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सोमवार, 2 मई 2011

दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा में अज्ञेय जन्मशती समारोह संपन्न




[दभाहिप्र सभा में संपन्न ''अज्ञेय जन्म शती समारोह'' के उदघाटन सत्र में मंचासीन प्रो. दिलीप सिंह, प्रो.त्रिभुवन राय, प्रो.सच्चिदानंद चतुर्वेदी, प्रो. जगदीश प्रसाद डिमरी, डॉ.राधेश्याम शुक्ल और एस.के हलेमनी.]


दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा में अज्ञेय जन्मशती समारोह संपन्न 

हैदराबाद, १ मई,२०११ [प्रेस विज्ञप्ति].

यहाँ दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा द्वारा संचालित उच्च शिक्षा और शोध संस्थान के 'साहित्य संस्कृति मंच' और स्टेट बैंक ऑफ़ हैदराबाद के संयुक्त तत्वावधान में शनिवार को  अज्ञेय जन्म शती समारोह के अंतर्गत एकदिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी और पोस्टर प्रदर्शनी का आयोजन किया गया.

समारोह के उद्घाटन सत्र में मुम्बई से मुख्य अतिथि के रूप मे आए प्रो त्रिभुवन राय ने उद्घाटन भाषण में 'अज्ञेय की रस-चेतना' की व्याख्या करते हुए कहा कि अज्ञेय की साहित्य यात्रा सत्य की यात्रा है और वे मूलत: आनंद की राह के अन्वेषी हैं. अज्ञेय की कई छोटी-बड़ी कविताओं की रस-शास्त्रीय विवेचना करते हुए प्रो.राय ने बताया कि अहम् को इदं में विलीन करने की जिस प्रक्रिया की बात अज्ञेय बार बार करते हैं वह व्यक्ति चेतना को समष्टि चेतना में विलीन करने की साधारणीकरण की प्रक्रिया का ही आधुनिक सन्दर्भ में विस्तार है.

हैदराबाद विश्वविद्यालय के प्रो. सच्चिदानंद चतुर्वेदी ने बीज भाषण में याद दिलाया कि अज्ञेय ने अपने लेखन में जिन भी सिद्धांतों की स्थापना की, उन्हें अपनी रचनाओं द्वारा चरितार्थ करके भी दिखाया. डॉ. चतुर्वेदी ने प्रतिपादित किया कि अज्ञेय व्यंजना प्रधान साहित्य के समर्थक और सर्जक थे तथा मौन को शब्द से अधिक महत्त्व देते थे. उन्होंने अज्ञेय के काल-चिंतन और क्षणवाद की व्याख्या करते हुए कहा कि अज्ञेय काल को एक साथ प्रवाहित और ठहरा हुआ दोनों मानते हैं. प्रो. चतुवेदी ने इस तथ्य को भी रेखांकित किया कि अज्ञेय के अनुसार राष्ट्र के मन का गौरव व्यक्ति के मन से बड़ा है तथा वे रूढ़ि  की प्रवाहमानता से जुड़ना ज़रूरी मानते हैं.

विशेष अतिथि डॉ. विष्णु भगवान शर्मा ने अज्ञेय के भाषा संबंधी विचारों की राजभाषा नीति के सन्दर्भ में चर्चा करते हुए उनके साहित्य के प्रयोजनमूलक हिंदी के निर्माण में योगदान की दृष्टि से भी पुनर्विचार की ज़रुरत बताई.

उद्घाटन सत्र के अध्यक्ष के रूप में संबोधित करते हुए संस्थान के कुल सचिव प्रो. दिलीप सिंह ने कवि और कविता पर केन्द्रित अज्ञेय की कविताओं का विशेष उल्लेख करते हुए कहा कि वे शब्द से लेकर मौन तक के सजग प्रयोग से सम्प्रेषण की सिद्धि प्राप्त करने वाले अपनी तरह के इकलौते कवि हैं. उन्होंने बताया कि अज्ञेय इसके अप्रतिम उदाहरण हैं कि चिंतन और चिन्तक का रचना में रूपांतरण कैसे होता है. प्रो. सिंह ने यह भी ध्यान दिलाया कि अज्ञेय के चिंतन की नींव भारतीय संस्कृति है और उन्होंने पश्चिमी संस्कृति या साहित्य को उसी के सन्दर्भ में आत्मसात किया है.

