भूमिका
यात्रावृत्त साहित्य की एक ऐसी लोकप्रिय विधा है जो हिंदी में आधुनिक गद्य के विकास के साथ ही आरम्भ हो गयी थी. इसका मूल रूप व्यापारिक, धार्मिक या रोमांचक अनुभवों को दूसरों से बांटने के लिए रोचक ढंग से सुनाने का रहा होगा.इसमें भी संदेह नहीं कि आत्मकथा का तत्त्व यात्रावृत्त को जहां एक ओर वृत्तकार के जीवन को समझने का आधार प्रदान करता है वहीँ इसका संस्मरण पक्ष देस-परदेस के भौगौलिक और प्राकृतिक परिवेश तथा वहाँ के मनुष्यों और जीव जंतुओं के सम्बन्ध में जिज्ञासाओं का शमन भी करता है. इस प्रकार यात्रावृत्त रचनाकार की आत्मप्रकाशन की वृत्ति और पाठक की उत्सुकता की वृत्ति को तुष्ट करने वाला साहित्य रूप है. इसमें आत्मकथा और कथात्मकता परस्पर गुँथ जाते हैं.एक सीमा तक यह विधा व्यक्तियों और स्थानों के वर्णन से जुडी होने के कारण रेखाचित्र के भी निकट है. कहने का आशय यह है कि यात्रावृत्त लिखना सहज पृवत्ति की तरह स्वाभाविक है तो एक मिश्रित साहित्यिक विधा के रूप में इसे साध पाना अपेक्षाकृत कठिन भी है. यात्राएँ सब करते हैं पर सब उन्हें लिख नहीं पाते.बहुत से लोग यात्रावृत्त लिखते हैं पर सफल यात्रावृत्त हर किसी के बूते की बात नहीं.
संपत देवी मुरारका (1943) ने भी सहज वृत्ति से प्रेरित होकर अपने यात्रा संस्मरणों को लेखबद्ध किया है. अपने यात्रावृत्तों की प्रथम पुस्तक के स्वागत से उत्प्रेरित होकर अब वे दूसरी पुस्तक ''यात्रा-क्रम : द्वितीय भाग'' भी हिंदी जगत को समर्पित कर रही हैं. संपत देवी मुरारका नितांत घरेलू किस्म की परन्तु उद्यमी महिला हैं. पर्यटन और तीर्थाटन में उनकी इतनी रुचि है कि वे अपने जीवन को सतत यात्रा के नाम समर्पित कर चुकी हैं. यात्राएँ किसी भी उद्देश्य से की जाएँ, संपत देवी यह ध्यान रखती हैं कि वे एकांत देशाटन न हों. बल्कि पारिवारिक या सामाजिक मित्रों के साथ ऐसी सहयात्रा बनें जो सामूहिक स्मृति का विषय बन सकें.
इस यात्रावृत्त संग्रह में संपत जी ने जिन विविध स्थलों के संस्मरण शब्दों के माध्यम से पुनः जिए हैं उनमें घ्रिश्नेश्वर मंदिर, त्र्यम्बकेश्वर मंदिर, रणछोड़ मंदिर,सोमनाथ मंदिर, द्वारिकधीश मंदिर, देलवाडा मंदिर, पुष्कर, महाकालेश्वर मंदिर,पशुपतिनाथ, चित्रकूट, बैद्यनाथ, कुल्लू-मनाली, जम्मू-कश्मीर, उत्कल, प्रयाग, गोवा,पंचगनी से लेकर कैलाश मानसरोवर तक सम्मिलित हैं. लेखिका ने अपने इन यात्रा वृत्तों में विस्तारपूर्वक हैदराबाद से लेकर इन सब स्थानों तक की यात्रा के मार्ग,कष्ट, सुखद अनुभव और महत्व आदि का पठनीय विवरण दिया है. अनेक स्थलों पर उन्होंने अपनी पारखी नज़र का भी परिचय दिया है तथा बातों ही बातों में दृश्यों को मूर्तिमान कर दिया है. इसी प्रकार उनके विवरणों में स्थान स्थान पर उनका कवि हृदय भी प्रकट हो गया है. जैसे घाटी के पार जब कहीं वे गिरिश्रृंगों का अवलोकन करती हैं तो उन्हें ऐसा लगता है कि आकाश झुक कर इन चोटियों का अभिषेक कर रहा है. काव्यात्मक भाषा के अनेक सन्दर्भ ऐसे भी हैं कि सहज ही विस्मय और असमंजस जगता है कि संपत देवी मुरारका अपने साधारण घरेलू महिला के विरुद के साथ इस भाषा शैली को कैसे साध पाती हैं!
