें अंक ‘समकालीन विशेषांक 1 और 2’ के रूप में प्रकाशित किए हैं जिनमें 21 वीं शताब्दी के इन आरंभिक वर्षों की प्रतिनिधि कहानियों को सम्मिलित किया गया है तथा इस अवधि के कथा परिदृश्य पर विस्तारपूर्वक गहरी और प्रामाणिक चर्चा की गई है। इन अंकों के अतिथि संपादक जयनंदन हैं। दोनों अंकों में कुल मिलाकर 32 कहानियाँ सम्मिलित हैं जिनमें यहाँ चर्चित विषयवस्तु और संरचना संबंधी प्रवृत्तियों को लक्षित किया जा सकता है। समकालीन कहानी परिदृश्य को जानने और समझने के लिए ‘वसुधा’ के ये दो अंक अनिवार्य सामग्री कहे जा सकते हैं।


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*प्रगतिशील वसुधा-79,80@समकालीन कहानी विशेषांक-1,2/अतिथि संपादक-जयनंदन, प्रधान संपादक - कमला प्रसाद/एम-31, निराला नगर, दुष्यंत मार्ग, भदभदा रोड, भोपाल-462 003/मूल्य: रु. 75(प्रत्येक)/पृष्ठ 368+392.
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सोमवार, 25 मई 2009

आने वाला समय हिंदी का है*



बहुभाषिकता की दृष्टि से भारत संभवतः विश्व भर में सर्वाधिक विविधताओं और विचित्रताओं वाला देश है। हजारों मातृभाषाएँ यहाँ हजारों साल से बोली जाती हैं। भिन्न भाषा भाषियों के बीच परस्पर संवाद के लिए अलग-अलग स्तरों पर कोई-न-कोई भाषा संपर्क भाषा की जिम्मेदारी निभाती दिखाई देती है। विशाल आर्यावर्त की जिस धार्मिक और सांस्कृतिक एकता की प्रायः चर्चा की जाती है उसका आधार संभवतः ऐसी संपर्क भाषा रही होगी जिसके माध्यम से देश भर में पर्यटन, तीर्थाटन और व्यापार-व्यवसाय करनेवाले परस्पर विचार-विनिमय करते रहे होंगे। पहले संस्कृत और फिर हिंदी के जनपदसुखबोध्य रूप ने यह भूमिका निभाई।


भाषा-संपर्क और संपर्क-भाषा की यह प्रक्रिया बहु-भाषी समाज में हजारों-हजार वर्षों से सहज भाव से चल रही थी। जब-जब कोई भी जन जागरण आंदोलन छिड़ा या किसी भी धार्मिक, सामाजिक, राजनैतिक लोकनायक ने संपूर्ण देश को एक साथ संबोधित करना चाहा, तब-तब उन आंदोलनों और लोकनायकों ने उस काल की संपर्क भाषा को अपनाया। यही आवश्यकता 19वीं-20वीं शताब्दी में स्वतंत्रता आंदोलन के नायकों ने अनुभव की और निर्विवाद रूप से हिंदी को व्यापक जनसंपर्क के लिए सर्वाधिक समर्थ भाषा के रूप में पाया और स्वीकार किया। महात्मा गाँधी और उनके समकालीनों ने इसीलिए हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में प्रतिष्ठा प्रदान की। बाद में भारतीय संविधान में भी भारत की बहुभाषिकता को आठवीं अनुसूची के माध्यम से स्वीकार करते हुए हिंदी को अनुच्छेद 343 से 351 तक के द्वारा सैद्धांतिक रूप से भारत संघ की राजभाषा माना गया। राजनैतिक कारणों से भले ही आज तक उन प्रावधानों को व्यावहारिक रूप न प्राप्त हो सका हो, इसमें संदेह नहीं कि संपूर्ण देश में संपर्क भाषा के रूप में हिंदी सहजतापूर्वक व्यावहारिक स्तर पर प्रचलन में है, स्वीकृत है और नई-नई चुनौतियों का सामना करने में सक्षम है।


बहुभाषिक समाज में किसी भाषा का संप्रेषण घनत्व सर्वत्र एक जैसा नहीं होता बल्कि एक भाषा क्षेत्र से दूसरे भाषा क्षेत्र के संपर्क में आने के क्षितिजों पर वह काफी बदलता है। फिर भी भारतीय भाषाओं के दो मुख्य परिवारों के जो अनेक रूप उत्तर और दक्षिण में प्रचलित हैं, भाषा संपर्क की प्रक्रिया में उनके बीच काफी लेन-देन होता रहा है। इतना ही नहीं, दोनों वर्गों में संस्कृत से आए अर्थात् सम-स्रोतीय शब्दों का प्रतिशत बहुत बड़ा है। सम-स्रोतीय शब्दावली का यह प्राचुर्य यह सिद्ध करने के लिए काफी है कि मूलतः आर्य और द्रविड भाषाएँ सजातीय हैं। इस सजातीयता का एक प्रमाण इन सारी भाषाओं में वर्णमाला की लगभग समरूपता में निहित है। तमिल जैसी सबसे छोटी वर्णमाला में भी हिंदी की भाँति ही स्वर और व्यंजन समान क्रम में हैं तथा व्यंजनों को क, च, ट, त, प वर्गों के क्रम में रखा गया है - भले ही चार-चार ध्वनियों के लिए एक लिपि चिह्न हो। आधारभूत शब्दावली और वर्णमाला की इस समानता के कारण लंबे समय से एक संपर्क लिपि या राष्ट्र लिपि की भी आवश्यकता अनुभव की जाती रही है। जिस प्रकार सब भारतीय भाषाओं के अपनी-अपनी जगह सुरक्षित रहते हुए हिंदी उनके बीच संवाद के लिए संपर्क भाषा का काम करती है, उसी प्रकार इन सब भाषाओं की अपनी लिपियों को सुरक्षित रखते हुए यदि संपर्क की सुविधा को ध्यान में रखकर देवनागरी लिपि को भी स्वीकार कर लिए जाए तो अखिल भारतीय भाषिक संपर्क में अधिक घनिष्ठता आ सकती है। राष्ट्रीयता की भावना से पे्ररित भारतीय जनता व्यापक संपर्क की इन प्रणालियों (संपर्क भाषा और संपर्क लिपि) को सहजतापूर्वक स्वीकार कर सकती है, परंतु समय-असमय विकराल रूप में सामने आकर शुद्ध राजनैतिक स्वार्थ ऐसे तमाम प्रयासों में पलीता लगा देते हैं!


