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रविवार, 9 मई 2010

जासु बिलोकि अलौकिक सोभा ..............

आज पुष्पवाटिका में जब से जानकी जी को देखा है, मेरे राम जैसे कुछ और ही हो गए हैं। जाने कब का सोया परम प्रेम जाग उठा। मेरे राम का जानकी जी से एक ही संबंध है - परम प्रेम का संबंध। परम प्रेम भक्ति का ही नाम है न! अपनी आह्लादिनी शक्ति का साक्षात्कार होते ही राम के भीतर-बाहर आनंद का नाद बजने लगा। सुख, स्नेह, शोभा और गुणों की खान वैदेही, माँ-भवानी के भवन की ओर जाने लगीं तो मेरे राम ने चुपके से परम प्रेम के कोमल रंगों से अपने चारु चित्त के कैनवास पर उनकी छवि आँक ली। जाने कब से मेरे राम का हृदयाकाश सूना पड़ा था! सीता की छवि ही उस पर अंकित पहली और आखिरी छवि है:

परम प्रेम मय मृदु मसि कीन्हीं।
चारु चित्त भीतीं लिखि लीन्हीं।।

सीता की छवि के अलावा और कोई छवि है ही कहाँ ? जहाँ छवि है, वहाँ सीता ही हैं। जहाँ सीता नहीं, वहाँ छवि हो ही नहीं सकती। राम का हृदय आज तक छविहीन था। सीता ही तो छविमान बनाती हैं मेरे राम को। आज पहली बार राम का हृदय सच में धड़का था। सीता को देखा तो सुख मिला। सबको सुख देने वाले मेरे राम ने आज अपने सुख को जाना और अवाक् रह गए:

देखि सीय सोभा सुख पावा/
हृदय सराहत बचनु न आवा।।

ऐसी है मेरी जननी जनकनंदिनी जानकी की छवि जो सुंदरता को भी सुंदर बनाती है। उन्हीं की छवि तो इस जगत के शीशमहल में दीपक की लौ बनकर जगमगा रही है:

सुंदरता कहुँ सुंदर करई।
छबिगृहँ दीपसिखा जनु बरई।।

सारे जगत को राम अपने हृदय में लिए फिरते हैं। राम का हृदय आज छविगृह बन गया। सीता की छवि उसमें जगमगा उठी। ब्रह्मांड जगर-मगर हो गया।

राम और सीता मिलते हैं तो अंधेरे कट जाते हैं, प्रकाश फूट पड़ता है, सौंदर्य बरसता है और आह्लाद का समुद्र हिलारें लेता है!

- संपादक
जुलाई 2008 अंक

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