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सोमवार, 23 अप्रैल 2012

आंध्र के महान भक्त कवि


भूमिका

भारतीय साहित्य की श्रेष्ठतम अभिव्यक्तियाँ भक्ति साहित्य में सुरक्षित हैं. तेलुगु साहित्य का इसमें अप्रतिम योगदान रहा है. यों तो हिंदी के पाठक तेलुगु के भक्ति साहित्य से कुछ सीमा तक परिचित हैं लेकिन यह परिचय उतना प्रगाढ़ नहीं है जितना कि होना चाहिए. इस प्रगाढ़ता के लिए आवश्यक है कि तेलुगु के विभिन्न भक्त कवियों के व्यक्तित्व, जीवन और कृतित्व को अधिक निकट से जाना जाए तथा उससे अंतरंगता स्थापित की जाए. यह तभी संभव है जब इन रचनाकारों के विषय में हिंदी में विस्तृत और प्रामाणिक अध्ययन उपलब्ध हों. ‘’आंध्र के महान भक्त कवि’’  शीर्षक प्रस्तुत दो-खंडीय ग्रंथमाला इस दिशा में एक अत्यंत महत्वपूर्ण प्रयास है. इसके पहले खंड में अन्नामाचार्य, रामदास और क्षेत्रैया तथा दूसरे खंड में पोतना, मोल्ला और वेंगमाम्बा के जीवन परिचय से लेकर उनके भक्ति और साहित्य के क्षेत्र में प्रदेय तक पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है. इस ग्रंथ को पढ़कर भक्ति आंदोलन की हमारी समझ वास्तव में अधिक उदात्त और समृद्ध हो सकती है.

इस ग्रंथ के रचनाकार एस. शंकराचार्लु (१९४२) हिंदी और तेलुगु भाषा और साहित्य के समर्पित मौन साधक हैं. उन्होंने भ्रमरगीत सार और बिहारी सतसई जैसी महान हिंदी काव्यकृतियों  का तो तेलुगु में अनुवाद किया ही है, तेलुगु के युग प्रवर्तक महान साहित्यकार वेमना के साहित्य का भी हिंदी में अनुवाद किया है. इस प्रकार वे हिंदी और तेलुगु इन दोनों भाषाओँ पर अपना अधिकार प्रमाणित कर चुके हैं. उभयमुखी अनुवाद कर्म के बाद अब वे तेलुगु भक्ति साहित्य के अपने अध्ययन का सार इस दो-खंडीय ग्रंथमाला के रूप में हिंदी जगत को समर्पित कर रहे हैं जिससे इस विषय संबंधी बड़े अभाव की पूर्ति होना सुनिश्चित है.

