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रविवार, 7 अक्टूबर 2018

हिंदी साहित्य का भक्तिकाल : पृष्ठभूमि

14 वीं शताब्दी के मध्य से 17 वीं शताब्दी के मध्य तक के काल को हिंदी साहित्य के इतिहास में पूर्वमध्यकाल और भक्तिकाल कहा जाता है। इस काल का समग्र साहित्य मध्यकालीन भक्ति आंदोलन की काव्यात्मक परिणति है और उस व्यापक जनजागरण के प्रेरणा सूत्र इसमें छिपे हैं, जिसने मध्यकालीन राष्ट्रीय और सांस्कृतिक संक्रमण को झेलने की शक्ति भारतीय समाज को प्रदान की। भक्ति की इस प्रधानता के कारणों के रूप में इतिहासकारों ने तीन विचार प्रस्तुत किए हैं। 

आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने यह माना है कि इस युग में मुस्लिम शासकों का आधिपत्य हो जाने के कारण हिंदू जाति अवसाद का अनुभव करने लगी थी। इस्लाम से आक्रांत और पददलित भारतीय जनता के निराश हृदयों में भक्ति और शांति का संचार करने के लिए तत्कालीन कवियों ने भक्तिपरक काव्य की रचना की। वे यह मानते हैं कि भक्ति का मूल स्रोत दक्षिण भारत था जिसे राजनैतिक परिवर्तन के कारण शून्य पड़ते हुए उत्तर भारत की जनता के हृदय क्षेत्र में फैलने के लिए पूरा स्थान मिला। लुटी पिटी जनता की चित्तवृत्ति का झुकाव स्वाभाविक रूप से ईश्वर भक्ति की ओर हुआ और उसी के अनुरूप साहित्य के स्वरूप में भी परिवर्तन हुआ। 

दूसरी मान्यता के अनुसार भक्ति आंदोलन हिंदी साहित्य में केवल तात्कालिक प्रतिक्रिया के रूप में नहीं उभरा, बल्कि आदिकाल के बाद भक्ति भावना का उदय कोई आकस्मिक घटना न होकर उस चिंताधारा का सहज विकास है जो भारतीय लोकमानस में पिछली कई शताब्दियों से प्रवाहित होती हुई अपने पूर्ण विकास के लिए अनुकूल भूमि की तलाश कर रही थी। जयशंकर प्रसाद ने इसके लिए दार्शनिक संदर्भ को रेखांकित करते हुए कहा है कि “दुखवाद जिस मनन शैली का फल था वह बुद्धि या विवेक के आधार पर तर्कों के आश्रय में बढ़ती रही। अनात्मवाद की प्रतिक्रिया होनी ही चाहिए। फलतः पिछले काल में भारत के दार्शनिक अनात्मवादी ही भक्तिवादी बने और बुद्धिवाद का विकास भक्ति के रूप में हुआ।“ इस आधार पर सिद्धों और नाथों की परंपरा में भक्ति आंदोलन के सूत्र खोजे जा सकते हैं। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने इसी प्रकार भक्ति आंदोलन को भारतीय परंपरा का अपना स्वतःस्फूर्त विकास माना है। वे हिंदी के भक्ति साहित्य के मूल में बौद्ध तत्ववाद को निहित मानते हैं और ज़ोर देकर कहते हैं कि लोक के स्तर पर पहुँचकर बौद्ध धर्म लोक धर्म बना और धीरे-धीरे निर्गुण तथा सगुण भक्ति धाराओं का प्रेरक तत्व बन गया। वे मानते हैं कि यदि भारत में इस्लाम न भी आता तो भी भक्ति साहित्य का 75 प्रतिशत वैसा ही होता जैसा आज है; अर्थात वे मुस्लिम आक्रमण की तत्कालीन परिस्थिति को भक्ति आंदोलन का केवल एक गौण कारण मानते हैं। साथ ही, उनकी यह भी मान्यता है कि मध्यकाल में प्राकृत और अपभ्रंश की शृंगारिकता की प्रतिक्रिया ने भी लोक चिंता के साथ जुड़ी हिंदी कविता में भक्तिपरक रचनाओं को बढ़ावा दिया। 

भक्ति साहित्य के उदय के संबंध में शुक्ल जी के मुस्लिम आक्रमण को प्रधानता देने तथा द्विवेदी जी के परंपरा तत्व को महत्ता देने के सिद्धांतों के समन्वय पर आधारित तीसरी मान्यता यह है कि यदि इस्लाम के प्रचार और प्रतिक्रिया की व्याख्या सहज भाव और कुंठाहीन मन से की जाए, तो भक्ति साहित्य के उदय की मूल प्रेरणा के रूप में उक्त दोनों ही सिद्धांतों को स्वीकार किया जा सकता है। डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी के अनुसार “भक्ति काव्य के विकास के पीछे (1) बौद्ध धर्म का लोकमूलक रूप है और (2) प्राकृतों के शृंगार काव्य की प्रतिक्रिया है तो (3) इस्लाम के सांस्कृतिक आतंक से बचाव की सजग चेष्टा भी है।“ इसकी पुष्टि तत्कालीन राजनैतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और दार्शनिक परिस्थितियों के अवलोकन से सरलता से हो सकती हैं।

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