वरिष्ठ कवयित्री इंदिरा शबनम ‘इंदु’ का यह नया कविता संग्रह ‘हकीकतें’ अपने नाम के अनुरूप दुनिया और हयात की बहुरंगी हकीकतों का आईना है। इंदिरा ‘इंदु’ ने जिंदगी के अनेक उतार-चढ़ाव देखे है, भावनाओं और संवेदनाओं को अनेक शक्लों में जिया है तथा हर्ष- विषाद और राग-द्वेष की अनेक अनुभूतियों को आत्मसात किया है।
इंदिरा ‘इंदु’ की संवेदना का वृत्त अत्यंत प्रशस्त है - ठेठ भौतिक अनुभवों से लेकर विशिष्ट आध्यात्मिक प्रतीतियों तक। इस वृत्त के केंद्र में है - प्रेम। दरअसल प्रेम ही संपूर्ण विश्व का भी केंद्र है। सब कुछ इसी में से प्रकट होता है, इसी में विकास प्राप्त करता है और इसी में विलीन भी हो जाता है। यह वह महाभाव है जिसमें तमाम सहयोगी और विरोधी प्रतीत होने वाले भावों का अंतर्भाव है। प्रेम की कोमल और मधुर संवेदनाएँ ‘इंदु’ की कविताओं में कई-कई तरह से प्रकट होती हैं। कहीं आवेग, खुमार और उन्माद है तो कहीं एकांत की तलाश। लेकिन हर हाल में यह पुख्ता यकीन है कि प्रेम की पीर दोनों ओर है। दुनिया की नजरें प्रेमीजन को तनिक भी ‘स्पेस’ नहीं देतीं। ऐसे में उन्हें कभी समंदर में, कभी रेत की चादर में, कभी दूधिया चाँदनी में, कभी पेड़ों की ऊँची डालों पर - अपना यह स्पेस खोजना पड़ता है। प्रेम दरअसल एक ऐसा शब्द है जो लोगों की ज़बान पर तो सबसे ज़्यादा पाया जाता है पर जीवन में सबसे कम। जाने कितने-कितने विधि-निषेध उस पर पहरा देते हैं। कवयित्री ने इन पहरों से परे उन गुफाओं को प्रेम की साधना भूमि माना है जहाँ संपूर्ण प्रकृति सहज क्रीड़ालीन हो जाती है। काम भाव की यह कुंठाहीन स्वीकृति किसी कवि में स्त्री-पुरुष संबंध की गहरी समझ विकसित होने पर ही संभव होती है कि - ‘‘भेड़ बकरियाँ भी उसी मस्ती/रतिक्रीड़ा में मदहोश हो गईं/गड़रिया रोने तड़पने/ सिसकने लगा, पछताने लगा/ आज ही वह अपनी गड़रिन को/क्यों घर छोड़ आया!’’
‘इंदु’ ने अपनी कई कविताओं में किस्सागोई का भी अच्छा उपयोग किया है। ‘भोर हो गई’ और ‘कुछ नया ही’ ऐसी ही कविताएँ हैं। इनमें खजुराहो की गुफाओं के बहाने प्रणय की ठोस प्रतीतियों को साकार किया गया है। प्रेयसी जब संगतराश के पसीने भरे बदन को अपने आँचल से पोंछती है तब मानो खजुराहो की कई प्रतिमाएँ उन दोनों की छुअन से जीवित हो उठती हैं। पेट की भूख और प्रणय की भूख दोनों का मार्मिक चित्रण इन कविताओं को स्त्री कविता में विशिष्ट स्थान का अधिकारी बनाता है। कवयित्री को लगता है कि खजुराहो के पात्र हमें रोज गए जीवन का आवाहन देते हैं - शरीर से समाधि तक जाने की खातिर। कुछ ऐसे भी स्थल हैं जहाँ प्रेमेच्छा उर्दू शायरी के मुहावरे में बँधकर अभिव्यक्त हुई है - ‘‘तेरा यह मुहब्बत का ऐलान/ऐलाने जंग था, मेरे लिए।/ डूबती ही जा रही हूँ मैं,/उभरने का कोई शौक नहीं।’’ कवयित्री ने मानव में प्रेम पाने की तीव्र उत्कंठा को कई स्थानों पर स्वीकार किया है और प्रेमोन्माद को आदर्शवादी विदेह प्यार की तुलना में अधिक मानवीय माना है। परंतु यह उन्माद परकीय होने के कारण एकाकी चहकने, बहकनेऔर ठुमकने में ही व्यक्त हो पाता है। कभी इसके आड़े अहम् भी आ जाता है और मानिनी नायिका पिघलने, सँवरने, निखरने और बिखरने के बावजूद मुहब्बत को कबूल नहीं करती - अपनी टूटन और अपने झूठ से परिचित होते हुए भी/अहं टूटता है तो यह स्वीकृति भी सामने आती है - ‘‘करना तुझे हर हाल में हासिल है/तू ही मेरी अना का कातिल है।’’ इस प्रेम की प्रकृति है देह; और संस्कृति है रूह। कभी लोकलाज और कभी परंपराएँ इसके मार्ग में आती हैं लेकिन यह प्रेम की अनिवारता है कि ‘‘कुछ सालों पहले दफनाई हुई मुहब्बत/ अपनी कब्र से, कुलबुलाकर,/ बाहर निकलकर,/ नए रूप, नए रंग,/ धारण करके/ मेरा मुँह चिढ़ाने/ कहाँ से आ ही/ जाती है।’’ इसके साथ ही कवयित्री ने पारस्परिक संप्रेषण के खंडित हो जाने पर विफल प्रणय की कसक, अतीत की स्मृतियों और नौस्टेलजिक मोह से मुक्ति की आवश्यकता को भी रेखांकित किया है। ‘इंदु’ एक ओर यदि ग्लोबल जमाने के स्मृतिहीन होते जाने के संकट को पहचानती हैं तो दूसरी ओर आत्ममुग्धता से पैदा होने वाले खतरे का भी उन्हें अहसास है। इसीलिए वे प्रणय में भी कम से कम इतनी तो व्यावहारिकता चाहती हैं कि अतीत से निकलकर वर्तमान के अनुरूप जीवन को जीने के लिए नए मोड़ को स्वीकार कर लिया जाए।
इंदिरा ‘इंदु’ के यहाँ स्त्री की भी कई छवियाँ उभरती दिखाई देती हैं। अपने आप से बतियाती हुई स्त्री जाने कब खुद कविता बन जाती है। आँखों में उदासी और चेहरे पर भावुकता लिए यह स्त्री यद्यपि चुप रहती है लेकिन अपना मार्ग स्वयं चुनने की दृढ़ता दिखाती है। समाज में द्वितीयक स्थिति में होने के कारण आज भी स्त्री को अपने आपको पुरुष के रिश्ते के माध्यम से पारिभाषित करना पड़ता है। इसीलिए पिता, भाई, पति और पुत्र - चारों संबंधों से छली जाकर भी वह हर पुरुष में इन्हीं में से कोई न कोई संबंध खोजती रहती है। वह कभी टिटहरी के स्वर में तो कभी गिलहरी की दौड़ में अपने-आपको रूपायित करती है। स्त्री के भीतर बसनेवाली शाश्वत प्रेयसी एक ओर तो नदी की धार की तरह चंचल है और दूसरी ओर ध्रुव तारे की तरह एकनिष्ठ। उसे अपने रूप और आकर्षण का भी बोध है और गति के छंद का भी। एक प्रौढ़ स्त्री की अनुभूतियों को भी कई स्थलों पर कवयित्री ने खुलकर अभिव्यक्त किया है। यह स्त्री-पुरुष का विचित्र मनोविज्ञान है कि किशोर वय के पुरुष प्रौढ़ वय की स्त्रियों को भी कामनापूर्ण दृष्टि से देखते हैं। प्रौढ़ा की अनुभवी आँखें ऐसी गुस्ताखियों को पहचानती हैं और कभी ऐसा भी होता है कि ऐसी घटनाएँ उसे अपने अतीत की याद दिला देती हैं। किसी किशोर चेहरे में अपने पति के तीस साल पुराने चेहरे को खोजती हुई इंदिरा ‘इंदु’ की नायिका स्त्री-मन के प्रायः अनछुए पहलू को उजागर करती है। नारी संवेदनाओं की यह मुक्त स्वीकृति इन कविताओं को स्त्रीसुलभ तेवर प्रदान करती है। स्त्री और पुरुष के प्रेम का यह अंतर भी उभर कर सामने आता है कि स्त्री में एक उद्वेग होता है - दीवानगी जो सारी दीवारों को तोड़ सकती है, जबकि पुरुष के प्रेम में भी एक खास तरह की दुनियादारी होती है जो उसे विद्रोह के क्षण में लाचार और बेबस बना देती है। कवयित्री का ध्यान उन स्त्रियों की ओर भी गया है जो माँ न बन पाने के कारण सामाजिक तिरस्कार भोगती हैं। दूसरी ओर पुरुषों को छलने और उनका शोषण करने वाली स्त्रियाँ भी उनके दृष्टिपटल से ओझल नहीं हैं । यह उत्तराधुनिक स्त्री-छवि उन्हें भयभीत करती है क्योंकि स्वयं अपना चीरहरण करती, कामक्रीड़ा के तांडव नृत्य में लगी यह स्त्री उन्हें शर्मसार करने की हद तक बेशर्म लगती है। मीडिया और इंटरनेट की आभासी दुनिया ने जो नित्यकामुक किस्म की उत्तर-स्त्री-छवि गढ़ी है उसमें स्त्रीसुलभ नजाकत की अनुपस्थिति कवयित्री को चौंका देती है।
