दूरस्थ शिक्षा पिछड़े, वंचितों व गृहिणियों तक सीमित नहीं - डॉ. भारत भूषण
धारवाड में ‘दूरस्थ शिक्षा के विविध आयाम’ पर राष्ट्रीय संगोष्ठी एवं कार्यशाला
दक्षिण भारत में दूरस्थ माध्यम की शिक्षा पर हिंदी में विचार-विमर्श का यह पहला मौका था। देशभर में उच्चशिक्षा को सर्वसुलभ बनाने में इस माध्यम की धाक जम चुकी है। अंग्रेजी में दूरस्थ शिक्षा की बढ़ती चुनौतियों-दिशाओं और संभावनाओं पर बातें भी होती रही हैं पर हिंदी में इन पर धारदार चर्चा धारवाड में दो दिनों की इस संगोष्ठी में 21-22 जनवरी, 2011 को की गई।
'दूरस्थ शिक्षा के विविध आयाम’ संगोष्ठी के आगाज़ से ही इन दोनों महानुभावों के वक्तव्यों ने उत्साह बढ़ाने वाले टॉनिक का काम किया। देश के कई हिस्सों से पधारे हिंदी विद्वानों की मौजूदगी से संगोष्ठी को आगे के सत्रों में ठोस ऊँचाई हासिल हुई। ये सभी विद्वान कहीं-न-कहीं दूरस्थ शिक्षा के सरोकारों से जुड़े हुए हैं। इन्हें संबोधित करते हुए डॉ. भारत भूषण ने एक पते की बात और कही कि विश्वविद्यालयों में अब दूरस्थ माध्यम शिक्षा को दूसरे दर्जे की अथवा नियमित शिक्षा से कमतर स्तर की शिक्षा समझने वाली धारणा में भारी बदलाव आया है।
स्वागत भाषण देते हुए संस्थान के कुलसचिव प्रो. दिलीप सिंह ने इस ओर भी इशारा किया कि दूरस्थ शिक्षा एक प्रकार की सु-नियोजित शिक्षा है जिसमें सामग्री और तकनीक के इस्तेमाल से गुणवत्ता सिद्ध की जाती है। उन्होंने भारत में दूरस्थ शिक्षा के प्रसार में इग्नू की भूमिका की सराहना करते हुए आम जन में इसकी स्वीकार्यता और बढ़ती हुई लोकप्रियता को रेखांकित किया। डॉ. भारत भूषण की यह टिप्पणी दोनों दिन बहस का मुद्दा बनी रही कि - ‘दूरस्थ माध्यम की शिक्षा सिर्फ़ पिछड़ों, वंचितों या घरेलू स्त्रियों तक सीमित नहीं है। आज इसने वह मुकाम हासिल कर लिया है कि देश भर के युवक और युवतियाँ इसे नियमित शिक्षा का एक बढ़िया विकल्प मानकर बड़ी संख्या में पूरे विश्वास के साथ अपना रहे हैं। इतना ही नहीं कौशल तथा दक्षता युक्त यह शिक्षा पूरी करने के बाद वे पूरे आत्मविश्वास के साथ समाज में अपनी ख़ास जगह भी बनाने लगे हैं।
दीप-प्रज्वलन, प्रार्थना, स्वागत-सत्कार की औपचारिकता से शुरू उदघाटन सत्र का संचालन प्रो. ऋषभदेव शर्मा ने अपने ख़ास अंदाज में किया। धन्यवाद देते हुए उन्होंने कहा कि पिछले कुछ सालों की प्रगति और दक्षिण भारत के हिंदी प्रेमियों की मांग को देखते हुए यह विश्वास के साथ कहा जा सकता है कि दक्षिण में हिंदी भाषा तथा हिंदी माध्यम की उच्च शिक्षा की सरपरस्ती आगे आनेवाले सालों में दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, मद्रास द्वारा ही की जाएगी।
