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बुधवार, 10 अक्टूबर 2018

भक्तिकाल की काव्य प्रवुत्तियाँ : निर्गुण भक्तिकाव्य : प्रेमाख्यानक

निर्गुण काव्यधारा के “जिन कवियों ने प्रेम द्वारा ईश्वर की प्राप्ति पर बल दिया, वे प्रेममार्गी अथवा सूफी कवि कहलाए। जायसी, मंझन, कुतुबन, उस्मान आदि इस धारा के प्रतिनिधि कवि हैं। इन कवियों की सभी रचनाएँ (पद्मावत, मृगावती, मधुमालती, चित्रावली) भारतीय प्रेम गाथाओं की कथावस्तु के आधार पर प्रबंध काव्यों के रूप में लिखी गई हैं।“ (डॉ. नगेंद्र, भारतीय साहित्य रत्नमाला)। 

इस काव्यधारा का केंद्रबिंदु लोकाश्रित काव्य के अंतर्गत रोमानी कथावर्णन है। मुख्य रूप से यह कथावर्णन प्रबंधात्मक शैली में रचित महाकाव्य है या फिर स्वच्छंद मुक्तक काव्य। इस काव्य परंपरा को विभिन्न नामों से पुकारा जाता रहा है जैसे, प्रेममार्गी, सूफी शाखा, प्रेमकाव्य, प्रेमगाथा, प्रेमकथानक काव्य, प्रेमाख्यानक, प्रेमाख्यान आदि। इस काव्यधारा के अंतर्गत प्रेम का चित्रण आम प्रेम कथाओं में वर्णित सामान्य प्रेम न होकर साहसिक प्रेम या स्वच्छंद प्रेम के रूप में हुआ है जिसे रोमान (रोमांस) कहा जाता है। विश्वभर के साहित्य में स्वच्छंदतावादी प्रेम काव्य की एक लंबी परंपरा है। संस्कृत तथा अन्य भारतीय भाषाओं में भी यह परंपरा विद्यमान रही है। प्रस्तुत काव्यधारा हिंदी में उसी परंपरा का पूर्वमध्यकालीन विकास है, जिसमें प्रेम को अध्यात्म और भक्ति की कोटि तक पहुँचाया गया है तथा सूफी रहस्यभावना और अद्वैतवादी पद्धति का संगम किया गया है। 

प्रेमाख्यानक : काव्य प्रेरणा एवं प्रयोजन 

यह धारणा प्रचलित है कि हिंदी प्रेमाख्यानक परंपरा के कवि सूफी थे और उनका लक्ष्य सूफी मत का प्रतिपादन और प्रचार करना था। आरंभ में इस परंपरा के केवल छह या सात काव्य प्राप्त थे लेकिन अब हिंदी में तरेपन (53) प्रेमाख्यान काव्य प्राप्त हो चुके हैं जिनमें से छत्तीस (36) हिंदू कवियों द्वारा रचित हैं। यहाँ तक कि आरंभिक ग्यारह में से भी आठ के रचनाकार हिंदू हैं। इस कारण इन काव्यों का विवेचन सांप्रदायिक आधार पर करना उचित प्रतीत नहीं होता। निःसंदेह कुछ प्रेमाख्यानक कवि सूफी मतानुयायी हैं किंतु उनके काव्य का मुख्य प्रयोजन सूफी मत का प्रचार करना मात्र नहीं था। इनमें सर्वप्रथम मलिक मुहम्मद जायसी ने ‘पद्मावत’ (1540) में स्वयं अपना काव्य प्रयोजन बताते हुए कहा है – 
औ मन जानि कबित अस कीन्हा। 
मकु यह रहै जगत महँ चीन्हा। 

अंतःसाक्ष्यों के आधार पर तो यश प्राप्ति, काव्य कला का प्रदर्शन, युवकों का मनोरंजन और जीवन की दुखपूर्ण घटनाओं को भुलाना ही इन कवियों का काव्य-प्रयोजन सिद्ध होता है, सूफी मत का प्रचार नहीं। 

