हमारी संस्कृति उत्सवधर्मी संस्कृति है इसलिए हर पर्व को हमने उत्सव का रूप दिया है। विजया दशमी को हमने विजयोल्लास का पर्व माना है। महिषासुर पर महादेवी की विजय का पर्व। रावण पर राम की विजय का पर्व। महिषासुर हो या रावण, व्यक्ति के साथ ही प्रतीक हैं आसुरी प्रवृत्ति के। आसुरी प्रवृत्ति का आधार है अहंकार जो असहनशीलता से लेकर तानाशाही तक अनेक रूपों में हमारे जीवन को घेरे रहता है। महादेवी हों या राम, व्यक्ति के साथ ही प्रतीक हैं उदात्त मानवीय मूल्यों के। उदात्तता में सदा सबके लिए जगह होती है, कोई पराया नहीं होता, सब आत्मीय होते हैं। सभी स्वजन-कोई शत्रु नहीं। इसीलिए तो पारस्परिक सहिष्णुता से लेकर लोकतांत्रिक जीवन शैली तक की तमाम संभावनाएँ राम के रूप में पुंजीभूत दिखाई देती हैं। राम और रावण का युद्ध दो व्यक्तियों या दो फौजों या दो राजाओं का युद्ध-भर नहीं है। यह युद्ध उदात्त मानवीय मूल्यों और आसुरी प्रवृत्ति का युद्ध है। यह युद्ध है भौतिक शक्तियों और नैतिक शक्तियों का। और विजया-दशमी के रूप में हम भौतिक शक्तियों पर नैतिक शक्तियों की विजय का पर्व मनाते हैं। राम के लिए इस युद्ध का उद्देश्य साम्राज्य-विस्तार नहीं, आत्मप्रसार है। जब तक हम इसे नहीं समझ लेते, तब तक पर्व का अर्थ नहीं खुल सकता। गोस्वामी तुलसीदास ने ’रामचरितमानस’ के लंकाकांड में इस युद्ध को जीतने के लिए आवश्यक उपकरणों का अत्यंत नाटकीय ढंग से उल्लेख किया है। रावण और राम आमने-सामने हैं। रावण रथ पर है - पूर्णतः सुरक्षित। राम पैदल हैं - एकदम अरक्षित। यह भी कोई युद्ध है ? युद्ध तो बराबरवालों में होता है! यह तो ऐसा ही हुआ जैसे रावण आखेट पर निकला हो और राम उसके सहज शिकार बनने को प्रस्तुत हों ! विभीषण ने रथी रावण और विरथ राम की इस टक्कर के परिणाम का अपने ढंग से अनुमान लगाया होगा और उन्हें लगा होगा कि राम की यह कार्रवाई केवल आत्मघाती ही सिद्ध हो सकती है। अधीर हो उठे विभीषण। पूछा जा सकता है कि विभीषण ही क्यों अधीर हुए - अन्य कोई क्यों नहीं। एक उत्तर हो सकता है कि विभीषण के लिए यह युद्ध लंका की राजसत्ता तक पहुँचने का माध्यम था और राम का इसमें पराजित होना विभीषण के लिए सबसे अधिक खतरनाक साबित होता। लेकिन नहीं, ऐसा सोचना विभीषण की निष्ठा के प्रति अन्याय होगा। विभीषण ऐसी क्षुद्रताओं से बहुत ऊपर हैं - अन्यथा उन्हें रावण को नाराज करने की जरूरत ही क्या थी। विभीषण की अधीरता का कारण है प्रेम। प्रेम हमारा श्रेष्ठतम भाव है, वह हमें दिव्य बनाता है, हमें अहं से मुक्त करता है। लेकिन प्रेम की अतिशयता हमें कहीं न कहीं कमजोर भी बनाती है। अतिशय प्रेम पल भर में मोह बन जाता है। क्या-क्या अनर्थ नहीं कराता यह मोह ?मोह हमें धृतराष्ट्र भी बना सकता है और अर्जुन भी। लेकिन धृतराष्ट्र का मोह अहंमूलक है और अर्जुन का मोह प्रेममूलक। यदि वे सभी मारे गए जिन्हें मैं चाहता हूँ तो राज्य पाकर क्या करूँगा, यह प्रश्न अर्जुन के मन में उठता है, धृतराष्ट्र के मन में नहीं। यही अंतर है प्रेम और अहंकार में। उनसे उपजे मोह में। विभीषण की अधीरता भी प्रीतिजन्य है। प्रेम बड़ी ताकत है, पर बड़ी कमजोरी भी। बड़े संकटों में डाल देता है प्रेम। विभीषण को संदेह है कि इस गैर-बराबरी के युद्ध में राम भला कैसे जीत सकते हैं। एक तरफ सारे साधन-संसाधन हैं और दूसरी तरफ केवल साधनहीनता। विभीषण का यह संदेह सहज मानवीय संदेह है - ’अधिक प्रीति मन भा संदेहा, बंदि चरन कह सहित सनेहा। नाथ, न रथ नहिं तन-पद त्राना, केहि बिधि जितब वीर बलवाना।’ कुंभकर्ण और मेघनाद मारे जा चुके हैं। राम की शक्ति पर अब संदेह क्यों ? क्योंकि निर्णायक युद्ध तो अब सामने है न। तुलसीदास ने विभीषण का चरित्र गढ़ने में कोई कोताही नहीं की है। विभीषण तो भक्तों के आदर्श हैं। पर मन डोल जाता है अधिक प्रीति के कारण। और वे प्रश्न करते हैं राम से, चरण वंदना करते हुए, स्नेह सहित। चरण वंदना इसलिए कि राम प्रभु हैं,अशरण-शरण हैं। लेकिन अधिक महत्वपूर्ण है स्नेह सहित प्रश्न करना। स्नेह इसलिए कि राम सखा हैं। केवल प्रभु हों तो संदेह कैसा ? संदेहा उपजा है सखा होने के कारण। ’कवच तो दूर की बात, हे राम, तुम्हारे पास तो जूते तक नहीं ; भला त्रिलोकजयी रावण को कैसे हरा सकोगे ?’ राम कोई डींग नहीं हाँकते। विभीषण की अधीरता को पहचानते हैं और कृपापूर्वक उन्हें सखा कहकर संबोधित करते हैं। इस संबोधन में ही एक आश्वासन का भाव है। आत्मीयता और निकटता - ’क्यों चिंता करते हो? मैं हूँ न।’ कृष्ण ने भी अर्जुन को बस इतना ही आश्वासन दिया था - ’मैं हूँ न, चिंता मत करो-मा शुचः।’ राम ने कहा - ’रावण को रथारूढ़ देखकर क्यों विचलित हो रहे हो मित्र? ओर भाई, युद्ध ऐसे रथों से थोड़े ही जीता जाता है।’ कहते हैं कि किसी दिन अकबर ने दरबारियों से पूछा था कि सर्वश्रेष्ठ हथियार कौन सा है। सबके अपने-अपने जवाब थे, लेकिन बीरबल का जवाब एकदम अलग था - औसान पड़े का हथियार सर्वश्रेष्ठ है। औसान क्या बला है भला ? विवेक बना रहे, होशोहवास ठीक रहें, हाथ-पाँव न फूल जाएँ आपके। क्रोध नहीं, उत्साह है वीर रस का स्थायी भाव। आपका विवेक, आपका उत्साह, आपका धैर्य आपका सर्वश्रेष्ठ हथियार है। मध्यकाल में जब भारतमाता के शीश पर गुलामी का नग्न नृत्य हो रहा था। जनता युद्ध और आतंक से त्रस्त थी। किसान की खेती नष्ट हो चुकी थी, वणिक का व्यवसाय चौपट था। दरिद्रता का दशानन सोने की चिड़िया को नोंच-नोंचकर खा रहा था। ऐसे में साधनहीन प्रतीत होने वाली संस्कृति आत्मरक्षा के संकट का सामना कर रही थी। उसके संबल बनकर, तुलसीदास राम के रूप में एक आश्वासन लेकर आते हैं। तोप-तलवारों से, हथियारों से जमीनें जीती जा सकती हैं, संस्कृति नहीं। वह संस्कृति तो कभी नहीं जिसके पास नैतिकता का बल हो, उदात्त जीवन मूल्यों में आस्था की शक्ति हो,सत्य की अंतिम विजय के प्रति दृढ़ विश्वास हो। पूछा जा सकता है कि तब यह देश गुलाम क्यों हो गया। कभी भलमनसाहत भी दगा कर जाती है - कुछ वैसा ही हुआ। और इतिहास यह भी बताता है कि खुद हमारी पुरुषार्थहीनता ने ही हमें कहीं का न छोड़ा। नैतिकता में निष्ठा का अर्थ पुरुषार्थहीनता नहीं होना चाहिए। तुलसी ने राम के रूप में पुरुषार्थ का संदेश दिया। रथारूढ़ रावण को नंगे पैरों चुनौती देने वाले वनवासी राम चरम पुरुषार्थ के पुंज हैं - पुरुषोत्तम लेकिन मर्यादा में बँधे हुए। इसीलिए वे आत्मविश्वास पूर्वक कहते हैं - ’जेहि जय होय सो स्चंदन आना-रावण जिस रथ पर सवार है, विजय उससे नहीं मिलती। विजय दिलाने वाला रथ तो दूसरा ही है। हे सखा, मैं उसी धर्ममय रथ पर आरूढ़ हूँ जिसके होने से कहीं कोई शत्रु जीतने को नहीं रह जाता।’ विजय-पर्व की सार्थकता इसी में है कि हम अपने जीवन-संग्राम को जीतने के लिए इसी धर्ममय रथ पर उत्साहपूर्वक आरूढ़ रहें। तुलसी भारतीय जीवन मूल्यों के बहुत समर्थ व्याख्याता हैं। अपनी ओर से कुछ कहे बिना वे ऐसा नाटकीय मोड़ रामकथा में बार-बार खोज लेते हैं, जहाँ कुछ देर ठहरकर जीवन मूल्यों की व्यावहारिक प्रस्तुति की जा सके। राम-रावण युद्ध की प्रस्तावना भी ऐसा ही नाटकीय मोड़ है। आशंकित विभीषण जब राम की रथहीनता पर अफसोस जाहिर करते हैं तो उन्हें आश्वस्त करने के लिए राम अपने विजय-रथ की संकल्पना को उनके सामने रखते हैं। राम का विजय-रथ वस्तुतः जीवनमूल्यों की योजना ही तो है। रावण के पास रथ है जिस पर चढ़कर वह सुरक्षित युद्ध कर सकता है लेकिन इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि रथहीन होने भर से राम असुरक्षित हैं। लोग प्रायः यही गलती करते हैं। युद्ध के उपकरणों से सज्जित रथ में सवार होते ही अतिशय सुरक्षाभाव से इतने भर जाते हैं कि जमीन पर खड़े आदमी को आदमी नहीं समझते। तरह-तरह के रथ हैं आज के योद्धाओं के पास। कोई संप्रदाय के रथ पर सवार है तो कोई जातिवादी रथ पर शोभायमान। किसी को विचारधारा के रथ ने धारण किया हुआ है तो किसी का रथ दलगत राजनीति का है। रथ भाषाओं के भी हैं और प्रांतों के भी। इधर मीडिया का उत्तर-आधुनिक रथ बड़ा चमत्कारी प्रतीत होने लगा है। आप यदि किसी चैनल पर सवार हों तो क्या कहने। वैसे मुद्रित माध्यम का रथ भी योद्धाओं को कम मदांध नहीं बनाता। यह माध्यम-रथ मिला तो योद्धा चारों दिशाओं में बाण-वर्षा करने लगता है। जिनके पास यह रथ नहीं, उन्हें वह रगेद-रगेद कर मारने में आनंदित होता है। ऐसे परपीड़ारतिरत महारथी प्रायः चुनौती दिया करते हैं - दम हो तो हमारे जैसा रथ लाकर दिखाओ। और चढ़ा देते हैं अपना रथ, विरथों को अकेले घेर कर। मंदोदरी ने जब छाती पीट-पीटकर विलाप किया और कहा कि अपने झूठे अहंकार के लिए लंका का सर्वनाश कराने वाले रावण को शहर भर में लोग नीच की उपाधि से अलंकृत कर रहे हैं - नगर लोग सब व्याकुल सोचा/सकल कहहिं दसकंधर पोचा। तो रावण ने पहले तो फिलॉसफी झाड़ी कि नाश ही जगत् का स्वभाव है और फिर युद्ध के लिए रथारूढ़ हो गया। दूसरों को ज्ञान-वैराग्य का उपदेश देने वाला भी अपने-आप में कितना मोहाविष्ट हो सकता है, इसका उदाहरण है रावण। वह वास्तव में आज के अनेक माध्यम-रथियों जैसा ही है जो उपदेश तो सदाचार का देते हैं और स्वयं डूबे रहते हैं भ्रष्टाचार में। स्वयं अपने दुश्चरित्र के कारण उन्हें दूसरों का चरित्र-हनन सर्वाधिक प्रिय होता है। लेकिन रावण को राम के चरित्र-बल का अहसास नहीं था। वह चरित्र-बल जो जीवन मूल्यों के रथ पर आरूढ़ होने से प्राप्त होता है। इस नाटकीय प्रसंग का लाभ उठाते हुए तुलसी राम के मुँह से विजय-रथ की व्याख्या कराते हैं। इस व्याख्या में आचरण का बल है। रावण उपदेश-भर देता है, आचरण नहीं करता। राम का आचरण ही उपदेश है। राम जिस रथ पर आरूढ़ हैं - शौर्य और धैर्य उसके पहिए हैं। जीवन-संग्राम में अकेली न तो धीरता चलती है, न अकेली शूरवीरता। शौर्य चाहिए पर उतावलापन नहीं। धैर्य चाहिए पर उदासीनता नहीं। अगर इतिहास में कभी किसी देश की परजय अंकित होती है तो उसका एक बड़ा कारण विजय-रथ के इन दो पहियों के तालमेल का बिगड़ जाना ही होता है। शौर्य और धैर्य के दोनों पहिए सलामत रहें तो कोई भी युद्ध जीता जा सकता है ऐसे रथ पर आरूढ़ होकर। इस विजय-रथ पर सत्य और शील की दृढ़ ध्वजा-पताकाएँ फहरा रही हैं। हम सब एक युद्ध में हैं जो मनुष्य होने के नाते हमारे जिम्मे आया है। वही शाश्वत युद्ध सत् और असत् का। असत् के महारथियों के पास अपने-अपने रथ हैं। पर सत् के पास भी अपना रथ है - शौर्य और धैर्य के पहियों वाला रथ, सत्य और शील की ध्वजा-पताकाओं वाला रथ। पर हर कोई इस रथ पर चढ़ नहीं पाता। वही चढ़ेगा इस रथ पर जिसकी जीवनमूल्यों में आस्था होगी, जिसके पास चरित्र बल होगा। राम कहते हैं - ’महा अजय संसार रिपु, जीति सकइ सो बीर/जाके अस रथ होइ दृढ़, सुनहु सखा मतिधीर।’ युद्ध तो मनुष्य को पग-पग पर लड़ने पड़ते हैं। लेकिन लड़ाई में भी मर्यादा बनाए रखना बड़ी बात है। जीतने के लिए हर तरह के दाँव-पेंच वाजिब माननेवालों ने कहावत ही गढ़ ली है कि प्रेम और युद्ध में सब कुछ जायज है। इसका परिणाम है - न प्रेम मर्यादित रह गया है, न युद्ध। किसी भी कीमत पर सब कुछ को हस्तगत कर लेने की दुर्धर्ष आकांक्षा प्रेमी और योद्धा दोनों को ही स्वेच्छाचारी बना देती है। दूसरी ओर मर्यादाशीलता इन दोनों को ही स्व से ऊपर उठने की प्रेरणा देती है - व्यक्ति से मनुष्य बनने की प्रेरणा देती है। मर्यादा व्यक्ति को मनुष्य, और मनुष्य को लोक बनाती है। आत्मा का विस्तार प्रेम में भी जरूरी है और युद्ध में भी। राम आत्मा के विस्तार के कारण ही परमात्मा हैं। मर्यादा ही उनकी भगवत्ता का आधार है। उनके विजय-रथ में चार घोड़े जुते हैं - बल, विवेक, इंद्रियनिग्रह और परोपकार। युद्ध में तो बल की जरूरत होती है, फिर चारों घोड़े बल के ही क्यों न जोत दिए ? चौगुना बल हो जाता। पर नहीं, बल के साथ जोट बाँधने के लिए विवेक चाहिए। युद्ध में पल-पल ग्रहण और त्याग का द्वंद्व उत्पन्न होगा, तब विवेक बल को दिशा देगा। विवेकहीन बल आतंकवादी को जन्म देता है, योद्धा को नहीं। जाने कितने आतंकवादी अविवेकपूर्वक तलवार भाँजते इस धरती पर नग्न नृत्य कर रहे हैं। किसी व्यवस्था में इतना नैतिक साहस नहीं कि बढ़कर उनकी कलाई थाम ले। कलाई तो उसकी थामें जो उचित-अनुचित का अंतर जानता हो। यहाँ तो औचित्य की सारी सीमाएँ तोड़कर अव्यवस्था की कालिका गले में मुंडमाल पहने विकराल रक्तपायी जीभ लपलपाती सब कुछ को नष्ट करने पर आमादा है। बल है, विवेक नहीं। ऐसे युद्धों का परिणाम लोकसंग्रह नहीं हो सकता। लेकिन राम जिस युद्ध में हैं वहाँ लोकहित सर्वोपरि है। इसीलिए उनके रथ में तीसरा घोड़ा इंद्रियनिग्रह का है तो चौथा परोपकार का। दुनिया में बड़ी-बड़ी क्रांतियाँ पिछली दो शताब्दियों में हुई - लेकिन व्यर्थ चली गईं क्योंकि उन्हें सँभालने के लिए जिस इंद्रियनिग्रह और लोकचेतना की जरूरत थी, जीतने वाली जातियाँ उसकी विद्यमानता प्रमाणित नहीं कर सकीं। युद्ध की मर्यादा का एक पहलू यह भी है कि उसके रथ को खींचने के लिए बल तो केवल चौथाई भर चाहिए - तीन चौथाई में विवेक, इंद्रियनिग्रह और परहित हैं। आप युद्ध में हों और क्षमाशील हों, कृपालुता की बातें करें, समता का आचरण करें - तो हो सकता है कि युद्धविद्या के कई पंडित आपको युद्ध के अयोग्य घोषित करके शिविर में पूर्ण विश्राम के लिए भेज दें। कहते हैं न ; क्षमा, कृपा और समता ने ही तो भारत को हजार बरस की गुलामी की सौगात दी। पर नहीं, यह बात इतनी सीधी नहीं है। मूल्यों के संदर्भ में हमें अपने इतिहास का फिर से मूल्यांकन करना पड़ेगा और पराजय तथा गुलामी के वास्तविक कारणों को समझना होगा। राम जिस युद्ध का नेतृत्व कर रहे हैं, वह सत्ता हथियाने का युद्ध नहीं है। वह मार्यादा का युद्ध है। इसीलिए उनके रथ के घोड़े क्षमा, कृपा और समता की रस्सियों से जुड़े हैं। ऐसा योद्धा क्रूर नहीं हो सकता। जब-जब क्षमा, कृपा और समता की रस्सियाँ टूटी हैं, तब-तब योद्धा उन्मादग्रस्त तानाशाहों में परिवर्तित हुए हैं और युद्ध सामूहिक नरसंहार में। रथ तैयार है - घोड़ों और लगाम के साथ। पर इसे चलाएगा कौन? राम विभीषण को बताते हैं - इस रथ को ईशभजन रूपी सुजान सारथी चलाता है : ’बल, बिबेक, दम, परहित घोरे। छमा, कृपा, समता रजु जोरे। ईस भजन सारथी सुजाना।’ सारथी अगर ईश्वर का भजन है तो यह युद्ध स्वार्थी की यात्रा नहीं हो सकता। युद्ध के रथ का संचालन ईश-भजन के हाथों में हो तो परिणाम कभी लोकविरोधी नहीं हो सकता। यहाँ ठहर कर पूछा जा सकता है कि आज जो दुनिया भर में ईश्वर के नाम पर मारकाट मची है, क्या वह लोकविरोधी नहीं है। है - निश्चय ही लोकविरोधी है। संप्रदाय, जाति, नस्ल और राजनीति की रथयात्राएँ ईश्वर के नाम पर संचालित की जाती हैं लेकिन उनका सारथी ईश-भजन नहीं है। ये सारी यात्राएँ तो विस्तारवाद और साम्राज्यवाद की स्वार्थ-यात्राएँ हैं जो दुनिया को मुट्ठी में करने की इच्छा से प्रेरित हैं - लोकहित की आकांक्षा से नहीं। असल में, इन रावण-रथों के ही सामने तो आज राम का विजय-रथ लेकर युद्ध में कूदने की जरूरत है। यह भी ध्यान में रखना होगा कि आज के ये रावण कुछ अधिक मायावी हैं। ये अपने-अपने रथों को राम का रथ कहकर प्रचारित करेंगे। इस निशाचर-माया को काटना भी बड़ा जरूरी है। हम सब अपने भीतर के राम को जगाएँ और मर्यादा के सहारे इस अमर्यादित समर को जीतें, इस कामना के साथ हमें इस युद्ध में अपने-आपको डालना ही होगा। युद्ध जीतना तो सब चाहते हैं लेकिन जीतते सब नहीं हैं। जीतता वही है जो धर्ममय रथ पर आरूढ़ होता है। प्रकट में हमें यह लग सकता है कि अधर्म जीत रहा है और धर्म असहाय तथा पराजित है। हमें समझना होगा कि अधर्म के सहारे विजय प्राप्त करना, सच में तो हार जाना ही है। ऐसी जीत का कोई मूल्य नहीं। महत्व इसका नहीं कि युद्ध में हार हुई या जीत। महत्व इसका है कि युद्धभूमि में प्राण संकट में पड़ने पर भी किसने धर्म का दामन नहीं छोडा-कौन कर्तव्य से विमुख नहीं हुआ। युद्ध में हार जाना या मारे जाना उतनी बड़ी क्षति नहीं,जितनी बड़ी क्षति योद्धा के कर्तव्य से विमुख हो जाने पर होती है। युद्ध यद्यपि विजय-कामना से ही लड़ा जाता है लेकिन पराजय सामने देखकर विजय की खातिर मूल्यों का सौदा कर लेना योद्धा का धर्म नहीं है। राजनीति के आधुनिक योद्धाओं के लिए सत्ता की प्राप्ति के निमित्त मूल्यों का सौदा करना आम बात है। मूल्याधारित राजनीति पर उपदेश झाड़नेवाले हमारे नेतागण समझौतावाद के बैंगन सरीखे हैं। मनुष्य के भीतर यह बैंगन-चरित्र उसकी स्वार्थबुद्धि के कारण उपजता है। राम जिस विजय-रथ पर आरूढ़ हैं, उसमें मानवीय कमजोरी की भी काट विद्यमान है। इस रथ में आरूढ योद्धा वैराग्य-भावना की ढाल हाथ में लेकर लड़ता है। वैराग्य-भावना होगी तो स्वार्थ नहीं पनपेगा। लोकरक्षण राम के युद्ध का मूल उद्देश्य है इसलिए वे विरति की ढाल के साथ संतोष की कृपाण धारण करते हैं। आश्चर्य होना चाहिए - यह योद्धा है, या संन्यासी! संन्यास क्या बिना युद्ध के सिद्ध होता है ? नहीं लेकिन यदि योद्धा असंतोष की तलवार उठा ले तो उसका स्वार्थ-समर ऐसे विश्वयुद्ध में बदल सकता है जिसकी आग संपूर्ण ध्वंस के बाद भी सुलगती रहेगी। पर संतोष की तलवार रक्त की प्यास में पागल नहीं होती। इतना ही नहीं, राम ने दान को फरसा, बुद्धि को प्रचंड शक्ति तथा श्रेष्ठ विज्ञान को सुदृढ़ धनुष बनाने की बात कही है। वे मन की स्वच्छता और अडिगता को तरकश का रूप देते हैं जिसमें शांति, आत्मानुशासन और नियम जैसे असंख्य तीर भरे हुए हैं। समाज में जो आयु और ज्ञान की दृष्टि से पूजनीय जन हैं, उनके शुभ संदेश और आशीर्वाद इस रथ पर आरूढ़ योद्धा के वास्तविक रक्षा-कवच हैं। यह सारी व्यवस्था विजय को सुनिश्चित करने वाली मूल्य-व्यवस्था है। इस रथ पर आरूढ़ होने पर योद्धा स्व-पर के अंतर से मुक्त होकर आत्मा की विशदता के बोध से भर जाता है तथा युद्ध उसके लिए जीवनमूल्यों की स्थापना का उद्योग भर रह जाता है। हजार बार दुहराए गए झूठ के भरोसे विश्वयुद्ध भले जीता जा सकता हो, मानव बने रहने का युद्ध मर्यादा के सहारे ही जीता जाता है। झूठ के सहारे जीते गए युद्धों ने मनुष्य को हिंसक पशु बनाया है और धरती को नरक। यदि मनुष्य को बेहतर मनुष्य बनाना है और धरती को बेहतर भविष्य देना है तो हमें अपना युद्ध सत् के पक्ष में लड़ना होगा। सत् के पक्ष में लड़ने का कलेजा जिसमें होगा, वह धर्म अर्थात् कर्तव्य के रथ पर आरूढ़ होगा। इस रथ पर आरूढ़ हुए तो, मित्र, न तो ऐसा शत्रु बचेगा जिसे जीतना शेष हो, न ऐसा ही जो जीत सके। इस रथ पर चढकर चलने का अर्थ ही है कि सब शत्रु खेत रहे - ’सखा, धर्ममय अस रथ जाकें। जीतन कहँ न कतहँ रिपु ताकें।।’ |
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सोमवार, 28 सितंबर 2009
रावण रथी विरथ रघुवीरा
वे विलक्षण थे क्योंकि वे साधारण थे!