21 जनवरी के दोनों सत्र दूरस्थ शिक्षा माध्यम के मूलभूत आयामों पर केंद्रित थे। आज के युवा-भारत की ज़रूरतों, आकांक्षाओं और उनके सपनों को पूरा करने के लिए किन-किन दिशाओं में अपने को अग्रसर करें, कहाँ-कहाँ खुद को बदलें और किस विधि से सर्वजन सुलभ और संप्रेषणीय बनें - आदि इन दोनों सत्रों की मूल चिंताएँ थीं। भारत के कोने-कोने में दूरस्थ शिक्षा की पहुँच हो गई हैं। ‘ड्राप आउट्स’ के लिए यह माध्यम एक वरदान है।
दूरस्थ शिक्षा की भूमिका पर बात करते हुए डॉ. गंगा प्रसाद विमल ने यह भी चेताया कि जब लोगों का विश्वास हमें मिलता है तब हमारी जिम्मेदारी और भी बढ़ जाती है। ‘मुक्त शिक्षा’ ने इस बात को समझा भी है और अमली जामा भी पहनाया है। वह निरंतर ‘इन्नोवेटिव’ बनी रही है। शिक्षक और कक्षा की सीमा को इसने असीम साधनों से जोड़ कर नव्य बना दिया है। डॉ. विमल ने कहा कि जब हमारे यहाँ दूरस्थ शिक्षा आंध्र प्रदेश, राजस्थान और इग्नू में शुरू हुई थी तो हम सोचते थे कि यह चल नहीं पाएगी; पर धीरे-धीरे हमारे जैसे लोग भी इसे उत्सुकता से देखने लगे। सच में इस शिक्षा पद्धति ने मीडिया, इन्टरनेट, कंप्यूटर, सेटेलाइट और न जाने कितने उपकरणों का उपयोग करके अपनी भूमिका को विस्तार दे दिया है। उन्होंने इस शिक्षा की रोजगारपक प्रकृति तथा यंत्र-साधित शिक्षण पद्धति की भूरि-भूरि सराहना करते हुए कहा कि भारतवर्ष की एक बड़ी आबादी को उच्च एवं व्यावसायिक शिक्षा देने का काम करके दूरस्थ शिक्षा ने यह उजागर कर दिया है कि उसकी भूमिकाएँ बहुमुखी हैं और जता दिया है कि यह ज्ञान प्रदान करने वाली निष्क्रिय शिक्षा प्रणाली नहीं बल्कि बोध और कौशल पैदा करने वाली सक्रिय शिक्षा पद्धति है।
'दूरस्थ शिक्षा : निर्बाध शिक्षा का अवसर' के नजरिए से डॉ. ऋषभदेव शर्मा ने दूरस्थ शिक्षा को ‘बाधा-विहीन शिक्षा' कहा क्योंकि इसे बिना किसी रुकावट के अपनाया जा सकता है - न कहीं आने-जाने की समस्या, न हाजिरी-क्लास का बंधन। खेती, मजदूरी, नौकरी, गृहस्थी के साथ यह शिक्षा जारी रखी जा सकती है। इसकी पाठ्य-सामग्री और सहायक-सामग्री अनेक तरह के शोध-संधान के बाद खास और वैज्ञानिक प्रक्रिया से इतनी संप्रेषणीय और बोधगम्य बनाई जाती है कि शिक्षार्थी की समझ भी निर्बाध गति से सही दिशा में विकास पा सके। डॉ. शर्मा ने दूरस्थ शिक्षा निदेशालय के आँकड़े देकर यह तथ्य सामने रखा कि इन पाठ्यक्रमों में गृहिणियों, ऑफिस कर्मचारियों, अध्यापकों की संख्या अनुपाततः कम नहीं है। उनके शब्दों में दूरस्थ शिक्षा स्वयं में निर्बाध होने के साथ-साथ किन्हीं कारणों से बाधित हो चुकी शिक्षा को जारी रख पाने का एक सुनहरा मौका भी है।
