बच्चन मस्ती के कवि हैं। होंगे। मुझे तो वे बेचैनी के कवि दिखते हैं। ऐसी बेचैनी जो मेरी अपनी भी है। पता ही नहीं चलता, कब बच्चन की बेचैनी मेरी बेचैनी हो जाती है और मेरी बेचैनी बच्चन की। कवि के रूप में बच्चन बच्चन हैं और मैं मैं हूँ। बच्चन के सम बस बच्चन हैं। पर मनुष्य के रूप में बच्चन बेचैन हैं। उनकी बेचैनी अकेले उनकी नहीं है। उनकी बेचैनी मेरी भी है। और भी न जाने किस किस की। इन सारे अपने जैसे बेचैनों को ही लक्ष्य करके कवि ने यह वसीयत की होगी - प्राणप्रिये, यदि श्राद्ध करो तुम मेरा तो ऐसे करना/पीनेवालों को बुलवाकर खुलवा देना मधुशाला। बेचैन आत्माओं की कितनी चिंता है बच्चन को। होगी ही। जो बेचैन है वही तो दूसरे की बेचैनी को समझेगा। जिसने अभाव नहीं देखा, मृत्यु नहीं देखी, अपमान नहीं देखा, उदासी नहीं देखी, वह भला किसी और के अभाव को, मृत्यु को, अपमान को, उदासी को क्या जानेगा? पर बच्चन ने इन सबको देखा है, भोगा है, जिया है इसलिए वे खुद भी बेचैन दिखते हैं और औरों की बेचैनी भी बिना कहे देख लेते हैं।
बहुत बेचैनी है। चैन कहाँ है? जीवन की आपाधापी में कब वक्त मिला? कहीं नहीं। कभी नहीं। बस बेचैन दग्ध-उर व्यंग्यपूर्वक ‘आनंद करो’ की पुकार लगाता है जैसे कोई मस्त फक़ीर अलख जगा रहा हो। यह दग्ध-उर की बेचैनी ऐसी अनबुझ आग है जो मधुपान से बुझ सके शायद - कुछ आग बुझाने को पीते/ये भी, कर मत इन पर संशय। लेकिन बुझती नहीं यह आग। और भड़कती है। इसी बेचैनी में हर पीनेवाला और-और की रटन लगाता जाता है। इस बेचैनी ने लाल सुरा की धार को लपट बना दिया है। पर पीनेवाला इस ज्वाला को गटागट पी जाता है क्योंकि उसके भीतर विषम अनुभवों की इससे कहीं भयानक ज्वाला दहक रही है। इतनी कि नशे में भी दर्द बना रहता है। मदहोशी में भी विगतस्मृतियाँ हरी रहती हैं। सच ही भीतरी बेचैनी की ज्वाला मदिरा की ज्वाला से बड़ी है। बच्चन ने इस आग को ही आनंद बना दिया। उनकी मधुशाला में उस हर प्राणी का स्वागत है जो अपनी बेचैनी को उत्सव बना सके - पीड़ा में आनंद जिसे हो, आए मेरी मधुशाला।
कितनी कितनी बेचैनी! कैसी कैसी बेचैनी! एक अनादि-अनंत तृषा से भरी बेचैनी। कवि स्वयं प्यासा प्याला बन गया। पात्र और हाला ने एक दूसरे को खूब छका, खूब पिया। पर प्यास वैसी की वैसी रही। वह क्षण भी आ उपस्थित हुआ जब साकी ने मधुपात्र से गरल ढालना शुरू कर दिया। हाथ प्याले का स्पर्श भूल गए। जिह्वा सुरा का स्वाद भूल गई। एक एक कर पाँचों तत्व संज्ञा को छोड़ चले। पर तृषा न छूटी। भर्तृहरि होते तो ‘वैराग्य शतक’ लिखते। ठीक ही तो है, भोग नहीं भुगते गए, हमीं भुगतते रहे। तप कहाँ तपे गए, हमीं तपते रहे। वक़्त कहाँ चुका, हमीं चुक गए। इस तरह हम