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बुधवार, 10 अक्टूबर 2018

भक्तिकाल की काव्य प्रवृत्तियाँ : निर्गुण भक्तिकाव्य : संतमत


भक्तिकाल को ‘हिंदी साहित्य का स्वर्णयुग’ कहा जाता है। इस काव्य की दो मुख्य धाराएँ हैं – एक निर्गुण काव्य धारा, दो – सगुण काव्य धारा। इनके भी प्रवृत्तिगत दो-दो भेद हैं। निर्गुण धारा के अंतर्गत (1) निर्गुण संत काव्य (ज्ञानाश्रयी शाखा) तथा (2) प्रेमाख्यानक काव्य (प्रेमाश्रयी शाखा या सूफी शाखा) एवं सगुण धारा के अंतर्गत (1) कृष्ण भक्ति काव्य और (2) राम भक्ति काव्य शामिल हैं। गुणवत्ता और परिमाण की दृष्टि से अत्यंत समृद्ध भक्तिकाल में काव्य की विधाओं, शैलियों और भाषा की दृष्टि से भी वैविध्य, प्रौढ़ता तथा परिपक्वता प्राप्त होती है। कथ्य, कथन और प्रभाव की दृष्टि से भी भक्तिकाल का साहित्य अत्यंत उच्चकोटि का है, इसमें संदेह नहीं। 

ज्ञान साधना द्वारा निर्गुण ब्रह्म की प्राप्ति का समर्थन करने वाले ज्ञानाश्रयी शाखा के कवियों अथवा संत कवियों में कबीरदास, रैदास, नानकदेव, जंभनाथ, हरिदास निरंजनी, सींगा, लालदास, दादूदयाल, मलूकदास, बाबालाल और सुंदरदास मुख्य हैं। इनमें अधिकांश संत अद्वैतवादी हैं। कबीर के पूर्व भी हिंदी क्षेत्र में सरहपाद, तिल्लोपाद और गोरखनाथ की बानियों के माध्यम से अद्वैत का प्रचार था। ‘हिंदी साहित्य कोश’ के अनुसार "योग, बौद्ध और वेदांत तीनों के मिलने से शंकर के समय में ही उत्तरी भारत में अद्वैतवाद का प्रचार था। बौद्धों और औपनिषदों के बाहर जाने से अद्वैत ईरान, मिस्र में गया था। वह मुसलमानों के आने पर सूफीमत का रूप रखकर भारत में वापस आया। इसका भी अद्वैत में योगदान है। सब धाराओं के मिल जाने से कबीर का अद्वैतवाद 15 वीं शताब्दी में संभव हुआ।"

संत कवियों में कबीर, दादू और मलूक अद्वैतवादी तथा नानक भेदाभेदवादी हैं। कबीर के अनुसार परमात्मा और जीवात्मा पूर्णतः एक हैं, जबकि नानक इनमें बड़े-छोटे का अंतर मानते हैं। साधना प्रणाली की दृष्टि से कबीर, सुंदरदास और हरिदास योगसाधना से प्रभावित हैं जबकि दादू, नानक, रैदास, जंभनाथ, रज्जब, मलूकदास और बाबालाल योग साधना से अप्रभावित संत हैं। इन्होंने कहीं-कहीं ‘सुरत’ और ‘शब्द योग’ आदि का उल्लेख तो किया है लेकिन उसमें कबीर जैसी गहराई और प्रामाणिकता नहीं हैं। 

संत काव्य में गुरु को अनेक स्थलों पर ब्रह्म से भी अधिक महत्व दिया गया है। वही साधक को परमेश्वर या आत्मस्वरूप या ब्रह्म का साक्षात्कार करा सकता है। वही परंपरा और गतानुगतिकता का अतिक्रमण कर सकता है। वह शब्द, दृष्टि या स्पर्श द्वारा शक्तिपात से शिष्य को ब्रह्म का अनुभव भी करा सकता है। इसी कारण आगे चलकर संत काव्य के प्रत्येक संप्रदाय में सद्गुरु को अवतार मानने और उसके चित्र की उपासना करने की रूढ़ि विकसित हो गई। गुरु महिमा के संबंध में कबीर कहते हैं – 
सतगुरु साँचा सूरीबाँ, सबद जु बाह्या एक। 
लागत ही भैं मिट गया, पड़ा कलेजे छेक॥ 

सतगुरु की महिमा अनँत, अनँत किया उपकार। 
लोचन अनँत उघारिया, अनँत दिखावणहार।। 

गुरु गोबिंद दोऊ खड़े, काके लागूँ पाँय। 
बलिहारी गुरु आपने, जिन गोबिंद दियो बताय॥

संत काव्य में नामस्मरण का भी निरूपण किया गया है और इस प्रकार तादात्म्य वांछित माना गया है कि जप के रूप में नामस्मरण निरंतर साँस के आने-जाने के साथ चलता रहे। कबीर ने ‘राम’ के नामस्मरण की विस्तार से चर्चा की है और यह भी स्पष्ट किया है कि राम का अर्थ विष्णु का अवतार या दशरथ का पुत्र नहीं वरन ब्रह्म है। नाम रूपी रस का पान करने से आनंद रूपी खुमारी का अनुभव होता है। साधक इसमें इस प्रकार तल्लीन हो जाता है कि 'जभड़ियाँ छाला पड्या पीव पुकारि-पुकारि।'