इसी क्रम में ‘हिंदी शिक्षण में दूरस्थ शिक्षा की भूमिका' का मसला भी कम जरूरी नहीं था क्योंकि जिस संस्था के मंच पर यह विचार-मंथन आकार ले रहा था वह दक्षिण भारत में हिंदी का प्रचार-प्रसार करने वाली राष्ट्रीय महत्व की संस्था का मंच था। दक्षिण भारत और विशेष रूप से केरल प्रांत में हिंदी की उच्च शिक्षा और शोध के जो गवाक्ष दूरस्थ शिक्षा ने खोले हैं, उनका आकलन करते हुए प्रो. सुनीता मंजनबैल ने इस बात पर विशेष बल दिया कि दक्षिण भारत के लिए तैयार हिंदी ‘सिम’(स्वाध्याय सामग्री) को अलग ढंग से तैयार किया जाय जैसा कि दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के दूरस्थ शिक्षा निदेशालय ने किया है। उन्होंने यह भी बताया कि दूरस्थ माध्यम के प्रसार से दक्षिण भारत में हिंदी अध्येताओं की संख्या में आशातीत वृद्धि हुई है।
पहले सत्र के आखिरी पर्चे में बी.बी. खोत ने दूरस्थ शिक्षा के माध्यम से 'कौशल विकास' की संभावनाओं और घटकों का परिचय दिया। उनके मत में दूरस्थ शिक्षा ‘कौशलयुक्त शिक्षा’ का सार्थक उदाहरण है। कौशल विकास में सहायक ‘सिम लेखन की विशेष पद्धति’, ‘प्रश्न-पत्र निर्माण’, ‘बोध-विस्तार’ आदि के उदाहरणों द्वारा श्री खोत ने यह प्रतिपादित किया कि शिक्षार्थी में कौशल दक्षता उत्पन्न और स्थापित करना ही दूरस्थ शिक्षा का पहला और आखिरी उद्देश्य है।
दूसरा सत्र सही मायने में व्यावहारिक था क्योंकि यह सत्र पहले सत्र की प्रतिपत्तियों की परख करने वाला था। अगर दूरस्थ शिक्षा की भूमिकाओं, उसके उत्तरदायित्वों और लक्ष्यों को सर्वस्वीकार्य आयाम देने हैं तो निश्चित ही सामग्री-निर्माण, प्रश्न -निर्माण, मूल्यांकन पद्धति और परीक्षा संबंधी छात्र सुविधाओं को त्रुटिहीन, आदर्श और गुणवत्ता पुष्ट बनाना अनिवार्य होगा। ये और ऐसे ही कई मुद्दे दोपहर बाद की इस चर्चा-विमर्श में उठे।
दूरस्थ शिक्षा माध्यम के लिए सामग्री-निर्माण की प्रक्रिया की विशिष्टता और अधिगम संबंधी सूक्ष्मताओं की अनुकूलता पर प्रो. टी.वी. कट्टीमनी ने विचार किया। सामग्री परीक्षा और मूल्यांकन - इन तीनों के अंतस्संबंध को बनाए रखने को भी उन्होंने दूरस्थ शिक्षा प्रणाली की सफलता का मूलाधार बताया। बी.ए. और एम.ए. स्तर की हिंदी के ‘सिम’ निर्माण में समेटे जाने वाले सामयिक-विमर्शों की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि नियमित पद्धति से दी जानेवाली हिंदी की उच्च शिक्षा सामयिक संदर्भों, सभ्यता-विमर्श तथा उत्तर आधुनिक चिंतन को स्थान देने में हिचकती है जबकि दूरस्थ शिक्षा की मुक्तता हिंदी पाठ्यक्रम को भी मुक्त और समीचीन बनाने का काम कर रही है।
अनुदेशन सामग्री और ‘सिम’ के भेदोपभेदों को डॉ. हीरालाल बाछोतिया ने सैद्धांतिक और व्यावहारिक दोनों धरातलों पर प्रस्तुत किया। उन्होंने इस बात की सराहना की कि दूरस्थ शिक्षा में खासकर इग्नू ने ‘सिम’ के लिखित पाठ को अन्य दृश्य-श्रव्य माध्यमों से सप्लीमेंट करने का अथवा फ़ेस-टु-फेस शिक्षण को सहायक बना कर इस्तेमाल करने का जो काम किया है उसने कौशलपरक शिक्षा को एकदम नया और अनूठा आयाम प्रदान कर दिया है।