तेलुगु पद साहित्य के प्रवर्तक अन्नमाचार्य के संबंध में इस ग्रंथ में जहाँ एक ओर लोकप्रचलित किंवदंतियों पर चर्चा की गई है वहीं जनसमाज को उनकी देन पर भी भली प्रकार प्रकाश डाला गया है. दूसरे भक्त कवि रामदास को आंध्र प्रदेश के जयदेव और लीलाशुक माना जाता है. कुछ लोग उन्हें कबीर का शिष्य भी मानते हैं. उनका जीवन चरित किसी दंतकथा की तरह पूरे आंध्र प्रदेश में प्रचलित है. लोगों का विश्वास है कि उन्हें तानाशाह की जेल से स्वयं राम ने मुक्ति दिलाई तथा उनके हठ के सामने काल को भी झुकना पड़ा – उनके मृत पुत्र को जीवन प्रदान करना पड़ा. ऐसी ही परम प्रेम रूपा भक्ति तीसरे कवि क्षेत्रैया की भी है. उन्होंने कृष्ण का आदेश पाकर विभिन्न स्थानों पर घूमघूमकर प्रेम तत्व का प्रचार किया. कहते हैं कि उन्होंने साक्षात लक्ष्मी के भी दर्शन किए. अभिप्राय यह है कि प्रस्तुत ग्रंथमाला के पहले भाग के तीनों भक्त कवियों के साथ अनेक चमत्कार, लोकविश्वास और दंतकथाएँ जुड़ी हुई हैं. इन तीनों की ही भक्ति माधुर्य भाव से परिपूर्ण है और संपूर्ण समर्पण का प्रतीक है. तीनों ही संगीत के सिद्ध आचार्य हैं. दरअसल भक्ति साहित्य को जन जन तक पहुंचाने के लिए सभी भाषाओं के साहित्यकारों ने संगीत का सहारा लिया है. साथ ही नाद ब्रह्म में लीन होकर परमानंद का भी अनुभव किया है. स्मरणीय है कि अन्नामाचार्य ने अपने भक्ति संगीत के माध्यम से लोक साहित्य को कवित्व की सिद्धि प्रदान की और सामाजिक आदर दिलवाया. इसी प्रकार रामदास ने अपने कीर्तनों के माध्यम से एक प्रकार से भजन मंडली की नींव रखी और बारह वर्ष की कठोर जेल यातनाओं को सहते हुए एक तरफ आर्ति तथा दूसरी तरफ उपालंभ के स्वरों से माधुर्य भक्ति को अभिमंडित किया. जब वे राम से निराश होकर सीता के समक्ष जाते हैं तो पाठक को बरबस तुलसी की ‘विनयपत्रिका’ याद आ जाती है. भक्ति संगीत की इस उच्छल धारा को चरमोत्कर्ष पर पहुंचाया क्षेत्रैया ने. उनके पद साहित्य, संगीत और नृत्य की त्रिवेणी हैं जिसमें काम से अध्यात्म की ओर जाने का उनका अपना जीवनानुभव झलक रहा है.

अन्नमाचार्य, रामदास और क्षेत्रैया की त्रयी के बाद आते हैं महान राम भक्त पोतना जिन्होंने ‘भागवत’ का अनुवाद तेलुगु में किया. स्मरणीय है कि ‘वाल्मीकि रामायण’ का आंध्रीकरण भास्कर और रंगनाथ आदि अनेक कवियों ने किया है तथा ‘महाभारत’ के आंध्रीकरण का श्रेय नन्नैया, तिक्कन्ना और एर्राप्रगडा को जाता है. इसी प्रकार ‘भागवत’ को आंध्र में घर घर पहुंचाने का श्रेय पोतना को जाता है. यह भी उल्लेखनीय है कि इन भक्त कवियों ने भाषा के सरल सहज लोकप्रिय मुहावरे को अपनाया. यही कारण है कि पोतना कृत ‘भागवत’ की उक्तियाँ आंध्र प्रदेश में जन सामान्य में आज भी प्रचलित हैं. कहा जाता है कि पोतना ने कविता रुपी दूध में भक्ति रूपी शक्कर मिलाकर ऐसी मिठास प्रदान कर दी कि हर कोई उसका आस्वादन करना चाहता है. प्रस्तुत ग्रंथमाला के दूसरे भाग में लेखक ने विस्तार से पोतना के योगी, विरागी, भक्त और चिंतक रूप का दर्शन कराया है. वे जब गरीब किसान होते हुए भी राज्याश्रय को अस्वीकार करते हैं तो पाठक को सहज ही ‘संतन कहा सीकरी सों काम’ वाले फक्कडपन की याद आ जाती है.

इस ग्रंथमाला का दूसरा खंड इस दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है कि इसमें दो महान महिला भक्तों के चरित और प्रदेय का भी मूल्यांकन किया गया है. ये हैं मोल्ला और वेंगमाम्बा. यह भी ध्यान खींचने वाली बात है कि मोल्ला को स्त्री के ही रूप में नहीं बल्कि निम्नवर्णीय होने के नाम पर भी पुरुषसत्तात्मक समाज की उपेक्षा का शिकार होना पड़ा. अपने जातिगत अहंकार में उच्च वर्ण वालों ने जब तुलसी को ही नहीं बक्शा तो मोल्ला को कैसे छोड़ देते? शूद्रकाव्य कहकर उनकी रचनाओं का तिरस्कार किया गया लेकिन इस अवहेलना से मोल्ला किंचित भी हतोत्साहित नहीं हुईं, उन्होंने सरल, सुबोध तेलुगु गद्य-पद्य में रामकथा गाई जो लोक जीवन के अनुभवों और लोक तत्वों से संयुक्त होकर अन्य रामायणों की तुलना में सर्वथा विशिष्ट रचना बन गई. सहज पंडिता मोल्ला ने अपनी कल्पना शक्ति द्वारा राम कथा में जो मौलिक उद्भावनाएँ की हैं उनके मूल में एक ओर जहाँ स्त्री का अपना अनुभव संसार है वहीं दूसरी ओर राम को अपना मानने का परम वैष्णव भाव भी है.