लेखिका ने अपनी सभी मुख्यतः धार्मिक यात्राओं के साथ जुड़ी हुई लोक आस्था और सांस्कृतिक चेतना का भी रोचक उल्लेख किया है. आवश्यकता पड़ने पर कहीं-कहीं शास्त्रों के उदाहरण भी दिए हैं. उन्होंने दर्शाया है कि इस देश की सांस्कृतिक चेतना ने लोक जीवन को जिन धार्मिक आस्थाओं से सम्बद्ध किया है उनमें अनगिनत पर्वों और तीर्थों के विन्यास रचे गए हैं. विभिन्न तीर्थ स्थानों से जुड़ी हुई लोक कथाओं को भी अत्यंत रोचक रूप में समाहित किया गया है.यात्रावृत्तों को कथारस से युक्त करने के लिए लेखिका ने सह-यात्रियों के साथ के अनुभवों को भी भली प्रकार पिरोया है. इसमें संदेह नहीं कि सामूहिक यात्राएँ हमारे चित्त को विशद करती हैं. संपत देवी मुरारका ने भी अनेकानेक यात्राओं में चित्त की विशदता का आनंद उठाया है. ऐसे अनेक अवसर आए हैं जब उन्होंने अनुभव किया कि मन करुणा और ममता की तरंगों पर लगातार हिचकोले खा रहा है. ये यात्राएँ उन्हें यह बोध करने में सफल रहीं कि प्रेम की धारा रिश्ते नातों की मर्यादा के बाहर ऐसे लोगों को भी ऐसे लोगों को भी अपने अंकपाश में बाँध लेती है जो आपके लिए नितांत अपरिचित होते हैं.
प्राकृतिक परिवेश के प्रति लेखिका ने अपनी जागरूकता सभी संस्मरणों में प्रमाणित की है. महाबलेश्वर की यात्रा में वर्षा का वर्णन करते हुए जब वे यह बताती हैं कि पहाड़ की शोभा धुली धुली लगने के साथ ही आकाश में छाये हुए बादलों के कारण धुँधली भी लगती थी तथा जब सूरज बादलों को चीरकर निकलता था तो वह दृश्य अत्यधिक अभिराम प्रतीत होता था, तब उनकी सौंदर्य दृष्टि का एक और प्रमाण मिलता है. ऐसे प्रसंगों को लेखिका ने ऐतिहासिक और पौराणिक सन्दर्भों से जोड़कर और भी रुचिकर बना दिया है.
धर्मप्राण भारतीय महिला के रूप में की गयी संपत देवी मुरारका की ये सारी यात्राएँ पाठक के मन में भारतीयता के संस्कारों के प्रति आकर्षण और आस्था उत्पन्न करने वाली हैं. वे बताती हैं कि मानसरोवर में स्नान करने के बाद तट पर पूजन करके जब लेखिका ने रुद्राभिषेक तथा हवन कराया तो दाना चुगते सफ़ेद पक्षियों को देख कर उनके मन में राजहंस की मिथकीय कल्पना साकार हो उठी.वस्तुतः ऐसे साहित्यिक और सांस्कृतिक प्रसंगों में लेखिका का मन खूब रमा है जिनकी दार्शनिक एवं प्रतीकात्मक व्याख्याएँ की जाती हैं. ये व्याख्याएँ कहीं न कहीं से उद्धृत की गई हैं, लेकिन संस्मरण के प्रवाह की क्षति नहीं होने दी गई है. कहीं कहीं विवरणों में अधिक इतिवृत्तात्मकता अवश्य आ गई है, जिससे बचा जा सकता था.
संपत देवी मुरारका के ये यात्रावृत्त उन लोगों को सम्बंधित तीर्थ स्थलों के अक्षर-दर्शन कराने में सहयोगी बनेंगे जो इन यात्राओं से वंचित रह जाते हैं, ऐसा विश्वास किया जाना चाहिए!
शुभकामनाओं सहित.
रामनवमी : 4 अप्रैल,2009 .
यात्रा-क्रम (द्वितीय भाग) / संपत देवी मुरारका / ज्ञान भारती , 4 /14 रूप नगर,दिल्ली - 110007 / प्रथम संस्करण : 2009 / 108 पृष्ठ / 250 रुपए.
|
|
|
|
|
4 टिप्पणियां:
भारत में कितना कुछ देखने को है, उसकी तुलना में यात्रावृत्तान्त बहुत कम हैं। मुरारका जी की कृति का स्वागत है।
भूमिका पढ कर पुस्तक पढ़ने की उत्कंठा है :)
@प्रवीण पाण्डेय
आपकी इस बात से सहमत हूँ कि अनुपात में यात्रावृत्त बहुत कम हैं. एक बात और जोड़ दूँ कि प्रायः संस्मरण होने के बजाय ऐसे वृत्त टूरिस्ट-गाइड बन कर रह जाते हैं.अस्तु;
धन्यवाद.
@cmpershad
आपकी उत्कंठा के यथाशीघ्र शमन की भविष्यवाणी कर सकता हूँ (क्योंकि मुझे मालूम है कि किताब आपके घर पहुँचने ही वाली है)!
एक टिप्पणी भेजें