जीवन को अत्यंत सहज भाव से रत्न बताने वाले प्रगतिशील और जनपक्षीय कविता के शिखर-पुरुष त्रिलोचन जी आज हमारे बीच नहीं हैं - अब उनके लिए इस बात का कोई महत्व नहीं कि रत्न फूल में मिला है या धूल में। उन्होंने तो भरपूर जीवन जीकर अपने जीवन-रत्न को दोनों ही प्रकार की सार्थकता दी - फूल में मिले तो सुवास बन जाए, धूल में मिले तो लोक से एकमेक हो जाए! यही तो अकेलेपन का दंश झेलते कवि की सही मुक्ति है।
हर बड़ा रचनाकार बुनियादी तौर पर साधारण आदमी होता है। त्रिलोचन जी की विराटता का भी आधार यही साधारणता है। वे विलक्षण हैं, क्योंकि वे साधारण हैं! इतने साधारण जितना बसंत, जितनी बसंत की भाषा -
वे सही अर्थों में जनता के कवि थे, जनपद के कवि थे, जन के कवि थे। व्यक्तित्व और कृतित्व दोनों ही स्तरों पर वे ठेठ गँवई-गाँव की छाप अपने साथ लिए चलते दीखते हैं। इसे सहजता, लोक छटा, सादगी, अकृत्रिमता, फक्कड़पना और हिंदुस्तानियत के रूप में पहचाना जा सकता है। यही कारण है कि उन्हें निकट से जाननेवालों ने सदा यह महसूस किया कि ""त्रिलोचन जी से गंभीर से गंभीर विषय पर बात करते हुए कभी यह आभास नहीं होता कि आप किसी ज्ञानी, बहुपठ, बहुश्रुत, अधीत, सिद्ध व्यक्ति से बातें कर रहे हैं। सदैव यही लगता है कि अपने घर में या गाँव की चौपाल में किसी सयाने आदमी के पास बैठे हैं, जिसकी बातों से प्याज के छिलके पर छिलके उतरते जाते हैं, जिस की बातें केले के पत्ते के समान होती हैं। त्रिलोचन जी की बात में बात, बात में बात, ज्यों केले के पात में पात, पात में पात।'' (डॉ. कांति कुमार जैन)। इसीलिए जिसने भी सुना, यही कहा कि कोई अपना चला गया, परिवारीजन चला गया, बुजुर्ग चला गया! "गुलाब और बुलबुल' में त्रिलोचन जी के इस गँवई संस्कार की छवि खूब उभरी है -
त्रिलोचन जी के चले जाने का एक अर्थ यह भी है कि दुनिया की तीस से अधिक भाषाएँ जानने वाला और शब्दों के कौतुक करने वाला एक शिशु ह़ृदय हमारे बीच से चला गया। एक हृदय जो यह मानता था कि -
दरअसल, शब्दों के प्रति इस सहृदयता में ही वे सूत्र निहित हैं जो त्रिलोचन जी को भारतीयता के संस्कार का कवि बनाते हैं - ठेठ भारतीय कवि, जिसकी शिराओं में वाल्मीकि, कालिदास, तुलसी, निराला और कबीर के साथ-साथ मीर, ग़ालिब, नजीर और सुब्रह्मण्य भारती एक साथ संचारित हैं। इसी ठेठपन के बूते वे यूरोपीय ज्ञान को भी भारतीय संस्कार प्रदान कर सके। वे संज्ञाओं के नहीं क्रियाओं के कवि हैं -
इस अनिवार उद्यमशीलता और जीवट के कारण त्रिलोचन जी की कविता अपनी साधारणता में भी सबसे अलग दीपती है -
त्रिलोचन जी के न रहने का अर्थ है, एक ऐसे जड़ों से जुड़े रचनाकार का न रहना जिसने इसे माना और चरितार्थ किया हो कि ""अच्छी कविता पूरा जीवन माँगती है। कवि अपने पूर्ववर्ती रचनाकारों से सीखता है। सामाजिक स्थिति और आसपास के माहौल से ऊर्जा पाता है और अपनी अनुभूतियों से प्रेरणा लेकर कविता गढ़ता है। असली कविता वही है जिसमें लोकतत्व हो और जीवन की धड़कन रची-बसी हो।'' दरअसल वे जीवन, कविता और भाषा को पर्याय मानने वाले मनीषी थे -
उनकी ये सूक्तियाँ आनेवाली पीढ़ियों के बड़े काम की हैं कि "भाषा का परित्याग आत्मविश्वास खोना है' तथा "भाषा केवल ऊपरी आवरण नहीं है, वह रग-रग में रहती है।' भाषा-मरण की संकल्पनाओं के वैश्विक प्रसार के बीच त्रिलोचन जी के ये सुझाव भी बड़े काम के साबित हो सकते हैं कि "भाषा में डंडे का जोर नहीं चलता' तथा "भारत के जीवन को समझने के लिए भाषाओं का ज्ञान बहुत जरूरी है।' त्रिलोचन जी ने यह भी समझा और समझाया था कि भाषा बाजार पर नहीं अपने ठेठ प्रयोगकर्ता समाज के जीवन पर निर्भर है। वे मानते थे कि ""भाषा का संबंध आंतरिक विकास से भी होता है। किसी भाषा की गहराई में उतरना हो तो अपने क्षेत्र के ग्रामीण लोगों से मिलिए। उनका सुख-दुख बाँटिए। उनसे बातचीत कीजिए। अशिक्षित, अनपढ़ लोगों के बीच में रहिए। भाषा का मूल और सही रूप वहाँ मिलता है। इससे भाषा को नया तेवर मिलता है। यह सहजता कविता को मूल्यवान और अधिक सार्थक बनाती है।'' तुलसी को वे लोकतत्व की महत्ता के कारण ही अपना काव्य गुरु मानते हैं -
इसलिए भी त्रिलोचन जी का हमारे बीच से जाना शोक का विषय है कि वे गए तो हमारे बीच से शब्दों का एक मर्मी प्रयोक्ता चला गया - ऐसा प्रयोक्ता जिसे मौन को भी सुनना आता था -
यह "चुप' रहकर कहना और सुनना जिसे आ जाता है, वह जड़-चेतन, समस्त जगत, लोक और प्रकृति के साथ एकाकार हो जाता है, विश्वात्मा हो जाता है। त्रिलोचन जी इस उदात्त संवेदनशीलता के प्रतीक थे। उन्होंने कुरूप और सुंदर दोनों को एक साथ साधा - लोक के हित। सहज प्रकृति और सहज प्रेम उनके जीवन यथार्थ और काव्य यथार्थ दोनों में एक जैसे प्रवाहित हैं। प्रेम हो या काव्य, त्रिलोचन जी के लिए दोनों की सहजता अभीष्ट थी क्योंकि -
आज त्रिलोचन जी हमारे बीच नहीं हैं। पर हमें उनकी ज़रूरत है। और हमें उनकी ज़रूरत बार-बार होगी। ज़रूरत के वक्त जो काम आए, वही तो अपना है। त्रिलोचन जी हमारे अपने हैं, उनकी बड़ी ज़रूरत है। आनेवाले समय में भी वे बड़े काम के साबित होंगे। ...... और तब के लिए वे "ताप के ताए हुए दिन' में अपना पता देकर गए हैं -
श्रद्धांजलि: त्रिलोचन जी
वे शिखर थे.....