पाठकों को बार बार मीरा के बचपन, वैवाहिक जीवन, कृष्ण भक्ति और सघर्ष की याद आएगी जब वे तरिगोंड वेंगमाम्बा के भक्त चरित्र को पढ़ेंगे. वेंकटेश स्वामी की इस परम भक्त को बचपन से ही भगवत्प्रेम की अनुभूति हो गई थी. इस भगवत्प्रेम को उन्होंने जब गीत, संगीत और नृत्य के माध्यम से व्यक्त करना आरंभ किया तो इनके पिता को यह सब रास नहीं आया. उन्होंने पहले तो वेंगमाम्बा को गृह कार्यों में फँसा दिया और बाद में उनकी शादी कर दी. मीरा की तरह वेंगमाम्बा भी बहुत कम समय में ही विधवा हो गईं परंतु उनकी दृष्टि में वह व्यक्ति तो उनका पति था ही नहीं. वे वेंकटेश स्वामी को ही अपना पति मानती थीं इसलिए पति के निधन पर उन्होंने सुहाग चिह्न नहीं त्यागे. ऐसी विद्रोहिणी स्त्री का सब ओर से विरोध होना ही था. परिणामस्वरूप उन्हें भी मीरा की भाँति घर छोड़ना पड़ा. उनके साथ भी कई तरह की चमत्कारी घटनाएं जुड़ी हुई हैं जो यह सूचित करती हैं कि वे जनप्रचलित कथाओं की नायिका हैं.

अंत में यह कहना भी जरूरी है कि आंध्र के इन सभी महान भक्तों ने भक्ति का चरमलक्ष्य ईश्वर की अनुकंपा और सायुज्य को उपलब्ध करना माना है. इसके लिए शरणागति और माधुर्य भाव को इन सभी ने अपने जीवन में चरितार्थ किया. परंतु ध्यान देने की बात यह है कि ये सारे भक्त केवेल व्यक्तिगत मुक्ति की एकांतिक साधना करते नहीं दीखते बल्कि अपने साहित्य को संगीत के माध्यम से लोक कल्याण के निमित्त लोक हृदय में प्रवाहित करते दिखाई देते हैं. ये छहों रचनाकार भाषा के लोकसिद्ध रूप के सहज प्रयोक्ता रचनाकार हैं और जन सामान्य तथा जन भाषा को प्रतिष्ठा प्रदान करनेवाले साहित्यकार हैं. ये सभी मनुष्य और मनुष्य के बीच किसी भी प्रकार के भेदभाव को अमानुषिक मानते हैं, जाति, वर्ण, लिंग और जन्म के आधार पर किसी को भी ईश्वराराधन से वंचित करना इन्हें स्वीकार नहीं. यदि यह कहा जाए कि तेलुगु के इन महान भक्त कवियों ने आंध्र प्रदेश में भक्ति भावना के लोकतंत्र की स्थापना की तो यह अनुचित न होगा.

लेखक एस. शंकराचार्लु ने अत्यंत श्रद्धा और श्रमपूर्वक यह ग्रंथ तैयार किया है जिसके लिए वे अभिनन्दन के पात्र है. आशा है, हिंदी जगत में उनके इस कार्य को समुचित सम्मान और यश प्राप्त होगा!