[प्रो. दिलीप सिंह  की कृति ''अनुवाद की व्यापक संकल्पना'' को लोकार्पित करते हुए डॉ. राधेश्याम शुक्ल]

इस अवसर पर 'लोकार्पण अनुष्ठान' के अंतर्गत प्रो. दिलीप सिंह की वाणी प्रकाशन से सद्यः प्रकाशित पुस्तक ''अनुवाद की व्यापक संकल्पना'' का डॉ. राधेश्याम शुक्ल ने विमोचन किया. इसके अतिरिक्त डॉ. एम. रंगय्या  के कविता संग्रह ''स्मृति के फूल'' को प्रो. दिलीप सिंह तथा डॉ. रुक्माजी राव अमर के कविता संग्रह ''दुःख में रहता हूँ मैं सुख की तरह'' को डॉ. त्रिभुवन राय ने लोकार्पित किया.  डॉ. जी नीरजा द्वारा संपादित 'स्रवंति' के ''शमशेर बहादुर सिंह विशेषांक'' का लोकार्पण प्रो. सच्चिदानंद चतुर्वेदी के हाथों  संपन्न हुआ.

इसके पश्चात् दो विचार सत्रों में अज्ञेय के साहित्य के विविध पहलुओं को उजागर करते हुए  ग्यारह शोध पत्र प्रस्तुत किए गए जिनमे मुख्य रूप से इस बात पर जोर दिया गया कि अज्ञेय के साहित्य का मूल्यांकन उनकी अपनी रस चेतना, शब्द चेतना और काल चेतना के सन्दर्भ में किया जाना चाहिए तथा उन्हें वादों और विचारधाराओं के चश्मों से देखना साहित्यिक अन्याय होगा जो बिलकुल भी वांछनीय नहीं है. इन शोधपत्रों में एक ओर तो अज्ञेय को वाल्मीकि और कालिदास की कवि-परंपरा से जोड़ा गया तथा दूसरी ओर भर्तृहरि की शास्त्र-परंपरा से. 

पहले विचार सत्र में प्रो. ऋषभदेव शर्मा ने ''क्रांतद्रष्टा साहित्यकार अज्ञेय'', डॉ. मृत्युंजय सिंह ने ''समकालीनों के संस्मरणों में अज्ञेय'', डॉ.जी. नीरजा के ''अज्ञेय के भाषा चिंतन  के आलोक में उनकी काव्यभाषा'', डॉ.साहिरा  बानू बी. बोरगल ने ''साहित्य शास्त्री अज्ञेय : भूमिकाओं के विशेष सन्दर्भ में''  तथा प्रो. आलोक पाण्डेय ने ''हिंदी पत्र करीता की अज्ञेय को देन'' पर केन्द्रित शोधपत्र पढ़े .अध्यक्षासन  से बोलते हुए उस्मानिया विश्वविद्यालय के  पूर्व आचार्य डॉ. मोहन सिंह ने  क्रांतिकारी के रूप में अज्ञेय के सक्रिय जीवन और उनके कथा साहित्य के सम्बन्ध पर प्रकाश डालते हुए कहा कि वे अपने अनुभवों के विशदीकरण द्वारा देशकाल की सीमाओं का अतिक्रमण करने वाले रचनाकार हैं.