१० दिसंबर २००७ को नजीबाबाद से डा. देवराज का फोन आया. तिरुचिरापल्ली में आयोजित लेखक शिविर में था मैं. डा. साहब ने बताया- त्रिलोचन जी नहीं रहे, उनकी स्मृति में श्रद्धांजलि सभा का आयोजन किया जा रहा है. मोबाइल पर मेरी भी श्रद्धांजलि उन्होंने मांगी.
मैं क्या कहता?
यही कह सका कि त्रिलोचन जी के निधन के समाचार से ऐसा लगा जैसे अपने परिवार का कोई शिखर गिरा हो. अपना कोई बुजुर्ग चला गया हो. वे हमारी पीढ़ी को प्रेरणा देने वाले बुजुर्ग थे, शिखर थे.
हाँ, त्रिलोचन शिखर थे. वैसे ही शिखर जैसे नागार्जुन, शमशेर और केदार नाथ अग्रवाल थे. इन्हें पढ़-सुनकर हमने कविता कहना सीखा. वे जनपक्षीय तेवर की कविता के अनुल्लंघनीय शिखर थे. ऐसे शिखर के गिर जाने से अब जनपक्षीय काव्य में बड़ा शून्य उत्पन्न होता दिखाई दे रहा है. ऐसा शून्य जो जल्दी भरा नहीं जा सकता.
मुझे याद आता है, त्रिलोचन जी को मैंने माता कुसुम कुमारी साहित्य सम्मान सम्बन्धी समारोह के अवसर पर एक बार नजीबाबाद में ही देखा था. मैं मद्रास से आया हूँ, यह जानकर उन्होंने विस्तार से दक्षिण भारत की संस्कृति और तमिल भाषा पर चर्चा की थी. बल्कि, बात मेरे नाम की व्युत्पत्ति और अर्थ से शुरू हुई थी और समकालीन तमिल साहित्य तक खिंचती चली गई थी. आज याद करता हूँ, मुझ पर उनके व्यक्तित्व का पहला प्रभाव एक बहु भाषाविद जैसा पड़ा था. सुनने में आया कि वे कोई तीस-तैंतीस भाषाओं के जानकार थे. जानकार होना अलग बात है और शब्दों से खेलना, कौतुक करना अलग. दरअसल वे शब्दों से कौतुक करने वाले कलाकार थे.
त्रिलोचन जी को मैं भारतीय भाषाओं की एकता के प्रबल समर्थक के रूप में भी देखता रहा हूँ. मेरे लेखे वे ठेठ भारतीयता के कवि थे. ऐसा ठेठपन जो उन्हीं के लिए सम्भव था और आज सिरे से दुर्लभ होता जा रहा है.
त्रिलोचन जी के साहित्य के सरोकार अत्यन्त व्यापक हैं और भारतीयता की जड़ों से जुड़े हैं. उनकी रचनाओं के माध्यम से हम भारतीय साहित्य के मूल सरोकारों की पहचान कर सकते हैं और भारतीय चेतनाधारा के अजस्र प्रवाह के साथ जुड़ सकते हैं. यह ठेठपन, यह देसीपन उन्होंने जहाँ एक ओर अपने अवधी और भोजपुरी धरती के संस्कार से प्राप्त किया है वहीं इसे उन्होंने कालिदास, कबीर और तुलसी से लेकर उर्दू तक के साहित्यकारों से अर्जित किया है. उनके विशद भाषा ज्ञान ने इसे धार दी है. बेशक त्रिलोचन जी के बाद इतनी विराटता को इतनी सादगी से संभालने वाला कोई नहीं रहा.
याद आता है मुझे, नजीबाबाद का उनका उस दिन का भाषण. उन्होंने बहुत ज़ोर देकर हिन्दी के मानकीकरण की ज़रूरत बताई थी उनका मानना था कि हिन्दी जैसी अनेक स्रोतों से रस ग्रहण करने वाली व्यापक भाषा में अनेक विकल्पों का होना स्वाभाविक है. परन्तु यदि हम इसे सार्वदेशिक भाषा के रूप में देखना चाहते हैं तो इसका मानकीकरण और आधुनिकीकरण आवश्यक है. मैं समझता हूँ कि हमारे जैसे भाषाकर्मियों के लिए उनके इस सूत्र पर अमल करना उनके प्रति सार्थक श्रद्धांजलि होगी.
सच ही त्रिलोचन जी जन कवि थे, जनपद के कवि थे, लोकतांत्रिक चेतना के कवि थे. उनके काव्य जनपद में न दबना स्वीकार्य था न दबाना. वे फक्कड़पने में कबीर के वंशज थे. उन्हें न झुकना बर्दाश्त था न झुकाना प्रिय. वे आज जब याद आते हैं तो उनका ज़ोरदार ठहाका भी याद आता है. हिंदी साहित्य में ज़ोरदार ठहाके लगाने वालों की भी एक परम्परा रही है. मुझे लगता है कि त्रिलोचन जी के न रहने से एक बड़ा ठहाका सहसा लुप्त हो गया है. एक बड़ा शून्य छोड़कर.
!!विजयपर्व मंगलमय हो!!
