बुधवार की बात है. यानी चार मई की. एन सी ई आर टी (दिल्ली) से डॉ. नरेश कोहली का फोन था. बोले - आज 'जनसत्ता' में आपका नाम देखा. मैं भौंचक. ऐसा क्या कारनामा कर दिया मैंने? शायद प्रताप सिंह ने कुछ लिखा हो - वे उसी अखबार में हैं. पर नहीं, कारनामा न मेरा था न प्रताप का. अपने चंद्रमौलेश्वर प्रसाद जी का था. तभी कोलकाता से डॉ. देवराज ने चलघंटी की कोयल कुहका दी - अभी मेरे सामने जनसत्ता है. है क्या उसमें ,यह तो बताइये - मेरे पूछने पर उन्होंने तफसील में बताया कि मौसम के मिजाज़ पर च मौ प्र ने अपने ब्लॉग पर जो पोस्ट मेरे नामोल्लेख के साथ डाली थी, जनसत्ता ने समांतर में छाप दी है; और उन्हें हैदराबाद में होने का भ्रम हो रहा है! ओह, तो यह बात है! मैंने राहत की साँस ली. बाद में नेट पर वह पेज मिल गया . कटिंग पेशे-खिदमत है -
4 टिप्पणियां:
बहुत बहुत बधाई।
मौसम का मिजाज़ बदला और चलघंटी कलकत्ते से कुहुकी... भई वाह :) प्रो. देवराज जी को नमन और आप का आभार सरजी॥
शहरवासियों के पास शायद ही इन लापता हुए, हो रहे प्राणियों की खबर लेने की फुर्सत हो? बस केवल, आप (चन्द्रमौलेश्वर जी) जैसे सहृदय, प्रकृति चिन्तक व्यक्ति चिंता जताते रहते है.प्रकृति और मानव के संबंध की बात करते हैं.
आप की बातों से मेरी याद भी ताजा हो गयी. गाँव की बातें याद आ गईं. बचपन में गर्मी की छुट्टियों में गाँव जाने का मौका मिलता था.बड़े हुए तो गाँव जाना छूट गया. अब दादा दादी भी नहीं रहें. गाँव, गाँव से जुडी बातें स्मृति कोष में हैं. आप जैसे कलम कार जब कभी पन्ने पलटते हैं तो यादें ताजा होई जाती हैं. और ....
कौए और गौरय्या बचे हैं
गाँव बचे हैं जहां-जहां
होती प्यार की बातें
मिलकर रहते
प्रकृति-मानव जहां.
- बालाजी
भाई प्रवीण पाण्डेय जी,
चन्द्र मौलेश्वर प्रसाद जी
और डॉ. बी. बालाजी,
आप सबकी टिप्पणियों के लिए कृतज्ञ हूँ.
पर प्रशंसा का अधिकारी मैं नहीं प्रसाद जी हैं न?
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