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बुधवार, 16 फ़रवरी 2011

उन्होंने अभी अखबार नहीं पढ़ा


प्रसिद्ध हिंदी-तेलुगु भाषाशास्त्री और अनुवादक डा.पोलि विजयराघव रॆड्डी के निधन पर जब हमलोग संवेदना प्रकट करने गए, तो साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत सुप्रसिद्ध तेलुगु कवि प्रो.एन गोपि द्वार पर ही एक छोटी सी कुर्सी पर बैठे दिखाई दिए. घर के बुज़ुर्ग की भूमिका निभाते वे सबको सांत्वना दे रहे थे और आने वालों के 'कैसे हुआ','कब हुआ' जैसे सवालों के उत्तर दे रहे थे. मुझे देखा तो खड़े होकर एक कोने में आ गए. हम दोनों डॉ. रेड्डी के जीवट और उनके जाने से पैदा होने वाले शून्य पर दबी आवाज़ में बात कर रहे थे. बातों बातों में उन्होंने अपनी जेब से एक मुड़ा तुड़ा कागज़ निकाला और पढ़कर सुनाया. उन्होंने वहाँ बैठे बैठे बड़े सबेरे एक कविता लिखी थी इस आकस्मिक घटना से उत्पन्न शून्य को व्यक्त करते हुए. अत्यंत मार्मिक उस तेलुगु कविता का श्रीमती आर शांता सुंदरी ने हिंदी में अनुवाद किया है -

उन्होंने अभी अखबार नहीं पढ़ा  
कुत्ते के पिल्ले की तरह सिकुडा पडा है
अखबार कुर्सी पर
जब भी हिलता है उस कमरे का परदा
चिहुंक उठते हैं अक्षर.
अक्षर चाहते हैं पढें वे उन्हें
अबतक बारहवें पृष्ठ तक पहुंच गए होते वे
पिछले पन्नों पर लगी गंदगी को
खेल के पन्ने से पोंछ लेते .
आए दिन
खेलों पर भी ज़रा सी कालिख लग ही जाती है
पर कोई बात नहीं.
अभी कमरे के अंदर से कोई आहट नहीं आ रही है.
अल्मारी में रखी किताबें
कुलबुला रही हैं बेचैन होकर
दोनों भाषाओं के पदकोशों में
बदलते जा रहे हैं अर्थ
उनके स्वरचित ग्रंथों के पन्नों से
आ रही है उनकी उंगलियों की गति की ध्वनि.
पंखा चलने को है तैयार
खिडकी से आती धूप का एक टुकडा
चाहता है बनना उनके माथे की सजावट.
धोकर रखा तौलिया
तरस रहा है बैठने को उनके कंधे पर.
ग्रहण किए सभी पुरस्कार उनके
उदास हैं उन गहनों की तरह
जिन्हें पहननेवाला कोई नहीं
तस्वीर में
उनका सत्कार करनेवाले राष्ट्रपति भी
झांक रहे हैं कमरे में
द्वार पर लगे वंदनवार के पत्ते
न जाने क्यों ताल से बेताल हो रहे हैं.
साथ के कमरे में
शोक की देवी के दिल में
उठते भंवर को अखबार नहीं जानता.
रोज़ मिलनेवाले परिचितों के चेहरों पर
पहले जैसी रौनक नहीं.
दूर देहात से आई संवेदना को
खुले आसमान के नीचे खडे पौधे
पहचान लेंगे ज़रूर
पर
फिलहाल वे खुदको भूले हैं
सूरज की रोशनी में.
कमरे में से एक चिडिया
उड गई पंख फडफडाती
सडक चलते लोगों में
एक महान परिवर्तन का आभास पाने की ताकत नहीं.
कुर्सी पर अखबार
छटपटा रहा है अभी तक
कल
उसके बगल में एक और आकर गिरेगा
उसे भी वे पढ नहीं पाएंगे
उन्हीं के बारे में चाहे उसमे खबर छपे
तो भी!
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(प्रसिद्ध हिंदी-तेलुगु भाषाशास्त्री और अनुवादक डा.पोलि विजयराघव रॆड्डी के निधन पर.)
९.२.२०११
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मूल तेलुगु कविता :डा.एन.गोपि
अनुवाद : आर.शांता सुंदरी

4 टिप्‍पणियां:

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद ने कहा…

चिडिया उड गई, पिंअरा खाली हो गया... एक कवि का मन रो पडा और समाचार पत्र फडफडाता रह गया... यही तो परिणिती होती है जीवन और मृत्यु की :(

ZEAL ने कहा…

.

कविता बिलकुल रुला देने वाली है । दुःख की उस घडी में उपजे भाव इतने सशक्त हैं की पढने वाला भी उस क्षण कों महसूस कर रहा है । किसी की भी मृत्यु के बाद बहुत से समीकरण बदल जाते हैं , लगता है एक युग का अंत हो गया। उनको मिले हुए पुरस्कार भी उदास है गहनों की तरह ...आँसू आ गए ..

.

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

हिन्दी जगत के लिये क्षति, पुनः श्रद्धान्जलि।

सुरेन्द्र सिंह " झंझट " ने कहा…

marmik rachna...
shabd-shabd nihshabd karte...