भारतीय बहुभाषिकता के संदर्भ में उपस्थित होनेवाले इन सब मुद्दों पर डॉ. राजेंद्र मिश्र ने अपनी कृति ‘संपर्क भाषा और लिपि’ (2008) में विस्तार से चर्चा की हैं। डॉ. राजेंद्र मिश्र कवि, कथाकार, समालोचक और शिक्षक के रूप में समादृत हैं और उनकी 45 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। वे हिंदी भाषा चिंतन के क्षेत्र में भी महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। केंद्रीय हिंदी निदेशालय, मानव संसाधन विकास मंत्रालय की योजना में वे हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए दक्षिण भारत के उच्च शिक्षा और शोध संस्थानों की यात्रा भी कर चुके हैं। साथ ही अखिल भारतीय नागरी लिपि परिषद् से वे सक्रिय रूप से जुड़े रहे हैं। प्रस्तुत पुस्तक उनके व्यापक अनुभव और चिंतन का परिणाम है; और प्रमाण भी।


‘संपर्क भाषा और लिपि’ में संकलित 21 निबंधों में भाषा और लिपि के संबंध में लेखक की विचारधारा भली प्रकार मुखरित हुई है। उनका मानना है कि भारत की भाषा समस्या इतनी उलझ गई है कि भाषा का सवाल भी अब राजनीति से नहीं एक जन चेतना से ही हल हो सकता है। ध्यान देने की बात यह है कि कुछ लोग आज भी यह सोचते हैं कि अंग्रेज़ी ही भारत की संपर्क भाषा हो सकती है। उन्हें यह जान लेना होगा कि कोई भी विदेशी भाषा हमारी समस्याओं का समाधान नहीं कर सकती। राष्ट्रीय एकता, सांस्कृतिक विरासत और सामाजिक संपदा की सुरक्षा के लिए हमें अपनी भाषाओं के साथ ही एक संपर्क भाषा का भी विकास करना होगा। यह भाषा हिंदी ही हो सकती है। प्रायः यह कहा जाता है कि भूमंडलीकरण और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के कारण दुनिया के उन मुल्कों में भी अंग्रेज़ी का महत्व बढ़ रहा है जहाँ दो दशक पहले तक उसका प्रयोग नहीं होता था। लेकिन ध्यान देने की जरूरत है कि ऐसे देशों में उनकी अपनी भाषाओं को उचित स्थान प्राप्त है। इसलिए वहाँ की भाषाओं को अंग्रेज़ी से कोई खतरा नहीं है। वैसे भी किसी अन्य देश की तुलना भारत के बहुभाषिक परिदृश्य से नहीं की जा सकती। डॉ। राजेंद्र मिश्र याद दिलाते हैं कि बहुभाषिक यथार्थ का एक अकाट्य सत्य यह है कि भारत में हिंदी ही एक मात्र ऐसी भाषा है जिसे बहुसंख्यक भारतवासी बोलते हैं, समझते हैं। वही एक से अधिक प्रांतों की भाषा है। आजादी के बाद हिंदी का साहित्य बढ़ा है। उसके कोशों का विस्तार हुआ है। उसमें नए शब्दों का निर्माण हुआ है। आज वह संसार में सर्वाधिक बोली जानेवाली भाषा है। उसका अंतरभारतीय स्वरूप ही नहीं, अंतरराष्ट्रीय रूप भी विकसित हुआ है। एशिया ही नहीं यूरोप और अमेरिका के देशों में भी हिंदी समझनेवाले लोग हैं। भारत के विशाल बाज़ार में प्रवेश के लिए उसे जनसंचार माध्यमों में अपनाया गया है। विज्ञापनों से लेकर अंग्रेज़ी के प्रसारणों तक को व्यापक जनता तक पहुँचाने के लिए हिंदी में ‘डब’ किया जाता है। प्रायः कहा जाता है कि आनेवाले समय में वही भाषाएँ जीवित रहेंगी जो बाज़ार की भाषाएँ होंगी। इस कसौटी पर हिंदी दुनिया के सबसे बड़े बाज़ार की संपर्क भाषा है। अतः उसका भविष्य सुरक्षित है।



कनफ्यूशियस ने शताब्दियों पहले कहा था कि यदि मुझे बिगड़ी हुई चीजों को सुधारना हो तो सबसे पहले मैं भाषा को सुधारूँगा क्योंकि इसके बिना मनुष्य की कल्पना नहीं की जा सकती। राजेंद्र मिश्र भी यही मानते हैं और उन्हें भी अनेक भाषा पे्रमियों की तरह यह लगता है कि आज का मीडिया, खासकर टेलीविजन, भाषा को बिगाड़ रहा है। इसमें संदेह नहीं कि हिंदी को अंधाधुंध अंग्रेज़ीमय बनाने की मुहिम हिंदी को कमजोर बनाती है। परंतु इसका अर्थ यह नहीं है कि हम बहुभाषिक समाज के सामाजिक यथार्थ से आँख मूँद लें और भाषा संपर्क के परिणामस्वरूप होनेवाले भाषा विकास का मार्ग अवरुद्ध कर दें। भाषा मिश्रण और भाषा परिवर्तन की अपनी शर्तें हैं। यदि उन शर्तों के अनुरूप हिंदी में अंग्रेज़ी का मिश्रण हो रहा है तो यह स्वागत के योग्य है क्योंकि इससे उसकी अपने लक्ष्य भाषा उपभोक्ता वर्ग के बीच संपे्रषणीयता बढ़ रही है। भाषा के आधुनिकीकरण को शुद्धतावाद के नाम पर रोका जाना श्रेयस्कर नहीं होगा।


