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मंगलवार, 31 जुलाई 2018

(रामायण संदर्शन) लोकाभिराम श्रीराम

राम लोक के देवता हैं। लोकप्रिय हैं। लोक रक्षक हैं। लोकाभिराम हैं। इसलिए अयोध्या के राजमहल से बाहर निकलते ही वे स्वयं को लोक में विलीन कर देते हैं। लोक जितनी तीव्रता से अपने राम की ओर उमड़ता है, राम भी उतनी उत्कटता से लोक को अपने में समेटते हैं। तुलसी बाबा बताते हैं कि राम के आने का समाचार मिलते ही कोल-भीलों को ऐसा लगा जैसे वे सब प्रकार की निधियाँ पा गए हों। राम से मिलने के लिए वे इस तरह दौड़ पड़े जैसे भिखारियों की भीड़ सोना लूटने जा रही हो। पर वे भिखारी नहीं थे। लोक की सारी संपदा उनके पास थी। वे तो दोनों में कंद-मूल-फल भर-भर कर अपने राम को भेंट करने को दौड़ रहे थे । राम के दर्शन करते ही अनुराग उमड़ पड़ा। वे सब चित्रलिखे से खड़े के खड़े रह गए। शरीर रोमांचित। आँखें भर आईं। राम ने लोक के इस सहज अनुराग को पहचान लिया और प्रिय वचन कहकर उन सबका यथायोग्य स्वागत किया। हालचाल पूछने पर सहज भाव से कोल-भील जो कुछ कहते हैं वह उनकी अनुभूति का सार है। उन्हें लगता है कि राम ने जहाँ-जहाँ चरण धरे, वे सब स्थान धन्य हो गए। वन में जाने कब से भटक रहे पशु-पक्षी भी राम के दर्शन पाकर धन्य हो गए लगते हैं। सपरिवार राम को आँख भर देखने में ही जीवन की धन्यता है। वे राम की सब प्रकार से सेवा करने के लिए प्रस्तुत हैं। जंगल के एक एक कोने से वे परिचित हैं। अपने राम को सारा जंगल घुमाएंगे। बस आज्ञा की देर है। राम बड़े मन से उनके प्रेमपूर्ण शब्दों को सुनते हैं और प्रमुदित होते हैं। इस सहज प्रेमपूर्ण व्यवहार में ही तो राम का ईश्वर रूप निखरता है। प्रेम ही राम का ऐश्वर्य है – ‘रामहिं केवल प्रेमु पिआरा। जानि लेउ जो जाननिहारा।।' (संपादक)

(रामायण संदर्शन) उघरहिं अंत न होइ निबाहू

आजकल जिसे देखिए वही गठबंधन और समझौते की बातें करता दिखाई देता है। किसी तात्कालिक स्वार्थ की पूर्ति के लिए किए जाने वाले ऐसे गठबंधन बिखर भी बहुत जल्दी जाते हैं। दरअसल किन्हीं दो व्यक्तियों या संस्थाओं का लंबे समय तक या आजीवन साथ-साथ चलना तब तक संभव नहीं जब तक उनके परस्पर जुडने का आधार विवेकसंगत न हो। अविवेक पूर्वक किसी प्रकार के आवेश में बनाए गए संबंध बहुत दूर तक नहीं चलते। इसीलिए तुलसी बाबा सावधान करते हैं कि भली प्रकार पहचान कर ही ‘संग्रह’ और ‘त्याग’ का निर्णय करना चाहिए, अन्यथा परिणाम दुखद होते हैं। यह विश्व गुण-दोषमय है। नीर और क्षीर के विवेक से ही संग्रह और त्याग की तमीज़ आती है। विवेक को बहुत बार भ्रमित करने की भी कोशिश की जाती है – जैसे चुनाव की वेला में नेतागण जनता को भ्रमित किया करते हैं। ऐसे समय किसी तात्कालिक लाभ और लोभ में न पड़कर धैर्यपूर्वक परीक्षा की आवश्यकता होती है, क्योंकि यदि कोई ठग भले आदमी का सा वेश बना ले तो भले ही लोग कुछ समय तक उस वेश के प्रताप से उसे पूजते रहें, लेकिन एक न एक दिन ऐसे कपटी लोगों की पोल खुल ही जाती है। तब पता चलता है कि वे तो रक्षक के वेश में भक्षक थे। कालनेमि, रावण और राहु का भेद अंततः खुल ही जाता है। (संपादक)