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रविवार, 27 सितंबर 2009
हिंदी भाषा के विकास में पत्र-पत्रिकाओं का योगदान
हिंदी पत्रकारिता का प्रश्न राष्ट्रभाषा और खड़ी बोली के विकास से भी संबंधित रहा है। हिंदी भाषा विकास की पूरी प्रक्रिया हिंदी पत्रकारिता के भाषा विश्लेषण के माध्यम से समझी जा सकती है। इस विकास में भाषा के प्रति जागरूक पत्रकारों का अपना अपना योगदान हिंदी को मिलता रहा है। ये पत्रकार हिंदी भाषी भी थे और हिंदीतर भाषा-भाषी भी। इनमें से कई बोली क्षेत्रों के थे, कुछ पहले साहित्यकार थे बाद में पत्रकार बने, तो कुछ ने पत्रकारिता से शुरू करके साहित्य जगत में अपना स्थान बनाया। इन सभी ने अखिल भारतीय स्तर पर बोली और समझी जाने वाली भाषा हिंदी के लिए अपना पूरा जीवन समर्पित किया। इनके लिए हिंदी और राष्ट्रीयता एक दूसरे के पर्याय थे। क्योंकि ये पत्रकार भिन्न भाषा परिवेशों के थे इसलिए हिंदी पत्रकारिता में शैली वैविध्य अपनी चरम अवस्था में दिखाई देता है। हिंदी पत्रकारिता का यह सौभाग्य रहा कि समय और समाज के प्रति जागरूक पत्रकारों ने निश्चित लक्ष्य के लिए इससे अपने को जोड़ा। वे लक्ष्य थे राष्ट्रीयता, सांस्कृतिक उत्थान और लोकजागरण। तब पत्रकारिता एक मिशन थी, राष्ट्रीय महत्व के उद्देश्य पत्रकारिता की कसौटी थे और पत्रकार एक निडर व्यक्तित्व लेकर खुद भी आगे बढ़ता था और दूसरों को प्रेरित करता था। हिंदी के इन पत्रकारों ने न तो ब्रिटिश साम्राज्य के सामने घुटने टेके और न ही अपने आदर्शों से च्युत हुए इसीलिए समाज में इन पत्रकारों को अथाह सम्मान मिला। हिंदी पत्रकारिता के विकासक्रम में कुछ पत्रकार प्रकाशस्तंभ बने जिन्होंने अपने समय में भी अपनी उपस्थिति दर्ज कराई और अनेक युवकों को लक्ष्यवेधी पत्रकारिता के लिए तैयार किया। वास्तव में वह पूरा शुरूआती समय हिंदी पत्रकारिता का स्वर्णयुग कहा जा सकता है। हिंदी के गौरव को स्थापित करने, हिंदी साहित्य को बहुमुखी बनाने, भारतीय भाषाओं की रचनाओं को हिंदी में लाने, हिंदी भाषा और देवनागरी लिपि के महत्व पर टिप्पणी करने तथा इन सबके साथ सामाजिक उत्थान का निरंतर प्रयत्न करने में ये सभी पत्रकार अपने अपने समय में अग्रणी रहे। ’हिंदी प्रदीप’ के संपादक बालकृष्ण भट्ट केवल पत्रकार ही नहीं, उद्भट साहित्यकार भी थे। विभिन्न विधाओं में उन्होंने रचनाएँ कीं जिन्हें पढ़ने पर यह पता चलता है कि भट्ट जी की शैली में कितना ओज और प्रभाव था। सरल और मुहावरेदार हिंदी लिखना उन्हीं से आगे अपने वाले पत्रकारों ने सीखा। हिंदी पत्रकारिता बालकृष्ण भट्ट की कई कारणों से ऋणी है। एक तो उन्होंने निर्भीक पत्रकारिता को जन्म दिया, दूसरे गंभीर लेखन में भी सहजता बनाए रखने की शैली निर्मित की, तीसरे हिंदी साहित्य की समीक्षा को उन्होंने प्रशस्त किया और चौथे हिंदी पत्रकारिता पर ब्रिटिश साम्राज्य के किसी भी प्रकार के अत्याचार का उन्होंने खुलकर विरोध किया। भारतेंदु हरिश्चंद्र (कविवचन सुधा, हरिश्चंद्र मैगजीन,हरिश्चंद्र चंद्रिका, बालाबोधिनी) हिंदी पत्रकारिता के ही नहीं, आधुनिक हिंदी के भी जन्मदाता माने जाते हैं। भारतेंदु ने अपने पत्रों और नाटकों के द्वारा आधुनिक हिंदी गद्य को इस तरह विकसित करने का प्रयत्न किया कि वह जनसाधारण तक पहुँच सके। संस्कृत और उर्दू - दोनों की अतिवादिता से हिंदी को बचाते हुए उन्होंने बोलचाल की हिंदी को ही साहित्यिकता प्रदान करके ऐसी शैली ईजाद की जो वास्तव में हिंदी की केंद्रीय शैली थी और जिसे बाद में गांधी और प्रेमचंद ने ’हिंदुस्तानी’ कहकर अखिल भारतीय व्यवहार की मान्यता प्रदान की। भारतेंदु के लिए स्वभाषा की उन्नति ही सभी प्रकार की उन्नतियों का मूलाधार थी। ’बालाबोधिनी’ महिलाओं पर केंद्रित हिंदी की पहली पत्रिका है। इसमें महिलाओं ने लिखा और भारतेंदु की प्रेरणा से अनेक महिलाएँ हिंदी पत्रकारिता के क्षेत्र में आई। ज्ञान विज्ञान की दिशा में हिंदी पत्रकारिता को समृद्ध करने का कार्य भी भारतेंदु ने ही पहली बार किया। इतिहास, विज्ञान और समाजोपयोगी सामयिक विषयों पर उनकी पत्रिकाओं में उत्कृष्ट सामग्र छपती थी। प्रताप नारायण मिश्र (ब्राह्मण) आधुनिक हिंदी के सचेतन पत्रकार माने जा सकते हैं। उन्होंने हिंदी गद्य और पद्य दोनों को नया संस्कार दिया। इनके समय तक प्रचलित हिंदी या तो अरबी-फारसी निष्ठ थी, या संस्कृतनिष्ठ, अथवा उसमें भारतेंदु की तरह बोलियों का असंतुलित मिश्रण था। मिश्र जी ने ठोस हिंदी गद्य को जन्म दिया। देशज, उर्दू और संस्कृत का जितना सुंदर मिश्रित प्रयोग मिश्र जी में मिलता है, वैसा अन्यत्र दुर्लभ है। वे हिंदी की प्रकृति को एक विशिष्ट शैली में ढालने वाले पहले पत्रकार थे। महामना मदनमोहन मालवीय (हिंदोस्थान, अद्भुदय, मर्यादा)का हिंदी के प्रति दृष्टिकोण दृढ़ था। वे हिंदी के कट्टर समर्थक थे। अखिल भारतीय हिंदी साहित्य सम्मेलन की स्थापना उन्होंने अपने इसी हिंदी प्रेम के कारण की थी। वे समय-समय पर अनेक पत्रों से संबद्ध हुए। हिंदी के प्रति उनका दृष्टिकोण बहुत साफ था कि हिंदी भाषा और नागरी अक्षर के द्वारा ही राष्ट्रीय एकता सिद्ध हो सकती है। नागरी प्रचारिणी सभा, काशी हिंदू विश्वविद्यालय और हिंदी प्रकाशन मंडल की स्थापना करके उन्होंने यह सिद्ध कर दिया कि हिंदी भाषा और भारतीय संस्कृति के उत्थान का रास्ता ही भारत के उत्थान का एक मात्र रास्ता है। मालवीय जी वाणी के धनी थे, जितना प्रभावशाली बोलते थे, उतना ही प्रभावशाली लिखते थे। हिंदी भाषा का ओज उनकी पत्रकारिता से प्रकाशित होता है। मेहता लज्जाराम शर्मा (सर्वहित, वेंकटेश्वर समाचार) गुजराती भाषी थे, लेकिन हिंदी भाषा के प्रचार-प्रसार में उन्होंने अपना सारा जीवन लगा दिया था। उनका दृढ़ विश्वास था कि’एक-न-एक दिन पूरे भारत में हिंदी का डंका बजेगा, प्रांतीय भाषाएँ हिंदी की आरती उतारेंगी, बहन उर्दू इसकी बलैया लेगी तथा अंग्रेजी हतप्रभ होकर हिंदी के गले में फूलों की माला पहनाएगी।’ हिंदी और उर्दू, दोनों भाषाओं की पत्रकारिता को प्रतिष्ठित करने वाले बाबू बालमुकुंद गुप्त (अखबारे-चुनार, हिंदी बंगवासी, भारतमित्र) ने पत्रकारिता को साहित्य निर्माण और भाषा चिंतन का भी माध्यम बनाया। गुप्त जी ने ’भारत मित्र’ में महावीर प्रसाद द्विवेदी की ’सरस्वती’में प्रयुक्त ’अनस्थिरता’ शब्द को लेकर जो लेखमाला लिखी, वह पर्याप्त चर्चा का विषय बनी। इसी तरह उन्होंने ’वेंकटेश्वर समाचार’ के मेहता लज्जाराम शर्मा द्वारा प्रयुक्त ’शेष’ शब्द पर भी खुली चर्चा की। उनकी ये चर्चाएँ उनकी भाषाई चेतना को व्यक्त करने वाली हैं। वे मूलतः उर्दू के पत्रकार थे इसलिए जब हिंदी की सहज चपलता में व्यवधान होता देखते थे तो विचलित हो जाते थे। उनकी व्यंग्योक्तियाँ अत्यंत प्रखर होती थीं। इससे हिंदी पत्रकारिता को नई शैली भी मिली और निर्भीकता, दृढ़ता और ओजस्विता के साथ विनोदप्रियता का अद्भुत सम्मिश्रण भी। वे वास्तव में राष्ट्रव्यापी साहित्यिक विवादों के जनक और व्यंग्यात्मक शैली के अग्रदूत पत्रकार थे। उर्दू भाषा के साथ वे हिंदी की हिमायत करते थे। उर्दू और हिंदी के विवाद में उन्होंने हमेशा हिंदी का पक्ष लिया। माधव राव सप्रे (छत्तीसगढ मित्र, कर्मवीर) रा्ट्रीयता की प्रतिमूर्ति थे। उनकी हिंदी निष्ठा अपराजेय थी। उनका कहना था, ’मैं महाराष्ट्रीय हूँ, परंतु हिंदी के विषय में मुझे उतना ही अभिमान है जितना किसी भी हिंदी भाषी को हो सकता है। मैं चाहता हूँ कि इस राष्ट्रभाषा के सामने भारतवर्ष का प्रत्येक व्यक्ति इस बात को भूल जाए कि मैं महाराष्ट्रीय हूँ, बंगाली हूँ, गुजराती हूँ या मदरासी हूँ।’ हिंदी के मूर्धन्य कथाकार प्रेमचंद का एक प्रेरक स्वरूप उनके जागरूक पत्रकार का भी है। ’माधुरी’, ’जागरण’ और ’हंस’ का संपादन करके उन्होंने अपनी इस प्रतिभा का भी उत्कृष्ट उदाहरण पेश किया और हिंदुस्तानी शैली को सर्वग्राह्य तथा लोकप्रिय बनाने का महत्व कार्य किया। हिंदी के मासिक पत्रों के संपादन में जो ख्याति महावीर प्रसाद द्विवेदी और प्रेमचंद की है वैसी ही ख्याति दैनिक पत्रों के संपादन में बाबूराव विष्णुराव पराड़कर (आज) की है। दैनिक हिंदी पत्रकारिता के वे आदि-पुरुष कहे जा सकते है। उन्होंने हिंदी भाषा का मानकीकरण ही नहीं,आधुनिकीकरण भी किया और हिंदी की पारिभाषिक शब्द संपदा की अभिवृद्धि की। माखनलाल चतुर्वेदी (कर्मवीर, प्रभा, प्रताप) साहित्य, समाज और राजनीति, तीनों को अपनी पत्रकारिता में समेटकर चलते थे। उनकी साहित्य साधना भी अद्भुत थी। उनके भाषण और लेखन में इतना ओज था कि वे भावों को जिस तरह चाहते, प्रकट कर लेते थे। उनका यह स्वरूप भी उनके पत्रों के लिए वरदान साबित हुआ। उनका लेखन हिंदी भाषा के प्रांजल प्रयोग का उदाहरण है। उनका यह कहना था कि ’ऐसा लिखो जिसमें अनहोनापन हो, ऐसा बोलो जिस पर दुहराहट के दाग न पड़े हों।’ अमर शहीद गणेश शंकर विद्यार्थी (अभ्युदय, प्रताप) ने हिंदी पत्रकारिता में बलिदान और आचरण का अमर संदेश प्रसारित किया और हिंदी भाषा को ओजस्वी लेखन का मुहावरा प्रदान किया। इसी प्रकार शिवपूजन सहाय (मारवाड़ी सुधार, मतवाला, माधुरी) अकेले ऐसे पत्रकार हैं जिनका हिंदी की विविध शैलियों पर समान अधिकार था। स्वातंत्र्योत्तर हिंदी पत्रकारिता में अज्ञेय (प्रतीक, नया प्रतीक, दिनमान, नवभारत टाइम्स) ने साहित्यिक पत्रकारिता को नवीन दिशाओं की ओर मोड़ा। ’शब्द’ के प्रति वे सचेत थे इसलिए भाषा और काव्य भाषा पर ’प्रतीक’ में संपादकीय, लेख, चचाएँ, परिचर्चाएँ प्रकाशित होती रहती थीं। अज्ञेय ने ’दिनमान’ के माध्यम से राजनैतिक समीक्षा और समाचार विवेचन की शैली हिंदी में विकसित की। उन्होंने’नवभारत टाइम्स’ के साहित्यिक- सांस्कृतिक परिशिष्ट को ऊँचाई प्रदान की जिससे कि दैनिक पत्र का पाठक भी इनके महत्व को समझने लगा। धर्मवीर भारती (धर्मयुग) ने सर्वसमावेशी लोकप्रिय पत्रिका की संकल्पना साकार की जिसमें राजनैतिक, साहित्यिक, सांस्कृतिक सामग्री के साथ ही फिल्म, खेल, महिला जगत,बालजगत जैसे स्तंभ सम्मिलित हुए। धर्मवीर भारती की जागरूक दृष्टि ने हिंदी रंगमंच व लोक कलाओं को भी महत्व दिया और नई नई विधाओं जैसे यात्रावृत्तांत, रिपोर्ताज, डायरी आदि में लेखन को भी। इससे हिंदी भाषा की अनेकानेक विधाओं और प्रयुक्तियों का बहुआयामी विकास हुआ। आर्येंद्र शर्मा (कल्पना) मूलतः वैयाकरण थे। उनकी पुस्तक ’बेसक ग्रामर ऑफ हिंदी’भारत सरकार ने प्रकाशित की जिसे आज भी हिंदी का मानक व्याकरण माना जाता है। भाषा के प्रति उनकी गंभीरता और अच्छी रचनाओं को पहचानने की विवेकी दृष्टि ने ’कल्पना’ को अपनी एक अलग जगह बनाने में मदद की। छठे दशक से हिंदी में विभिन्न नए-नए क्षेत्रों की पत्रकारिता का उभार दिखाई देने लगता है। इसके लिए हिंदी को नई शब्दावली और अभिव्यक्तियों की आवश्यकता पड़ी। वास्तव में किसी भी भाषा से बाह्यजगत की संकल्पनाओं को अपनी भाषा में ले आना और फिर उन्हें स्थापित कर लोकप्रिय बनाना आसान काम नहीं है लेकिन पत्रकारिता हमेशा से इस कठिन कार्य को अपनी पूरी दक्षता और दूरदृष्टि से साधती रही है। फिल्म पत्रकारिता का ही उदाहरण लें तो फिल्मों का जन्म भारत में नहीं हुआ और फिल्म तकनीक से लेकर उसकी वितरण व्यवस्था तक की भाषाई उद्भावना हमारी भाषाओं में नहीं थी। जब भारत में फिल्में बनना शुरू हुईं और उन्हें अपार लोकप्रियता मिली तो पत्रकारिता ने बाह्यजगत के इस विषय क्षेत्र को स्थान दिया और इसकी अभिव्यक्ति का मार्ग बनाया। हिंदी पत्रकारिता में फिल्म पत्रकारिता लोकप्रियता के शिखर पर पहुँची तो इसीलिए कि उसने हिंदी भाषा को फिल्म-प्रयुक्ति की तकनीकी अभिव्यक्ति में भी समर्थ बनाया और पाठकों का ध्यान रखते हुए भाषा में रोचकता और मौजमस्ती की ऐसी छटा बिखेरी कि फिल्म पत्रकारिता की भाषा अपना एक निजी व्यक्तित्व लेकर आज हमारे सामने हैं। छायांकन (फोटोग्राफी), ध्वनिमुद्रण (साउंड रिकार्डिंग), नृत्य निर्देशन (कोरियोग्राफी) जैसे पक्ष अनुवाद के माध्यम से पूरे किए गए तो शूटिंग, डबिंग, लोकेशन, आउटडोर, इनडोर, स्टूडियो को अंग्रेजी से यथावत ग्रहण करके हिंदी में प्रचलित किया गया। बॉक्स-आफिस के लिए टिकट-खिड़की जैसे प्रयोगों का प्रचलन हिंदी पत्रकारिता की सृजनात्मक दृष्टि और अंग्रेजी शब्द के संकल्पनात्मक अर्थ के भीतर जाकर