प्रेमाख्यानक : कथावस्तु का स्थापत्य 

हिंदी प्रेमाख्यानक काव्य परंपरा में सर्वाधिक महत्वपूर्ण काव्य इस प्रकार हैं– (1) हंसावली (1370) – असाइत, (2) चांदायन (1379) – मुल्ला दाऊद, (3) मृगावती (1503) – कुतुबन, (4) पद्मावत (1540) – मलिक मुहम्मद जायसी, (5) मधुमालती (1545) – मंझन, (6) प्रेमविलास (1556) – जैनश्रावक जटमल, (7) रूपमंजरी (1568) – नंददास, (8) माधवानल कामकंदला (1584) – आलम कवि, (9) चित्रावली (1613) – उस्मान, (10) रसरतन (1618) – पुहकर कवि। 

इनके कथास्रोत मुख्यतः चार हैं – 1. महाभारत, हरिवंशपुराण, विष्णुपुराण आदि पौराणिक ग्रंथ, 2. संस्कृत और प्राकृत की परंपरागत कथानक रूढ़ियाँ, 3. उदयन, विक्रम, रत्नसेन आदि ऐतिहासिक, अर्ध ऐतिहासिक पात्रों की गाथाएँ, 4. विभिन्न प्रेमी-प्रेमिकाओं की लोक प्रचलित कथाएँ। इन चारों स्रोतों के साथ रचनाकार की कल्पना शक्ति का सुंदर समन्वय हुआ है। निम्नलिखित भारतीय कथानक रूढ़ियाँ इनमें प्रचुरता से इस्तेमाल की गई हैं – 

1. नायक या नायिका का जन्म देवी-देवता की आराधना से होना। 2. नायक-नायिका का परस्पर परिचय स्वप्न दर्शन, चित्र दर्शन या तोते आदि द्वारा गुण कथन से अप्रत्यक्ष रूप से होना। 3. शिवमंदिर या फुलवारी में नायक-नायिका की गुप्त भेंट होना। 4. नायक का किसी अन्य सुंदरी को राक्षस से बचाकर विवाह कर लेना आदि। ये कथानक रूढ़ियाँ फारसी प्रेमाख्यानक में उपलब्ध नहीं होतीं, अतः इनका आधार भारतीय साहित्य को ही मानना चाहिए। 

जायसी के महाकाव्य ‘पद्मावत’ में ऐसी अनेक कथानक रूढ़ियों का प्रयोग हुआ है। इसमें चित्तौड़ के राजा रत्नसेन और सिंहल की राजकुमारी पद्मिनी के मध्य तोते के माध्यम से प्रेम होता है। इसमें उनके विवाह एवं विवाह के बाद के जीवन का चित्रण है। इसकी कथावस्तु को दो खंडों में बाँटा गया है – रत्नसेन और पद्मिनी के विवाह तक पूर्वार्ध और विवाह के पश्चात उत्तरार्ध। पूर्वार्ध को काल्पनिक और उत्तरार्ध को ऐतिहासिक माना गया है। डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी के अनुसार “जायसी ने अपने कथानक का विधान इस तरह किया है कि पूर्वार्ध लोककथा के रूप में काल्पनिक वृत्त है और उत्तरार्ध ऐतिहासिक बनावट लिए हुए हैं। ये दोनों अलग अलग संसार हैं और इनकी विश्वसनीयता की अलग शर्तें हैं। लोककथा की रंगत लिए पूर्वार्ध में अनेक अतिप्राकृत चरित्र और घटनाएँ हैं। ××× उत्तरार्ध में ये अतिप्राकृत तत्व एकदम अनुपस्थित हैं। ××× लोकवृत्त और ऐतिहासिक वृत्त का इस तरह आमना सामना जायसी के अपने रचना विधान की निजी उपज है। संसार के महाकाव्यों में शायद ही कहीं यथार्थ के ऐसे द्विखंडी रूप का चित्रण हुआ हो। ××× पूर्वार्ध पूर्णतः सुखांत है जबकि उत्तरार्ध चरम दुखांत।“ इसे विजयदेव नारायण साही ने ‘हिंदी में अपने ढंग की अकेली ट्रेजिक कृति’ माना है। 

प्रेमाख्यानक : चरित्र-चित्रण 

महाकाव्य के आदर्श को सामने रखकर ‘पद्मावत’ जैसे रोमानी कथाकाव्य की परीक्षा करने वाले आलोचकों को एकपत्नीव्रत को स्वीकार न करने के कारण इसकी प्रेम-पद्धति अभारतीय या विदेशी प्रतीत हुई और इसे सूफी घोषित कर दिया गया। आश्चर्य की बात है कि जिस काव्य का नायक हिंदू है और नाथपंथी साधु के वेश में घर से निकलता है तथा शिव-पार्वती की सहायता से अपने मनोरथ में सफल होता है, वह काव्य सूफीमत का प्रचार कैसे कर सकता है! 

