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बुधवार, 10 अक्तूबर 2018

भक्तिकाल की काव्य प्रवृत्तियाँ : राम भक्ति काव्य परंपरा

भक्तिकाल में सगुणमार्गीय कवियों का एक वर्ग रामभक्ति काव्यधारा के रूप में माना जाता है। इसमें सगुण भक्ति के आलंबन के रूप में विष्णु के अवतार राम की प्रतिष्ठा है। यहाँ ‘राम’ का अर्थ परब्रह्म या ऐसी परम शक्ति है जिसमें सभी देवता रमण करें। बाद में यह ‘दशरथपुत्र राम’ का वाचक बन गया। राम उत्तरवैदिक काल के दिव्य महापुरुष माने जाते हैं। राम कथा विषयक गाथाएँ कब से रची जाती रही हैं, यह कहना कठिन है। फिर भी पश्चिमी विद्वानों का अनुमान है कि वाल्मीकि ने आदिकाव्य ‘रामायण’ की रचना ग्यारहवीं शती ईसा पूर्व से तीसरी शती ईसा पूर्व के बीच कभी की होगी, जिसमें मौखिक रूप में प्रचलन के कारण बहुत सा परिवर्तन और परिवर्धन हुआ। वाल्मीकि ने रामकथा को ऐसा मार्मिक रूप प्रदान किया कि वह जनता और कवियों दोनों में समान रूप से आकर्षक और लोकप्रिय बन गई। विविध देशी-विदेशी भाषाओं में रामकाव्य की लंबी परंपरा है। ईस्वी सन के प्रारंभ से राम को विष्णु के अवतार के रूप में स्वीकृति मिलनी शुरू हुई, परंतु भक्ति के क्षेत्र में राम की प्रतिष्ठा विशेष रूप से ग्यारहवीं शताब्दी ईस्वी के आसपास मानी जाती है। तमिल आलवारों की भक्ति रचनाओं में राम का निरंतर उल्लेख प्राप्त होता है। नौवीं शताब्दी के कुलशेखर आलवार के पदों में प्रौढ़ रामभक्ति अंकित है। ग्यारहवीं शताब्दी से लेकर रामभक्ति संबंधी काव्य रचनाओं की संख्या बढ्ने लगी। पंद्रहवीं शताब्दी से लेकर राष्ट्रीय, सामाजिक और राजनैतिक परिस्थितियों में राम का लोकरक्षक रूप इतना अधिक प्रासंगिक सिद्ध हुआ कि तब से समस्त राम काव्य भक्तिभाव से ओतप्रोत होने लगा। यहाँ तक कि रामकथा की लोकप्रियता के कारण निर्गुण संत कवियों को भी ‘राम-नाम’ का सहारा लेना पड़ा। फादर कामिल बुल्के का मत है कि “हिंदी साहित्य के आदिकाल में रामानंद ने उत्तर भारत में जनसाधारण की भाषा में रामभक्ति का प्रचार किया था। इसके फलस्वरूप हिंदी राम साहित्य, आधुनिक काल को छोडकर प्रायः भक्ति भावना से ओतप्रोत है। इस साहित्य की चार प्रमुखताएँ प्रतीत होती हैं – (1) तुलसीदास का एकाधिपत्य, (2) लोकसंग्रही दास्य भक्ति का प्राधान्य, (3) कृष्ण काव्य का प्रभाव और (4) विविध रचना शैलियों, छंदों और साहित्यिक भाषाओं का प्रयोग। 

तुलसीदास से पहले रामकाव्य के अंतर्गत रामानंद के कुछ पदों के अतिरिक्त ‘पृथ्वीराज रासो’ के रामकथा विषयक 48 छंदों, ‘सूरसागर’ के रामकथा संबंधी 150 पदों और ईश्वरदास रचित ‘रामजन्म’, ‘अंगद पैज’ तथा ‘भरत मिलाप’ का उल्लेख करना आवश्यक है। तुलसी के समकालीन कवियों में अग्रदास (पदावली, ध्यान मंजरी) और नाभादास (रामचरित के पद) का महत्वपूर्ण स्थान है। इसी प्रकार मुनिलाल (रामप्रकाश), केशवदास (रामचंद्रिका), सोठी महरबान (आदि रामायण), प्राणचंद, हृदयराम (हनुमन्नाटक), रामानंद (लक्ष्मणायन) और माधवदास (रामरासो) भी तुलसी के समकालीन अन्य राम साहित्य के उन्नायक है। तुलसी के बाद प्राणचंद चौहान (रामायण महानाटक), लालदास (अवध विलास), सेनापति (कवित्त रत्नाकर) और नरहरिदास (अवतार चरित) का इस परंपरा में उल्लेख किया जा सकता है। 

गोस्वामी तुलसीदास (1532-1623) सही अर्थों में मध्यकाल में भारतवर्ष के ‘लोकनायक’ हैं। इनके द्वारा रचित अनेक ग्रंथ उपलब्ध हैं, जिनमें रामचरित मानस, कवितावली, विनयपत्रिका, दोहावली आदि सम्मिलित हैं। इनका ‘रामचरितमानस’ साहित्य, भक्ति और लोकसंग्रह की अनुपम कृति है। इसकी रचना को उत्तर भारत के सांस्कृतिक और धार्मिक इतिहास में मध्यकाल की सर्वाधिक महत्वपूर्ण घटना माना गया है। 