हिंदी से नया शब्द ग्ढ़ने की क्षमता का स्वतः प्रमाण है। फिल्मोद्योग जैसे संकर शब्दों की रचना भी हिंदी पत्रकारिता ने बड़ी संख्या में की जो आज अपनी अनिवार्य जगह बना चुके हैं, या कहा जाए कि हिंदी फिल्म पत्रकारिता की प्रयुक्ति का आधार बन चुके हैं। इस संकरता को हिंदी फिल्म पत्रकारिता वाक्य स्तर पर भी स्वीकृति देती है - कैमरा फेस करते हुए मुझे दिक्कत हुई, एग्रीमेंट साइन करने के पहले मैं पूरी स्क्रिप्ट पढ़ता हूँ,न्यूड सीन अगर एस्थेटिक ढंग से फिल्माया जाए तो मुझे कोई उज्र नहीं, ’फ़िजा’ के प्रीमियर पर सभी स्टार मौजूद थे - इत्यादि। इसका तात्पर्य यह है कि फिल्म पत्रकारिता ने हिंदी भाषा के माध्यम से नए अंग्रेजी शब्दों/संकल्पनाओं से भी क्रमशः अपने पाठकों को परिचित कराने का बड़ा काम किया है। वे थ्री-डायमेंशनल के साथ-साथ त्रि-आयामी का और ड्रीम-सीक्वेंस के साथ-साथ स्वप्न-दृश्य का प्रयोग करते चलते हैं। पाठक जिस शब्द को स्वीकृति प्रदान करता है, वह स्थिर हो जाता है और अन्य दूसरे शब्द बाहर हो जाते है। इससे यह भी पता चलता है कि पत्रकारिता किसी प्रयुक्ति-विशेष को बनाने या निर्मित करने का ही काम नहीं करती, बल्कि उसे चलाने, पाठकों तक ले जाकर उनकी सहमति जानने और लोकप्रियता की कसौटी पर इन्हें कसने का भी काम करती है। ऐसा ही क्षेत्र खेलकूद पत्रकारिता का भी है। क्रिकेट और टेनिस जैसे जो खेल सर्वाधिक लोकप्रिय हैं। उनकी संकल्पनात्मकता भारतीय नहीं है। पत्रकारिता ने ही इन्हें हिंदी में उजागर करने का प्रयत्न किया है। खेलकूद की हिंदी पत्रकारिता ने अंग्रेजी भाषा के कई मूलशब्दों को यथावत अपनाया क्योंकि ये शब्द उन्हें पाठकीय बोध की दृष्टि से बाह्य लगे और इसीलिए इनके अनुवाद का प्रयत्न नहीं किया गया। जैसे, स्लिप, गली, मिड ऑन, मिड ऑफ, कवर, सिली प्वाइंट - जैसे शब्द जो क्रिकेट के खेल की एक विशेष रणनीति के शब्द हैं, अतः इस रणनीति को किसी शब्द के अनुवाद द्वारा नहीं, बल्कि शब्द की संकल्पना को हिंदी में व्यक्त करते हुए पाठकों के मानस में स्थापित किया गया। इतना ही नहीं, इन आगत शब्दों के साथ एक और प्रक्रिया भी अपनाई गई जिसे ’हिंदीकरण’ की प्रक्रिया कहा जाता है अर्थात् इन अंग्रेजी शब्दों के साथ रूप-परिवर्तन के लिए हिंदी के रूपिमों को इस्तेमाल किया गया जैसे रन/रनों, पिच/पिचें,विकेट/विकेटों, ओवर/ओवरों इत्यादि। कहीं-कहीं तो इस रूप-परिवर्तन के साथ ही ध्वन्यात्मक परिवर्तन भी हिंदी की अपनी प्रकृति का रखा गया है जैसे कैप्टेन/कप्तान और कैप्टेंसी/कप्तानी। अनुवाद के दोनों स्तर खेलकूद पत्रकारिता की हिंदी में मिलते हैं - शब्दानुवाद और भावानुवाद। शब्दानुवाद के स्तर पर - टाइटिल/खिताब, सेंचुरी/शतक, सिरज/शृंखला, वन-डे/एकदिवसीय आदि को देखा जा सकता है तो भावानुवाद के स्तर पर - एल.बी.डब्ल्यू/पगबाधा, कैच/लपकना आदि को। इसका तात्पर्य यह है कि नई प्रयुक्तियों के निर्माण में हिंदी पत्रकारिता सृजनात्मकता को साथ लेकर चलती है। सृजन के अभाव में लोकप्रिय प्रयुक्ति निर्मित नहीं हो सकती। इस अभाव ने ही प्रशासनिक हिंदी को जटिल और अबूझ बना दिया है। इस सृजनात्मकता का हवाला उन अभिव्यक्तियों के जरिए भी दिया जा सकता है जो हिंदी की खेल पत्रकारिता ने विकसित की हैं। इन्हें हम हिंदी की ’अपनी अभिव्यक्तियाँ’ भी कह सकते हैं, जैसे - पूरी पारी चौवन रन पर सिमट गई। तेंदुलकर ने एक ओवर में दो छक्के और तीन चौके जड़े। भारतीय टीम चौवन रन बनाकर धराशायी हो गई। इनके साथ ही हिंदी पत्रकारिता में अंग्रेजी की अभिव्यक्तियों को लोकप्रिय बनाने की प्रक्रिया भी दिखाई देती है - द्रविड़ अपने फॉर्म में नहीं थे। शोहैब अख्तर की गेंदबाजी में किलिंग इंस्टिक्ट दिखाई दिया। रन लेते समय पिच की डेफ्थ नहीं समझ पाए। खेलकूद पत्रकारिता ने अंग्रेजी के तकनीकी शब्दों को अपने पाठकों में स्वीकार्यता दिलाई है और वाक्यों के बीच इनका प्रयोग करके धीरे-धीरे इन्हें हिंदी पत्रकारिता की शब्दावली के रूप में स्वीकार्य बना दिया है। नो बॉल, वाइड बॉल, बाउंड्री लाइन, ओवर द पिच, लेफ्ट आर्म,राइट आर्म - जैसे शब्द अब हिंदी पाठक के लिए अनजाने नहीं रह गए हैं। पत्रकारिता ने ये शब्द ही नहीं, इनके संकल्पनात्मक अर्थ भी अपने पाठकों तक पहुँचा दिए है। शब्द गढ़ना एक बात है और शब्दों को लोकप्रिय करके किसी प्रयुक्ति का अंग बना देना दूसरी बात है। हिंदी पत्रकारिता ने इस दूसरी बात को संभव करके दिखाया है। अतः आज यह कहने में संकोच नहीं होना चाहिए कि बाह्य जगत से संबंधित विभिन्न प्रयुक्तियों/उपप्रयुक्तियों के निर्माण, स्थिरीकरण और प्रचलन में हिंदी पत्रकारिता की भूमिका स्तुत्य है। पत्रकारिता के माध्यम से आज खेल-तकनीक, खेल-प्रशिक्षण पर भी सामग्री प्रकाशित की जाती है। खिलाड़ियों और खेल संगठनों के पदाधिकारियों के साक्षात्कार इसे एक नया आयाम दे रहे हैं। यदि संचार के अन्य माध्यमों को भी यहाँ जोड़ लें तो रेडियो पर कमेंट्री और टीवी पर सीधे प्रसारण में जब से हिंदी को स्थान मिला है, एक विशेष प्रकार की खेलकूद की मौखिक प्रयुक्ति अस्तित्व में आई है। इस पर कुछ शोधकार्य भी हुए हैं जिन्हें और आगे ले जाने की जरूरत है। संक्षेप में कहा जाए तो हिंदी पत्रकारिता ने समय के साथ चलते हुए और नवीनता के आग्रह को अपनाते हुए सामाजिक आवश्यकता के तहत हिंदी भाषा विकास का कार्य अत्यंत तत्परता, वैज्ञानिकता और दूरदृष्टि से किया है। सहज संप्रेषणीय भाषा में नई संकल्पनाओं को व्यक्त करने के लिए भाषा-निर्माण या कहें प्रयुक्ति-विकास का जैसा आदर्श बिना किसी सरकारी सहयोग या दबाव के हिंदी पत्रकारिता ने बनाकर दिखाया है, उसे भाषाविकास अथवा भाषानियोजन में सामग्री नियोजन (कॉर्पस डेवलेपमेंट) की आदर्श स्थिति कहा जा सकता है। पुनश्च - यह तो हुई हिंदी के ’विकास’ में पत्र-पत्रिकाओं की भूमिका की चर्चा। लेकिन इधर के कुछ वर्षों में संचार माध्यम (मुद्रित और इलेक्ट्रानिक, दोनों) जिस प्रकार हिंदी को विकृत करते रहे हैं वह अत्यंत चिंतनीय है। अतः कभी अवसर मिलने पर हिंदी के ’विनाश’ में संचार माध्यम की भूमिका पर अलग से विस्तृत चर्चा करेंगे। |