शुभकामनाओं सहित
22 अप्रैल , 2012                                                                                            - ऋषभ देव शर्मा 

सोमवार, 16 अप्रैल 2012

'देहरी' और 'कविता का समकाल' लोकार्पित

31 मार्च 2012 को भास्कर ऑडिटोरियम, हैदराबाद में एक विचित्र प्रतीत होने वाला आयोजन हबड-तबड में संपन्न हुआ. अर्थात 30 पुस्तकों का एक साथ लोकार्पण. 

यार लोगों ने कहा - यह तो पुस्तक-मेले की तर्ज़ पर लोकार्पण-मेला हो गया! लोकार्पित पुस्तकों में से ज़्यादातर डॉ अनंत काबरा की थीं या उनके बारे में थीं. 

इस विचित्र समारोह में हमारी भी दो बहुप्रतीक्षित किताबें रिलीज़ हो गईं - 
1.देहरी - जिसमें पिछले वर्षों लिखी अपुन की कुछ स्त्रीपक्षीय कविताएँ हैं  और
2.कविता का समकाल - जिसमें समकालीन कविता पर कुछ समीक्षात्मक आलेख हैं.


शनिवार, 14 अप्रैल 2012

लोकार्पण : अजंता की तेलुगु काव्यकृति 'स्वप्न लिपि' का हिंदी अनुवाद

स्व. अजंता की  तेलुगु काव्यकृति 'स्वप्न लिपि' के हिंदी अनुवाद का लोकार्पण करते हुए प्रो. ऋषभदेव शर्मा . 
साथ में दाएँ अनुवादक प्रो. पी. आदेश्वर राव तथा बाएँ  'संकल्य' के संपादक प्रो. टी. मोहन सिंह.
अजंता तेलुगु के उन विलक्षण कवियों में गिने जाते हैं जिन्हें प्रथम कविता के प्रकाशन से ही अलग पहचान मिल जाती है. १९२९ में जन्मे और १९९९ में मृत्यु को प्राप्त हो चुके अजंता को निधनोपरांत २००३ में साहित्य अकादेमी ने पुरस्कृत किया. कहीं अज्ञेय, कहीं मुक्तिबोध तो कहीं राजकमल चौधरी का स्मरण कराने वाले इस कवि के पुरस्कृत काव्य संकलन 'स्वप्न-लिपि' का हिंदी अनुवाद अभी तक प्रतीक्षित था. इस प्रतीक्षा से मुक्ति दिलाने का काम किया है प्रो. पी. आदेश्वर राव ने. शुक्रवार १३ अप्रैल २०१२ को   पुस्तक आंध्र प्रदेश हिंदी अकादमी के सभागार में एक समारोह में  इस पुस्तक को लोकार्पित करने का सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ. यद्यपि प्रो. आदेश्वर राव का काव्य-भाषा-संस्कार छायावादी और तत्समीय है तथापि इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि उन्होंने एक अपेक्षाकृत कठिन कवि के अनुवाद का जोखिम उठाया है. मैं उनका अभिनंदन करता हूँ क्योंकि हिंदी पाठकों को उन्होंने एक लगभग अपरिचित हस्ताक्षर से परिचित कराया है.

इस अवसर पर दिए गए मेरे लोकार्पण-भाषण को सुपुत्र कुमार लव महोदय ने साउंड-क्लाउड पर सहेज दिया है जिस तक इस लिंक पर क्लिक करके पहुंचा जा सकता है - 

रविवार, 8 अप्रैल 2012

व्यक्तिगत संपर्क सह व्याख्यानमाला उद्घाटित





दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के दूरस्थ शिक्षा  विभाग में 
व्यक्तिगत संपर्क व्याख्यानमाला उद्घाटित

हैदराबाद, 8 अप्रैल, 2012 ।


आज यहाँ खैरताबाद स्थित दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा में उच्च शिक्षा  और शोध संस्थान के  दूरस्थ शिक्षा  विभाग के तत्वावधान में हिंदी भाषा और साहित्य के स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के अंतर्गत व्यक्तिगत संपर्क सह व्याख्यानमाला कार्यक्रम का उद्घाटन संपन्न हुआ। आठ दिन तक चलने वाले  व्याख्यानमाला कार्यक्रम का परिचय देते हुए विभागाध्यक्ष प्रो. ऋषभदेव शर्मा ने बताया कि दूरस्थ माध्यम के छात्र आंध्र प्रदेश के दूरदराज इलाकों से आते हैं जिन्हें इस प्रकार के कार्यक्रमों में गहन प्रशिक्षण प्रदान किया जाता है ताकि वे पाठ सामग्री के सूक्ष्म पहलुओं से परिचित हो सकें। 