डॉ. राजेंद्र मिश्र ने भारत की भाषा समस्या के विविध पक्षों पर विचार करते हुए भाषाई अस्मिता का सवाल भी उठाया है और प्रयोजनीयता का भी। संपर्क लिपि के रूप में उन्होंने देवनागरी की जमकर वकालत की है और अखिल भारतीय स्तर पर सर्वमान्य नीति के विकास की जरूरत बताई है। लिपि प्रौद्योगिकी के संदर्भ में कंप्यूटर पर हिंदी और देवनागरी के प्रयोग की आवश्यकता, संभावना और सीमा का भी खुलासा किया गया है। ध्यान रहे कि पिछले कुछ वर्षों में इस दिशा में तेजी से परिवर्तन हुए हैं तथा कंप्यूटर पर हिंदी का प्रयोग तीव्र गति से बढ़ा है। अब तो कंप्यूटर को निर्देश देने और ब्राउज़र तक की सुविधा हिंदी में उपलब्ध है। विभिन्न विषयों का ज्ञान-विज्ञान डिजिटल रूप में हिंदी में आ रहा है। भारत में जब व्यापक रूप में कंप्यूटर आरंभ किया गया उस समय सरकार की जल्दीबाजी के कारण भारतीय भाषाओं के लिए अपने फांट की प्रतीक्षा नहीं की गई जिसके कारण काफी अराजकता कंप्यूटर पर हिंदी प्रयोग में देखी जाती है। परंतु अब यूनिकोड की उपलब्धता और कोड परिवर्तकों की खोज ने इस समस्या को बड़ी सीमा तक सुलझा दिया है। इसका अभिप्राय है कि कंप्यूटर पर हिंदी के प्रयोग के लिए अब आसमान दूर-दूर तक खुला है। यहाँ फिर दोहरना होगा कि भविष्य की विश्व भाषाओं के लिए यह भी एक शर्त समझी जाती है कि वे कंप्यूटर की भाषा हों। हिंदी इस कसौटी पर भी खरी उतर रही है। इसलिए आनेवाला समय हिंदी का समय है।


डॉ. राजेंद्र मिश्र ने हिंदी के कल, आज और कल से जुड़े प्रश्नों पर अपनी दो टूक राय ‘'संपर्क भाषा और लिपि’' में लिपिबद्ध की है। उनका यह चिंतन मनन भारत की भाषा समस्या के रूप में फैल धुंधलके को काटने का सार्थक प्रयास है। हिंदी जगत इस कृति का स्वागत करेगा, ऐसा विश्वास किया जाना चाहिए।

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* संपर्कभाषा और लिपि / डॉ। राजेन्द्र मिश्र / २००८ / दिशा प्रकाशन ,१३८/१६, त्रिनगर , दिल्ली - ११००३५ / १५० रुपये / १३६ पृष्ठ [ सजिल्द]
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मंगलवार, 19 मई 2009

अनुवादक का संकट : मातृभाषा बनाम सीखी हुई भाषा [2]


अनुवाद/अनुवादक के संकट के बारे में 'समकालीन भारतीय साहित्य' के एक समीक्षा-लेख के बहाने आरम्भ की गई चर्चा में कुछ और मित्रों/विद्वानों के विचार प्राप्त हुए हैं.


चन्द्रमौलेश्वर प्रसाद जी अंग्रेजी से हिन्दी में शौकिया तौर पर सार-संक्षेप जैसा ''स्वच्छंद'' अनुवाद करते रहते हैं. उन्होंने टिप्पणी की है -



जिस प्रकार लेखक को लेखन की आज़ादी होती है, उसी प्रकार उस लेखन पर समीक्षक/आलोचक को अपना मत जताने की भी आज़ादी होती है। तभी तो अदना सा लेखक महान बन जाता है और अच्छा लेखक भी दब जाता है। रही बात अनुवाद की, यह सही है कि जैसा बच्चन जी चाहते थे कि अनुवादक अपनी मातृभाषा में अनुवाद करे तो वह स्तरीय हो सकता है। लक्ष्य भाषा की आत्मा को पकडना भी अनुवादक का कर्तव्य है। अनुवादक अपनी मातृभाषा से इतर भाषा में अनुवाद कर रहा हो तो अच्छा हो कि प्रो. वेंकटेश्वर जी की राय पर चले और अपना अनुवाद किसी उस मातृभाषा के विद्वान से vetting करा लें। पर इसके लिए शायद उसे कुछ खर्च भी करना पडेगा - पर यह मानसिकता बनी हुई हो कि सब हम लें और आप काम करें तो अनुवाद के स्तर से compromise करना ही पडे़गा। क्या यह compromise उच्चित है, इस पर बहस हो सकती है।


होमनिधि शर्मा अनुभवी अनुवादक और हिंदी अधिकारी हैं ,दोटूक बात कहने के लिए जाने जाते हैं . उन्होंने अपनी प्रतिक्रिया विपत्र से उपलब्ध कराई है -

पंडित जी नमस्‍कार,

' अनुवाद का संकट' भेजने के लिए धन्‍यवाद. श्री जे एल रेड्डी का शुक्रिया कि उन्‍होंने इन कृतियों को न केवल पढ़ा बल्‍िक उस पर सही और सटीक समीक्षा भी की. इस साहस के लिए वे साधुवाद के हकदार हैं क्‍योंकि मैं समझता हूँ समीक्षा के लिए साहस जरूरी है (स्‍मरण होगा कि पिछले वर्ष एक सेमिनार में आपकी सत्राध्‍यक्षता में एक प्रोफेसर साहब मंच से अनाप-शनाप बोले जा रहे थे और मजबूरन मुझे उन्‍हें बीच में रोकना पड़ा था.). वास्‍तव में अनुवाद के क्षेत्र में इस तरह के 'सेल्‍फ प्रोक्‍लेम्‍ड' विशेषज्ञ काफी समय से अपना काम चला रहे हैं. हम अधिकतर उन्‍हें प्रोत्‍साहित करने के चक्‍कर में चुप रह जाते हैं. यह चुप्‍पी एक दिन महँगी पड़ जाती है. 'गोलकोण्‍डा दर्पण' में काव्‍यानुवाद के अनेकों ऐसे उदाहरण मिल जायेंगे. ''नये मामू से नकटे मामू भले' आज सम्‍मानित आधिकारिक विषय विशेषज्ञ हैं. और अधिक न कहते हुए कि बस सभी अनुवादकर्मी इस समीक्षा से सीख लें तो साहित्‍य और सृजन दोनों की श्रीवृद्धि होगी.