शुक्रवार, 6 जुलाई 2018

[दो शब्द] हिंदी की दुनिया : दुनिया में हिंदी



दो शब्द

‘हिंदी है हम विश्व मैत्री मंच’ की स्थापना तथा ‘हिंदी की दुनिया और दुनिया में हिंदी’ का प्रकाशन एक सपने के फलीभूत होने जैसी सुखद घटनाएँ हैं. सपने को फालतू चीज न समझें, वह भी चेतना की अवस्थाओं में से एक है. सपना देखे बिना कुछ हो भी नहीं सकता. यह सृष्टि ईश्वर का और ईश्वर भी मनुष्य का स्वप्न ही तो है. एक सपना तेलंगाना राज्य के कुछ हिंदी प्रेमियों ने देखा और ‘हिंदी हैं हम विश्व मैत्री मंच’ के माध्यम से अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी, देशांतर भ्रमण और ग्रंथ प्रकाशन का श्रीगणेश हो गया. इसके मूल में हमारा हिंदी के प्रति समर्पण छिपा हुआ है.

‘हिंदी हैं हम’! यह ‘हिंदी’ क्या है? क्या यह भाषा का नाम है? नहीं, यह भाषा का नाम नहीं है. इसकी व्याख्या अल्लामा इक़बाल ने पहले ही कर दी है- ‘हिंदी हैं हम, वतन है हिंदोस्तां हमारा’. हिंदी यहाँ ‘भारतीय’ का वाचक है. हिंदी एक भाषा का वाचक नहीं, बल्कि ‘हिंदी’ भारतीय संस्कार, भारतीय संस्कृति, भारतीय सभ्यता, भारतीय इतिहास, भारतीय परंपरा, भारतीय मानस, भारतीय चेतना का वाचक है. यह शब्द ‘हिंदी’ भारतीयता का प्रतीक है. यह शब्द कहाँ से आया है ? इसकी कितनी अर्थछवियाँ हैं ? इसके क्या-क्या इतिहास हैं? ये सारे प्रश्न अपनी जगह हैं. हमारे लिए ‘हिंदी’ भारतीय होने का प्रतीक है. अनेक भारतीयों ने विदेशों में इस बात को महसूस किया है कि भारत के बाहर हमारी पहचान पंजाबी, तेलुगु, तमिल और बंगाली नहीं है. भारत के बाहर हमारी पहचान ‘हिंदी’ है. ‘हिंदी’ अर्थात हिंद का, अर्थात हम हिंद के हैं, हम भारत के हैं. भले ही राजनीतिबाज़ लोग हमारी इस पहचान को धूमिल करने जैसी कितनी ही बदमाशियाँ करते रहें. कभी किसी ने लालकिले से देश को हिंदुस्तान क्या कह दिया कि बस अगले दिन बवाल मच गया कि क्या यह देश सिर्फ हिंदुओं का है! यह बड़ी गड़बड़ है. यह फिर से भाषा को धर्म के साथ जोड़कर फिर से देश को लड़वाने, तोड़ने और अपनी राजनैतिक रोटियाँ सेंकने का षड्यंत्र है. इस ‘हिंदी’ को भारतीयता का प्रतीक बनाए रखने में या फिर इसको ‘लैंग्वेज ऑफ़ पॉवर इंडेक्स’ में ऊपर का स्थान मिलने में जो चीजें बाधक हैं, उन्हें समझना हमारे लिए बेहद जरूरी है. यह ‘लैंग्वेज ऑफ़ पॉवर इंडेक्स’ 2016 में अचानक पैदा हुआ है. इससे पहले भाषाओँ के क्षेत्र में इस तरह के इंडेक्स की चर्चा नहीं थी. सवाल है, यह क्यों पैदा हो गया. क्योंकि जयंती प्रसाद नौटियाल जैसे लोग यह सिद्ध कर रहे थे/हैं कि भारत सहित विदेशों में भी जहाँ-जहाँ हिंदी को समझनेवाले लोग हैं,, अगर उन सबकी संख्या को जोड़ा जाए अर्थात हिंदी की तमाम क्षेत्रीय भाषाओँ/ मातृभाषाओं के प्रयोक्ताओं को जोड़ा जाए, उर्दू के तमाम प्रयोक्ताओं को जोड़ा जाए और बौद्धकाल एवं उपनिवेशवादी काल के दौरान भारत से जो प्रव्रजन/प्रवासन हुआ है, उस काल में विदेशों में गए हुए लोगों ने जिस रूप में भाषा को थोड़ा-बहुत बचा कर रखा हुआ है उन सबको जोड़ा जाए और आज अर्थात आजादी के बाद, विशेष रूप से सन 1990 के बाद जो तमाम लोग विदेशों में जाकर वहाँ की नागरिकता ग्रहण कर रहे हैं, उन तमाम लोगों की संख्या को अगर जोड़ा जाता है तो विश्व भर में ‘हिंदी प्रयोक्ताओं’ की संख्या सर्वाधिक है. 35 साल के गहन अनुसंधान और सर्वेक्षण के बाद इस तथ्य को स्थापित किया जा सका है कि विश्व भर में हिंदी प्रयोक्ताओं की संख्या सर्वाधिक है. अब तक यह बात जैसे अब तक यह बात ‘चीनी भाषा’ के प्रयोक्ताओं के बारे में कही जाती रही थी. इसे शायद ‘चीनी भाषा’ के लिए खतरे की घंटी समझा गया; इसलिए ‘लैंग्वेज ऑफ़ पॉवर इंडेक्स’ की अवधारणा वहीं से निकल कर सामने आई कि ठीक है ‘हिंदी’ प्रथम स्थान पर तो है पर ‘हिंदी’ को आप मातृबोलियों के रूप में बोलते होंगे ‘हिंदी’ के रूप में नहीं और वह सत्ता का प्रतीक नहीं है. इसलिए यह बहुत जरूरी है कि हम अपनी तमाम बोलियों/मातृभाषाओँ को जीवित रखें लेकिन अपनी सहयोजित मातृभाषा अर्थात हिंदी को अपदस्थ किए बिना. चीनवालों से हम कम से कम हम यह तो सीख लें कि उन्हें एक नाम ‘हिंदी’ से पुकारें . हम यह न कहें कि मैं ब्रजभाषा वाला हूँ या मैं मैथिली वाला हूँ, हम कहें, “हम हिंदी हैं”. आज राजनैतिक कारणों से मैथिली, नेपाली भले ही संविधान की अष्टम अनुसूची में आ गई हों, लेकिन ये भाषाएँ भी उसी प्रकार से ‘हिंदी भाषा समुदाय’ के विविध भाषिक आचरण या ‘कोड’ हैं जिस प्रकार अवधी, ब्रज, राजस्थानी, भोजपुरी, छतीसगढ़ी या वे बीसों भाषाएँ हैं जिन्हें पश्चिमी भाषावैज्ञानिकों ने डाइलेक्ट या बोली कहकर छोटा कर दिया है. ये तमाम क्षेत्रीय भाषाएँ मिलकर ही व्यापक ‘हिंदी भाषा समुदाय’ की रचना करती हैं.