उद्घाटन दीप दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा-आंध्र के सचिव एस.के.हलेमनी ने प्रज्वलित किया तथा आगंतुकों का स्वागत दूरस्थ शिक्षा निदेशालय के सहायक निदेशक डॉ. पेरिसेट्टी श्रीनिवास राव ने किया.  उन्होंने बताया है कि यह संपर्क-व्याख्यानमाला हैदराबाद और विजयवाडा में एक साथ चलाई जा रही है तथा इसमें विषय विषेषज्ञ के रूप में डॉ. एम. वेंकटेश्वर, डॉ. ऋषभदेव शर्मा, डॉ. साहिराबानू, डॉ. मृत्युंजय  सिंह, डॉ. जी. नीरजा, डॉ. गोरखनाथ तिवारी, डॉ. पूर्णिमा शर्मा एवं डॉ. पी. श्रीनिवास राव साहित्य, भाषाविज्ञान, इतिहास एवं काव्यशास्त्र आदि विषयों पर स्नातकोत्तर छात्रों को संबोधित करेंगे। के. नागेश्वर राव के धन्यवाद के साथ समारोह का समापन हुआ। [प्रस्तुति - डॉ पेरिसेट्टी श्रीनिवास राव]

शुक्रवार, 6 अप्रैल 2012

''उपन्यास, भाषा और स्वातंत्र्य चेतना'' [डॉ. पूर्णिमा शर्मा की पुस्तक]

''उपन्यास, भाषा और स्वातंत्र्य चेतना'' 

 [डॉ. पूर्णिमा शर्मा की पुस्तक]

पुस्तक    -    उपन्यास, भाषा और स्वातंत्र्य चेतना (2011)
प्रकाशक -     लेखनी, सरस्वती निवास, यू-9, सुभाष पार्क,
                      नज़दीक सोलंकी रोड, उत्तम नगर, नई दिल्ली - 110 059 (भारत )
मूल्य      -     650 रुपए
आई एस बी एन -  978-81-920827-3-8
कुल पृष्ठ  -    284
आकार   -     डिमाई 
आवरण  -    क्लॉथ (हार्ड बाउंड)
केटेगरी   -    समीक्षा 

पुस्तक के बारे में 

स्वातंत्र्य चेतना किसी व्यक्ति, समूह, समुदाय, समाज अथवा राष्ट्र की प्रतिबंधहीन आत्मनिर्णय के अधिकार के प्रति सजगता और जागरूकता का नाम है, जिसमें विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना के संबंध में स्वेच्छापूर्वक चयन का अधिकार तो शामिल है ही, अपने ऊपर अपने से इतर किसी भी अन्य शक्ति या सत्ता के नियंत्रण अर्थात पराधीनता से मुक्त होने की सजग चेष्टा और विवेक भी शामिल है। स्वातंत्र्य चेतना ही व्यक्तियों, समाजों और राष्ट्रों को पराधीनता से मुक्ति के लिए आंदोलन, संघर्ष और संग्राम की प्रेरणा देती है। आधुनिक भारतीय संदर्भ में यह चेतना 19वीं-20वीं शताब्दी के सांस्कृतिक नवजागरण, समाज सुधार और स्वाधीनता संग्राम के रूप में पुंजीभूत हुई जिसे अन्य साहित्यिक विधाओं के साथ-साथ हिंदी उपन्यास ने भी आत्मसात और अभिव्यक्त किया।