हिंदी प्रेमाख्यानों की तुलना फारसी सूफी काव्यों से करते हुए यह भी कहा जा सकता है कि इनमें नायिकाओं को नायकों की अपेक्षा अधिक धैर्यशाली दिखाया गया है, उनकी स्थिति भी नायकों से उच्च है। भारतीय समाज में पुरुष के लिए बहुविवाह की अनुमति थी, अतः इनके नायक भी प्रायः एक से अधिक विवाह करते हैं – जबकि नायिकाएँ पातिव्रत्य का पालन करते हुए अंत में सती तक हो जाती हैं। दूसरी ओर फारसी आख्यानों में नायक एक पत्नीव्रतधारी तथा नायिका के पति को स्वीकार करने वाला दिखाया जाता है। हिंदी में नायक के प्रतिद्वंद्वी के रूप में प्रतिनायक की अपेक्षा विरोधी के रूप में नायिका का पति या संरक्षक होता है और फारसी जैसा प्रेम त्रिकोण नहीं बनता। नायक-नायिका के अलावा विभिन्न मानवीय और मानवेतर पात्रों का चरित्र-चित्रण भी इन काव्यों में रूढ़िसंगत हुआ है। कथा के ऐतिहासिक पक्ष को यथासंभव यथार्थ रूप में प्रस्तुत किया गया है और वहाँ किसी भी प्रकार के अतिमानवीय लोकाभिप्राय या कवि समय का प्रयोग नहीं किया गया है। 

प्रेमाख्यानक : वस्तुवर्णन 

भारतीय साहित्य में चौथी-पाँचवी शताब्दी में स्वाभावोक्ति की अपेक्षा अतिशयोक्तिपूर्ण वस्तु वर्णन की प्रवृत्ति का उदय हुआ। ‘पद्मावत’ सहित हिंदी के प्रेमाख्यानक काव्यों में पनघट, सरोवर, वाटिका, बारहमासा, बरात, युद्ध आदि के वर्णन में इस पद्धति को देखा जा सकता है। कुछ स्थलों पर ऐसे वर्णन को काव्य के प्रवाह में गतिरोध उत्पन्न करने वाला माना गया है। शिष्ट काव्य की दृष्टि से यह आक्षेप सही प्रतीत हो सकता है, परंतु लोक परंपरा की दृष्टि से यह स्वाभाविक है। ऐसे वर्णनों के द्वारा कवि एक ओर तो विविध प्रकार के ज्ञान को प्रसारित करता है जिससे वह वर्णन छोटे-से ज्ञान-कोश का रूप ले लेता है तथा दूसरी ओर कथा प्रवाह को रोककर उत्सुकता को बढ़ाता है। ये विवरण अर्धालियों के रूप में दिए गए हैं और प्रायः इनका समाहार एक ऐसे बिंबपूर्ण दोहे की सर्जना में किया गया है जहाँ लोक परंपरा शिष्ट साहित्य में ढल जाती है।