सभी संत कवि मूर्तिपूजा के विरोधी थे, अवतारवाद को अस्वीकार करते थे। उन्होंने हिंदू और मुसलमान समाजों में व्याप्त बाह्याचार और पाखंड का दृढ़ शब्दों में खंडन करते हुए आत्मसाक्षात्कार पर बल दिया। मूर्तिपूजा, तीर्थयात्रा, व्रत, उपवास, रोजा, अज़ान, हज आदि को कबीर तब तक निरर्थक मानते हैं, जब तक साधक के भीतर मनुष्यता, अपरिग्रह, संयम, बंधुत्व, समभाव और अहिंसा जैसे गुण विकसित नहीं होते। इन गुणों से युक्त साधक तो पलभर की तलाश में ही उस परमेश्वर को स्वयं अपने भीतर पा सकता है –
पाहन पूजे हरि मिले, तो मैं पूजूँ पहार। 
ताते तो चाकी भली, पीस खाय संसार॥

मूँड मुँडाए हरि मिले, सब कोई लेय मुँडाय।
बार-बार के मूँडते, भेड न बैकुंठ जाय ॥ 

दिन भर रोजा रखत हैं, राति हनत हैं गाय।
यह तो खून वह बंदगी, कैसी खुशी खुदाय॥ 

काँकर-पाथर जोरि के, मस्जिद लई बनाय।
ता चढ़ि मुल्ला बाँग दे, क्या बहिरा हुआ खुदाय॥

हिंदू कहे मोहि राम पियारा, तुरक कहे रहमाना। 
आपस में दोऊ लरि-लरि मुए, मरम न काहू जाना॥

मोको कहा ढूँढ़े रे बंदे, मैं तो तेरे पास में।
ना मैं मंदिर, ना मैं मस्जिद, ना काबे-कैलास में॥ 

वास्तव में कबीर जैसे संत कवियों ने ‘आँखिन देखी’ स्वानुभूति को ही काव्य का विषय बनाया। कबीर जन्म से विद्रोही प्रवृत्ति के थे। वे समाज सुधारक, धर्म सुधारक, प्रगतिशील दार्शनिक और सहज कवि के रूप में प्रसिद्ध हैं। सामान्य अशिक्षित जनता के बीच सत्य का निरूपण, कथनी-करनी की एकता और नाम के माधुर्य का अनुभूतिप्रवण प्रचार उनका लक्ष्य था। आत्मा, परमात्मा, जीव, जगत जैसे बौद्धिक विवेचन में भी कबीर ने निर्गुण भक्ति में माधुर्य भावना (ब्रह्म के साथ मधुर संबंध की भावना) का समावेश करके रहस्यानुभूतिपरक उदात्त काव्य की रचना की। सबकी आलोचना करने वाले तथा हर समय अक्खड़पन को ओढ़े रखने वाले कबीर एक समग्र प्रेमी जीवात्मा के रूप में भी अद्वितीय रचनाकार है। उनकी रहस्यानुभूति स्पृहणीय हैं – 
नैनों की कर कोठरी, पुतरी पलंग बिछाय। 
पलकों की चिक डारि के, पिय को लियो रिझाय॥ 

दुलहिन गावहु मंगलचार। 
हम घर आए, हो, राजाराम भरतार॥ 

सुपने में साईं मिले, सोवत लिया जगाय। 
आँख न खोलूँ डरपता, मत सुपुना हो जाय॥ 

संतों की अभिव्यंजना शैली भी बड़ी शक्तिशाली है। कबीर ने निरक्षर होने के बावजूद साधना के एक-एक अंग को लेकर सैंकड़ों ‘साखियाँ’ रची हैं। उनके काव्य में केवल नीति-उपदेश, खंडन-मंडन और समाज-सुधार ही नहीं, शृंगार के संयोग और वियोग पक्ष तथा अद्भुत रस का सुंदर परिपाक भी मिलता है। दांपत्य और वात्सल्य के द्योतक और रहस्य भावना के अकथनीय अनुभव को व्यक्त करने वाले अनेक प्रतीकों (जैसे दुलहिन, भरतार, पीव, दिया, बाण, सर्पिणी, चदरिया, कमलिनी, घट, कुम्हार, बाजार) का सटीक प्रयोग उन्हें एक समर्थ कवि सिद्ध करता है। सहज रूप से प्रयुक्त रूपकों और उपमाओं के अतिरिक्त उनकी उलटबाँसियाँ उनकी काव्य प्रतिभा के चमत्कार की द्योतक हैं। 

काव्यभाषा की दृष्टि से संतों की भाषा को कभी खिचड़ी, कभी सधुक्कड़ी और कभी संध्या भाषा कहा गया है। संध्या भाषा तो उलटबाँसियों के लिए रूढ़ है जबकि सधुक्कड़ी और खिचड़ी से यह तथ्य स्पष्ट होता है कि इनकी भाषा में अनेक भाषाओं का मिश्रण हुआ है। वस्तुतः तत्कालीन परिवेश के अनुरूप संतवाणी की रचना जनता के अशिक्षित, उपेक्षित और पिछड़े वगों के लिए हुई थी, इसलिए संतों की भाषा सरल, कृत्रिमताहीन और सहज है। संत भ्रमणशील थे इसलिए विभिन्न क्षेत्रों की बोलियों का प्रभाव उनके काव्य में पाया जाना स्वाभाविक है। भोजपुरी, अवधी, ब्रजभाषा, पंजाबी और राजस्थानी के भाषिक प्रयोग उनके काव्य में स्वाभाविक रूप में मिलते हैं। भाषा-संरचना और क्रिया-रूपों की दृष्टि से कबीर की काव्यभाषा खड़ी बोली के काफी निकट प्रतीत होती है। विभिन्न बोलियों के शब्दों का पाया जाना ‘कोड परिवर्तन’ और ‘कोड मिश्रण’ की समाजभाषिक प्रवृत्ति का सूचक है जिसमें कबीर ने भोजपुरी ‘कोड’ का सर्वाधिक प्रयोग किया है। इस दृष्टि से उनकी काव्य-भाषा का पुनर्मूल्यांकन होना अभी शेष है। 

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