तुलसीबाबा कथा के क्रम में तनिक सा अवसर मिलते ही अपने वांछित समाज के आचार के संकेत बड़ी कुशलता से देते हैं। लोग प्राय: बालि-वध के औचित्य-अनौचित्य पर लंबी-लंबी बहस करते रहते हैं। बहस को एक ओर खिसकाकर अगर देखें तो पता चलता है कि इस अवसर का लाभ उठाकर तुलसी ने अपने काव्यनायक के मुँह से स्त्री के प्रति सामाजिक आचरण की मर्यादा की व्याख्या की है।
यों तो स्त्री-मात्र सम्माननीय है, उसके प्रति कुदृष्टि रखनेवाला व्यक्ति असामाजिक आचरण का अपराधी है अत: दंडनीय है। स्त्री-मात्र के प्रति मातृभाव से ही हम वासनाओं पर विजय प्राप्त कर सकते हैं। इसीलिए हमारे यहाँ मातृपूजन किया जाता है, कन्याओं को पूजनीय माना जाता है। भारत के कई प्रांतों में बालिका को माँ /अम्मा/इमा कहकर पुकारना इसी संस्कार का परिचायक है। अत: स्त्री अवध्य है, उसके प्रति किसी भी प्रकार का हिंसक आचरण पुरुष की पौरुषहीनता का प्रतीक है।
यह तो हुई स्त्री-मात्र के प्रति दृष्टि की बात। लेकिन यहाँ विशेष प्रसंग उपस्थित है। छोटे भाई की पत्नी, बहन, पुत्र की स्त्री और कन्या - ये चारों बराबर हैं। इनके प्रति जिसकी दृष्टि में वासना आई - इनके प्रति जिसके मन में कामभाव जागा - वह अभागा भला पुरुष है क्या! वह महापातकी है! वह समाज और सामाजिकता को कलंकित करता है। इसीलिए तुलसी के राम व्यवस्था देते हैं -
ताहि बधें कछु पाप न होई!
इस प्रसंग में एक और संकेत निहित है जो तुलसी बाबा के स्त्रीविमर्श का अनिवार्य हिस्सा है। वह यह कि राम बालि को अतिशय अभिमानी और मूढ़ मानते हैं क्योंकि वह पत्नी के परामर्श की उपेक्षा करता है -
`नारि सिखावन करसि न काना´।
रावण भी इसी प्रकार का आचरण करता है और मंदोदरी ही नहीं, स्त्री-मात्र का उपहास करता है - मखौल उड़ाता है - उनके आठ-आठ अवगुण गिनाता है। लेकिन तुलसी की दृष्टि में वह मूर्ख, खल और अभिमानी है। स्त्री के परामर्श पर ध्यान न देना रावण के भी विनाश का सूचक है - बालि की तरह!
- संपादक
मई 2008 अंक
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