डॉ.पूर्णिमा शर्मा ने अपने ग्रंथ ''उपन्यास, भाषा और स्वातंत्र्य चेतना'' में पहली बार हिंदी उपन्यासों का पाठ-विश्लेषण इसी स्वातंत्र्य चेतना की अभिव्यक्ति की दृष्टि से किया है। इस ग्रंथ में लेखिका ने उपन्यास-भाषा के विश्लेषण के पांच आधार निर्धारित किए हैं - लेखकीय टिप्पणी, संवाद, घटना, भाषण और धारणाओं का  विश्लेषण  तथा इन आधारों पर हिंदी के प्रमुख उपन्यासों की स्वातंत्र्य चेतना और उसकी अभिव्यक्ति की विशद पड़ताल की है।

यह ग्रंथ इस तथ्य की स्थापना करनेवाला अपनी तरह का प्रथम मौलिक प्रयास है कि हिंदी के कथाकारों ने प्रयोजनमूलक भाषा अथवा प्रयुक्तियों के गठन में भी अप्रतिम योगदान दिया है। व्यावहारिक हिंदी के निर्माण में साहित्यिक हिंदी की इस भूमिका पर भाषा चिंतकों को अभी विचार करना है।

साहित्य-भाषा, शैलीविज्ञान और पाठ विश्लेषण के अध्येता इस ग्रंथ की सामग्री को अत्यंत रोचक और उपादेय पाएँगे।
भूमिका

साम्राज्यवाद के राजनैतिक चेहरे और पूँजीवाद के जन-विरोधी चरित्र को सामने लाने वाले प्रेमचंद हिंदी के पहले बड़े लेखक थे। अपने सही रास्ते की तलाश के संकट और विचारधाराओं की चकाचौंध से वे बहुत जल्दी बाहर आ गए थे। इस जल्दी में भी उन्होंने काफ़ी लंबी यात्रा तय कर ली थी और इस कोने से उस कोने तक लगे दिखावटी लैंप पोस्टों को छूते हुए, सबकी सच्चाई उधेड़ कर अपना वह रास्ता बना लिया था, जिसे आज तक हिंदी कथा-साहित्य का सबसे सार्थक रास्ता माना जा रहा है। 

प्रेमचंद के 'रंगभूमि' उपन्यास पर और चाहे जो और जितने आरोप लगें, किंतु इससे किसी को इनकार नहीं होगा कि इस रचना ने बहुत बड़े कैनवस पर ब्रिटिश साम्राज्यवाद और देशी राजाओं के गठजोड़, स्वाधीनता के लिए किए जाने वाले संघर्ष के तत्कालीन सभी रूपों तथा पूँजीवाद के समाजार्थिक प्रभावों को चित्रित किया। इसके पूर्व वे बेमेल विवाह, दहेज प्रथा, स्त्रियों के लिए शिक्षित होने की आवश्यकता, स्त्री के देह-व्यापार के रास्ते पर चलने के मूल में विद्‍यमान समाजार्थिक कारण, किसानों में शोषण के विरुद्‍ध खडे़ होने के लिए करवट लेती क्रांतिकारी चेतना, सहज-स्वाभाविक संबंधों में रोड़ा बनने वाले धर्म को चुनौती देती युवा-पीढ़ी आदि की झलक अपने उपन्यासों में दर्शा चुके थे। गांधीवादी विचारधारा के प्रति एक समय की उनकी एकांतिक प्रतिबद्‍धता और फिर यथार्थवादी दृष्टिबोध को आत्मसात करके अपने समय की विचारधाराओं की शव-परीक्षा की गहरी कोशिश ने भी प्रेमचंद का एक दूसरा रूप सबके सामने रखा। आधुनिक भारत ने नवजागरण के प्रभाव से व्युत्पन्न विचार-मंथन से जो सीखा था, यह उसी का यथार्थवादी विस्तार था और प्रेमचंद हिंदी कथा-साहित्य में स्वाधीनता की चेतना के सबसे बडे़ व्याख्याता थे। उनके उपन्यासों में उस काल में भारतीय जनता के हृदय में उभरी स्वातंत्र्य-चेतना की व्यापक अभिव्यक्‍ति हुई। यह वही स्वातंत्र्य-चेतना थी, जिसके स्वरूप का गठन समाज, संस्कृति, राजनीति तथा आर्थिक परिस्थितियों के विश्‍लेषण से प्राप्त तत्वों के आधार पर हुआ था और जिसे एक ओर गांधी ने, तो दूसरी ओर भगत सिंह ने अपने-अपने ढंग से पोषित किया था। प्रेमचंद के बाद के अनेक कथाकारों ने इस परंपरा को आगे बढा़या,किसी ने स्वतंत्र रूप से इसी विषय पर उपन्यास लिख कर और किसी ने अन्य विषय को केंद्र में रखते हुए भी स्वातंत्र्य-चेतना से जुड़े प्रसंग उपस्थित करके। 

