सगुणमार्गीय भक्तिकाव्य में कृष्ण को आराध्य मानने वाले कवियों ने कृष्ण भक्ति काव्य परंपरा का विकास किया। भारतीय संस्कृति में कृष्ण का व्यक्तित्व अत्यंत विलक्षण माना जाता है। ऋग्वेद, उपनिषद, महाभारत तथा हरिवंश, विष्णु, भागवत, ब्रह्मवैवर्त आदि पुराणों में उपलब्धता के साथ-साथ यह विश्वास किया जाता है कि कृष्ण की कथा मौखिक रूप में लोक प्रचलित रही है, जिसमें समय-समय पर अनेक काल्पनिक प्रसंग और रूपक जुड़ते चले गए। एक ओर कृष्ण योगी और परमपुरुष हैं तो दूसरी ओर ललित और मधुर गोपाल हैं तथा तीसरी ओर वे एक वीर राजनयिक हैं। उनके ये तीनों रूप उसे परमदैवत रूप के अधीन विकसित हुए हैं जो प्राचीन समय से वासुदेव के रूप में लोकप्रिय था। इसकी चरम परिणति अंततः साक्षात परब्रह्म में हुई। लोक साहित्य में कृष्ण के विषय में असंख्य आख्यान उपलब्ध होते हैं जिनसे प्रेरित होकर 12वीं शताब्दी में जयदेव ने संस्कृत में ‘गीत गोविंद’ की रचना की जिसे राधा-कृष्ण संबंधी प्रथम काव्य रचना माना जाता है। इसे ‘भक्ति और शृंगार का अनुपम माधुर्य मंडित गीतिकाव्य’ कहा गया है।
इस परंपरा में हिंदी में सबसे पहली साहित्यिक अभिव्यक्ति चौदहवीं-पंद्रहवीं शताब्दी में विद्यापति की ‘पदावली’ के रूप में हुई। विद्यापति की ‘पदावली’ को हिंदी कृष्ण काव्य की पहली रचना होने का गौरव प्राप्त है, जिसमें राधाकृष्ण के प्रेम का वर्णन लौकिक शृंगार के स्तर पर लोक परंपरा के अनुसार भी किया गया है; और साथ ही भक्ति के माधुर्य भाव से संपन्न ‘उज्ज्वल शृंगार’ का भी निरूपण किया गया है। यही कारण है कि विद्यापति की ‘पदावली’ रसिकों और भक्तों दोनों ही में समान लोकप्रिय रही है। यहाँ तक कि चैतन्य महाप्रभु तक को उसने अपने अपरूप सौंदर्य वर्णन और प्रेम प्रवणता से रसमग्न किया है। वास्तव में भक्ति और शृंगार की विभाजक रेखा कितनी सूक्ष्म हो सकती है, इसे विद्यापति के काव्य में ही देखा जा सकता है।
महाप्रभु वल्लभाचार्य द्वारा प्रवर्तित पुष्टिमार्ग में सूरदास सहित आठ कृष्ण भक्त कवियों का महत्वपूर्ण स्थान है जिन्हें ‘अष्टछाप’ के नाम से जाना जाता है। ये हैं सूरदास, कुंभनदास, परमानंद दास, कृष्णदास, नंददास, गोविंद स्वामी, छीतस्वामी और चतुर्भुजदास। इसी प्रकार निंबार्क संप्रदाय में श्रीभट्ट और परशुराम देव हुए। राधावल्लभ संप्रदाय में हित हरिवंश, दामोदर दास, हरिराम व्यास, चतुर्भुज दास, ध्रुवदास और नेही नागरी दास के नाम उल्लेखनीय हैं। हरिदासी (सखी) संप्रदाय में स्वामी हरिदास, गोस्वामी और विहारीदास जैसे कवि हुए जबकि चैतन्य (गौड़ीय) संप्रदाय में रामराय, सूरदास मदन मोहन, गदाधर भट्ट, चंद्रगोपाल, भगवान दास, माधवदास माधुरी और भगवत मुदित उल्लेखनीय हैं।
कृष्ण भक्ति के इन विविध संप्रदायों से स्वतंत्र कृष्ण भक्ति कवियों के रूप में मीराबाई और रसखान प्रमुख हैं। इन समस्त कृष्ण भक्त कवियों में सूरदास का स्थान निःसंदेह सर्वोपरि है। उन्होंने श्रीमद् भागवत को आधार बनाकर पुष्टि मार्ग को मान्यताओं के अनुरूप कृष्ण के गोकुल, वृंदावन और मथुरा के जीवन से संबंधित संपूर्ण कथा को ‘सूरसागर’ नामक गीति प्रबंध के रूप में प्रस्तुत किया तथा ब्रजभाषा को चित्रात्मकता, आलंकारिकता, भावात्मकता, सजीवता, प्रतीकात्मकता और बिंबात्मकता से युक्त करके जनभाषा से आगे अपने युग की काव्यभाषा के राजसिंहासन पर प्रतिष्ठित किया।