जीर्ण-जर्जर हो गए लेकिन तृषा आज भी वैसी की वैसी चिरयौवना है। पर बच्चन ‘वैराग्यशतक’ नहीं लिखते, राग का चरम उत्कर्ष लिखते हैं। साक़ी के हाथों ेमें भले ही गरल का पात्र हो, मेरे कानों में मधु का अनाहत नाद गूँजता रहे - कानों में तुम कहती रहना,मधुकण,प्याला,मधुशाला। होगा राम नाम सत्य उनके लिए जिन्हें मरकर चैन मिल जाता है, मेरी अमर बेचैनी के लिए तो मधुशाला ही अंतिम सत्य है। मेरी बेचैन मिट्टी से मरजीवा पाँखी की तरह नया जीवन जन्म लेगा। मेरी बेचैनी फिर एक प्याले में ढलेगी - किन सरस करों का परस आज, करता जाग्रत जीवन नवीन? मिट्टी का तन और मस्ती का मन इस सरस परस से फिर बेचैनी से भर जाएगा। मैं खोजूँगा इसी सरस परस को। जब तक यह न मिलेगा मैं भटकता रहूँगा। नहीं, मुझे धन-कुबेरों का ठाट-बाट नहीं चाहिए; किसी राजा-महाराजा का माल-ख़ज़ाना और राज-पाट भी नहीं। मेरी बेचैनी को अमरों का लोक भी नहीं सुहाता; अमरित भी नहीं। मैं तो बस सरस-हृदय की खातिर हर बार बिना मोल बिका हूँ। उसके मिलते ही हर ओर मधुशाला सज उठती है। पर बेचैनी तब भी बनी रहती है। बेचैनी बच्चन को छोड़ती नहीं। मधुपूर्ण मिलन के क्षण में भी एक खटका सा लगा रहता है - जब दिनकर की तमहर किरणें तम के अंदर छिप जाएँगी/जब निज प्रियतम का शव रजनी तम की चादर से ढक देगी ग् ग् ग् तब हम दोनों का नन्हा सा संसार न जाने क्या होगा? बेचैन है कवि कि जब रस-रूप-गंध-शब्द-स्पर्श जैसे सारे साधन छिन जाएँगे, तब मानव की चेतनता का आधार न जाने क्या होगा? होगा; मानव की चेतनता का आधार अवश्य होगा - कवि की बेचैनी!
यह बेचैनी बच्चन को रात रात भर जगाती है। सुखिया संसार खाता है और सोता है, दुखिया कवि जागता है और रोता है। दुनिया भर की बेचैनी को सीने पर धरकर सोया जा सकता है क्या? रोया तो जा सकता है। कबीर रोएँ या बच्चन, जब रोते हैं तो लोक उनके साथ रोता है। सब ओर बेचैनी का पारावार लहराने लगता है। इसे तनिक नज़दीक जाकर देखो, दोस्त, तो समझोगे कितनी व्यापक है बच्चन की बेचैनी। यह निज की पीड़ा भर नहीं, सृष्टि की वेदना है। सार्वजनीन बेचैनी।
कौन बेचैन नहीं है यहाँ? बच्चन की आँख से देखो। तुम जिन लहरों को सागर का शृंगार समझते हो, वे उसकी बेचैनी हैं। वायु को आकाश की क्रीड़ा मत समझ लेना, वह आकाश की बेचैनी है। यह रंग-बिरंग जगत मिट्टी की मूरत नहीं, उसकी बेचैनी है। कली की बेचैनी का नाम है गंध। मधुवन की बेचैनी की संज्ञा है पुष्प। कोयल की कूक को मनुहार मान लोगे तो चूक जाओगे, उसमें छिपी बेचैनी को पहचानने की कोशिश करो तो कुछ बात बने। बेचैन है हर सच्चा गायक। बेचैन वीणा भी है। भावनाओं के पीछे साँसों की बेचैनी छिपी है और कवि की कृति में उसके दग्ध-उर की बेचैनी। कविता यदि हृदय की अभिव्यक्ति है तो कहना ही होगा कि सचमुच, कविता बेचैनी का दूसरा नाम है - गान गायक का नहीं व्यापार, उसकी विकलता है;/राग वीणा की नहीं झंकार, उसकी विकलता है;/भावनाओं का मधुर आधार साँसों से विनिर्मित,/गीत कवि-उर का नहीं उपहार, उसकी विकलता है।