डॉ. माधव सोनटक्के ने नियमित हिंदी पाठ्यक्रमों की परंपरागत प्रश्न-निर्माण एवं मूल्यांकन पद्धति पर चुटकी लेते हुए कहा कि परीक्षा और मूल्यांकन की रूढ़िबद्धता को दूरस्थ शिक्षा ने एक हद तक तोड़ा है। प्रश्न-पत्र निर्माण और मूल्यांकन को बोध और दक्षता के विकास में सहयोगी बनाने की अपील करते हुए उन्होंने कई उपयोगी मॉडल्स सामने रखे।
इस संदर्भ में दूरस्थ शिक्षा निदेशालय, दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के विद्यार्थियों को परीक्षा संबंधी जो सुविधाएँ दी जाती हैं उनका पारदर्शी विवेचन श्रीमती गीता वर्मा ने किया। उन्होंने बताया कि निदेशालय की ‘सिम’ के निर्माण में देशभर के विद्वान विशेषज्ञों की मदद ली गई है । इन सबने ‘सिम’ में ही सतत मूल्यांकन के बिंदु निर्धारित कर दिए हैं जिनको दत्त कार्य तथा प्रश्नपत्र में भी सम्मिलित करके दृढ़ीकरण की माप की जाती है। प्रश्नों के ‘विषयपरक’ और ‘बोधपरक’ प्रकारों की भी उन्होंने चर्चा की तथा निदेशालय के बी.ए., एम.ए., डिप्लोमा पाठ्यक्रमों के प्रश्नपत्रों से इनके उदाहरण दिए।
22 जनवरी को तीसरे सत्र में दूरस्थ शिक्षा प्रणाली के सर्वथा नवीन आयामों पर बातचीत हुई। पहले दोनों सत्रों की अनुगूंज भी इस सत्र में सुनाई देती रही। प्रो. टी.मोहन सिंह ने कौशल आधारित शिक्षा के परिप्रेक्ष्य में दूरस्थ शिक्षा का अवगाहन करते हुए ‘कौशल’ को शिक्षा और सही मायनों में शिक्षित करने, होने का मानदंड माना। उन्होंने अर्जन, अधिगम और बोधन की अनुकूल प्राप्यता को ‘कौशल’ की कसौटी कहा तथा आंध्र प्रदेश में हिंदी भाषा कौशल उत्पन्न करने के बीच आनेवाली समस्याओं पर विचार करते हुए इन्हें समतल करने वाले रास्तों की भी चर्चा की। व्यावहारिक हिंदी अर्जन पर उन्होंने हिंदी व्याकरण की जटिलता के मद्देनजर प्रकाश डाला तथा हिंदी की शैलियों के अधिगम को ‘भाषा कौशल' के लिए जरूरी स्वीकार किया।
तकनीकी आधारित शिक्षा को दूरस्थ शिक्षा की धुरी के रूप में व्याख्यायित करते हुए श्रीमती निधि सिंह ने तकनीकी साधित शिक्षण सामग्री निर्माण की प्रविधियों की चर्चा की। उन्होंने तकनीकी माध्यमों/उपकरणों की संभावनाओं और सीमाओं की पहचान को भी रेखांकित किया और कहा कि इस पहचान के आलोक में ही दूरस्थ माध्यम शिक्षा के विद्यार्थियों को सहज-संप्रेषणीय शिक्षा से जोड़ा जा सकता है। साहित्यिक एवं साहित्येतर पाठों को तकनीकीबद्ध करने की प्रचलित और अद्यतन पद्धतियों के इस्तेमाल को भी उन्होंने विविध तकनीकी उपकरणों के उपयोग से संबद्ध करके दिखाया।
इसी क्रम में डॉ. अर्जुन चव्हाण ने दूरस्थ शिक्षा में संचार माध्यमों की उपयोगिता स्थापित की। भारत में शिक्षा संबंधी सुविधाओं के अभाव पर रोष प्रकट करते हुए प्रो. चव्हाण ने संचार माध्यमों के व्यावसायीकरण पर भी चिंता व्यक्त की। उच्च शिक्षा और संचार माध्यमों की उपादेयता की अनदेखी करनेवाली नियमित शिक्षा पद्धति को अधूरा मानते हुए उन्होंने दूरस्थ शिक्षा की इसलिए सराहना की कि यह प्रणाली संचार माध्यमों की शैक्षिक शक्ति को पहचानने वाली है और इसने ‘मीडिया’ को मनोरंजन की सीमा से निकाल कर शिक्षा-प्रसार के महत् उद्देश्य से ला जोड़ा है।
