कवियों की खीझ युगों पुरानी है.कवि जब अपने पाठक या श्रोता से असंतुष्ट होता है तो अपनी और कविता की स्वायत्तता के नारे लगाने लगता है..मुझे न मंच चाहिए, न प्रपंच , न सरपंच - इससे कवि के आत्म दर्प का पता चलता है. इसके बावजूद इस तथ्य को नहीं नकारा जा सकता कि कविता मूलतः संप्रेषण व्यापार तथा भाषिक कला है. संप्रेषण व्यापार के रूप में उसे गृहीता की आवश्यकता होती है तथा शाब्दिक कला के रूप में उसका लक्ष्य सौन्दर्य विधान है. इसलिए और कोई हो न हो ,पाठक कविता का सरपंच है.सहृदय के बिना साधारणीकरण की प्रक्रिया सम्भव नहीं और साधारणीकरण के बिना रस विमर्श अधूरा है.यों,पाठक रूपी सरपंच की उपेक्षा करके एकालाप तो किया जा सकता है, काव्य सृजन जैसी सामाजिक गतिविधि सम्भव नहीं. शायद इसीलिये कविगण समानधर्मा ,तत्वाभिनिवेशी और सहृदय पाठक के लिए युगों प्रतीक्षा करने को तैयार रहते हैं और अरसिक पाठक के समक्ष काव्य पाठ को नारकीय यातना मानते हैं........अरसिकेषु कवित्त निवेदनं ,शिरसि मा लिख मा लिख मा लिख!
स्मरणीय है कि भारतीय चिंतन वाक्- केंद्रित चिंतन है. शब्द को यहाँ ब्रह्म माना गया है और शब्द के अपव्यय को पाप. इसलिए यहाँ वाक्-संयम की बड़ी महिमा रही है.वाक्-संयम की दृष्टि से ही छंद विधान सामने आता है. अन्यथा यह किसी से छिपा नहीं है कि छंद न तो कविता का पर्याय है न प्राण.हाँ, पंख अवश्य है . और यह आवश्यक नहीं कि कविता पंख वाली ही हो. पर यह भी ध्यान रखना होगा कि भले ही वह उडे नहीं ,पर जड़ न हो. इसीलिये छंद न सही,गति, यति और प्रवाह तो हो. और निस्संदेह कविता की गति ,यति और प्रवाह के नियम ठीक ठीक वे नहीं हो सकते जो गद्य के होते हैं. इसलिए गद्यकविता भी अंततः कविता होती है गद्य नहीं. यदि रचनाकार अपनी रचना को गद्य से अलगा नहीं सकता, तो उसे कवि का विरुद धारण नहीं करना चाहिए.
गेयता या संगीत कविता की अतिरिक्त विशेषताएँ हैं, अनिवार्यता नहीं. बल्कि कवि की भाषिक कला की कसौटी यह है कि वह अपने अभिप्रेत विषय, विचार या भाव को किस प्रकार एक सौन्दर्यात्मक कृतित्व का रूप प्रदान करता है..सटीक और सोद्देश्य शब्द चयन तथा उसकी आकर्षक प्रस्तुति की प्रविधि की भिन्नता ही किसी कवि के वैशिष्ट्य की परिचायक होती है. यही कारण है कि भारतीय काव्य चिंतन के ६ में से ४ सम्प्रदाय भाषा पर अधिक बल देते हैं और ध्वनि काव्य को सर्व श्रेष्ठ काव्य माना जाता है. कवि शब्द शिल्पी है, इसलिए उसे जागरूकता पूर्वक कृति का शिल्पायन करना ही चाहिए. निस्संदेह इसके लिए अनुभव भी चाहिए और अध्ययन भी. दोनों ही जितने व्यापक होंगे, कविता भी उतनी ही व्यापक होगी. कवि को युग और क्षण को भी पकड़ना होता है और परम्परा को भी सहेज कर उसमें कुछ नया जोड़ना होता है. ऐसा करके ही वह ज्ञान के रिक्थ के प्रति अपना दायित्व निभा सकता है. परन्तु इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि कवित्व किसी प्रकार के गुरुडम का मोहताज है. कदापि नहीं. बल्कि सच तो यह है कि कवि निरंकुश होते हैं. गुरुडम के बल पर अखाडे चलाये जा सकते हैं,कविता नहीं की जा सकती .इसीलिये जिस युग या भाषा की कविता गुरुडम की शिकार हो जाती है, उसमें धीरेधीरे वैविध्य और जीवन्तता समाप्त हो जाती है तथा सारी कविता एक सांचे में ढली प्रतीत होने लगती है. दुहराव से ग्रस्त ऐसी कविता सौंदर्य खो देती है, क्योंकि सौंदर्य तो क्षण-क्षण नवीनता से ही उपजता है.
http://hindibharat.blogspot.com/2008/09/blog-post_542.html
4 टिप्पणियां:
"गेयता या संगीत कविता की अतिरिक्त विशेषताएँ हैं, अनिवार्यता नहीं"
परंतु आजकल गज़लकार गेयता से कविता की कमज़ोरी को छुपाते हैं और वाहवाही लूटते हैं॥
गुरुडम के बल पर अखाडे चलाये जा सकते हैं,कविता नहीं की जा सकती .
-बहुत सही कहा. बेहतरीन आलेख.
i feel that the poem in itself is sure meant for communication, but the poet should never corrupt it by communicationg through other channels as well. A poet must choose to be a recluse. What say?
@ Luv :
रची जाने के बाद कविता कवि के अलावा पाठक की भी हो जाती है. अब यह पाठक की अपनी रचनात्मकता है कि वह उसका अपना पथ किस तरह रचता है. मुझे लगता है कि कई बार कविता में निहित रूपक/अन्योक्ति को खोलने के लिए कविकृत अर्थ सहायक भी होता है, इसलिए उसे एकदम अवांछनीय नहीं कहा जा सकता.
रही बात रचनाकार के आत्मनिर्वासन की,तो मुझे तो कभी कभी रचना आत्मनिर्वासन से निकलने का प्रयास भी लगती है. अगर लिखकर ऐसा लगे कि जो चाहा जैसे चाहा वह वैसे कह दिया मैंने, तो अपनी ओर से भूमिका या व्याख्या न देकर यह देखना बड़ा मनोरंजक होता है कि पाठक ने किस किस तरह के अपने पाठ रचे.
यदि आत्मनिर्वासन का अर्थ समाज से दूरी है, तो मैं इसका समर्थक नहीं हूँ.
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