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सोमवार, 28 मई 2018

रहनुमा तो नहीं हो, साँप ही तो हो : पं. गोपाल प्रसाद व्यास

पुण्य तिथि 28 मई पर विशेष

रहनुमा तो नहीं हो, साँप ही तो हो : पं. गोपाल प्रसाद व्यास
- ऋषभ देव शर्मा

उन्होंने कक्षा सात की भी परीक्षा नहीं दी थी, लेकिन वे अलंकारशास्त्र, रससिद्धांत, नायिकाभेद और समस्त ललित कलाओं के विशेषज्ञ थे. उनका जन्म ब्रजमंडल के एक छोटे से गाँव में हुआ था, लेकिन उन्होंने समस्त हिंदी जगत को अपनी वाणी के प्रसाद से प्रमुदित किया. वे स्कूली शिक्षा को बीच में ही छोड़कर स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े थे, लेकिन महात्मा गांधी के निर्देश पर उन्होंने सक्रिय राजनीति से परहेज़ करते हुए रचनात्मक कार्यों और आंदोलन में अपने को झोंक दिया. दुनिया उन्हें लाल किले के कवि सम्मेलन के जनक के रूप में जानती है, लेकिन कम लोग यह जानते हैं कि वे केवल हास्य और व्यंग्य के ही अनन्य हस्ताक्षर नहीं थे, बल्कि वीर रस की ओजस्वी कविताओं के क्षेत्र में भी उन्हें बेजोड़ सफलता मिली थी.

ऐसे कविकुल शिरोमणि पंडित गोपाल प्रसाद व्यास का जन्म 13 फरवरी, 1915 को हुआ था और उन्होंने साहित्य की दीक्षा नवनीत चतुर्वेदी, कन्हैया लाल पोद्दार, वासुदेव शरण अग्रवाल और डॉ. सत्येंद्र जैसे अपने समय के मूर्धन्य विद्वानों से ग्रहण की थी. वे साहित्य संदेश, दैनिक हिंदुस्तान, राजस्थान पत्रिका, सन्मार्ग और विकासशील भारत से संपादक के रूप में तो जुड़े ही थे; पर खास बात यह कि बाईस वर्ष की आयु से जो स्तंभ लेखन का कार्य आरंभ किया, उसे अत्यंत जागरूक पत्रकार के रूप में अपने अंतिम समय तक बखूबी निभाया.

हिंदी भाषा और साहित्य के लिए अपने आप को पूरी तरह समर्पित कर देने वाले कवि गोपाल प्रसाद व्यास ने ब्रज साहित्य मंडल की ही स्थापना नहीं की, दिल्ली हिंदी साहित्य सम्मेलन और  श्री पुरुषोत्तम हिंदी भवन न्यास समिति की भी नींव रखी. इतना ही नहीं, होली के अवसर पर ‘मूर्ख महासम्मेलन’ की परंपरा को भी सरलता, सहजता, सरसता और जीवंतता के साक्षात अवतार गोपाल प्रसाद व्यास  ने ही जन्म दिया. आशय यह कि उन्होंने ही हिंदी में हास्य-व्यंग्य की लगभग सूखी धारा को पुनर्जीवित किया.

इसमें संदेह नहीं कि हास-परिहास से लेकर चुटीले व्यंग्य तक उनका कोई सानी नहीं. हिंदी हास्य कविता को पत्नी का आलंबन पहले पहल उन्होंने ही प्रदान किया. पत्नी ही क्या, ससुराल के अन्य सदस्यों साली सलहज और सास के बहाने भी उन्होंने अपने समय और समाज की अनेक दुखती रगों को कभी सहलाया, तो कभी चटकाया भी. साली क्या है रसगुल्ला है, पत्नी को परमेश्वर मानो, साला ही गरम मसाला है, सास नहीं भारतमाता है, पलकों पर किसे बिठाऊँ मैं, एजी कहूँ कि ओजी कहूँ, समधिन मेरी रसभीनी है और भाभीजी नमस्ते जैसी कविताओं के द्वारा वे हिंदीभाषी जनगण के कंठहार बन गए थे. हिंदी कवि सम्मेलन को उन्होंने शिष्ट हास्य द्वारा आम जनता तक पहुँचाने का बड़ा कार्य संपन्न किया.

इसी प्रकार उनकी व्यंग्य कविताओं में खासतौर से आराम करो, नई क्रांति, बोए गुलाब, साँप ही तो हो, सत्ता, सुकुमार गधे और सरकार कहते हैं तो आज भी उतनी ही प्रासंगिक हैं, जितनी अपने रचनाकाल में रही होंगी. आइए, बानगी देखते चलें.
कुंभकर्णी दोपहरी मंदोदरी साँझ/ रात शूर्पणखा सी बेहया बाँझ/ मेघनाद छाया है/ दसों दिशा क्रुद्ध/ चाह रही बीस भुजा तापस से युद्ध / और तुम कहते हो/ सृजन को सँवारो/ कंटकित करीलों की आरती उतारो! (बोए गुलाब).
साँप,/ दो-दो जीभें होने पर भी/ भाषण नहीं देते?/ आदमी न होकर भी/ पेट के बल चलते हो./यार! हम तुम्हारे फूत्कार से नहीं डरते/ साँप ही तो हो,/भारत के रहनुमा तो नहीं हो! (साँप ही तो हो).
कमर में जो लटकती है उसे सलवार कहते हैं/ जो आपस में खटकती है उसे तलवार कहते हैं/ उजाले में भटकती है उसे हम तारिका कहते/ अँधेरे  में भटकती जो उसे सरकार कहते हैं! (सरकार कहते हैं).
लेकिन आज की पीढ़ी में बहुत कम हिंदीवालों को यह जानकारी होगी कि हास्य रसावतार गोपाल प्रसाद व्यास ने वीर रस से भरी ऐसी कविताएँ भी रची हैं जिन्हें सुनकर आज भी शरीर रोमांचित हो उठता है और मन में ओज भाव का संचार होता है. दरअसल उनका कवि-मन अपने कैशोर्य में सुभाष चंद्र बोस से सर्वाधिक प्रभावित था. उन्होंने सुभाष पर और  स्वतंत्रता संग्राम पर कई ओजस्वी कविताएँ लिखीं जिनमें नेताजी सुभाष चंद्र बोस, नेताजी का तुलादान, खूनी हस्ताक्षर, हिंदुस्तान हमारा है, मुक्ति पर्व, प्रयाण गीत और शहीदों में तू नाम लिखा ले रे! जैसे मर्मस्पर्शी गीत शामिल हैं.

28 मई, 2005 को यह पार्थिव संसार छोड़ गए कवि गोपाल प्रसाद व्यास की कीर्ति-काया अजर-अमर है. उनकी पुण्यतिथि पर उन्हें प्रणाम करते हुए ‘नेताजी सुभाष चंद्र बोस’ का यह अंश श्रद्धापूर्वक निवेदित है :

बाँधे जाते इंसान, कभी तूफ़ान न बाँधे जाते हैं।/
 काया ज़रूर बाँधी जाती, बाँधे न इरादे जाते हैं।।/
 वह दृढ़-प्रतिज्ञ सेनानी था,जो मौका पाकर निकल गया।/
वह पारा था अंग्रेज़ों की मुट्ठी में आकर फिसल गया।।   (नेताजी सुभाष चंद्र बोस).

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