मैं अपना एक अनुभव आपको बताता हूँ. मुझे समूचे दक्षिण भारत और कुछ-कुछ पूर्वोत्तर भारत में हिंदी का अध्यापन करने के बाद अतिथि अध्यापक के रूप में भारत के ही एक विश्वविद्यालय में चीन, थाइलैंड, बल्गारिया फ़्रांस और इटली से आए छात्रों को भी हिंदी सिखाने का अवसर मिला. ऐसे ही एक बैच में क्लासरूम में बराबर-बराबर बैठी हुई दो चीनी बालिकाओं (इंदु और निशा - भारतीय उपनाम) से, हिंदी भाषा समाज की प्रकृति पर चर्चा के दौरान मैंने पूछा कि क्या आप घर में भी अपनी भाषा चीनी/मंदारिन में ही बात करती हैं. वार्तालाप कुछ इस प्रकार था : 

- आप परस्पर किस भाषा में बात करती हैं ?
- हम कक्षा में हिंदी में बात करते हैं. सामान्यतः हम परस्पर मंदारिन में बात करते हैं .
- आप अपने-अपने घरों में भी क्या मंदारिन ही बोलती हैं?
- नहीं, घर में हम अपनी-अपनी मातृभाषा में बोलती हैं. हम दोनों की मातृभाषाएँ अलग-अलग हैं और मंदारिन से भी अलग हैं.
- आप एक दूसरे की मातृभाषा समझ सकती हैं?
- बिलकुल नहीं, इसीलिए हम आपस में मंदारिन बोलती हैं. हिंदी पढने के कारण हम अब हिंदी में तो एक-दूसरे के भाव समझ सकती हैं, लेकिन एक-दूसरे की मातृभाषाएँ अब भी परस्पर उतनी ही दूर हैं. मंदारिन ही विभिन्न चीनी भाषियों को परस्पर जोडती हैं.