होमनिधि शर्मा



डॉ. बी. बालाजी ने अपने विपत्र में अनूदित पाठ की सृजनात्मकता और स्वाभाविकता की ओर ध्यान दिलाया है -


महोदय,
अनुवाद के संकट संबंधी चर्चा रोचक और लाभकारी लगी. इस सिलसिले में.....मुझे भी कुछ कहना है :
१. किसी भी भाषा के साहित्य लेखन में और उसके अनुवाद के कार्य में सृजनात्मकता की अपेक्षा की जाती है.साहित्य के अनुवादक पर बड़ी जिम्मेदारी होती है क्योंकि अनुवाद तो पुनर्लेखन होता है.अनुवाद करते समय बड़ी सतर्कता से मूल भाषा की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि को लक्ष्य भाषा के पाठक के समक्ष इस तरह से रखना होता है कि पढ़ने के बाद उसे पढ़ी हुई सामग्री अपनी लगे. यदि किसी कारण वश ऐसा नहीं हो पाता है तो यह निश्चित है कि अनूदित पाठ में कुछ छूट रहा है.
२. इस में भी कोई दो राय नहीं है कि अनुवाद करना कोई आसान कम नहीं है.लेकिन चुनौती पूर्ण काम ही तो प्रशंसा का पात्र बनता है. समकालीन भारतीय साहित्य (पत्रिका ) में प्रकाशित कुछ अनूदित कहानियों को पढ़कर मुझे लगा कि कुछ छूट रहा है.

३. एक और विशेष बात मैं यहाँ उस समीक्षा की करना चाहता हूँ जिसमें प्रसिद्ध अनुवादक रेड्डी जी द्वारा अनूदित पुस्तक की चर्चा की गई है. यदि समीक्षक अनुवाद को पढ़कर यह कहे कि उसमें कुछ छूट रहा है तो वह कोई अस्वाभाविक बात नहीं कह रहा है. इस बात को समीक्षक दूसरे रेड्डी जी ने उदाहरण देकर स्पष्ट भी कर दिया है.और,उन्होंने जो सुझाव दिया है,वह स्वागत करने योग्य है. उनके सुझाव के अनुसार अनुवादक यदि अपनी अनूदित सामग्री को अपने किसी साथी या सहृदयी मूल भाषा के जानकर से चर्चा करके जहाँ आवश्यकता हो वहाँ थोड़ा बहुत फेर बदल कर भी लें तो कोई बड़ा अनर्थ नहीं होगा,बल्कि अनूदित सामग्री में निखार आजायेगा.उसमें मूल भाषा की सामग्री की तरह स्वाभाविकता आजायेगी.
४. यदि अनुवादक यह समझता हो कि मैं बड़ा विद्वान हूँ,बड़ा अनुवादक हूँ, मुझे किसी अन्य की सलाह की आवश्यकता नहीं है तो वही बात होगी कि "बड़ा भया तो क्या भया जैसे पेड़ खजूर "


- डॉ. बी. बालाजी



और हाँ जिनसे यह चर्चा आरम्भ हुई थी उन शांता सुन्दरी जी का भी विपत्र मिला है. लिखती हैं -

aadaraneey sharma ji,
Mail ke liye bahut dhanyavaad. aur bhee pratikriyayen shaayad aayengee.dilli se vaapas aakar dekhoongi abhee to 4 din baad delhi jaa rahee hun...aag lagee phulvaaree ke liye puraskar grahan karne ke liye.
saath hee ek aur khabar (khush) sunee hai ki Saleem ke mool upanyas ko bhee june mahine me puraskaar diya jane waala hai.
26th ke baad phir aapko likhoongee.
aapne is vishay ko blog me charcha ke liye rakhaa, yeh dekhkar achha laga... bahas me, ho sakta hai mai bhee kood pdoon!!!
shubhkamnaon ke saath...शांता सुंदरी



इसी प्रकार प्रो.एम. वेंकटेश्वर सारी बातों पर अपनी पैनी नज़र गड़ाए हुए हैं .प्रोत्साहन देते हुए कहते हैं -



Adaraneey Rishabh dev jI,
I have seen the attachment and read the views of other readers also.It is a good effort to involve other intellectuals also who can freely ( boldly ) express their genuine views on such matters of academic interests. you have provided a platform. Congratulations.

yrs M Venkateshwar.

देखें और साथी क्या कहते हैं आगे. प्रतीक्षा है.

शनिवार, 16 मई 2009

वे अंतर्द्वंद्वों से अधिक अंतर्संबंधों में यकीन रखते थे



वे अंतर्द्वंद्वों से अधिक अंतर्संबंधों में यकीन रखते थे


"साहित्य संस्कृति का वहन भी करता है | चित्रकला में, शिल्पकला में, मूर्तिकला में, संगीत में (संस्कृति) उतनी मुखर हो कर नहीं आती जितनी साहित्य में | संस्कृति जो भी दिखाई पड़ती है साहित्य में ही मुखर हो कर दिखाई पड़ती है | क्योंकि सब लोग शब्द समझते हैं | सभी लोग रंगों के संकेत नहीं समझते, सभी लोग संगीत के सूक्ष्म संकेत नहीं समझते | लेकिन शब्द के संकेत अधिकतर लोग समझ जाते हैं | इसलिए संस्कृति सब से अधिक साहित्य के माध्यम से आती है | यह संस्कृति के लिए अनिवार्य है और भाषा मात्र जो है, संस्कृति है | भाषा जिस से व्यवहार है | व्यवहार के पीछे कौनसी प्रेरणा है ? छोटे-छोटे व्यवहार के पीछे कौनसी प्रेरणा है ? हम कहाँ से गिनती शुरू करते हैं ? (बाएँ अंगूठे से बाँई कनिष्ठा को स्पर्श करते हुए) यहाँ से गिनती शुरू करते हैं | उसके पीछे कोई न कोई हमारा एक भीतरी संकल्प है | मान लीजिये महत्वपूर्ण यानी सबसे छोटा है महत्त्वपूर्ण | और चाहे जापान देखिये , जर्मनी देखिये, वे सब यहाँ से (तर्जनी से मध्यमा का क्रम दिखाते हुए)शुरू करते हैं | .... तो छोटे से छोटे व्यवहार में भी जब संस्कृति आती है तो भाषा व्यवहार में तो आएगी ही |" ये विचार पंडित विद्यानिवास मिश्र के हैं जो उन्होंने २२ सितम्बर २००२ को लखनऊ में एक साक्षात्कार के दौरान व्यक्त किये थे | साक्षात्कार कर्ता हैं डॉ. कविता वाचक्नवी | यह लंबा साक्षात्कार तब से अप्रकाशित था | अब इसे 'हिंदुस्तानी त्रैमासिक' के पंडित विद्यानिवास मिश्र स्मृति विशेषांक(जुलाई-सितम्बर २००९) में प्रकाशित किया गया है | 'हिन्दुस्तानी' का यह विशेषांक पंडित विद्यानिवास मिश्र पर एक समग्र और प्रामाणिक पुस्तक की भांति संजों कर रखने लायक है तथा अक्षर पुरुष पंडित विद्यानिवास मिश्र के व्यक्तित्व और कृतित्व को सम्पूर्णता के साथ सामने रखता है | पंडित जी पर जो नए पुराने प्रकाशित-अप्रकाशित आलेख यहाँ प्रस्तुत हैं | उनमें स्मृति और समीक्षा दोनों के गहरे रंग शामिल हैं | ' जातीय स्मृति की धूपछाँह' में निर्मल वर्मा ने याद दिलाया है कि कुछ लेखकों का कृतित्व अंतर्द्वंद्वों की तपन से ऊर्जा प्राप्त करता है परन्तु विद्यानिवास जी ऐसे लेखक नहीं हैं क्योंकि वे अंतर्द्वंद्वों से अधिक अंतर्संबंधों में यकीन रखते थे | उन्होंने उनके निबंधों की काव्यात्मकता और रसमयता के साथ उनकी उदासी के तरफ भी ध्यान दिलाया है जिसपर काफी शोध हो सकता है |

