मई दिवस. एक मई. मजदूर दिवस.
इस बरस 'कादंबिनी क्लब' की कृपा से मई दिवस काव्य दिवस बन गया. कई साल हो गए थे - क्लब की वार्षिक भ्रमण गोष्ठी को टलते. सो, ज्योतिनारायण दम्पति के संयोजन में उस रिवाज को इस इतवार के रोज फिर से प्रवर्तित कर दिया गया. ड्यूक्स फ़ार्म हाउस में बीसेक कविनुमा जन एकत्र हुए. सुंदर भोजन किया. स्वादिष्ट कविताएँ सुनीं-सुनाईं. मज़ा आया - डॉ. गोपाल शर्मा, लक्ष्मी नारायण अग्रवाल और गुरुदयाल जी भी थे न!
अध्यक्षता करनी पडी. कविता सुनाने खड़ा हुआ तो डॉ. अहिल्या मिश्र जी अड़ गईं - आज आप केवल श्रृंगारिक रचनाएँ सुनाएँगे. उन्होंने खुद भी जाने कब की लिखी प्रेम कविताएँ सुनाईं. इतनी वरिष्ठ महिला रचनाकार के आदेश को मैं भला कैसे टालता? वैसे टालता भी क्यों? पर मन ही मन इस बात पर कुढ़ा हुआ भी था कि तीन महाशय भरपेट लंच के बाद पूरी गोष्ठी में ठीक मेरे सामने सो रहे थे. सो मैंने अपनी बात उस प्रसिद्ध सुभाषित से शुरू की जिसमें कहा गया है कि - हे विधाता, कर्मफल के नाम पर और चाहे जितने ताप-शाप दे देना पर मेरे भाग्य में ऐसा अवसर कभी न लिखना कि मुझे किसी अरसिक श्रोता को कविता सुनानी पड़े-
इतर तापशतानि यदृच्छया विलिखतानि सहे चतुरानन l
अरसिकेषु कवित्वनिवेदनं शिरसि मा लिख मा लिख मा लिख ll
सोने वालों ने गर्दन हिलाई तो सुनाने वाले ने सोचा कि बात बन गई. बस फिर क्या था - कवीनाम्कवि किम्कविशिरोमणि ऋषभदेव शर्मा ने अपने वृषभोपम स्वर में अपनी किशोरावस्था के तमाम हवाई प्रेमगीत और दोहे सुना डाले. लेकिन असली धन्यता का बोध अगले दिन अखबारों में अपना यह कथित वक्तव्य पढ़कर हुआ कि अपुन ने कवियों को यह सलाह दी कि वे रसिकता के साथ कविता पेश किया करें! ब्रह्मा जी उस दिन कहीं मुझसे टकरा गए होते तो जाने क्या कर बैठता. अब तो बस इतना ही कि जब कोई कवि अरसिक सोताओं में फंसे तो समझना चाहिए कि पाप उदय हुए हैं.
फिर भी मज़ा खूब आया. मैंने और गोपाल शर्मा जी ने बच्चों के झूले में खड़े होकर फोटो खिंचवाई - जो अब तक शर्मा जी ने मुझे अग्रेषित नहीं की है (शायद छपाना न चाहते हों). ...हमारा साथ केवल अनुषा (ज्योतिनारायण जी की धेवती) ने दिया. हम तीन बालकों के अलावा बाकी सब बुड्ढ़े जो थे!!!!(फोटो गवाह है).
9 टिप्पणियां:
अच्छा लगा आलेख पढ़कर !
लगभग 20 वर्ष पहले पढ़ा था यह, अब तक याद है, गाहे बगाहे अरसिकों को सुना भी देते हैं।
काव्य दिवस तो बड़ा भव्य दिवस भया॥ फ़ोटू से लगता तो ऐसा ही है। सोच रहा हूं कि आपने तो वो गेहूं की बालियां और कामिनी की बालियां वाली कविता सुनाई ही होगी और गोपाल शर्मा जी ने पूछा ही होगा कि यह कामिनी कौन है जी :)
हा हा हा... और वह धोबन वाली भी तो.... और ..और रानी इतनी खुशबुएँ वाले क्रम के दोहे भी.
