मित्रो!
विचित्र है यह भारतवर्ष। एक ओर हम स्त्री को लक्ष्मी का रूप मानते हैं और दूसरी ओर स्त्री भ्रूण की हत्या करते समय हमारा कलेजा नहीं काँपता । स्त्री जातक इस कदर अवांछित है हमारे समाज में कि संपन्न से संपन्न घर में भी आज भी कन्या का जन्म होने पर कुछ देर के लिए ही सही पर शोक का वातावरण छा जाता है। पुत्र जन्म हो तो गाँव गिराँव में थाली बजाकर शुभ समाचार दिया जाता है। इसके विपरीत कन्या जन्म हो तो घर की बूढीयाँ पेट और छाती पीटने लगती हैं जैसे कोई मर गया हो। कन्या के रूप में लक्ष्मी के आने पर भी शोक मनाने वाला हमारा यह समाज निश्चय ही धिक्कार के योग्य है। ऊपर से तुर्रा यह कि अपनी इन कुप्रथाओं को ढकने के लिए शास्त्रों और काव्यों के उदाहरण देकर यह सिद्ध करने का प्रयास किया जाता है कि पुत्र वंशधर होता है अत: उसका जन्म उत्साह का हेतु है जबकि पुत्री पराई अमानत की तरह घर आती है अत: उसके आगमन पर उल्लसित होने का औचित्य ही क्या है।
हमें तो लगता है कि इस देश के भयंकर पिछडे़पन और दरिद्रता का सबसे बड़ा कारण लक्ष्मी स्वरूपा बेटियों का अपमान ही है। स्त्री का जन्म धारण करने के कारण मानव प्राणी के साथ भेदभाव का बर्ताव करने वाले समाज और उसके तंत्र को असल में तो अब तक कभी का नष्ट हो जाना चाहिएा था। पर शायद इसलिए बचा रहा है यह समाज कि कभी कभी बेटी का सम्मान भी यह कर लेता है। बेटियों का आशीष इस पापी समाज को भी चिरजीवन दिए हुए है। बेटियाँ जीवन का प्रतीक हैं। बेटियाँ प्रफुल्लता और आनंद का स्रोत हैं।बेटियाँ हैं तो बहारें हैं। बेटी पर्वत के वक्ष पर खेलती हुई नदी है। हिमाच्छादित पर्वतराज हिमालय के घर जब पुत्री का जन्म होता है तो युग युग की जमी बर्फ पिघलती है और सब प्रकार की सिद्धियों और संपत्ति की वर्षा होने लगती है। पार्वती साक्षात सुख समृदि्ध हैं।
तुलसी बाबा ने अत्यंत तन्मय होकर हिमवान के घर कन्या जन्म की बधाई गाई है -
सदा सुमन फल सहित सब द्रुम नव नाना जाति।
प्रगटी सुंदर सैल पर मनि आकर बहु भाँति ।।
कब समझेंगे हम, बेटी चाहे हिमवान के घर जन्म ले या अन्य किसी के, पुत्री का पिता बनकर पुरुष धन्य होता है! इस धन्यता का अनुभव हिमालय ने कुछ इस प्रकार किया कि सारी नदियों का जल पवित्र हो उठा। सब खग-मृग-मधुप सुख से भर उठे। सब जीवों ने परस्पर बैर त्याग दिया। सबका हिमालय के प्रति नैसर्गिक अनुराग बढ़ गया। उनके घर नित्य नूतन मंगल होने लगे और उनका यश दिगंत व्यापी हो गया।
हर बेटी गिरिजा ही होती है। बेटी के आने से पिता पहली बार सच्ची पवित्रता को अपनी रगों में बहती हुई महसूस करता है। बेटियाँ अपने सहज स्नेह से सबको निर्वैरता सिखाती हैं। बेटियाँ अपनी सुंदरता और कमनीयता से सभ्यता और संस्कृति का हेतु बनती हैं। वे मंगल, यश और जय प्रदान करने वाली हैं। तभी तो पुत्री जन्म को तुलसी रामभक्ति के फल के सदृश मानते हैं -
सोह सैल गिरिजा गृह आए¡।
जिमि जनु रामभगति के पाए¡।।
- संपादक
जून २००८ अंक
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