चौथा सत्र दूरस्थ शिक्षा निदेशालय की ‘सिम’(स्वाध्याय सामग्री) के आकलन पर केंद्रित था। हिंदी की सामग्री का श्रीमती एन. लक्ष्मी, अंग्रेजी की सामग्री का श्रीमती गीता वर्मा तथा शिक्षाशास्त्र की सामग्री का आकलन प्रो. अरविंद पांडेय ने किया। इस सत्र में प्रस्तुत विवेचन भी अत्यंत पारदर्शी थे। इस सत्र में प्रस्तुत आकलन की सफलता डॉ. भारत भूषण की समापन-सत्र में दी गई इस टिप्पणी से पुष्ट हो जाती है कि ‘मुझे प्रसन्नता है कि निदेशालय की सामग्री दूरस्थ शिक्षा के लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए बहुत सोच-समझकर और मेहनत से बनाई गई है। सामग्री के आकलन से यह भी पता चलता है कि आपका विज़न एकदम क्लियर है और आपकी मंशा स्टूडेंट फ्रेंडली।’
22 जनवरी की शाम। समापन सत्र की अध्यक्षता डॉ. भारत भूषण ने की। संगोष्ठी की रपट प्रो. दिलीप सिंह ने प्रस्तुत की। टिप्पणीकार थे - डॉ. गंगा प्रसाद विमल, डॉ. टी.वी.कट्टीमनी, डॉ. टी. मोहन सिंह, डॉ. अर्जुन चव्हाण, डॉ.ऋषभ देव शर्मा और डॉ. हीरालाल बाछोतिया। सभी टिप्पणीकारों ने इस बात की सराहना की कि ‘दूरस्थ माध्यम शिक्षा ' पर हिंदी में और वह भी दक्षिण भारत में यह संगोष्ठी आयोजित की गई। संगोष्ठी की गंभीरता और सुगठन ने सभी को मुग्ध कर दिया था। प्रो. दिलीप सिंह ने कहा कि यह संगोष्ठी निदेशालय के लिए मार्गदर्शक का काम करेगी। और यह भी जोड़ा कि संगोष्ठी दूरस्थ शिक्षा निदेशालय के कामकाज से संबद्ध उसके आंचलिक और क्षेत्रीय केंद्रों के उपस्थित कार्यकर्ताओं, अध्यापकों, संचालकों आदि के लिए एक किस्म का प्रषिक्षण भी सिद्ध हुई है। डॉ. भारत भूषण संगोष्ठी की सुचारु व्यवस्था से अत्यंत प्रसन्न थे। उन्होंने कहा कि ऐसा लग रहा है कि यह गोष्ठी आपकी नहीं बल्कि दूरस्थ शिक्षा परिषद, नई दिल्ली की है। उन्होंने संगोष्ठी में पढ़े गए कई आलेखों की सराहना भी की। उन्होंने कहा कि दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा एकनिष्ठ और उत्साही कार्यकर्ताओं से भरी-पूरी है। उन्होंने यह भी कहा कि ‘भविष्य दूरस्थ शिक्षा का ही है। सभा ने सही समय पर इस शिक्षा प्रणाली में प्रवेश किया है। आपकी निष्ठा और समझ को देख कर मुझे कोई संदेह नहीं है कि दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा बहुत जल्द ही दूरस्थ शिक्षा की एक अग्रणी संस्था बन कर उभरेगी।' उल्लेखनीय है कि समारोह के आरंभ में सभा के दूरस्थ शिक्षा निदेशालय द्वारा तैयार की गई स्वाध्याय सामग्री और दूरस्थ माध्यम से संपन्न एम.फिल. तथा पीएच. डी.के शोधप्रबंधों की प्रदर्शनी भी लगाई गई थी जिसका उद्घाटन डॉ. भारत भूषण ने रिबन काटकर किया.