डॉ.रामस्वरूप चतुर्वेदी ने संस्कृत अंग्रेजी पर अधिकार और अपनी बोली भोजपुरी से सहज लगाव के बावजूद परिनिष्ठित हिंदी के प्रति विद्यानिवास मिश्र की निष्ठां को उनकी चारित्रिक दृद्धता का स्रोत माना है तो डॉ.रामनरेश त्रिपाठी ने उनके साथ बिताये वक्त को ही याद नहीं किया है उनकी जन्मकुंडली भी पेश करदी है | इस संस्मरण से यह भी पता चलता है की अंतिम समय तक कर्मक्षेत्र में डटे रहे विद्यानिवास जी पत्नी के निधन के बाद काफी टूट गए थे |

डॉ.एस के पाण्डेय ने पंडित विद्यानिवास मिश्र को संस्कृति पुरुष की संज्ञा देते हुए अन्य चर्चाओं के साथ-साथ उनकी कुछ सूक्तियों को भी सूचीबद्ध किया है जैसे "पारिवारिक साहचर्य भाव ही हमारे साहित्य की सबसे बड़ी थाती है |"(आँगन का पंछी) |

'शास्त्र और लोक के बीच' में अशोक वाजपयी ने कहा है और सही ही कहा है कि हिंदी में शास्त्रीय परंपरा का जैसा अधीत और आधुनिक अवगाहन जैसा विद्यानिवास जी ने किया वैसा किसी और ने नहीं | उन्होंने बताया है कि पंडित जी ने महाभारत, कालिदास और जयदेव पर जो लिखा है वह हिंदी आलोचना को सिर्फ हिंदी की ही नहीं समूची भारतीय परंपरा को देख समझ सकने की एक विधा बनता है | इसमें संदेह नहीं की पंडित जी की इस परंपरा को आगे विकसित किये बिना हिंदी आलोचना को समग्र भारतीय संस्कार का प्रतिनिधित्व करने की मान्यता नहीं मिल सकती |

डॉ.रामकमल राय ने पंडित जी को विद्या और विनय के संश्लेष के लिए याद किया है , तो मृदुला सिन्हा ने उनके बहाने भारतीय चिंतन और व्यवहार में नारी की स्थिति पर चर्चा की है और याद दिलाया है कि पंडित जी ने नारी जीवन की तुलना नदी से करते हुए नदी हो जाने में ही नारी जीवन की पूर्ण सार्थकता मानी है | यह भी स्मरणीय है की पंडित जी ने नदी, नारी और संस्कृति तीनों ही के प्रदूषित होने पर चिंता प्रकट की थी| वे सारे प्रदुषण के पीछे इस प्रदूषित दृष्टि को सक्रिय मानते थे कि नारी सहधर्मचारिणी न रहकर केवल शयनीय होती जा रही है |

प्रो.सिद्धेश्वर प्रसाद ने विद्यानिवास जी के भावलोक की यात्रा कराई है और प्रतिपादित किया है की उसमें गलदश्रु भावुकता के लिए कोई स्थान नहीं है क्योंकि यह पाखण्ड, ढोंग या अंधविश्वास का ही दूसरा पक्ष होता है | ध्यान रहे की अंधविश्वास केवल परंपरा के ही नहीं होते आधुनिकता के भी होते हैं | इसीलिए पंडित जी परंपरा और आधुनिकता दोनों से जुड़े अंधविश्वासों के विरुद्ध थे |

सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी ने पंडित जी को हिंदी व लोक संस्कृति के अनन्य उपासक के रूप में देखा है और उनकी कई पुस्तकों के हवाले से यह प्रतिपादित किया है कि उनकी रचनाएं अपनी माटी केप्रति आगाध श्रद्धा, सच्ची सेवा भावना तथा अपनी संस्कृति के प्रति उनकी निष्ठा से ओत प्रोत हैं |

डॉ.सत्यदेव त्रिपाठी ने 'लागौ रंग हरी' व 'बूँद मिले सागर में' के आधार पर विद्यानिवास मिश्र के भक्तिकालीन रसबोध की विवेचना की है तो डॉ.मधुसुधन पाटिल ने मिश्र जी को मिश्र संस्कृति और लोक चेतना के चितेरे के रूप में व्याख्यित किया है | डॉ. सरोज सिंह ने उनके निबंधों में संस्कृति तत्व खोजा है तो प्रेमशंकर के आलेख में उनकी परंपरा विषयक दृष्टि की सूक्ष्म पड़ताल की गयी है | वागीश शुक्ल के आलेख 'पाणिनि की वर्णना की वर्णना' में यह बताया है कि मिश्र जी के अनुसार पाणिनीय व्यकारण की एक व्यवस्था पुनः निर्मित की जा सकती है | इसी क्रम में राजेश्वर प्रसाद ने पंडित जी के संस्मरणों को लेखनी बद्ध किया है तथा डॉ.आशा उपाध्याय ने उनकी सांस्कृतिक चेतना के विविध पक्ष उजागर किये हैं | परंपरा और इतिहास विषयक उनकी दृष्टि का विश्लेषण डॉ.क्षमाशंकर पाण्डेय ने किया है जबकि डॉ.कमलेश कुमार सिंह ने स्वयं को छितवन की छाँह तक सीमित रखा है | और इसमें निहित प्रेम के राग का परिचय दिया है |