"सब चूड़ियों को भाग्य से मेरे ..." और
"लहरों प' प्यार प्यार प्यार प्यार लिख रहा "
वाली भी इसी क्रम में आज याद आईं , वे भी संभवतः बाँटी हों.
१. सुमन जी,
आपने आलेख पसंद किया. आभारी हूँ.
२. प्रवीण पांडेय जी,
सच बताऊँ...आजकल लिखते वक़्त आप अनिवार्य पाठक के रूप में मेरे समक्ष उपस्थित रहने लगे हैं. रही बात सुभाषित और अरसिकों के आमने-सामने की, तो बंधु मेरे! इस अनुभव की पीड़ा को भुक्तभोगी ही जानते हैं - 'को अपि समानधर्माः!'
३. चमौप्र जी,
न! 'बालियों वाली' तक बात पहुँची ही नहीं. मगर दूसरियाँ बहुत सारियाँ थीं. सबसे आप परिचित ही हैं.
गोश जी ने भी कुछ नहीं पूछा क्योंकि वे वीडियो रिकार्डिंग में मशगूल थे - वैसे मुझे पूरा भरोसा है कि अपनी इस बालसुलभ चेष्टा में वे या तो सफल नहीं हुए होंगे या हडबडी में सब कुछ डिलीट कर चुके होंगे क्योंकि अब तक उन्होंने कुछ भी भेजा नहीं.
४. डॉ. कविता जी,
धोबन को तो संचालक लक्ष्मीनारायण जी ने पहले ही उपस्थित कर दिया था. खुशबू और बिच्छू के डंक से मैंने बात शुरू की तथा बाकी दोहे भूल जाने के कारण ओरेंज कलर वाली छोटी डायरी में घुस पडा. जब लगा कि ज्यादती हो रही है तो 'मैं तो इसके योग्य नहीं था' के साथ चुप्पी धार ली. न चूड़ियों का नंबर आया न लहरें आईं. वे यों भी उस डायरी में नहीं हैं...और याददाश्त धुंधली हो चली लगती है [शायद आर्थिक संकोचवश मन बुझा सा रहता है - लिखना नहीं चाहिए था पर इसमें छिपाने जैसा भी क्या है?]!
कुमार लव ने ईमेल लिखा है जो इस प्रकार है-
मैंने आपकी ब्लॉग एंट्री पढ़ी.
और विचार आया कि ऐसी मीटिंग्स वर्कशाप जैसी होनी चाहिए - मिलने पर एक टोपिक हो , write a poem just then, and recite in some random order - maybe based on lottery. फिर लगा अगर टोपिक हो ''पेड़'' , तो मैं क्या लिखूंगा - और यह पोएम अपने आप लिखी गई - like the whole of this thinking happened in 3 minutes and poem was out.
odd?
''शाम ढले
अचानक
तेज़ प्रकाश उठा
पूरब की ओर से.
देखा
एक वृक्ष उग रहा था,
विशालकाय,
कई कई वर्षों का सफ़र
कुछ पलों में तय करता,
एक विशाल वृक्ष
चमकदार धुंए का.
देखते ही देखते विलीन हो गया
नीले आसमान में,
बस एक लकीर-सी छुट गई पीछे
काली लकीर - दरार पड़ी हो जैसे,
जैसे एक दूसरी दुनिया टकरा गई हो
मेरी इस दुनिया से,
और मौल गया हो आसमान.
कुछ चौड़ी हुई दरार
दांयाँ बाएं से छूट गया.
ओवरलैप ख़त्म.
फिर,
तुम और मैं
तीर्थयात्रा छोड़
अपनी अपनी एल्बम देखने लगे
आँसुओं को को रोकते.''
नमस्ते सर जी ,
अच्छा लगा आलेख पढ़कर.
आदरणीय सर,
मुझे बहुत शिकायत है आपसे क्योंकि आपने मुझे इस कार्यक्रम के बारे में बताया ही नहीं.पर आप कैसे बताते आप तो संयोजक नहीं थे. इसलिए संयोजक श्रीमती ज्योति नारायण जी से शिकायत है.
अब उन्हें 'साहित्य मंथन' की भी एक गोष्ठी वहीं करनी चाहिए.
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