सं. बिश्नोई, मिलन (2018), किन्नर विमर्श : साहित्य और समाज, कानपुर : विद्या |
भूमिका
उत्तर आधुनिक विमर्श का दौर आने पर हिंदी साहित्य सृजन और समीक्षा के क्षेत्र में परिधि का केंद्र की ओर सरकने का जो क्रम शुरू हुआ था, उसके काफी अच्छे परिणाम निकले हैं। कल तक जो समुदाय और मुद्दे साहित्य-चिंतन के हाशिए पर थे तथा जिनकी निरंतर उपेक्षा हुई थी, वे नए-नए कई केंद्रों के रूप में उभर कर सामने आए। इससे हिंदी साहित्य की एककेंद्रीयता टूटी और समाज की बहुलता के अनुरूप साहित्य में लोकतंत्र संभव हुआ। स्त्री,दलित, अल्पसंख्यक और आदिवासी विमर्श इसी नई प्रवृत्ति के परिणामस्वरूप प्रकट और विकसित हुए। साथ ही, हाशिया कृत विमर्श के भी हाशिए पर इधर क्रमशः जो अन्य विमर्श उभरे हैं या उभर रहे हैं, उनमें तृतीयलिंगी विमर्श और समलैंगिक विमर्श खास तौर पर ध्यान खींचने वाले हैं।
तृतीयलिंगी विमर्श को प्रायः ‘किन्नर विमर्श’ के रूप में संबोधित किया जाता है। स्मरणीय है कि ‘किन्नर’ शब्द से यहाँ ऐसे हाशियकृत समुदाय का बोध होता है जो स्त्री और पुरुष से इतर अथवा तृतीय जेंडर के अंतर्गत परिगणित है। ‘किन्नर’ शब्द का इस पारिभाषिक अर्थ में प्रयोग नया और आधुनिक है। इसे संस्कृत आदि स्रोत के साथ जोड़कर प्राचीन अर्थ में ग्रहण नहीं किया जा सकता। संस्कृत में ‘किन्नर’ शब्द का प्रयोग यक्ष, गंधर्व, राक्षस और अप्सरा आदि स्वर्ग वर्ग की योनियों अथवा जातियों के लिए किया जाता था। हिंदी साहित्य में भी यह इसी रूप में गृहीत रहा है। इसके अलावा किन्नौर के निवासियों को भी किन्नर कहे जाने की परंपरा रही है। परंतु जब ‘थर्ड जेंडर’ के लिए हिंदी में किसी तत्सम/ संस्कृतनिष्ठ शब्द की आवश्यकता पड़ी तो इसे ‘हिजड़ा’ शब्द के पर्याय के रूप में ग्रहण कर लिया गया क्योंकि हिंदी भाषासमाज में वह एक टैबू/ वर्जित शब्द है। ‘किन्नर विमर्श’ इस प्रकार उस समुदाय की अपनी अस्मिता को रेखांकित करने के लिए प्रयत्नशील विमर्श है जिसे जेंडर संबंधी किसी विकृति के कारण ‘हिजड़ा’कहे जाने का अभिशाप भोगना पड़ता है। इसमें संदेह नहीं कि पुरुष और स्त्री जितने पुराने हैं, मानव सभ्यता में शायद तृतीयलिंगी अथवा इतरलिंगी मनुष्यों की उपस्थिति भी उतनी ही पुरानी हो। लेकिन इसका यह भी अर्थ नहीं है कि प्राचीनता की दुहाई देते हुए कोई ‘अर्धनारीश्वर’ के मिथक को भी ‘हिजड़ा’ में बदल दे। ‘किन्नर’ का वर्तमान अर्थ आधुनिक युग की देन है जिसे आज की परिस्थितियों में ग्रहण किया गया है। इसलिए इस शब्द की प्राचीन साहित्य में उपलब्धता के आधार पर उस समय की किन्नर जाति को अति उत्साह वश तृतीयलिंगी समुदाय घोषित करना उचित नहीं माना जा सकता।
तृतीयलिंगी समुदाय की उपस्थिति के प्राचीन प्रमाण ‘किन्नर’ शब्द से इतर भी बहुत सारे उपलब्ध होते हैं और वही तर्कसंगत भी है। शरीरविज्ञान और मनोविज्ञान की दृष्टि से ‘सुश्रुत संहिता’ में एक संपूर्ण प्रकरण ही इस समुदाय पर केंद्रित है।वहाँ इसके लिए ‘षंढ’ शब्द का प्रयोग किया गया है। इससे पता चलता है कि सुश्रुत के समय ‘षंढत्व’ के विविध कारणों, प्रकारों, संभावनाओं,औषधि और शल्यक्रिया द्वारा चिकित्सा की ठोस परंपरा विद्यमान थी।
