प्रसिद्ध हिंदी-तेलुगु भाषाशास्त्री और अनुवादक डा.पोलि विजयराघव रॆड्डी के निधन पर जब हमलोग संवेदना प्रकट करने गए, तो साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत सुप्रसिद्ध तेलुगु कवि प्रो.एन गोपि द्वार पर ही एक छोटी सी कुर्सी पर बैठे दिखाई दिए. घर के बुज़ुर्ग की भूमिका निभाते वे सबको सांत्वना दे रहे थे और आने वालों के 'कैसे हुआ','कब हुआ' जैसे सवालों के उत्तर दे रहे थे. मुझे देखा तो खड़े होकर एक कोने में आ गए. हम दोनों डॉ. रेड्डी के जीवट और उनके जाने से पैदा होने वाले शून्य पर दबी आवाज़ में बात कर रहे थे. बातों बातों में उन्होंने अपनी जेब से एक मुड़ा तुड़ा कागज़ निकाला और पढ़कर सुनाया. उन्होंने वहाँ बैठे बैठे बड़े सबेरे एक कविता लिखी थी इस आकस्मिक घटना से उत्पन्न शून्य को व्यक्त करते हुए. अत्यंत मार्मिक उस तेलुगु कविता का श्रीमती आर शांता सुंदरी ने हिंदी में अनुवाद किया है -
उन्होंने अभी अखबार नहीं पढ़ा
कुत्ते के पिल्ले की तरह सिकुडा पडा हैअखबार कुर्सी परजब भी हिलता है उस कमरे का परदाचिहुंक उठते हैं अक्षर.अक्षर चाहते हैं पढें वे उन्हेंअबतक बारहवें पृष्ठ तक पहुंच गए होते वेपिछले पन्नों पर लगी गंदगी कोखेल के पन्ने से पोंछ लेते .आए दिनखेलों पर भी ज़रा सी कालिख लग ही जाती हैपर कोई बात नहीं.अभी कमरे के अंदर से कोई आहट नहीं आ रही है.अल्मारी में रखी किताबेंकुलबुला रही हैं बेचैन होकरदोनों भाषाओं के पदकोशों मेंबदलते जा रहे हैं अर्थउनके स्वरचित ग्रंथों के पन्नों सेआ रही है उनकी उंगलियों की गति की ध्वनि.पंखा चलने को है तैयारखिडकी से आती धूप का एक टुकडाचाहता है बनना उनके माथे की सजावट.धोकर रखा तौलियातरस रहा है बैठने को उनके कंधे पर.ग्रहण किए सभी पुरस्कार उनकेउदास हैं उन गहनों की तरहजिन्हें पहननेवाला कोई नहींतस्वीर मेंउनका सत्कार करनेवाले राष्ट्रपति भीझांक रहे हैं कमरे मेंद्वार पर लगे वंदनवार के पत्तेन जाने क्यों ताल से बेताल हो रहे हैं.साथ के कमरे मेंशोक की देवी के दिल मेंउठते भंवर को अखबार नहीं जानता.रोज़ मिलनेवाले परिचितों के चेहरों परपहले जैसी रौनक नहीं.दूर देहात से आई संवेदना कोखुले आसमान के नीचे खडे पौधेपहचान लेंगे ज़रूरपरफिलहाल वे खुदको भूले हैंसूरज की रोशनी में.कमरे में से एक चिडियाउड गई पंख फडफडातीसडक चलते लोगों मेंएक महान परिवर्तन का आभास पाने की ताकत नहीं.कुर्सी पर अखबारछटपटा रहा है अभी तककलउसके बगल में एक और आकर गिरेगाउसे भी वे पढ नहीं पाएंगेउन्हीं के बारे में चाहे उसमे खबर छपेतो भी!
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(प्रसिद्ध हिंदी-तेलुगु भाषाशास्त्री और अनुवादक डा.पोलि विजयराघव रॆड्डी के निधन पर.)
९.२.२०११
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मूल तेलुगु कविता :डा.एन.गोपि
अनुवाद : आर.शांता सुंदरी
4 टिप्पणियां:
चिडिया उड गई, पिंअरा खाली हो गया... एक कवि का मन रो पडा और समाचार पत्र फडफडाता रह गया... यही तो परिणिती होती है जीवन और मृत्यु की :(
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कविता बिलकुल रुला देने वाली है । दुःख की उस घडी में उपजे भाव इतने सशक्त हैं की पढने वाला भी उस क्षण कों महसूस कर रहा है । किसी की भी मृत्यु के बाद बहुत से समीकरण बदल जाते हैं , लगता है एक युग का अंत हो गया। उनको मिले हुए पुरस्कार भी उदास है गहनों की तरह ...आँसू आ गए ..
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हिन्दी जगत के लिये क्षति, पुनः श्रद्धान्जलि।
marmik rachna...
shabd-shabd nihshabd karte...
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