23 जनवरी को पुनश्चर्या पाठ्यक्रम एवं कार्यशाला का आयोजन किया गया।दूरस्थ शिक्षा निदेशालय से संबंधित चारों प्रांतों (तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, केरल और कर्नाटक) के लगभग पचास पदाधिकारी, अध्यापक एवं संगोष्ठी में देश भर से पधारे सभी विद्वान कार्यशाला में उपस्थित थे। कार्यशाला के मुख्यतः दो उद्देश्य थे - एक यह कि निदेशालय के कार्यकलाप से जुड़े सभी लोग विचार-विमर्श द्वारा अपनी समस्याओं का समाधान ढूंढें, निदेशालय के स्तरीय संचालन के लिए रचनात्मक सुझाव दें तथा एक-दूसरे से बातचीत करके कुछ नया सीखें। दूसरा उद्देश्य यह था कि निदेशालय द्वारा निर्मित हिंदी साहित्य की शिक्षण सामग्री का पुनरवलोकन करके आवश्यक रिवीज़न का परामर्श दिया जाय।
कार्यशाला के उद्घाटन में सभी अतिथि विद्वानों ने अनौपचारिक टिप्पणियाँ प्रस्तुत कीं। प्रारंभ में प्रो. दिलीप सिंह ने कार्यशाला के उद्देश्यों पर प्रकाश डालते हुए उपस्थित जन का स्वागत किया।
23 जनवरी की शाम। दूरस्थ शिक्षा पर केंद्रित तीन दिन का यह समारोह जब संपन्नता को प्राप्त हुआ तो सभी प्रतिभागी अपने-आप को संपन्नतर महसूस कर रहे थे। सभी ने इस दूरदर्शितापूर्ण और सामयिक आयोजन के लिए दूरस्थ शिक्षा निदेशालय, उच्च शिक्षा और शोध संस्थान, दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा की सराहना करते हुए परस्पर विदा ली।
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- प्रो. दिलीप सिंह,
कुलसचिव, उच्च शिक्षा और शोध संस्थान, दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, चेन्नई - 600 017 .
4 टिप्पणियां:
सुन्दर विस्तृत आलेख।
चित्र सारी कथा बयान कर रहे हैं। विस्तृत रिपोर्ट के लिए आभार॥
@प्रवीण पाण्डेय
दरअसल इस विषय पर चर्चाएँ तो विश्वविद्यालयो में होती रहा करती हैं, लेकिन हिंदी में नहीं; और न ही हिन्दी शिक्षण को केंद्र में रख कर. इसलिए हमने इस पूरे आयोजन को विस्तार से रिपोर्ट करना ज़रूरी समझा. आपने पसंद किया; आभार.
@ cmpershad
बस गिने-चुने ही तो आप सरीखे पाठक हैं मेरे पास, जो व्यक्तिगत फ़ाइल जैसे इस ब्लॉग को पढ़कर हौसला-अफजाई करते हैं.
आपकी इस नियमितता के लिए बन्दा आपके प्रति हमेशा कृतज्ञ है.
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