पंडित विद्यानिवास मिश्र प्रकृति और संस्कृति में कोई मूलभूत भेद नहीं मानते थे यही कारण है की उनका तमाम संस्कृति चिंतन प्रकृति चिंतन से जुदा हुआ है | इस सन्दर्भ में डॉ. किरण शर्मा ने उनके निबंधों में वनस्पतियों के सन्दर्भों को भली प्रकार रेखांकित किया है |

विशेषांक में विदेश से प्रयाग के सुप्रसिद्ध भाषा विज्ञानी डॉ.उदेनारायण तिवारी के नाम भेजे गए मिश्र जी के चार पत्र भी शामिल हैं | इनमें से ४ दिसम्बर १९६७ को सिएटल से लिखे पत्र में उन्होंने यह बहुत महत्त्वपूर्ण सुझाव दिया था कि क्योंकि भाषा विज्ञान के क्षेत्र में इस समय सबसे ज्यादा हलचल युरोप में है इसलिए कुछ लोगों को भारत से वहां भेजना चाहिए तथा कुछ लोगों को भारत आमंत्रित करना चाहिए | इस पत्र में उन्होंने यह इच्छा भी प्रकट की थी कि उत्तर भारत में भाषा विज्ञान का अच्छा केंद्र स्थापित होना चाहिए | इसी प्रकार २७ फ़रवरी १९६८ के पत्र में उन्होंने दो काम करने की चाह जताई थी - एक तो पाणिनीय पद्धति के प्रयोग का काम भारतीय भाषाओँ के भाषांतर व्याकरण पर किया जाए और दुसरे हिंदी का जनपदीय कोष प्रस्तुत किया जाए | निश्चय ही , यदि विश्वविद्यालय अनुदान आयोग और हिंदी जगत उनके इन दो सपनों को पूरा करने की दिशा में कुछ करके दिखाए, तब तो लगेगा कि हाँ इन्होनें पंडित जी की इच्छाओं का मान रखा है !O
हिन्दुस्तानी (त्रैमासिक) पंडित विद्यानिवास मिश्र स्मृति विशेषांक / जुलाई-सितम्बर २००९ / सम्पादक : डॉ..एस.के.पाण्डेय / हिंदुस्तानी एकेडेमी, इलाहाबाद / मूल्य - ३० रुपये / पृष्ठ : ११२

बुधवार, 13 मई 2009

अनुवादक का संकट : मातृभाषा बनाम सीखी हुई भाषा









३ मई ०९ को प्रतिष्ठित अनुवादक शांता सुन्दरी जी ने लिखा:

आदरणीय शर्मा जी,
आशा करती हूँ कि आप कुशलपूर्वक होंगे.
अप्रैल -मई का 'समकालीन भारतीय साहित्य ' अंक क्या आपने देखा है? अगर नहीं देखा हो तो मैं आपकी दृष्टि को उसमे छपे एक आलेख की ओर आकृष्ट करना चाहती हूँ.उस आलेख को अटैचमेंट मे भेज रही हूँ.पढने के बाद जब भी समय मिले उत्तर मेल द्वारा देंगे तो आभार मानूँगी .
धन्यवाद ,
शांता सुंदरी .

इसका पूरक सन्देश भी उसी दिन प्राप्त हुआ :

मान्य शर्मा जी,
यह बड़े अफ़सोस की बात है कि हमारे ही साथी अनुवादक और तेलुगु भाषी ने इस तरह का लेख लिखा है.यह मै पिछले मेल में रेखांकित करना भूल गयी .
समकालीन....को भी इस प्रकार के आलेखों को सोच समझ कर छापना चाहिए था.
अभिवादनों के साथ...शांता सुंदरी

तीन मई को ही संलग्न सामग्री पर मैंने अपनी राय भेजी:

आदरणीया ,
आपके दोनों मेल्स मिले. कृतज्ञ हूँ.

ज ल रेड्डी जी ने मुद्दे तो काम के उठाए हैं और व र रेड्डी जैसे वरिष्ठ अनुवादक एवं भाषाविद के पाठ को तनिक कडाई के साथ देखा जाना चाहिए ---यह तो मैं भी मानता हूँ. लेकिन इस संभावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि यह दो वरिष्ठ अनुवादकों की आपसी खुन्नस का परिणाम हो!

मैं समझता हूँ कि ऐसे विषय को लिखते-छापते समय यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि कहीं इससे हिंदी में काम करने वाले अन्य लेखक -अनुवादक हतोत्साहित तो नहीं होंगे. यदि वैसा हुआ तो यह हिंदी को नुकसान पहुंचाने जैसा होगा .....जिससे बचा जाना चाहिए.

आपने इस बहाने मुझे याद किया ......यह मेरा सौभाग्य है. परिवार में सबको यथायोग्य स्मरण एवं प्रणाम .

स्नेहाधीन
ऋ .
सादर आपका ..

उसी दिन शांता सुन्दरी जी से यह उत्तर मिला :
आदरणीय शर्मा जी ,
नमस्कार .

तुंरत मेल का उत्तर देने के लिए धन्यवाद.
कभी मिले तो इस आलेख के बारे में मै आपसे और भी कुछ बातें करना चाहूंगी .
आपको तो लगभग हर हफ्ते ...स्वतंत्र वार्ता के माध्यम से ...याद करती हूँ . आप जो लिखते हैं वह समीक्षा कहलाती है .ज .ल रेड्डी के एकतरफा 'विद्वेष ' से भरे मूल्यांकन को मै समीक्षा मानती नहीं .

और एक बात...भाषा को...चाहे सीखी हूई भाषा हो या मातृभाषा हो ...निरंतर परिष्कृत करते ही रहना पड़ता है ....यह मेरा मानना है.मातृभाषा में भी लोग गलतियाँ कर बैठते है .

खैर ...अब इस बहस को यहीं समाप्त करती हूँ .सलीम जी की किताब के अनुवाद के लिए मुझे राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग द्वारा जो पुरस्कार मिला उसे लेने मै १८ को दिल्ली जा रही हूँ .२१ को पुरस्कार वितरण समारोह होगा .फिर २५ को मै वापस हैदराबाद आ जाऊंगी .