सूरदास का काव्यक्षेत्र गृहस्थ जीवन और परिवार तक सीमित है। उसमें बाह्य जीवन के संघर्ष की अपेक्षा गृहस्थ जीवन की तन्मयता और परिवार की सुरक्षा कामना इस प्रकार व्यक्त हुई है कि उनका कथावृत्त जीवन के प्रति राग जगाता है। संपूर्ण भागवत को आधार बनाने के बावजूद उनका कवि मन कृष्ण की बाल लीलाओं और किशोरावस्था के भावपूर्ण चित्रण में अधिक रमा है। उनका भाव चित्रण कृष्ण भक्ति काव्य की एक बड़ी उपलब्धि है। बालभाव और वात्सल्य से सने मातृहृदय के प्रेमपूर्ण भावों के चित्रण में प्रज्ञाचक्षु सूरदास अद्वितीय हैं। इसी प्रकार शृंगार और भक्ति को जोड़कर माधुर्य भक्ति के संयोग और वियोग पक्षों का जैसा मार्मिक वर्णन सूर ने किया है, वैसा अन्यत्र दुर्लभ है। प्रवास जनित वियोग के संदर्भ में भ्रमरगीत प्रसंग में दार्शनिकता और आध्यात्मिकता का भावात्मकता के साथ संयोग शास्त्रीय विषय को अभिव्यक्तिपरक संस्कृति में सफलतापूर्वक ढालने की प्रक्रिया का सुंदर उदाहरण है। सूरदास ने कृष्ण की लीलाओं के प्रसंग में प्रकृति सौंदर्य, जीवन के विविध पक्षों, बाल क्रीड़ाओं, गोचारण, रासलीला, उपालंभ, दानलीला, चीरहरणलीला आदि का वर्णन प्रचुर मात्रा में किया है क्योंकि परब्रह्म श्रीकृष्ण की इन लीलाओं का निरंतर वर्णन और कीर्तन ही उनके सान्निध्य को प्राप्त करने का मार्ग है। परंतु यह सब वर्णन करते हुए वे उपदेशक या सुधारक की मुद्रा धारण नहीं करते बल्कि सरल हृदय का भावपूर्ण उद्घाटन करते हैं। उनकी भक्ति में दास्य, सख्य और मधुर भाव की त्रिवेणी का प्रवाह है। उनके विभिन्न भावों और मनोदशाओं के कुछ उदाहरण द्रष्टव्य हैं –
(1) वात्सल्य (संयोग) : मैया मोरी मैं नहीं माखन खायो....... ।
(2) वात्सल्य (वियोग) : संदेसों देवकी सों कहियो......... ।
(3) प्रथम दर्शन : बूझत श्याम कौन तू गोरी....... ।
(4) तन्मयता : उर में माखन चोर गड़े....... । ऊधो, मन न भए दस बीस...... ।
(5) व्यग्रता : अँखियाँ हरि दर्शन की भूखी.....
(6) विदग्धता : निर्गुण कौन देस को वासी..... ।
(7) नित्यविहार : बिहँसि कह्यौ हम तुम नहिं अंतर, यह कहिकैउन ब्रज पठई।/
सूरदास प्रभु राधा-माधव, ब्रज-विहार नित नई-नई॥
(8) अनुग्रह : जा पर दीनानाथ ढरैं....... ।
सूरदास की भक्ति पद्धति का मेरुदंड पुष्टिमार्गीय दर्शन है जिसमें भगवद्कृपा या अनुग्रह को पुष्टि (पोषण) माना गया है। इस अनुग्रह को प्राप्ति करने के लिए भक्त स्वयं को परब्रह्म कृष्ण की शरण में समर्पित कर देता है। वात्सल्य, दांपत्य और सख्य भाव के अनुरूप पुष्टि के तीन रूप हैं – मर्यादा, प्रवाह और पुष्टि। ब्रजांगनाएँ, गोपियाँ और गोपकुमारियाँ क्रमशः इन तीनों का आश्रय है। सूरकाव्य में पुष्टि के तीनों ही रूप उपलब्ध होते हैं। श्रीकृष्ण के प्रति भक्त का गोपीभाव से आत्मीयतापूर्ण संबंध पुष्टिमार्ग का आधार है। विभिन्न लीलाओं के वर्णन से भक्त को श्रीकृष्ण की कृपा या अनुग्रह की अनुभूति होती है और इसीलिए कवि ने माधुर्य भाव को स्पष्ट करने वाले मनोरम प्रसंगों का पुनः पुनः रसपूर्ण वर्णन किया है। इस वर्णन का आलंबन श्रीकृष्ण हैं जो साक्षात परब्रह्म, अद्वैत और परमेश्वर हैं तथा भक्त के उदात्तीकृत लौकिक जीवन का अभिन्न अंग है। डॉ. ब्रजेश्वर वर्मा के अनुसार, "भक्त कवियों के हाथ में कृष्ण काव्य उन मानवीय भावों के सहज परिष्करण और उदात्तीकरण का व्यावहारिक और प्रत्यक्ष द्रष्टांत बनकर प्रयुक्त हुआ था, जो मनुष्य को संसार के विषयों में लिप्त किए रहते हैं तथा पतन की ओर ले जाते हैं। परिवार के जो नाते मनुष्य के आध्यात्मिक विकास में उसके सबसे बड़े वैरी है, श्रीकृष्ण उन्हीं के रूप में भक्तों को प्राप्त होकर उनके तत्संबंधी रागद्वेष को अपने में समर्पित करा लेते हैं। गीता में श्रीकृष्ण ने जिस निःसंगता का उपदेश दिया था, उसी को भक्त कवियों ने चित्रित किया है, तथा उन्होंने आत्म समर्पण युक्त भक्ति योग का जो रूप अर्जुन को समझाया था, वही काव्य में उदाहृत किया गया है।"
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