दूसरे विचार सत्र में संस्कृति-चेतना के दृष्टिकोण से प्रो.एम्. वेंकटेश्वर ने ''शेखर : एक जीवनी का पुनर्पाठ'' , डॉ. बलविंदर कौर ने ''अज्ञेय के उपन्यासों में अस्मिता, जिजीविषा और मृत्युबोध'', डॉ. गोपाल शर्मा ने ''भाषा चिन्तक अज्ञेय : डायरी का सन्दर्भ'', डॉ. गोरखनाथ तिवारी ने ''अज्ञेय की कहानियाँ : संवेदना और शिल्प'', डॉ. पी. श्रीनिवास राव ने ''ललित गद्यकार अज्ञेय'' तथा डॉ.घनश्याम ने ''यात्रा साहित्य और अज्ञेय'' विषयक शोधपत्र प्रस्तुत किए. चन्दन कुमारी ने अज्ञेय के साहित्य को समझने की समस्या, एम् राजकमला ने हैदराबाद के हिंदी विभागों में संपन्न अज्ञेय संबंधी शोध कार्य तथा मौ. कुतुबुद्दीन ने विविध पाठ्यक्रमों में अज्ञेय के स्थान पर सर्वेक्षणमूलक आलेख प्रस्तुत किए.

इस सत्र की अध्यक्षता  'स्वतंत्र वार्त्ता'' के सम्पादक डॉ. राधेश्याम शुक्ल ने की . अध्यक्षीय संबोधन में डॉ. राधेश्याम शुक्ल ने कहा कि अज्ञेय पूर्ण समर्पण की संस्कृति में विश्वास रखने वाले रचनाकार थे तथा उनका काव्य व्यक्तित्व इतना विराट है कि उसे चाहे जितना समेटो कुछ न कुछ छूट  ही जाता है.उन्होंने कहा की  कहा कि इतने विरत साहित्यकार को आलोचक बनकर कोइ भी अपनी बाहों में नहीं भर सकता, परन्तु यदि सहृदय के रूप में आप उनके 'पाठ' में प्रवेश करें तो वे अत्यंत सहज कवि प्रतीत होंगे.डॉ. शुक्ल ने कहा कि तुलसी के बाद  अकेले अज्ञेय ही इतनी विराट चेतना के कवि सिद्ध होते है. 
  
समापन सत्र में समाकलन  भाषण में अंग्रेज़ी और विदेशी भाषा विश्वविद्यालय के रूसी विभाग के प्रो. जगदीश प्रसाद डिमरी ने संगोष्ठी की सफलता के लिए बधाई देते हुए यह कहा कि अज्ञेय के साहित्य का पुनर्मूल्यांकन यदि भारतीय कसौटी पर किया जाए तो बहुत सटीक निष्कर्ष सामने आ सकते हैं. प्रो. डिमरी से बताया कि भाषा, साहित्य, शब्द और सम्प्रेषण संबंधी अज्ञेय के चिंतन का अनुशीलन करने पर वे आनंद वर्धन, भर्तृहरि, कुंतक और मम्मट आदि आचार्यों की परंपरा का विकास करने वाले हिंदी आचार्य सिद्ध होते हैं.प्रो. डिमरी ने उदाहरण देकर यह भी दर्शाया कि अज्ञेय शब्दों के माध्यम से सामाजिक सन्दर्भों को भी प्रतीयमान अर्थ के रूप में संभव बनाने वाले अप्रतिम साहित्यकार हैं.

समापन सत्र की अध्यक्षता करते हुए अंग्रेज़ी और विदेशी भाषा विश्वविद्यालय के ही हिंदी विभाग के अध्यक्ष प्रो.एम. वेंकटेश्वर ने इस संगोष्ठी को सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय की जन्मशती के अवसर पर उनके पुनर्मूल्यांकन की सार्थक पहल मानते हुए कहा कि रचनाकार की मूलभूत मान्यताओं के प्रकाश में रचनाओं का यह मूल्यांकन कृति और कृतिकार दोनों को ही बेहतर रूप में समझने में अत्यंत सहायक होगा. 

