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रविवार, 7 अक्तूबर 2018

हिंदी साहित्य का भक्तिकाल : राजनैतिक परिस्थिति

राजनैतिक दृष्टि से भक्तिकाल के एक छोर पर मुहम्मद तुगलक और दूसरे छोर पर शाहजहाँ की सत्ता विद्यमान है अर्थात यह काल भारतीय इतिहास का वह महत्वपूर्ण समय है जिसमें दिल्ली सल्तनत में तुगलक वंश से लेकर मुगलवंश तक का आधिपत्य रहा। 

मुहम्मद तुगलक एक सनकी परंतु निष्पक्ष शासक था। उसने राजधानी को दिल्ली से देवगिरि (दौलताबाद) ले जाने के चक्कर में दिल्ली क्षेत्र को उजाड़ दिया, ताँबे के सिक्के चलाए, चीन पर हमले का प्रयास किया और मिस्र के खलीफा से अपने शासन के लिए धार्मिक स्वीकृति ली। इसके बावजूद हिंदुओं के प्रति उदारता के कारण उसके सरदार भी उससे नाराज हो गए। आगे चलकर उसके उत्तराधिकारी फिरोज़शाह ने कट्टरवादी सरदारों के समक्ष समर्पण कर दिया और इस तरह सत्ता पर उसकी पकड़ कमजोर हो गई।

1398 में तुर्क सरदार तैमूर लंग ने विशाल सेना लेकर भारत पर आक्रमण किया। दिल्ली में तो उसने घर घर घुसकर भयानक लूटपाट की और समरकंद में वापस जाकर लूट के धन से शानदार इमारतें, राजमहल और मस्जिदें बनाईं। भारत की दशा दीन-हीन हो चुकी थी। 1414 से 1451 तक सैयद वंशीय स्थानीय शासकों ने दिल्ली पर अधिकार रखा। इसके बाद लोदीवंश के अफगान सरदार ने दिल्ली के राज्य पर जबरदस्ती कब्जा कर लिया। इस वंश का अंतिम सुल्तान इब्राहीम लोदी हुआ जिसे मुगलों का सामना करना पड़ा और लोदी वंश का शासन समाप्त हो गया। इस काल में उत्तर भारत के मालवा, ग्वालियर, कन्नौज, बिहार, बंगाल और गुजरात जैसे राज्यों से दिल्ली की केंद्रीय सत्ता को अनेक बार युद्ध करना पड़ा। लोदी वंश के शासन काल में प्रांतों पर दिल्ली की पकड़ ढीली हो चुकी थी और मालवा आदि आजाद होने लगे थे। 1526 में इब्राहिम लोदी और सूबेदारों के मध्य गृहयुद्ध की स्थिति का लाभ उठाकर पानीपत के युद्ध में बाबर ने इब्राहीम लोदी को पराजित कर दिया। बाबर ने अफगान सरदार दिलावर खान का आमंत्रण पाकर यह आक्रमण किया था। बाबर के आगमन के साथ दिल्ली में मुगल शासन की स्थापना हुई। राणा सांगा सहित कई हिंदू-मुस्लिम शासकों-सूबेदारों को जीतकर वह शीघ्र ही उत्तर भारत का सर्वसमावेशी शासक बन गया। उसके बाद हुमायूँ की असामयिक मृत्यु के कारण उसके पुत्र अकबर को 13 वर्ष की उम्र में ही दिल्ली की सत्ता मिल गई। अकबर ने अनेक चुनौतियों का सामना करते हुए अपनी शक्ति, दूरदर्शिता, बुद्धिमत्ता और दृढ़ता से शासन को सुदृढ़ बनाया। युद्ध और विवाह की दुहरी राजनीति द्वारा अनेक प्रांतीय शासकों को पराजित भी किया और अपने अनुकूल भी बनाया। महाराणा प्रताप जैसे कुछ स्वाभिमानी राजपूतों को छोड़कर अधिकतर शासकों ने मुगल साम्राज्य की सर्वोपरिता को स्वीकार लिया और बदले में मान-मर्यादा तथा ऊँचे पद प्राप्त किए। अकबर के बाद जहाँगीर और उसके बाद कूटनैतिक चालों से शाहजहाँ गद्दीनशीन हुए। शाहजहाँ के पुत्र औरंगजेब ने अपने भाई दाराशिकोह के युवराज बनने का खुलकर विरोध किया, हिंसा और कूटनीति के बल पर अपने सब प्रतिद्वंद्वियों को रास्ते से हटाकर और शाहजहाँ को बंदी बनाकर औरंगजेब ने 1658 में सत्ता हासिल कर ली। यही समय भक्तिकाल की अंतिम सीमा (1650 के आसपास) को भी व्यक्त करता है।

इस प्रकार कहा जा सकता है कि राजनैतिक दृष्टि से समस्त उत्तर भारत इस काल में विदेशी आक्रांताओं के द्वारा स्थापित सत्ता के अधीन आ चुका था तथा परंपरागत भारतीय राजनैतिक शक्तियाँ और संस्थाएँ अंततः मुगलसत्ता के समक्ष आत्म समर्पण कर चुकी थीं; परंतु साथ ही प्रतिशोध, विरोध और विद्रोह की चिंगारियाँ भी ठंडी राख के भीतर से समय समय पर अपने अस्तित्व का संकेत देती रहती थीं। निश्चय ही जनता इन तमाम युद्धों और कूटनैतिक चालों में सर्वाधिक हानि उठाती थी और इन सबसे ऊब चुकी थी।

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