इस वार्तालाप से स्पष्ट है कि चीनी भाषा के अंतर्गत आनेवाली सारी भाषाएँ भी एक-दूसरे से इतनी दूर हैं जितनी उत्तर भारत की भाषाएँ दक्षिण भारत या पूर्वोत्तर भारत की भाषाओँ से. इसके बावजूद उन सबकी गणना चीनी भाषा के रूप में बतौर एक भाषा की जाती है. इस तर्क से तो हिंद की सारी भाषाएँ हिंदी ही हैं – कम से कम वे सब तो हैं ही जिनकी सहयोजित मातृभाषा हिंदी है. उल्लेखनीय है कि चीनी भाषा की वर्णमाला/ चित्रलिपि दुनिया की सबसे बड़ी वर्णमाला है जिसमें लगभग 5000 से कुछ अधिक लिपिचिह्न हैं. इस भाषा में कुल 254 बोलियाँ हैं. ऐसी भाषा एकजुट होने के कारण अपने आप को दुनिया की ‘प्रथम भाषा’ कहती है. इस द्रष्टांत के यहाँ उल्लेख का प्रयोजन यह आवाहन करने से है कि अष्टम अनुसूची की राजनीति के बावजूद हम ‘हिंदी’ के रूप में एकजुट रहकर अपनी मातृभाषाओं के गौरव और राष्ट्रीय अस्मिता दोनों की रक्षा कर सकते हैं, अतः एकजुट रहें – यही लोकतंत्र का तकाज़ा है. आज ज़रूरत इस बात की है कि एक ऐसा जागरूकता अभियान चलाया जाए जिसके तहत हम जाएँ राजस्थानी के लोगों के बीच, मैथिली के लोगों के बीच, भोजपुरी और छत्तीसगढ़ी के लोगों के बीच; और उन्हें कहें कि आपकी अपनी अस्मिता अपनी जगह है जिसके संघर्ष में हम आपके साथ हैं, लेकिन राष्ट्रीय अस्मिता के रूप में आप अपनी भाषा को ‘हिंदी’ कहें. 

राष्ट्रीय अस्मिता के हवाले से हमें यह भी याद रखना होगा कि भारत में अंग्रेजी विदेशी भाषा है और इसीलिए भारत के संविधान की अष्टम अनुसूची में नहीं पाई जाती है बावजूद इसके वह भारत की ‘सह राजभाषा’ है . खेद की बात है कि हमने व्यवहार में इस व्यवस्था को उलट दिया है अर्थात हिंदी को ‘सह राजभाषा’ बनाकर हाशिए पर सिमटी रहने को मजबूर कर दिया है. विश्व-व्यवस्था में राजनैतिक और आर्थिक परिदृश्य पर आज जब भारत पुनः उभर रहा है, यही सही समय है कि हम अपनी राष्ट्रभाषा-राजभाषा-संपर्कभाषा हिंदी का संवैधानिक सम्मान व्यावहारिक रूप में बहाल करें. विश्वभाषा के रूप में हिंदी की प्रतिष्ठा का यही वरेण्य मार्ग है. 

इस ग्रंथ के प्रणयन के पीछे यही दृष्टि रही है कि हिंदी आज किसी क्षेत्रविशेष की भाषा नहीं है वह पारंपरिक भौगोलिक सीमाओं का अतिक्रमण करती हुई सार्वदेशिक ही नहीं सार्वभौमिक भाषा बन गई है. दैनंदिन व्यवहार से लेकर साहित्य और नए मीडिया तक, देसी राजनीति और वैदेशिक कूटनीति से लेकर विज्ञान और तकनीक तक तथा कुटीर उद्योग से लेकर फिल्म उद्योग तक हिंदी ने अपने सामर्थ्य को सिद्ध कर दिया है. उसकी इस यात्रा में मातृभाषा के रूप में उसका व्यवहार करने वालों के अलावा हिंदीतरभाषियों, गिरमिटिया देशों के भारतवंशियों, दक्षेश राष्ट्रों तथा खाड़ी देशो के हिंदी-उर्दू जानने-समझने वालों, दुनिया भर में फैले प्रवासी भारतीयों और विदेशी हिंदीसेवियों का समग्र रूप में योगदान ही उसका अक्षुण्ण पाथेय रहा है. इस योगदान के भूत, वर्तमान और भविष्य के आकलन का अत्यंत सीमित सा प्रयास आप इस ग्रंथ में पाएँगे जो वास्तव में इस शृंखला की पहली कड़ी है. हम प्रयास करेंगे कि यह क्रम आगे भी चलता रहे और आप सबका साथ निरंतर मिलता रहे. 

‘हिंदी की दुनिया और दुनिया में हिंदी’ के प्रकाशन के अवसर पर सभी सहयोगी लेखकों और संपादक गण को बधाई देने के साथ ही मैं प्रो. गोपाल शर्मा (इथियोपिया), प्रो. घनश्याम शर्मा (इनाल्को, पेरिस) और प्रो. देवराज (वर्धा) के प्रति आभार व्यक्त करना ज़रूरी समझता हूँ क्योंकि ये तीनों महानुभाव हैदराबाद के हिंदी सेवियों के सपने को अपने स्नेह का संबल न देते तो इसका साकार होना दुष्कर होता. 

शुभकामनाओं सहित

- ऋषभदेव शर्मा 
पूर्व आचार्य एवं अध्यक्ष 
उच्च शिक्षा और शोध संस्थान 
दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा 
खैरताबाद, हैदराबाद – 500004 (भारत)