किसी व्यक्ति के षंढ या किन्नर या हिजड़ा होने के मूल में किसी न किसी प्रकार की जेनेटिक विकृति जिम्मेदार होती है। इसके लिए वह व्यक्ति या समुदाय स्वयं किसी भी प्रकार उत्तरदायी नहीं है। लेकिन ‘लिंगकेंद्रित (फैलोसेंट्रिक)’ व्यवस्था ने ऐसे व्यक्ति अथवा समुदाय के लिए अपने बीच कोई गुंजाइश नहीं छोड़ कर रखी है। हमारे समाज का यह दोगलापन भी विचित्र ही है कि एक ओर तो ऐसे व्यक्ति और समुदाय को समाज से बहिष्कृत, तिरस्कृत, अपमानित, अस्पर्शित और समाज की मूलकथा से पूरी तरह अनुपस्थित रखा जाता है तथा दूसरी ओर उसे देवत्व के मिथक के साथ जोड़कर रहस्यमय भी बना दिया जाता है। ‘किन्नर विमर्श’ इस लिंगभेदजनित अमानुषिकता का विरोध करता है और किन्नर समुदाय के मानवाधिकार को बहाल करने की माँग करता है। हिंदी के आधुनिक काल के साहित्य में ‘निराला’ के ‘कुल्ली भाट’ का चरित्र यदि समलैंगिक व्यक्ति का चरित्र है तो शिवप्रसाद सिंह की ‘बहाव वृत्ति’ तथा ‘बिंदा महाराज’ जैसी कहानियों के केंद्रीय चरित्र तृतीयलिंगी विमर्श की आरंभिक आहट देने वाले किन्नर चरित्र हैं जो समाज की मूलकथा में पुनर्वास के लिए जूझ रहे हैं। वृंदावन लाल वर्मा के एकांकी ‘नीलकंठ’का भी इस श्रेणी में उल्लेख किया जा सकता है।
‘किन्नर विमर्श’ के हाशियाकृत समुदाय विमर्श के भी हाशिए पर रहने का एक बड़ा कारण यह है कि इन तमाम विमर्शों की प्रारंभिक स्थापना यह रही है कि जो कल तक अनुपस्थित रहा, वह आज उपस्थित होकर स्वयं अपने अस्तित्व की पहचान कराए। इसे स्वानुभूति अथवा इनसाइडर द्वारा दिया गया साक्ष्य माना जाता है। अभी तक हमारे समाज में किन्नर समुदाय अपने दैनिक जीवन के संघर्ष में ही इस बुरी तरह फँसा हुआ है कि उसके पास न तो वैसी शिक्षा है और नही अभिव्यक्ति की वैसी परंपरा कि वह अपनी व्यथा को अपनी ज़बानी बयान कर सके। इस विडंबना के बावजूद साहित्य में यदि इक्का-दुक्का किन्नर आत्मकथाएँ आ रही हैं तो इसे अत्यंत क्रांतिकारी पहल माना जाना चाहिए। इसके अलावा, स्वानुभूति के अतिरिक्त सहानुभूति का बहुत सा साहित्य किन्नर विमर्श के खाने में विविध विधाओं में रचा जा रहा है। इस नए रचे गए साहित्य में रचनाकारों ने काफी हद तक किन्नर समुदाय को निकट से देख कर उनकी जीवन गाथा, वेदना, प्रथाओं, सामुदायिकता और आकांक्षाओं को प्रकट करने का सफल प्रयास किया है। भिक्षाटन और नाचने-गाने से लेकर तरह-तरह के वेश्या वृत्ति और माफिया अपराधों तक में लिप्त होने के अलावा भी आधुनिक समाज में किन्नर अपनी उपस्थिति विभिन्न व्यवसायों, सामाजिक कार्यों और राजनीति में दर्ज करा रहे हैं। यह साहित्य इस सब को भी सामने लाने का काम कर रहा है। अतः स्वागत योग्य है। स्वागत हो भी रहा है। लेकिन विमर्श-साहित्य के अन्य प्रकारों की तरह इस साहित्य की भी एक बड़ी सीमा इसका सनसनीखेज हो जाना है जिसके कारण काफी हद तक ये रचनाएँ एक खास तरह के फार्मूले में बंधती दिखाई देने लगी हैं जिससे इनकी प्रामाणिकता संदिग्ध हो सकती है। किन्नर विमर्श को इस प्रकार रीतिबद्ध होने से बचना होगा,अन्यथा उसकी संभावनाएँ धूमिल हो जाएँगी।
“किन्नर विमर्श : समाज और साहित्य”शीर्षक इस ग्रंथ में किन्नर विमर्श के तमाम पहलुओं समेटने का बहुत सफल प्रयास किया गया है। संपादक मिलन बिश्नोई स्वयं अत्यंत संभावनापूर्ण युवा कवयित्री हैं। उन्होंने एमफिल और पीएचडी के स्तर पर अपने शोध कार्य के लिए ‘किन्नर विमर्श’ को चुनकर हाशिए के इस समुदाय के प्रति अपनी संवेदनशीलता को क्रियात्मक रूप प्रदान किया है।इसमें संदेह नहीं कि यह ग्रंथ अपने शोध कार्य के प्रति मिलन बिश्नोई की गहन निष्ठा का परिणाम है। देश भर के विविध विश्वविद्यालयों/ महाविद्यालयों से जुड़े बहुत से शिक्षकों, शोधार्थियों और साहित्य-अध्येताओं ने इस ग्रंथ के लिए अपने आलेख उपलब्ध कराए; इस हेतु सभी सम्मिलित लेखकों सहित संपादक और प्रकाशक को पुनः पुनः साधुवाद और बधाई। मुझे पूरा विश्वास है कि सर्वथा नई ज़मीन तोड़ने वाले इस विचारोत्तेजक ग्रंथ का हिंदी जगत में यथोचित स्वागत और सम्मान होगा।
शुभकामनाओं सहित
- ऋषभदेव शर्मा