प्रेमाख्यानक : भाव एवं रस व्यंजना 

रोमानी साहित्य का मूल भाव प्रणय या रतिभाव है जिसे सौंदर्य, साहस और संघर्ष के तत्वों द्वारा पुष्ट किया जाता है तथा इसमें गृहस्थ मर्यादाओं और परंपराओं की अपेक्षा प्रेम की तीव्रता को महत्व दिया जाता है। जायसी और अन्य प्रेमाख्यानक कवियों ने शृंगार और प्रेम को जीवन में सर्वोपरि मानते हुए उसके प्रति उच्च दृष्टि का परिचय दिया है। प्रणय का आरंभ अपरूप सौंदर्य के आकर्षण से होने के कारण वह अलौकिक और आध्यात्मिक कोटि को प्राप्त करता है। नायिका हो या वेश्या, युद्धस्थल हो या तोप – सभी का सौंदर्य चित्रण जायसी विस्तार और गंभीरता के साथ करते हैं। नायक का संघर्ष प्रणय को उदात्त बनाता है और वह क्रमशः वासना, स्वार्थ और अहंकार से ऊपर उठता है। कुछ स्थलों पर प्रेम और काम को एक ही मान लिया गया है। जायसी का नायक रत्नसेन जहाँ आरंभ में शुद्ध प्रेम से भरा दिखाई देता है, वहीं नायिका पद्मावती (पद्मिनी) यौन और कामुकता के भावों से भरी दिखाई देती है और अपने अंतरंग मित्र तोते से उपयुक्त वर खोजने के लिए कहती है जो उसके तन-मन की प्यास को बुझा सके। ‘पद्मावत’ की मार्मिकता का रहस्य उसकी विरह व्यंजना में निहित है। विरह के क्षेत्र में कवि ने भावात्मकता और अनुभूति का सहारा लिया है। कहीं कहीं विरह वर्णन भी अत्युक्तिपूर्ण हो गया है; रक्त के आँसुओं का गिरना, मांस का गलगल कर गिरना या प्राणांत हो जाना ऐसे ही प्रसंग है। 

प्रेमाख्यानक : रूप तत्व 

सूफी साधक परमात्मा को परमप्रियतम और परम सौंदर्य से संपन्न मानते हैं जिसे पाने के लिए आत्मा व्याकुल रहती है। अपने काव्य के माध्यम से कवि उस परम प्रियतम के प्रति प्रणय निवेदन करता है। वैचारिकता की दृष्टि से मध्यकालीन प्रेमाख्यानक काव्यों को सूफी मत के प्रचारक होने का कोई प्रमाण नहीं हैं। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने ‘पद्मावत’ की प्रेम पद्धति को अभारतीय मानते हुए पद्मावती को परमात्मा और रत्नसेन को आत्मा का प्रतीक सिद्ध किया है और इस काव्य के पूर्वार्ध को सूफी रहस्यवाद से अनुप्राणित बताया है। साथ ही, यह भी माना है कि जायसी वेदांत के अद्वैतवाद तक पहुँचते हैं। दूसरी ओर आत्मा-परमात्मा का रूपक उत्तरार्ध पर लागू न होने के कारण उसे अप्रामाणिक मान लिया गया है। अधिक उचित यह प्रतीत होता है कि जायसी द्वारा स्वयं सुझाई गई निम्नलिखित व्याख्या को स्वीकार कर लिया जाए – 
मैं ऐहि अरथ पंडितन्ह बूझा। कहा कि हम्ह किछू और न सूझा॥ 
तन चितउर, मन राजा कीन्हा। हिय सिंहल, बुद्धि पद्मिनी चीन्हा॥ 
गुरु सुवा जेहि पंथ दिखावा। बिन गुरु जगत को निरगुण पावा। 
नागमती यह दुनिया धंधा। बाँचा सोई न एहि चित बंधा॥ 

इससे स्पष्ट होता है कि ‘पद्मावत’ एक रूपक काव्य है जिसमें चित्तौड़ तन, राजा रत्नसेन मन, सिंहल द्वीप हृदय, पद्मावती बुद्धि, तोता गुरु, नागमती सांसारिक आकर्षण तथा राघव चेतन और अलाउद्दीन आसुरी शक्तियों के प्रतीक हैं। साधक का मन शरीर-सुख का त्याग कर गुरु के निर्देश से उपलब्ध सात्विक ज्ञान की सहायता से अंत में मोक्ष को प्राप्त करता है। यह रूपक काव्य के उत्तरार्ध पर भी समान रूप से लागू होता है और भारतीय साधना पद्धति के अनुरूप है। 

हिंदी साहित्य में ‘पद्मावत’ का स्थान एक महाकाव्य के रूप में ‘पृथ्वीराज रासो’ और ‘रामचरित मानस’ को जोड़ने वाली कड़ी जैसा है। ‘रासो’ और ‘मानस’ क्रमशः लोकशैली और शिष्ट शैली के मानक महाकाव्य हैं जबकि ‘पद्मावत’ ‘लोक से शिष्ट में संक्रमण’ की पूरी प्रक्रिया को समेटने वाला महाकाव्य है। 

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