तुलसीबाबा की जयंती पर हर वर्ष उनके संघर्षपूर्ण जीवन के चित्र पुतलियों में तैरने लगते हैं।
एक बालक जो जन्मते ही अनाथ हो गया!
कहते हैं, कोई कुटिल नाम का कीट होता है जो संतान को जन्म देते ही मर जाता है। तुलसी अपने आपको उस कीट जैसा समझते रहे होंगे क्योंकि उनकी माता तो जन्म देते ही मृत्यु के मुख में चली गई थी, पिता भी ऐसे पुत्र को जन्मते ही त्याग कर कुछ काल बाद स्वर्ग सिधार गए। ऐसा पुत्र स्वयं को अभागा और अनाथ कुटिल कीट न समझे तो क्या समझे!
भिक्षान्न पर निर्वाह करना पड़ा।
वे अनुभव कितने विकट रहे होंगे जिन्होंने बाबा से कहलवाया कि जिस बालक को जन्मते ही माता-पिता तक ने त्याग दिया, उसके भाग्य में भला कुछ भी भलाई कहाँ से आएगी। तुच्छता, हीनता, तिरस्कार और निरीहता से घिरे उस बालक को कुत्तों की तरह टुकड़ों पर ललचाते हुए भी उनसे वंचित रहना पड़ा होगा( तभी तो दरिद्रता और दशानन उन्हें एक जैसे दिखे होगे। उच्च कुल का यह बालक अज्ञातकुलशील और नाम-रहित होकर भूख से लड़-लड़कर बड़ा हुआ होगा। पर संयोग से बचपन में ही राम-चरित के प्रति आस्था का संस्कार मिल गया और 'भाँग' होते-होते वे `तुलसी´ हो गए। अनाथ सनाथ हो गया। राम-मार्ग राजमार्ग हो गया।
संघर्ष व्यर्थ नहीं गया। विद्या मिली। यश मिला। घर बस गया। गोस्वामी पद भी मिला। काम और राम का द्वंद्व भी चला। बोध भी हुआ, पश्चात्ताप भी और निश्चय भी। तुलसी अपने राम को समर्पित हो गए -
``बालेपन सूधेमन राम सनमुख भयो/
राम नाम लेत मांगि खात टूक टाक हौं।
/परयो लोकरीति में पुनीत प्रीति रामराय/
मोहबस बैठो तोरि तरक तराक हौं।।/
खोटे खोटे आचरन आचरत अपनायो/
अंजनीकुमार सोध्यो रामपानि पाक हौं।/
तुलसी गोसाईं भयो भोंडे दिन भूलि गयो,/
ताको फल पावत निदान परिपाक हौं।।
´´
तुलसी जयंती पर अनंत शुभकामनाओं सहित।
-सम्पादक
अगस्त २००८ अंक
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