फिर एक बार मेल के लिए धन्यवाद...
शुभकामनाओं के साथ...
-शांता सुंदरी

शांता सुंदरी जी ने तो अपनी ओर से बहस बंद कर दी. और मुझे बहस करनी आती नहीं . लेकिन कई अन्य मित्रों ने इस बीच संदर्भित आलेख की चर्चा उठाई तो १३ मई को मैंने कुछ और मित्रों को अवलोकनार्थ वह आलेख यह लिख कर भेजा :

शांता सुंदरी जी के सौजन्य से प्राप्त ''समकालीन भारतीय साहित्य'' में प्रकाशित यह आलेख अनुवाद के संकट के बारे में कई सवाल उठाता है . कृपया देखें.

देखा तो कयों ने होगा. मन में प्रतिक्रिया भी उठी होगी.
लेकिन दो विद्वानों ने तुंरत लिखित टिप्पणीभेजी.१३ मई को प्रो.एम.वेंकटेश्वर ने लिखा :

Adaraneey Rishabhadev ji

I am thankful to you for sending a very valuable article by JL Reddy ( Anuvwad ). I am immensely impressed by the factual analysis done be the Mr Reddy, of two of the translations of Mahamahim Vijaya Raghav Reddy ji.

In fact I have been always saying this to many people and specially to you, I have expressed my anguish on the same lines, just as JLREDDY has written.. These are exactly my views, written by another person. If I were to write/evaluate the translation works of so called Telugu great translators, who have been receiving awards ) on the basis of their defective translations.Vetting is essential, which is always ignored. Creativity is essential quality, which people do not agree.Evaluation of translation is mandatory.

At the end I am thankful to you for this intellectual interaction.

With good wishes,
Yrs
-M Venkateshwar

इसी प्रकार डॉ.सच्चिदानंद चतुर्वेदी ने अपने मेल द्बारा निम्नलिखित विचार व्यक्त किये :

आदरणीय शर्मा जी,
नमस्कार.

आलेख पढ़ लिया .
कुछ बातें कड़वी ज़रूर हैं पर सही हैं . लेकिन एक सवाल उठता है कि क्या सीखी गई भाषा में सफल अनुवाद नहीं किया जा सकता. मैक्समूलर की मातृ भाषा इंग्लिश नहीं थी . गिरीश कर्नाड की मातृ भाषा कोंकणी थी पर उन्होंने अनुवाद तो छोडिये कन्नड़ में सृजनात्मक लेखन तक किया है . संस्कार के लेखक कन्नड़ भाषी हैं पर एक सफल अनुवादक भी हैं .

निष्कर्ष यह है कि कोई भी भाषा जो अच्छी प्रकार से सीखी गई है में अनुवाद हो सकता है . यह मेरा मत है . इस पर बहस की पूरी गुन्जाइश है .

धन्यवाद
चतुर्वेदी

चर्चा आगे भी चलती रह सकती है.

शुक्रवार, 8 मई 2009

आदर्श नारी का मुखौटा नोंचकर चल पडूँ !*


इंदिरा शबनम ‘इंदु’ काफ़ी समय से सिंधी, उर्दू और हिंदी में कविताएँ और कहानियाँ लिखती रही हैं। उनकी ग्यारह पुस्तकें इन भाषाओं में प्रकाशित हैं, जिनमें से दस को किसी-न-किसी पुरस्कार या सम्मान से नवाज़ा गया है अभिप्राय यह है कि सिंधी भाषी हिंदी रचनाकार के रूप में उन्हें पर्याप्त स्वीकृति और प्रशंसा प्राप्त हुई है।

अपने नए कथा-संग्रह ‘ज़मीर अपना-अपना’ (2008) में इंदु ने तेरह कहानियाँ प्रस्तुत की हैं। इन कहानियों में उन्होंने समाज की ऐसी विकट और विद्रूप सूरत को बेपरदा किया है जिसके बारे में सोचकर भी साधारण पाठक की रूह काँप उठती है। लेखिका ने इन स्थितियों को वास्तविक जीवन की स्थितियाँ कहा है, लेकिन पाठक को अनेक स्थलों पर अतिरंजना का आभास हो सकता है।

अतिरंजित यथार्थ की दृष्टि से 'चंदू' शीर्षक कहानी का उल्लेख किया जा सकता है। इस कहानी को एक पचहत्तर वर्षीय वृद्ध की स्मृतियों के रूप में प्रस्तुत किया गया है। कुछ ऐसी फ़िल्मी अथवा नाटकीय घटनाएँ संयोजित की गई हैं कि अपनी युवावस्था में इस भले आदमी ने जिस स्त्री के साथ चोरी छुपे प्रेम संबंध स्थापित किया, उसी की लड़की से विवाह करके संतानें पैदा की। अधेड़ उम्र में फिर उसी स्त्री अर्थात् सास के विधवा होने पर पुनः पुराने प्यार को दोहराया। इतना ही नहीं, पचहत्तर वर्ष की आयु में पत्नी की मौसी से भी इश्क फर्माया। इन सब हालात में पत्नी का तो स्वर्ग सिधार जाना स्वाभाविक ही था। लेकिन पाठक को लगता है कि वह स्वयं क्यों स्वर्ग नहीं सिधार गया। कहा जा सकता है कि ऐसी कहानी के माध्यम से समाज की और पुरुष मानसिकता की एक विकृति को उजागर किया गया है। लेकिन विकृति का यह चित्रण ऐसी मानसिकता के मूल में निहित मनोवैज्ञानिक और सामाजिक कारणों की पड़ताल करता प्रतीत नहीं होता।

ऐसी ही भीषण विकृति का विस्तार ‘दो माँ’ शीर्षक कहानी में भी दिखाई देता है। येखड़ा जेल में उम्र कैद काट रही पार्वती दीदी का सात्विक चेहरा देखकर किसी को भी उनके अपराध की गंभीरता का एहसास नहीं होता। निर्दोष और पाप रहित चेहरा। बड़ी-बड़ी पाप मुक्त आँखें। लेकिन उन्होंने हत्या जैसा अपराध किया था। पाठक की अदालत में ऐसे अपराध को अपराध नहीं माना जाएगा। पार्वती का पति वासना लोलुप वहशी भेड़िया था जिसकी भूख पत्नी की देह से शांत नहीं होती थी। वह घर में अन्य स्त्री के साथ ही व्यभिचार नहीं करता था बल्कि अपनी पु़त्री जानकी से बलात्कार में भी लिप्त हो गया था। (पता नहीं क्यों बहुत सारे लेखक - लेखिका बलात्कार की शिकार महिलाओं का नाम जानकी या सीता रखते हैं जब कि इससे पाठकों की सांस्कृतिक भावना को ठेस पहुँचती है!) खैर ऐसे नर पशु की हत्या करके पार्वती ने कुछ बुरा नहीं किया था। काश उसने हत्या के इस मूल कारण को न्यायालय में उद्घाटित कर दिया होता तो भारतीय दंड संहिता के प्रावधानों के अंतर्गत उसे अपराध मुक्त माना जा सकता था। लेकिन लेखिका ने ऐसा नहीं किया क्योंकि उसे परिवार की तथाकथित मर्यादा और बेटी के सम्मान की चिंता अधिक थी। शायद यही स्त्री जीवन की वह विडम्बना है जो पुरुष को और अधिक पशु बनने के लिए प्रेरित करती रहती है।