ध्यान देने की बात यह है कि स्वातंत्र्य-चेतना और स्वाधीनता के लिए किए जाने वाले संघर्ष को अपनी रचनाओं में स्थान देने वाले कथाकारों ने एक ऐसी नई कथा-भाषा का निर्माण भी किया, जो इस चेतना को संभाल सके तथा अत्यंत प्रभावशाली ढंग से उसकी अभिव्यक्‍ति कर सके। यह कोई कम जोखिम भरा काम नहीं था। कारण यह, कि स्वातंत्र्य-चेतना में एक ओर जहाँ सघन रोमानियत की भूमिका होती है, वहीं असंतोष एवं आक्रोश उसके मूल तत्वों में महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। यथार्थ के सपाट रास्ते पर चलते हुए एक नवीन व्यवस्था को निर्मित करने की व्याकुल रचनाशीलता उसमें बनी रहती है। कथाकार को इन सभी तत्वों और स्थितियों को आकार देने में समर्थ भाषा का गठन करना होता है। यह एक कठिन साधना है, जिसमें कथाकार को शब्दों, वाक्यों, भाषिक-चिह्नों, मुहावरों,प्रतीकों, बिंबों आदि के प्रयोग का एक सुनियोजित और सुगठित ढाँचा खडा़ करना होता है। भाषा के बीच ही उसे उन पात्रों को भी खडा़ करना होता है, जो उसके प्रत्यक्ष प्रयोक्‍ता भी हैं और उसी के बीच रह कर अपने व्यक्‍तित्व का विकास करने वाली शक्‍तियाँ भी। ऐसे पात्रों की विश्‍वसनीयता उनके द्‍वारा प्रयुक्‍त संवादों में सबसे अधिक प्रकट होती है। इसी के साथ उन प्रतिक्रियाओं में भी सामने आती है, जो इन पात्रों के व्यवहार द्‍वारा विविध संघर्षशील और संक्रमणशील दशाओं में अभिव्यक्‍त होती हैं। अंततः इन समस्त प्रतिक्रियाओं की प्रस्तुति भी भाषा के सहारे ही होती है।

स्वातंत्र्य-चेतना की भाषिक अभिव्यक्‍ति का यह इतना महत्वपूर्ण पक्ष हिंदी आलोचना में उपेक्षित है। इसका एक अर्थ यह है कि हिंदी के कथाकारों ने स्वाधीनता के संदर्भ में जो ऐतिहासिक भूमिका निभाई, उसका मूल्यांकन अब तक अधूरा ही है।

डॉ. पूर्णिमा शर्मा का इस विषय पर केंद्रित यह पूरा ग्रंथ इस संदर्भ में सचमुच एक अभाव की पूर्ति है। उन्होंने प्रेमचंद से प्रारंभ करके गिरिराज किशोर तक चुने हुए कथाकारों की उपन्यास-रचनाओं में स्वातंत्र्य-चेतना की भाषिक-अभिव्यक्‍ति का सूझबूझ के साथ विश्‍लेषण किया है और कथा-भाषा की तत्संबन्धी क्षमता की परीक्षा की है। डॉ. पूर्णिमा शर्मा के इस समालोचना-कर्म से हिंदी-समीक्षा के विकास की परंपरा में एक नवीन कड़ी जुड़ने की आशा है। 

मैं उनके उज्ज्वल भविष्य की कामना करता हूँ।
पूर्व अधिष्ठाता, मानविकी संकाय 
मणिपुर विश्‍व विद्‍यालय 
कांचीपुर, इम्फाल- ७९५ ००३ (मणिपुर)