इस संग्रह की कविताओं में स्त्री-मन के अंतर्द्वंद्व, संबंधों के छीजने की पीड़ा, तनावभरी जिंदगी, घर के सदस्यों की अजनबियत, सब कुछ पा लेने की दौड़, सब कुछ पा लेने पर भी अवसादग्रस्तता, भीतर और बाहर में असामंजस्य, पीढ़ी अंतराल तथा विखंडित व्यक्तित्व की तमाम मनोवैज्ञानिक समस्याओं की तरफ भी इशारा किया गया है जिनसे आज का आम शहरी नागरिक घिरा हुआ है। ये सब समस्याएँ पानी में फेंके गए कंकड़ की तरह हलचल और गंदलापन पैदा करती हैं। लेकिन कवयित्री का आस्थावान मन इन विपरीत स्थितियों से पराजित नहीं होना चाहता क्योंकि ‘‘कभी-कभी/ कोई मासूम/ पवित्र कमल/ उग आता है/ उस कीचड़ सने पानी में।’’
हिंसा और आतंक आज की दुनिया की ग्लोबल समस्याएँ हैं। प्रेम का महाभाव इनके कारण आज सबसे ज्यादा खतरे में है। कवयित्री का इनके प्रति क्षोभ स्वाभाविक है, और जरूरी भी। प्रतिक्षण आतंक के साए में जीने को मज़बूर आम नागरिक की उपेक्षा करके प्रणय के राग गाना कवि-धर्म से मुँह चुराने जैसा होगा। इसीलिए जब तमाम औरतें बंबई हमलों के अपराधियों को रो-रोकर कोसती हैं तो कवयित्री क्षोभपूर्वक खुद को कमरे में बंद कर लेती हैं और भ्रष्टाचार, आतंकवाद, व्यभिचार तथा शहीदों की जान की कीमत लगानेवाले नेताओं की गर्दनें कलम से काटने लगती हैं। अपने शहर पूना में पसरी हुई मौत की शांति कवयित्री को अशांत कर देती है - ‘‘सहमा-सहमा सा है,/ आज मेरा शहर/ डरी-डरी सी सड़कें/ नजर मुझे आती हैं,/ प्यार के दिन ही,/ उसने गोलियाँ बरसाई हैं।/ गौतम, गांधी और ओशो का/ सपना है पूना शहर/ फूलों में आग,/ उसने लगाई है।/ मेरा शहर जानता है,/ प्रेम, अमन की ही भाषा/ रातों की नींद किसने उड़ा दी है।/ नेहरु का हर कबूतर यहाँ/ जख्मी है।/ होली के रंगों में भी/ आतिश किसने लगाई है?/हम तो फूल लेते हैं,/ फूल ही दिया करते हैं।/ काँटों की नोक,/ किसने चुभाई है?/ बैठे हैं, दिल को,/ मसोस कर ‘शबनम’/कई घायल, कई लाशें / मेरे शहर में,/ गिराई हैं।’’
इसके अतिरिक्त अनेक स्थलों पर इंदिरा ‘इंदु’ ने काव्यात्मक अभिव्यंजना की परवाह न करते हुए साधारण नागरिक की भड़ास को सीधे सपाट शब्दों में भी बयान किया है। उन्हें अपने मताधिकार का अविवेकपूर्ण प्रयोग करनेवाली जनता पर तो गुस्सा आता ही है, मोटी चमड़ी वाले नेताओं से भी वे रुष्ट हैं। इतनी रुष्ट कि उन्हें झुलसती धूप में डामर के रास्तों पर चलाना चाहती हैं। गलत रास्ते पर चल रहे सियासतदानों को वे माँ की तरह आगे बढ़कर चाँटा मारना चाहती हैं और आतंकवादियों को सत्य, अहिंसा तथा प्रेम का पाठ पढ़ाने के लिए गांधी को बुलाना चाहती हैं। वैसे गांधी से उन्हें शिकायत भी है की उन्होंने भारत-पाक को क्यों अलग किया। किसी सामाजिक कार्यकर्ता की तरह उन्हें भी आम हिंदुस्तानी का अशिक्षा और अंधविश्वास के गर्त में पड़े रहना सबसे बड़ा अभिशाप प्रतीत होता है। उन्होंने लक्षित किया है कि भारत की युवा शक्ति विदेशों की ओर पलायन कर रही है और हमारे शहर और गाँव सब वीरान होते जा रहे हैं। इसे वे नई गुलामी की शुरूआत मानती हैं और चाहती हैं कि आम भारतीय हर तरह के अंधविश्वासों से बाहर निकले और स्वावलंबी बने। आतंकवाद से लेकर भ्रष्टाचार और महंगाई तक का निरंतर बढ़ते जाना भारत में लोकशाही की विफलता का प्रतीक बन गया है। ऐसे में नागरिक रोष में उबलती हुई कवयित्री का यह प्रश्न चुनौती भी है और चेतावनी भी कि - ‘‘जनता के खून पर/पल रहे आज के नेता/कोई उनसे/हिसाब क्यों नहीं लेता?’’ जब सब ओर साधारण नागरिक के मानवाधिकारों की हत्या हो रही हो और सरकारें विलासिता में डूबी हों तो कवयित्री का यह कथन साधारण जनता की माँग जैसा प्रतीत होता है कि - ‘‘जो बलात्कार करे/ जिंदा मिट्टी में गड़वा दो/ जो आतंकवादी साबित हो उसे तुरंत ही जलवा दो।/ जो नेता सुरक्षा या अंगरक्षक मांगें /उन्हें फौरन कुर्सी से हटवा दो।’’ अभिप्राय यह है कि भारत के साधारण किसानों और गृहिणियों के असंतोष और आक्रोश को कवयित्री ने सीधे-सीधे व्यक्त किया है।
कवयित्री ने आज के वक्त की तमाम विडंबनाओं को पहचाना है। परंतु इसका अर्थ यह नहीं कि उन्हें केवल विद्रूपताएँ ही दिखती हैं। सच तो यह है कि उनका मन उत्सवधर्मी लोक और उसके सहज सौंदर्य में ही रमता है। वे मानती हैं कि कुदरत के करिश्मों के सही वारिस आज के छोटे-छोटे नन्हे-मुन्ने बच्चे हैं और उन्हें मीडिया के अश्लील प्रहार से बचाने की जरूरत हैं। इसमें संदेह नहीं कि अमानुष यथार्थ के दिल दहलाने वाले मंजर इन कविताओं में कई जगह हैं। जैसे - किसी भी उम्र की बच्ची या औरत का जिस्म पाने के लिए बेचैन भेडिए, बेगुनाहों की लाशों से भरा हआ सूखा कुआँ, मरीजों से दुगुना-तिगुना वसूलता हुआ डॉक्टर, लक्ष्मीदास बनता हुआ सरस्वतीपुत्र और वृद्ध माता-पिता को असहाय अवस्था में घर से निकाल फेंकती हुई संतानें। लेकिन कवयित्री की जिजीविषा इस परिवेश के आगे घुटने नहीं टेकती। उन्हें विश्वास है कि इस देश की जड़े ज़मीन में इतनी गहरी हैं कि तमाम विपरीत परिस्थितियाँ मिलकर भी उन्हें उखाड़ नहीं सकतीं। वे मानती हैं कि भारतीय लोकमानस अपनी सांस्कृतिक विरासत के बल पर तमाम उत्तरऔपनिवेशिक अपसंस्कृति का मुकाबला करने में समर्थ है।
इस प्रकार इंदिरा शबनम ‘इंदु’ के इस कविता संग्रह की कविताएँ समसामयिक हकीकतों को तमाम तुर्षी और तल्खी के साथ बयां ही नहीं करतीं, मनुष्य और मनुष्य की पारस्पारिकता, प्रेम, संघर्षशीलता और राष्ट्रीय एकजुटता के सहारे उनका मुकाबला करने का संदेश भी देती है।
सिंधीभाषी कवयित्री की ये कविताएँ हिंदी जगत में पर्याप्त स्नेह और सम्मान पाएँगीं, ऐसी आशा की जानी चाहिए।
26 जनवरी, 2011
3 टिप्पणियां:
सूक्ष्म विश्लेषण, पढ़ने की आस जगा गया।
बढिया भूमिका के लिए बधाई सर जी ॥
@प्रवीण पाण्डेय
धन्यवाद.
पुस्तक प्रकाशित होने पर सूचित करूँगा.
@cmpershad
लेकिन एक गड़बड़ है.
दरअसल यह पांडुलिपि अक्टूबर में मेरे पास आई थी और मुझे बताया गया था कि पुस्तक प्रेस में है. पर बलिहारी मेरे आलस्य की, मैंने यह भूमिका लिखकर देने में जनवरी तक का समय गुज़ार दिया. हो सकता है कि इस बीच पुस्तक छप भी चुकी हो तथा इस भूमिका को अब समीक्षा बनना पड़े.
खैर...यह तो मेरे साथ चलता रहता है...
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