लेखिका ने आत्मकथ्य में साफ कहा है कि ‘‘मैं स्त्रीवादी होने में कतई विश्वास नहीं रखती पुरुष की बेहद इज़्ज़त तथा आधार विश्वास रखती हूँ। (शायद वाक्य में कुछ मुद्रण दोष है)| अपने भाइयों, पति, बेटे से बेहद प्यार, इज़्ज़त, इबादत की भावना है मेरे भीतर। हाँ, बचपन से लेकर स्वावलंबी, अपने मूल्यों पर और अपने अस्तित्व को कायम रखने का जज़्बा हूँ। (फिर मुद्रण दोष)। नारी केवल एक शरीर नहीं है,बहन, बेटी, और एक अच्छी दोस्त रह सकती है। स्त्री होना परेशानी, पशेमानी, शर्मसारी, अबला, बिचारी, अनचाहा बोझ नहीं है। गर्व, नाज़ की बात है। वैसा जीवन जीना चाहिए। स्त्री होने की सब मर्यादाएँ पालन करके, हो सके तो समस्त परिवार, समाज, विश्व को साथ लेकर चलने की शक्ति परमात्मा ने नारी को सौगात के रूप दी है। अपनी इस सौगात को शान से उपयोग करना चाहिए।’’

कहना न होगा कि स्त्री विमर्श की यह सीमित व्याख्या है और मर्यादा के पारंपरिक दबाव के समक्ष कुछ ज्यादा ही दब गई है। लेकिन पुरुष जाति के प्रति इतना सम्मान रखनेवाली लेखिका यदि व्यभिचारी और परस्त्रीगामी ही नहीं, माँ और बेटी जैसे संबंधों को कलंकित करनेवाले चरित्र रच रही है, तो यह निश्चत ही कहीं न कहीं पुरुष की तथाकथित महानता के प्रति मोहभंग का सूचक है।

जीवन के घात-प्रतिघात मनुष्य को अक्सर नियतिवादी बना देते है। इंदिरा इंदु के पात्र भी इसका अपवाद नहीं हैं। यही तो कारण है कि ‘दहलीज’ की ‘मैं’ कभी भी घर की चैखट न लांघ पाई थी। भले ही उसकी इच्छा बहुत बार हुई कि ‘‘आदर्श नारी का मुखौटा नोंचकर चल पडूँ | ऐसी डगर पर जहाँ मैं भी आजादी की चंद सांसें ले सकूँ।’’ पर ऐसा कभी हुआ नहीं। ‘विक्षिप्त’ मूल्यों की गलत समझ का नतीजा है जो संस्कारी पिता के पाप बोध से ग्रस्त बच्चे को छोटे बच्चों के बलात्कार और हत्या का अपराधी बना देता है।

संग्रह की शीर्षक कहानी ‘ज़मीर अपना-अपना’ भी पारिवारिक रिश्तों के बिगड़ने की कहानी है। पे्रम और विवाह का द्वंद्व तथा उचित-अनुचित का अविवेक इस कहानी के केंद्र में है। इस कहानी की ‘मैं’ को अपने सही होने का पूरा यकीन है, भले ही उसे कोई गलत समझता रहे। वह अपनी अंतरात्मा की आवाज को सर्वोपरि मानती है। अब यह अलग बात है कि एक व्यक्ति की अंतरात्मा जिसे सही मानती है, दूसरे की अंतरात्मा को वही गलत लगता हो। यहीं प्रश्न उठता है कि ऐसी स्थिति में करणीय क्या है ? वह जो एक की अंतरात्मा का सत्य है और दूसरी का विरोधी, या कोई ऐसा धरातल भी हो सकता है जहाँ अंतरात्माओं का पारस्परिक विरोध थम जाए ? यदि सच में ऐसा कोई धरातल है तो वही करणीय है, धर्म है, क्योंकि सच्चा धर्म अविरोधी होता है।

अंततः यह कहना आवश्यक है कि लेखिका ने इन कहानियों के माध्यम से कुछ बेहद बुनियादी और इंसानी सवाल उठाए हैं| ‘बेघर’ के एक ऐसे ही अंश के साथ इस चर्चा को समेटा जा सकता है -

‘‘मेरे मन में अब बार-बार ही सवाल उठता है। क्या अब इस दुनिया में सच्चाई, भरोसा, रिश्ते, अपनापन कुछ भी नहीं बचा है ? अगर बचा है, तो यह एक अदद घर की तलाश इतने सारे लोगों में क्यों आ गई है ? कहीं वे अपना घर छोड़कर न जाने क्या पाने, क्या हासिल करने घरों से भागते हैं ? लुटते-लुटाते रहते हैं। यह एक बहुत ही, समाज का, ललकार से भरा हुआ प्रश्न मेरे मन के अंदर खलबली मचा रहा हैं। मैं इन सवालों के जवाब खुद ढूँढ़ने की कोशिश कर रही हूँ।’’

वस्तुतः लेखिका ने पाठकों को ऐसे सवालों से दो-चार कराने के लिए ही ये कथाएँ चुनी और बुनी हैं। आशा है, हिंदी जगत् इनकी ओर ध्यान देगा।

*ज़मीर अपना-अपना (कथा-संग्रह)/ इंदिरा शबनम् इंदु/ 9 ब ‘मयूरबन’ अपार्टमेंट, 1100 शिवाजीनगर, मॉडल कॉलोनी, पुणे - 411 016/ 2008/ मूल्य रु. 75/ पृष्ठ 86 (सजिल्द)|