‘रामचरित मानस’ में शास्त्रीयता को लोकग्राही बनाने की प्रक्रिया द्रष्टव्य है। तुलसी ने ‘स्वांतः सुखाय’ काव्य रचना करते हुए ‘सब कहँ हित’ को भी साधा। वे राजनैतिक-सामाजिक संदर्भों में विदेशी आक्रमण और सांस्कृतिक संक्रमण के दौर में मर्यादा पुरुषोत्तम राम के रूप में एक सक्रिय प्रतिरोध की रचना करते हैं और उसे लोकरक्षण से जोड़ते हैं। साथ ही एक साधक के रूप में अपने अहं के विस्फोट से बचने के लिए राम के भरोसे अपने आत्मसंघर्ष से पार पाते हैं। उनका काव्य ‘विरुद्धों का सामंजस्य” का सर्वोत्तम उदाहरण है। समन्वय भावना के कारण ही उन्हें ‘लोकनायकत्व’ प्राप्त हैं। वे भारतीय लोक के कवि हैं तथा गृहस्थ-जीवन और आत्म-निवेदन जैसे दो अनुभव-क्षेत्रों के सिरमौर हैं, इसलिए भारतीय मानस के सर्वाधिक निकट हैं। सामाजिकता और वैयक्तिकता का अद्भुत संतुलन उनके काव्य के लोकपक्ष और साधनापक्ष को पुष्ट करता है। इस संदर्भ में कुछ उदाहरण द्रष्टव्य हैं – 
राम की सर्वव्यापकता : 

निगम अगम, साहब सुगम, राम साचिली चाह। 
अंबु असन अवलोकियत सुलभ सबहिं जग माँह।। 

समन्वय भावना : 

"भारत का लोकनायक वही हो सकता है जो समन्वय करने का अपार धैर्य लेकर आया हो। भारतीय जनता में नाना प्रकार की परस्पर विरोधिनी संस्कृतियाँ, साधनाएँ, जातियाँ, आचार-विचार और पद्धतियाँ प्रचलित हैं। तुलसीदास स्वयं नाना प्रकार के सामाजिक स्तरों में रह चुके थे। उनका सारा काव्य समन्वय की विराट चेष्टा है। उसमें केवल लोक और शास्त्र का ही समन्वय नहीं है – गार्हस्थ और वैराग्य का, भक्ति और ज्ञान का, भाषा और संस्कृति का, निर्गुण और सगुण का, पुराण और काव्य का, भावावेश और अनासक्त चिंतन का समन्वय ‘रामचरितमानस’ के आदि से अंत तक दो छोरों तक जाने वाली पराकोटियों को मिलाने का प्रयत्न है।" (डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी)। 

सामाजिकता : 

सब नर करहिं परस्पर प्रीती। 
चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीति।। 

राजनैतिक चेतना : 

जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी। 
तो नृप अवसि नरक अधिकारी।। 

काव्य भाषा की मौलिकता : 

"उनकी भाषा में भी एक समन्वय की चेष्टा है। तुलसीदास की भाषा जितनी ही लौकिक है, उतनी ही शास्त्रीय। तुलसीदास के पहले किसी ने इतनी परिमार्जित भाषा का उपयोग नहीं किया था। काव्योपयोगी भाषा लिखने में तुलसीदास कमाल करते हैं। उनकी ‘विनय पत्रिका’ में भाषा का जैसा जोरदार प्रवाह है वैसा अन्यत्र दुर्लभ है। जहाँ भाषा साधारण और लौकिक होती है वहाँ तुलसीदास की उक्तियाँ तीर की तरह चुभ जाती है और जहाँ शास्त्रीय और गंभीर होती हैं वहाँ पाठक का मन चील की तरह मंडरा कर प्रतिपाद्य सिद्धांत को ग्रहण कर उड़ जाता है।" (डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी)। 

संत कवियों की साखियों और पदों, जायसी के ‘पद्मावत’, सूरदास के सरस पदों के संग्रह ‘सूरसागर’ और गोस्वामी तुलसीदास की अन्यतम कृति ‘रामचरितमानस’ हिंदी साहित्य को भक्ति काल की महान देन हैं। इस काव्य ने ज्ञान और भक्ति के संदेश द्वारा मध्यकाल में सामाजिक मनोबल का निर्माण करके भारतीय अस्मिता को नवीन परिभाषा से महिमा मंडित किया। मनुष्य और मनुष्य की समानता, ईश्वर की सर्वापरिता, पाखंड के खंडन, आध्यात्मिक प्रेम में संपूर्ण समर्पण भाव, मानवतावाद, पारिवारिक और सामाजिक आदर्शों की स्थापना, लोक मर्यादा की स्थापना, मनुष्य की रागात्मक वृत्ति के परिष्कार और विभिन्न काव्यविधाओं और काव्यभाषा के निरंतर विकास की दृष्टि से भक्ति काल की उपलब्धियाँ अनेकविध और बहुआयामी हैं। इसे उचित ही ‘हिंदी साहित्य का स्वर्ण युग’ माना गया है।

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