जिस दिन यह बेचैनी चुक जाएगी, उस दिन कविता भी चुक जाएगी। लेकिन कविता कभी नहीं चुकेगी क्योंकि बेचैनी कभी नहीं चुकती। बेचैनी पहचान है मनुष्य होने की। बच्चन मनुष्य हैं। मनुष्य होकर कवि; और कवि होकर मनुष्य। उनकी बेचैनी - मधु की प्यास - शाश्वत है। यह बेचैनी उन्हें विवश करती है प्यार के पल में भी जलन खोजने को। उन्हें अधर के रस कणों से तृप्ति नहीं मिलती। वे उन्मत्त होकर मानो चीखते हैं - खींच लो तुम प्राण ही इन चुंबनों से। नहीं, यह आत्मपीड़न नहीं है। प्यार के क्षण में मरण की इच्छा है। प्यार के क्षण में भी जो जीवित रह गया - जिसने आपा नहीं मेटा, जिसने हथेली पर सिर नहीं धरा - उसने प्रेम जाना ही नहीं: प्यार के क्षण में मरण भी तो मधुर है। कवि को यह मरण प्रिय है क्योंकि इसमें भी मधु है। अजीब लग सकती है बच्चन की यह बेचैनी। पर सच यही है कि मौन प्रिय को मुखर करके प्रणय की जय का उल्लास भले मिलता हो, कवि के हृदय की तृष्णा परितृप्त नहीं होती। कहा न, बच्चन मनुष्य हैं। जो मिल जाता है, उससे उन्हें चैन नहीं मिलता। तन मिल जाता है तो वे मन की खोज में निकल पड़ते हैं। रस मिल जाता है तो वे संतोष के लिए बेचैन होने लगते हैं। जिसने अमृत कलश की ओर कभी भूलकर भी देखा नहीं, उसे जब मधु मिल गया तो वह अमृतकण के लिए बेचैन हो उठा। बच्चन जी, मधु तो प्रतिध्वनि है जिसके लिए इतने बेचैन रहे; ध्वनि तो अमृतकण ही है -
है अधर में रस, मुझे मदहोश कर दो,/किंतु मेरे प्राण में संतोष भर दो,
मधु मिला है, मैं अमृतकण खोजता हूँ; /मैं प्रतिध्वनि सुन चुका, ध्वनि खोजता हूँ।
4 टिप्पणियां:
बेचैनी के ऐसे ही कई स्वर मन में गूँजते रहते हैं, रह रह कर।
"A working class hero is something to be."
बच्चन का एक दूसरा पहलू दिखाने के लिए आभार॥
@प्रवीण पाण्डेय
बस यों ही लगा कि एक पाठ बच्चन की कविताओं का इस दृष्टि से भी हो सकता है. आप जैसे बहुपठ मित्र को यह अच्छा लगा तो हर्ष तो स्वाभाविक है.
@Luv
बच्चन जी स्वयं इस वर्ग के नायक हैं. उनकी आत्मकथा ने अनेक निराश-हताश युवकों का जीवन बदल दिया.
@cmpershad
पर यह रचना अभी अधूरी है क्योंकि इसे पढ़कर प्रो.दिलीप सिंह ने सुझाव दिया है कि इस बेचैनी के पाठ को बच्चन जी की आत्मकथा से जोड़कर देखना और भी रोचक होगा. कुछ अंश उन्होंने बताए भी. खैर...फिलहाल इतना ही.....
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