मित्रो!
हमने बडे धोखे खाए हैं। पग-पग पर छले गए हैं। जाने कितनी बार किस किसने हमें ठग लिया और हम अपनी भलमनसाहत की दुहाई देते रहे। भलमनसाहत भी क्या कोई बुरी चीज है ? हर बार हम यही पूछते रहे कि हमने तो किसी का बुरा नहीं किया था; किया क्या, सोचा तक न था; फिर भला हमीं क्यों प्रवंचना के शिकार हुए हर बार?
पर हम यह क्यों नहीं सोचना चाहते कि भलमनसाहत को अगर विवेक का मार्गदर्शन न मिले तो वह भीषण दोष बन जाती है। क्या हमने कभी इस बात पर विचार किया कि ग्राह्य और अग्राह्य के बीच के फर्क को न समझकर सहज विश्वासी होना आत्महत्या की शुरूआत है। सृष्टि द्वंद्वात्मक है परंतु मनुष्य को द्वंद्व से मुक्त होने पर ही शांति मिलती है। भले और बुरे के द्वंद्व में दोनों को अलग-अलग पहचानना ही होगा। ग्रहण और त्याग का हंस जैसा विवेक इस पहचान के बिना संभव नहीं। यह विवेक आने पर ही भलमनसाहत की सार्थकता है क्योंकि तभी हम दोष और दोषी से दूर रह सकते हैं तथा गुण और गुणी का वरण कर सकते हैं।
अपने प्रभु पर अनन्य निर्भर भक्त के लिए ही यह संभव है कि वह दुरित को काटने और भद्र को बाँटने की प्रार्थना करके सब कुछ को उसके हवाले कर दे। ऐसा भोलापन प्रभु को रिझाता है और प्रभु की यह रीझ भक्त को विवेक देती है। ध्यान देने की बात है, प्रभु विवेक देता है, लेकिन उसके प्रयोग में भक्त स्वतंत्र है। यों, चुनना तो होगा हमें ही - गुण और दोष के बीच तमीज़ करके ; वरना दिव्य विवेक भी छूँछा रह जाएगा। हमारा दोष यही है कि विवेक होते हुए भी हमने बार-बार गलत चुनाव किया, दोष का वरण किया, अपने लिए अपने हाथों नरक रचा। जानबूझ कर भलमनसाहत को आत्मघाती बना डाला।
ऐसे द्वंद्व के समय तुलसी बाबा की वाणी सुन ली होती तो शायद विवेक जग जाता। बाबा कह रहे हैं कि खल अगर किसी सज्जन के साथ गठबंधन कर ले, तब भी अपनी स्वाभाविक मलिनता को नहीं छोड़ता। अभंग है खल की मलिनता। इतना ही नहीं, ये खल बड़े मायावी हैं। साधु का वेष बनाकर आते हैं, सुंदर रूप धर कर आते हैं। पर वेष और रूप की साधुता और सुंदरता से रावण और मारीच की स्वभावगत कुरूपता छिप भले जाए, मिटती नहीं है। भलमनसाहत का ढोंग करके राहु और कालनेमि सदा से भलों का छलते आए हैं, लेकिन उनकी दुष्टता अंततः जग जाहिर हुई ही है।
यह सब जानकर भी अगर कोई दुष्टों के साथ भी भलमनसाहत का ही आचरण करता जाए तो उसे भलामानुस नहीं मूर्ख और मूढ़ ही कहा जाना चाहिए - वह इस गुणदोषमय द्वंद्वात्मक जगत के योग्य नहीं ! अपनी इसी अयोग्यता के कारण हम बार-बार धोखा खाते हैं, छले जाते हैं, पिटते हैं और हारते रहते हैं !
- संपादक
सितम्बर २००८ अंक
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