[मंगल दीप प्रज्वलित करते हुए मुख्य अतिथि डॉ. त्रिभुवन राय]

समारोह  के आरंभ में कोसनम नागेश्वर राव ने सरस्वती वन्दना की तथा अतिथियों ने मंगल-दीप प्रज्वलित किया. इस अवसर पर अज्ञेय के जीवन, रचनायात्रा , मान्यताओं और रचनाओं पर आधारित पोस्टर प्रदर्शनी का भी उद्घाटन किया गया.प्रदर्शनी में छात्रों और शोधार्थियों द्वारा तैयार किए गए पोस्टरों के अलावा अज्ञेय की पुस्तकों और उन पर संपन्न शोध प्रबंधों को भी प्रदर्शित किया गया. यह प्रदर्शनी सात मई तक प्रतिदिन  प्रात दस से सायं पांच बजे तक खुली रहेगी. उद्घाटन  के अवसर पर दो सौ दर्शकों ने इस पोस्टर प्रदर्शनी का अवलोकन किया. 

समारोह के विभिन्न सत्रों का संयोजन डॉ. मृत्युंजय सिंह, डॉ. बी. बालाजी, मंजु शर्मा तथा डॉ.गोरख नाथ तिवारी ने  किया.अतिथियों का स्वागत आंध्र सभा के सचिव डॉ. पी. ए. राधाकृष्णन, संपर्क अधिकारी एस के हलेमनी, डॉ. सीता नायुडू और ज्योत्स्ना  कुमारी ने किया.  प्रो. ऋषभदेव शर्मा ने धन्यवाद प्रकट किया.

स्लाइड शो : चित्र  सौजन्य -  डॉ. जी. नीरजा, संपत  देवी  मुरारका   एवं राधाकृष्ण मिरियाला.


इस समारोह की चर्चा अन्यत्र भी निम्नलिखित पोस्टों में पढी जा सकती है-
*अज्ञेय जन्मशती समारोह
*अज्ञेय के साहित्य का पुनर्पाठ आवश्यक - डॉ. त्रिभुवन राय
*निमंत्रण  : अज्ञेय जन्मशती समारोह
*सुसंपन्न अज्ञेय जन्मशती समारोह!!!
*अज्ञेय जन्मशती समारोह के चित्र 
*अज्ञेय जन्मशती समारोह-रिपोर्ट
*पोस्टर प्रदर्शनी : अज्ञेय और उनका साहित्य   
*अज्ञेय और उनके साहित्य पर पोस्टर प्रदर्शनी
*हलचल : दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा में अज्ञेय जन्मशती समारोह संपन्न

4 टिप्‍पणियां:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

बहुत अच्छा लगा यह आयोजन देखकर।

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद ने कहा…

अज्ञेय पर यह समारोह निश्चय ही एक संकलन के रूप में आना चाहिए क्योंकि इस पर विषय के अधिकारिक वक्ताओं ने अपनी बात रखी है। स्लाइड शो देखकर लगा कि हम भी इस समारोह में बैठे है। समारोह के यह चित्र ऐतिहासिक रहेंगे॥

RISHABHA DEO SHARMA ऋषभदेव शर्मा ने कहा…

@ प्रवीण पाण्डेय,

प्रिय भाई, आपकी साहित्यिक अभिरुचि और अध्ययन व लेखन का मैं प्रशंसक हूँ. आते रहें. स्वागत और धन्यवाद.

RISHABHA DEO SHARMA ऋषभदेव शर्मा ने कहा…

@चंद्रमौलेश्वर प्रसाद,

संकलन तो हो जाएगा, लेकिन शायद 'स्रवंति' के एक या दो अंक के रूप में ही छप सके क्योंकि पुस्तक छपाने के झंझट तो आपको मालूम ही हैं.....

वैसे सब आलेखों के अलावा भाषणों की भी स्क्रिप्ट तैयार करवा रहा हूँ......[एक भाषण आप रिकार्डिंग में सुन चुके हैं].